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सूरज की मिस्ड काल – 9

उजाले के कमांडो

आज सुबह जरा जल्दी जग गये. जल्दी मतलब पांच बजे. इत्ता जल्दी जगने पर समझ नहीं आया तो फ़िर पलटकर सोने की कोशिश की. लेकिन जैसे चुनाव में एक के चुनाव क्षेत्र की टिकट दूसरे को मिल जाती है वैसे ही हमारी नींद लगता है किसी और को एलॉट हो गयी थी. हम असंतुष्ट प्रत्याशी की तरह भुनभुनाते रहे. लेकिन बिस्तर से त्याग पत्र नहीं दिया. क्या पता फ़िर नींद आवंटित हो जाये.

थोड़ी देर बाद दरवाजा खोलकर देखा तो सड़क पर बत्तियां जल रही थीं. हम भी अपनी बत्ती जलाकर टीवी खोलकर लेटे-लेटे टीवी देखते रहे. बीच में फ़ेसबुक के घाट पर जाकर शुभप्रभात का नारा लगाया. लेकिन कहीं जबाब न मिला. लगता है सब जाकर फ़िर सो गये थे या फ़िर वे भी कहीं शुभप्रभात कहने निकल गये होंगे.

लेटे-लेटे बोर हो गये तो प्रात:भ्रमण पर निकल लिये! सूरज भाई अभी दिख नहीं रहे थे लेकिन उजाला सडक, पेड, पौधों पर उजाला पसरा हुआ था. ऐसा लग था कि वीआईपी सूरज की सवारी निकलने के पहले उजाले ने कायनात के चप्पे-चप्पे पर अपने कमांडो तैनात कर दिये हैं.

सड़क पर एक आदमी मोबाइल पर बात करता जा रहा था. बांया हाथ मोबाइल थामे कान पर था. दांया हाथ तेजी से हिला रहा था. ऐसा लग था कि बायें हाथ के हिलने की कमी दायें हाथ से पूरी कर रहा था. इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि जब बांयें भाग निष्क्रिय हो जाते हैं तो दांये भाग ज्यादा हरकत करने लगते है. वह आदमी पहले ध्यान से बात करने में जुटा था लेकिन हमारे पास आते हुये बातचीत में लापरवाही का प्रदर्शन करने लगा.
एक महिला शॉल को लक्ष्मण रेखा सरीखे लपेटे आहिस्ते-आहिस्ते जा रही थी. उसके पीछे एक लड़की अपने कुत्ते के साथ टहल रही थी. लड़की शायद कुत्ते को टहलाने निकली थी. लेकिन कुत्ते की हरकतों से लग रहा था कि वही लड़की को टहला रहा है. वह लड़की के आगे-आगे गाइड सरीखा चलते हुये अपनी चेन से लडकी को अपने पीछे घसीट रहा था. लड़की कुत्ते की जंजीर पकड़े संतुष्ट भाव से चलती जा रही थी.

आगे सूरज भाई आसमान से उतरते दिखे. देखकर मुस्कराये. किरणे भी देखा-देखी मुस्कराने लगीं. फ़िर न जाने क्या सोचकर खिलखिलाने लगीं. इससे उनके अंदर का रंग-बिरंगा पन दिखने लगा.

सडक पर एक स्वस्थ आदमी भी टहलता दिखा. वह हमको किफ़ायत से एक आंख से देख रहा था. दूसरी आंख से सामने देख रहा था! उसके देखने से हमें परसाई जी की बात याद आ गई- कानून अंधा नहीं काना होता है. एक ही तरफ़ देखता है.
सडक की दूसरी तरफ़ धूप ने पेड़ों पर कब्जा कर लिया था. फ़ुनगियों पर पीला रंग पोत दिया था. वह रंग धीरे-धीरे नीचे जा रहा था!

सडक पर बच्चे साइकिल से स्कूल जा रहे थे. एक बच्चा साइकिल का हैंडल छोड़कर साइकिल चला रहा था! और रोमांच लाने के लिये वह ताली भी बजाता जा रहा था. लेकिन चढाई पर आने पर उचककर साइकिल चलाने लगा.

लौटकर कमरे पर आये तो सूरज भाई बाहर ही मिल गये. चाय आ गई थी. हम दोनों चाय की चुस्की लेते हुये देश-दुनिया के बारे में बात करने लगे.
सुबह हो गयी है.

 

16 सितम्बर 1963 को कानपुर के एक गाँव में जन्मे अनूप शुक्ल पेशे से इन्जीनियर हैं और भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं. हिन्दी में ब्लॉगिंग के बिल्कुल शुरुआती समय से जुड़े रहे अनूप फुरसतिया नाम के एक लोकप्रिय ब्लॉग के संचालक हैं. रोज़मर्रा के जीवन पर पैनी निगाह रखते हुए वे नियमित लेखन करते हैं और अपनी चुटीली भाषाशैली से पाठकों के बांधे रखते हैं. उनकी किताब ‘सूरज की मिस्ड कॉल’ को हाल ही में एक महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ है

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Girish Lohani

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