सारे भारत में जनजातीय इलाकों में जो कौम बसती थी उनको रोजी-रोटी जिंदगी, जंगलों से चलती है. उनका उन पर परम्परागत हक था. बैंकर बनिये अंग्रेज आये, मुनाफे के लिए जंगल कटाये. जब जंगल कम होने लगे तो इन हकों को खत्म करे तो हमारे पशुचारक जाबांज पूर्वजों ने इस जुल्म के खिलाफ़ आंदोलन किये. कहीं तीर कमानों से तो कहीं अपने ही जंगल जला के कि जब हमें नहीं मिलना तो इनका क्या करना! आजादी के बाद काले साहबों ने भी इस जुल्म की इबादत बनाये रखी तो उत्तराखंड में फिर जंगल आन्दोलन हुए जिनमें एक आन्दोलन सर्वोदयियों के माध्यम से चला और उसने अन्तराष्ट्रीय नाम, इनाम ‘चिपको ‘ के नाम से कमाया, इनामात कमाये और इसका रिजल्ट भी हर जन आन्दोलन की तरह नकारात्मक ऐसा रहा कि 1980 के वन अधिनियम ने पत्ते तोड़ना, मुर्दे जलाते समय अगर घास भी जल जाये तो वन विभाग जुल्म काट सकता था.
(Hari Bhari Umeed Review)
क्या शब्द है जुल्म! मुर्दे टायर से भी जलाये जाने लगे. ‘चिपको’ व्यंग का पर्याय बना. किसी ने कहा ये अदर के बाहर के ठेकेदारों की लड़ाई थी. किसी ने कहा अरे इतने ढेर सारे इनाम कैसे यह पा गया..! एक ‘हकोहकक’ का आन्दोलन कैसे पर्यावरण आन्दोलन बन गया… ! बौद्धिकों की माया ठैरी. अब बातें, बहसें तो होती रहने वाली ठैरी. घर बैठे किसी अंजान अनुपस्थित का पोस्टमार्टम करने का मजा ही कुछ और है. पर इसका क्या चरित्र था, इस जानेमाने, कम्पटीशन में आने वाले चिपको पर इतिहाकार, एक्टिविस्ट, उत्तराखंड के गूगल कहे जाने वाले शेखर पाठक की एक पुस्तक आयी है ‘हरी भरी उम्मीद.‘ आइये बैठे ठालें देखें कि यह मोटी 601 पेजा, मोटे दामों मूल्य 995 वाणी प्रकाशन दिल्ली से निकली किताब, कहती क्या है!
किसी भी पुस्तक के लिए यह स्वास्थकर है कि उसके लेखक, पाठक, आलोचक तटस्थ हो. हालांकि तटस्थता खुद में एक सापेक्ष चीज है. मनुष्य तटस्थ नहीं हो पाते. वह अपनी कंडीशनिंग में पूर्वाग्रही होते हैं. माइनर कमजोरी को तो इगनोर किया जा सकता है पर मेजर कमजोरी इतिहास को बकवास बना देती है. हर लेखक की जब तक खिड़की खुली न हो,हवा का आना जाना न हो तो किताब का कथ्य, वायस्ड हो जाता है. अब शेखर पाठक स्वयं चिपको के एक्टिविस्ट रहे हैं इसलिए उनकी तटस्थता को खतरा हो सकता है.
अरे! आगे क्यों इतनी बहस करे चल कर समझें कि वाकई यह पुस्तक उम्मीद से है! एक बार मुझ से एक बस्तर के निवासी ने सवाल पूछा था कि क्या बात आपके वहां चिपको में खूब इनाम मिले! जंगल आन्दोलन तो हमने भी किये पर हमें इनाम नहीं, डंडे मिले. गांधी जी की तरह कहें, मांगी रोटी, मिले पत्थर. राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास ‘आमचो बस्तर’ में इसका जिक तफसील से है. मैंने कहा -हमारे भी इनाम सर्वोदयियों को ही मिले.
