पहाड़ और मेरा जीवन – 64
(पिछली क़िस्त: सुंदर लाल बहुगुणा से जब मिला मुझे तीन पन्ने का ऑटोग्राफ )
कोई अगर मुझसे यह पूछे कि क्या कभी मेरा ऐसा मन किया कि जमीन फटे और मैं उसमें समा जाऊं, तो मैं हां कहकर मुंडी हिलाऊंगा. जमीन फटे की क्या बात करनी मुझे तो ऐसा लगा कि मैं ही फटकर कतरा-कतरा बिखर जाऊं. Sundar Chand Thakur Memoir 64
हिंदी में एक मुहावरा है – काटो तो खून नहीं. इस मुहावरे का इस्तेमाल हम अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ होने की पराकाष्ठा को दिखाने के लिए करते हैं, जब आप सन्न रह जाते हैं. मुझे यह याद नहीं आ रहा कि यह घटना बीएससी फर्स्ट ईयर की है सेकंड ईयर की, पर इसने तीन-चार दिनों तक मेरे रक्तचाप को बुलंदी पर टिकाए रखा.
हुआ यह था कि फीजिक्स और कैमिस्ट्री में सौ नंबर की परीक्षा होती थी जिसमें से 70 नंबर तो लिखित परीक्षा के थे और 30 नंबर का प्रैक्टिकल होता था. होनहार छात्रों के प्रैक्टिकल में पूरे में से पूरे नंबर आते थे, लेकिन इसका यह मतलब न था कि वे प्रैक्टिकल में कोई भी बचकानी गलती कर सकते थे. मैं खुद को होनहार छात्रों में ही गिनता था.
कॉलेज में रहते हुए मैं करीब 70 पर्सेँट प्राप्तांक लाया था, लगभग इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैंने फीगर को राउंड करके बताया है. यानी 66 को 70 बताया है. सारी मेहनत और ऊर्जा हम 70 नंबरों के लिए बचाकर रखते थे. प्रैक्टिकल के 30 नंबर के लिए भी हम तैयारी करते थे, पर वह मुख्य परीक्षा जैसी गंभीर न हो पाती थी.
यह भी सच था कि बहुत कुछ उस विषय के प्रोफेसर पर भी निर्भर करता था कि वह आपको कैसी नजरों से देखता है. हमारे फीजिक्स के प्रोफेसर रमेश चंद्र पांडे जी थे, जो आज भी उतने ही प्रखर और युवा दिखते हैं. इस बार मैं जब भी पिथौरागढ़ जाऊंगा, उनसे जरूर मिलकर आऊंगा. वे जितने अच्छे प्रफेसर थे उतने ही बेहतरीन वक्ता भी थे. उनके छोटे बेटे चिंटू को मैंने गणित का ट्यूशन पढ़ाया था, तो उनकी नजर में मेरी भी बहुत कद्र थी.
मुझे ऐसा भी लगता था कि वे मेरे कविता लिखने से भी प्रभावित थे क्योंकि वे खुद भी कवि हृदय थे और कविताएं लिखते भी थे. गुरू और शिष्य के बीच यह पारस्परिक सम्मान बहुत पवित्र होता है. आज भी उस घटना को याद कर मैं अपराध बोध से भर जाता हूं कि मेरा तो चलो ठीक है, मैं काटो तो खून नहीं मुहावरे से जिंदा गुजरा, लेकिन पांडे सर को जो जलालत झेलनी पड़ी, उसका क्या?
हुआ यह कि ज्यादा से ज्यादा अंक लाने के लिए चटक बनने की कोशिश में मैं जितनी गंभीरता से मुख्य परीक्षा की तैयारी कर रहा था, मैंने प्रैक्टिकल को उतना नजरअंदाज किया हुआ था. नतीजतन मैंने पाया कि प्रैक्टिकल के दिन मेरा आत्मविश्वास बहुत डिगा हुआ था. एक-दो फॉर्मूले थे, जो मुझे याद नहीं हो पा रहे थे. मैंने उन्हें एक कागज पर लिख लिया और कॉलेज जाते हुए पूरे रास्ते उन्हें याद करने की कोशिश करता रहा.
कॉलेज पहुंचने तक वे मुझे बहुत हद तक याद हो गए थे, पर जाने मेरे दिमाग में क्या आया कि मैंने कागज को फेंकने की बजाय अपनी जेब में रख लिया. प्रैक्टिकल जब शुरू हुआ, तो मैंने सबकुछ दुरुस्त किया, पर संयोग से एक जगह मुझे कागज में लिखे फॉर्मूले का ही उपयोग करना पड़ा. मैं सुनिश्चित करना चाहता था कि फॉर्मूले का सही उपयोग हो. कागज मेरी जेब में ही पड़ा था. मैं पेशाब करने के बहाने गया और फॉमूले को कागज से हाथ में लिखकर कागज मोड़कर पैंट में खोंस लिया.