उग्र वाले तो वहां भी रह गये पर खासों को कुछ न कुछ प्रसाद ऐसे नहीं तो वैसे मिला. फिर चिपको चलाने वाला हर आन्दोलनकारी नेता आन्दोलनकारी से पहले, पत्रकार था या मीडिया में उसकी पैठ थी. इस आंदोलन को मूल तया सर्वोदयियों ने ही हैंडल किया इसलिए इस आंदोलन में गांधीवादी खूबी, कमजोरी दोनों रही. आज जब शेखर पाठक ने पाठकों के लिए एक शोध ग्रंथ लिखा जिसमें वह ‘हरी भरी उम्मीद’ देखते हैं. हमारी दिलचस्पी जगी कि देखें कि कैसे यह किताब हमारी तबियत को कितना हरीभरी करती है, हमारी आने वाली उदास, तटस्थ पीढ़ी को उम्मीद जगाती है.
किताब जंगल आन्दोलन पर आधारित है पर यह मुख्यतया चिपको को कवर करती है. शेखर अपनी पुस्तक के प्रारम्भ में ही हमारी जरूरतों, अस्तित्व व पहचान को जंगल से जोड़ते कहते हैं –
अस्तित्व है तो पर्यावरण है. उत्तराखंड के गांवों में अपने जल जंगल और जमीन को कायम रखना हर समाज के लिए सिर्फ अपने को नहीं,एक सभ्यता को कायम रखने और संवारने की लड़ाई है… इसलिए चिपको का अन्य जंगलात आन्दोलनों का इस समाज में प्रगट होना आश्चर्य नहीं,इसके स्वभाव की तरह जाना चाहिए (पेज 32)
शेखर अपने खास अंदाज में इसे शोध ग्रन्थ के अंदाज में ही इसे पेश किये हैं पर उसमें शोध ग्रन्थ सी खुश्की नहीं है. फिर जंगलों पर, पर्यावरण पर अगर वह लिखते हैं तो उनका काम उनको सबसे पहले हक देता है. पुस्तक के कुल पन्दरह अध्याय, उत्तराखंड के भूगोल आर्थिक आधार की सैर करते हुए, औपनिवेशिक शासन को छते आजादी से पूर्व के जंगलात आंदोलनों की खबर लेते हैं तदुपरांत चिपको से पहले के परिदृश्य को दर्शाते हुए चिपको आंदोलनों के विभिन्न चरणों का सिलसिलेवार वर्णन देते हैं. आपातकाल में ठहरे हुए चिपको एक्टीवटी की बात करते हुए, 1980 के वन अधिनियम के प्रभाव का वर्णन करते, चिपको की वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए वह अपने अंदाज से इसके प्रभाव व पड़ताल करते उसके प्रभाव व आगे सम्भावनाओं को दर्शाते हैं. आंदोलनों को सम्मान देते कहते हैं –
यह भी समझने योग्य है कि जंगल सत्याग्रह तथा बेगार आन्दोलन ने इस क्षेत्र को भारतीय स्वतंत्रता सग्राम से जोड़ा तो चिपको ने देश में आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की शुरूवात की. (पेज 394)
आजादी के बाद भी जंगल,जंगल वासी लूट पर शेखर लिखते हैं, 1947 के विभाजन के बाद तराई में अंधाधुंध कटाई ने प्रकृति,पर्यावरण,आदमी का संतुलन बिगाड़ा. उजड़े समूहों ने यहां उजाड़ा. तराई में बड़े भूपतियों कम्पनी के आगमन और जनजातियों के अधिकारों की कमी समानातर चलती रही…
किसी खास स्थल में उत्पन्न आन्दोलनों को समझने के लिए वहां के जन को जानना जरूरी है. इसलिए शेखर कह देते हैं –
जंगल की बात करें तो लोक को जानना जरूरी है. जंगल जन के गहरे संबंध से उत्तराखंड में अब तक जुड़े रहे आत्मनिर्भरता बनी रही पर जब तक एक दूसरे से अलग कर दिये गये,बिछुड़ गये तो जन पोषण पर्यावरण दोनों की समस्या आयी. (पेज 76)
(Hari Bhari Umeed Review)
शेखर की पुस्तक यह ध्वनि निकालती है कि आजादी के बाद उत्तराखंड का हर आन्दोलन चिपको की शाखा है. वह ऐसा सागर है जिसमें सारी नदिया मिलती हैं. आज जब यह सागर यहां की सत्ता,प्रशासन के अगस्तय मुनियों ने सोख लिया है, वह कभी उत्तराखंड युवा जागरण का श्रोत था. यथा –
चिपको की प्रेरणा एक असम्भव से लगने वाली प्रकिया की तरह सब पर असर करती थी. जब दूरस्थ हिमालय में ग्रामीणा के प्रतिरोध को इस तरह सामने रखा जाता था कि वे पेड़ के स्थान पर अपने को काटने की प्रस्तुति करने का जो चित्र उठा सके, तो इसका असर कहीं भी आम लोगों , महिलाओं युवाओं पर बहगुंठित होता है. (पेज 376)
वह लिखते हैं – दूरस्थ दुगर्म इलाके में रहने वाले चुप समाज अन्याय के प्रतिकार का नया मुहावरा कैसे गढ़ते हैं यह उत्तराखंड में हुए जंगलात संबंधी प्रतिरोध से अच्छी तरह समझा जा सकता है. (पेज 76)
एक विद्वान ने पुस्तक पूरी पढ़ी तो प्रतिक्रिया किसी ने जाननी चाही तो उन्होंने कहा इसे देख कर तो लगता है सारे उत्तराखंड में आन्दोलन ही आन्दोलन हुए.
शेखर, जंगलात की आलोचना करते हुए मैकेनेयर का कथन रखते हैं – जंगलात विभाग मुख्य रूप से ग्रामीणों से झगड़े के लिए बना है. (पेज 86)
शेखर सर्वोदय को और उसमें भी गोपेश्वर की सर्वोदयी संस्था को और उसमें भी चंडीप्रसाद भट्ट जी को केन्द्र बनाते से लिखते हुए प्रतीत होते हैं. यद्यपि वह यह भी स्वीकार करते हैं कि वामपंथियों ने भी जंगल आंदोलन किये. हां! उन्होंने कामरेड गोविन्द सिंह रावत जी, सुदेशा देवी का जिक्र सही अंदाज में करते हुए न्याय किया जिनको बहुत से लेखकों ने उपेक्षित रख दिया था. उनके सारे लेखन में चंडी प्रसाद भट्ट जी के प्रति स्वाभाविक लगाव दिखता है. वह लिखते हैं –
1982 में चण्डी प्रसाद भट्ट को एशिया का बड़े सम्मान रमन मैगेसिस दिये जाने की घोषणा हुई. यह पुरूष्कार उन्हें चिपको आंदोलन के संगठन और नेतृत्व के लिए दिया गया था. (पेज 37)
चिपको आंदोलन के नेताओं को मिले इनामातों व बहुत से एक्टिविस्टों की असंतुष्टि पर वह लिखते हैं. दूसरी तरफ विभिन्न चिपको समूहों, नेताओं, कार्यकर्ताओं तथा शुभ चिंतकों में एक अघोषित अनबन और असंतोष पैदा हो रहा था… यह सामान्य मानवीय कमजोरी कही जा सकती है और चिपको आंदोलन में शामिल लोग आखिर सामान्य मनुष्य थे. पर इसके कारण विभाजन और अविश्वास हुआ था. (पेज 378)
वह आन्दोलन पर उपरी तौर पर लिखने समझने शोधकर्ताओं, बौद्धिकों पर तंज मारते हैं-
इसी कारण कहता हूं कि सामाजिक आंदोलनों की रचना प्रकिया अत्यतं जटिल होती है और उसे गणित या ज्यामितीय के सिद्धातों से समझना और भी कठिन है. दशोली ग्राम स्वराज्य संघ वनाधिकार का स्पष्ट अर्थ था संरक्षण और सदुपयोग (पेज 398)
आपातकाल में आंदोलन के क्षीण होने भटकने पर शेखर सही कहते हैं –
आपातकाल के बाद का यही दौर था जब कुछ कार्यकर्ताओं ने जंगलात संबंधी अपनी विकास यात्रा खारिज कर दी और शोधकर्ताओं ने चिपको आंदोलन की भाषा ही बदल दी. (पेज 452)