प्रैक्टिकल पूरा कर मैं जब कॉपी जमा करने पांडे सर के कमरे में गया, तो वहां उनके साथ नैनीताल से आए एक्जामिनर भी थे. कॉपी लेते हुए एक्जामिनर ने एक-दो सवाल पूछे और फिर अचानक अपनी कुर्सी से खड़े हो मेरे पास आ गए. मैं कुछ समझ पाता कि इससे पहले ही उन्होंने मेरी पैंट में खोसा हुआ कागज का टुकड़ा पकड़कर बाहर खींच लिया. ये क्या है? वे कागज मुझे दिखाते हुए पूछ रहे थे. Sundar Chand Thakur Memoir 64
गालिब के शेर, वो आए हमारे घर में, खुदा की कुदरत है, कभी हम उनको, कभी हम अपने घर को देखते हैं, की तर्ज पर मैं कभी उनके हाथ में फंसा कागज का टुकड़ा देख रहा था और कभी सामने बैठे पांडे सर के चेहरे पर उड़ता हैरत का भाव. मुझे यह बात कभी समझ नहीं आई कि दूसरे जिले से आए उस एक्जामिनर को यह भान कैसे हुआ कि मेरी पैंट की अंटी में कागज की एक पुर्जी है जबकि पैंट के बाहर बाकायदा स्वेटर था. उन कुछ लम्हो में ‘काटो तो खून नहीं’ मुहावरा जितना सटीक होकर मुझ पर लागू रहा मनुष्य सभ्यता के इतिहास में उतना सटीक वह शायद ही किसी और पर लागू हुआ होगा.
मैं यह बात पूरे होशोहवास में और इस तथ्य की पूरी जानकारी के साथ लिख रहा हूं कि मेरा लिखा यह संस्मरण पांडे सर को जरूर पढ़ाया जाएगा. अब उन्हें पैंतीस वर्ष पहले की यह घटना याद होगी भी या नहीं पर उन्हें हैरानी जरूर होगी कि एक बंदा जो अखबार का संपादक है और इससे पहले भारतीय सेना का अफसर रह चुका है, वह प्रैक्टिकल परीक्षा में पैंट की अंटी में पुर्जी क्यों छिपाएगा.
![Sundar Chand Thakur Memoir 64](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2020/01/IMG-20200113-WA0000.jpg)
अब मैं उन्हें किन शब्दों में बताऊं कि यही बात तो मुझे भी याद नहीं आ रही कि आखिर मेरा उद्देश्य क्या रहा होगा. क्योंकि प्रैक्टिकल में सही से प्रयोग करने के नंबर मिलते थे और उसके बाद एक्जामिनर दो-चार सवाल पूछ लेता था. वैसे भी पांडे सर उदार प्रवृत्ति के थे और उनकी नजर में अगर मैं अर्जुन नहीं था, तो दुर्योधन भी नहीं था. नकुल-सहदेव जैसा तो मैं था ही. तीस में से सत्ताइस-अट्ठाइस नंबर तो वे दिला ही देते.
खैर, मैं जितनी देर उस एक्जामिनर के आगे खड़ा रहा, मेरी गर्दन नीचे झुकी ही रही. मैं चाहता था कि जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं. एक्जामिनर ने मुझसे एक-दो सवाल पूछे और मुझे चलता किया. मैं मुर्दे की तरह उस कमरे से बाहर निकला. अगले कुछ दिनों तक मैं इसी घटना के बारे में सोच-सोचकर खुद के भीतर गाहे-बगाहे तनाव के तूफान खड़े करता रहा. न खाने का मन करे, न दोस्तों के बीच जाने का मन करे. सुबह खिचड़ी बना लेता और रात को भी वही बची हुई खिचड़ी खाकर पड़ा रहता. अगर एक्जामिनर ने मुझे प्रैक्टिकल में अंडा दे दिया, तो मैं तो गया था काम से. मुख्य पेपर का कोई भरोसा नहीं. 70 में से अगर मेरे 40 ही नंबर आए और प्रैक्टिकल में जीरो, तो कहां तो मैं भौतिक शास्त्र में 75 से ज्यादा नंबर ला डिस्टिंक्शन लेना चाहता था, कहां मैं 40 प्रतिशत ला बमुश्किल पास होने वालों में गिना जाने वाला था. मैं आने वाले कई दिनों तक इसी उधेड़बुन में रहा, सोच-सोचकर अपने में ही घुटता हुआ.
आज मैं सोचता हूं कि उस उम्र में हमारे लिए परीक्षाओं में आने वाले नंबरों का कितना ज्यादा मूल्य होता है, जबकि वास्तविक जीवन में उसकी भूमिका बहुत जल्दी खत्म हो जाती है. बहरहाल, परीक्षाफल मेरे लिए सुखद हैरानी लाया. मुझे प्रैक्टिकल परीक्षा में तीस में से छब्बीस नंबर मिले थे और भौतिक विज्ञान में मेरी डिस्टिंक्शन भी आई. मैंने पांडे सर का मन ही मन कितना शुक्रिया किया, यह मैं ही जानता हूं. हालांकि उन्हें कभी इसके बारे में बताया नहीं.
मेरे इस संस्मरण को पढ़ने के बाद ही सर जान पाएंगे कि उस घटना ने मुझे किस तरह झिंझोड़कर रख दिया था. इतना कि आज याद करते हुए भी मैं उस मन:स्थिति को महसूस कर पा रहा हूं, जो मेरी पैंट की अंटी से बाहर निकली उस एक्जामिनर की उंगलियों में फंसी बित्ती-सी पुर्जी को देखकर बनी थी, पुर्जी जिस पर मैंने एक-दो नंबर ज्यादा लाने के वास्ते कोई तो एक-दो लाइन का फॉर्मूला लिखा था. Sundar Chand Thakur Memoir 64
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
![My Childhood by Sundar Chand Thakur, Sundar Chand Thakur, दिल्ली, सुन्दर चंद ठाकुर, सुन्दर चंद ठाकुर के संस्मरण, सुन्दर चन्द ठाकुर](https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img/https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2018/08/Sundar-121x150.jpg)
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
1 Comments
mohan singh nath
bhai ji aap kis year me gym jate the