वह भी स्वीकारते हैं – आज लगता है कि चिपको आन्दोलन वह बना दिया गया है जो वह नहीं था. वह आर्थिक और पारास्थितिकी का समन्वय था. आज उसे जिस तरह परिभाषित किया जाता है उसे आम लोगों के वनाधिकार का सम्मान कायम नहीं रह सकता है. यहीं से चिपको को विलम्बित उड़ान लेनी होगी. (पेज 507)
पर यह कैसे हो गया इसकी बात पुस्तक में कम है. चिपको पर लगे अरोपों पर कहते हैं –
घनश्याम शैलानी उनका यह मानना था कि जब कोई सामाजिक आंदोलन हमें बड़ा, समझदार (नेता तथा कार्यकर्ता) नहीं बनाता है उसे (आन्दोलन को) छोटा बनाने लगते हैं. यह चिपको पर ही नहीं उत्तराखंड के आन्दोलनों पर सही और तल्ख टिप्पणी थी. (पेज 475)
वह उत्तराखंड में चले जंगल आंदोलनों की विशेषता इन शब्दों में करते हैं – यह कुछ प्रांतीय या राष्ट्रीय गतिविधियां थीं द्वारा सविनय आंदालनों को न समझे जाने से जुड़ा था और अहिंसक आन्दोलनों को अपनी बपौती समझने से भी शायद उन्हें पता नहीं था या वो नहीं मानना चाहते थे कि उत्तराखंड में सविनय और अहिंसात्मक जंगल सत्याग्रह की शुरूवात महात्मा गांधी के भारतीय दृश्य पटल पर आने से पहले ही हो चुकी थी…” (पेज 437)
शेखर की जनआन्दोलनों की व्याख्या उनकी गहरी समझ को दर्शाता है – गोविद सिंह रावत, कमलाराम नौटियाल, चदंन सिंह राणा आदि ऐसे स्थानीय नेताओं के रूप में विकसित हो रहे थे, जो पार्टी आदर्शों के साथ जन आन्दोलनों को भी पकड़ लेते थे. वे जितना ऊपर से आ रहे पार्टी का आदेश या अपने वाम विचारों से संचालित क्षेत्र थे, उतना ही समाज में दिखाई रहे अन्तर्विरोधों से थे. उनका तरीका सर्वोदयी कार्यकर्ताओं से भिन्न था . उनके नारों में ताजगी नहीं थी पर दृष्टि में संक्रमित क्षेत्रीयता भी न थी.” (पेज408)
वह चिपको आंदोलन को 1970 के बाद उत्तराखंड में हुए युवकों के जागरण का कारण मानते हैं. कुमाऊं में उपजी गांधीवाद, मार्क्सवाद के फ्यूजन वाली उत्तराखंड सघर्षवाहनी के लिए वह कहते हैं – वाहनी को चिपको आंदोलन का आविष्कार कहा जा सकता है. आगे भी वह कहते हैं – एक सकारात्मक जनतानत्रिक बदलाव का सपना उनके मन में अंकुरित हो रहा था. युवाओं के मन में अपने समाज के लिए सपने देखने का दुलर्भ गुण पैदा करना चिपको आंदोलन का अनन्यतम् पर किसी अध्येता को न दिखायी दे सका योगादान माना जायेगा. (पेज 404)
शेखर ने चिपको के बाद चिपको के कुछ दावेदारों पर तंज कसा है – कुछ लोग कहते हैं कि 1977 के अंतिम महीनों में ब्रिटिशवनविद बार्वे वेकर ने भारत आगमन के बाद बहुगुणा संरक्षणवादी हो गये और ठीक इसी संशय से चिपको आंदोलन के पारिस्थतिक और महिलावादी रूप का आविष्कार हुआ. बहुगुणा के साथ तब वंदनाशिवा-जयंता वन्द्योपाध्याय इसके विचारक और प्रचारक बने. (पेज 402)
वह टेहरी के एक्टिविष्ट बीच बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जरधारी के उस पत्र को उर्द्धत करते हैं कि जिसे उन्होंने एक पत्र ‘लिंक’ में इस आंदोलन के अपहरण को लेकर वंदना शिवा की मक्कारी को उजागर किया… हम लोगों की सरलता और साहस का वन्दना शिवा जैसी चतुर, लालची और स्वार्थी लोगों द्वारा किये जा रहे ‘शोषण का विरोध होना चाहिए’ (पेज 420)
चिपको आन्दोलन के बाद उसके मूल नेताओं में जो आपसी द्वद नेतृत्व के यश को लेकर जो अप्रत्यक्ष हुआ और उत्तराखंडी युवा (विशेषकर कुमाउंनी) जिस तरह चंडीप्रसाद जी के पक्ष में हुए, इन मतभेदों का जिक्र करते वह चंडीप्रसाद जी का पक्ष लेते से दिखते हैं. कहते हैं – मतभेद का जिकक्र बहुगुणा ने अपने एक पत्र में किया था पर उसी पत्र में उन्होंने भट्ट को ‘भविष्य का जननायक कहा था. ( 451)
एक जगह लिखते हैं – नेतृत्व को लेकर नेतृत्व के केन्द्र में दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल स्पष्ट रूप से था और चण्डी प्रसाद भट्ट भी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद नेतृत्व की सामूहिकता स्पष्ट थी, जिसको विकसित करने में स्वयं की भूमिका स्पष्ट थी (पेज 401)
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यह कथन विरोधाभासी लगता है. नेतृत्व, यथार्थ राजनीति में लोकतंत्र में भी सामूहिक नहीं होता. वह सुन्दरलाल बहुगुणा पर आक्रमक लगते हैं यथा – सुंदरलाल बहुगुणा ने जिस तरह अपने दशकों में विकसित जंगलात संबंधी समझ को एकाएक अलग रख दिया था वह आश्चर्य से अधिक शंकाएं पैदा करता है” (पेज 455)
एक जगह वह कहते हैं – विरोध के पक्ष में थे… सुंदरलाल बहुगुणा अपनी यात्राओं के कारण नौजवानों के सम्पर्क में थे. पर जो नौजवानों को बहुगुणा अपने से अलग तथा कभी-कभी दूर लगते थे (पेज 402)
यह समझना असम्भव है कि शेखर ने चिपको के संबंधित कोई भी किताब छोड़ी हो पर पुस्तक में उनका जिक्र नहीं दिखता फिर या पुस्तकों पढ़ा नहीं है या फिर उसे उद्धरत करने से बचे हैं. उन्होंने चिपको के बाद सारे चिंतन जगत में सिर्फ ‘चिपको’ शब्द को लेकर जो लड़ाई लड़ी गयी उसका जिक्रनहीं किया है. धन सिंह राणा की पुस्तक ‘सघर्षनामा’ का जिक्र और उस कथन का जिक्र तक नहीं किया जिसमें राणा के शब्दों में आन्दोलनों के बाद भावपूर्ण जनता का दर्द झलकता है –
… इसलिए जब गांव के लोग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत हों तो यह हम सबकी सामूहिक चिंता का विषय होना चाहिए जब घर ही नहीं रहेगा, ढहने या कमजोर पड़ने लगेगा तब पीतल के गहने पहन कर मंचों पर जीतू बगडवाल का खेल कर हम कब तक अपनी पहचान बचा पायेंगे? स्पष्ट कहूं तो मुझे इस तरह की किताब की अपेक्षा नहीं की जाती थी. किताब लिखना तो बड़ों का काम है. मैं उस पीढी से हूं जिसने चिपको आन्दोलन भी देखा और उसके बाद भी धीरे- धीरे कसते हुए सरकारी अजगर को अपने अस्तित्व को निगलते भी महसूस किया है.
हमारे पहाड़ का एक गीत है – ज्यों भाईयों की हूंणी होली तो कट्ठा गला. अणमेल भाईयों कुछ लोग ठट्ठा लगाला. यानी आने वाले दिन या तो सबका भला होगा या सिर्फ बिचौलियों के मजे पड़ेंगे. चिपको के आम सिपाहियों के लिए चिपको आन्दोलन एक किस्सा रह गया है. इस बीच जमीनी परिस्थितियां इतनी तेजी से बदले हैं कि जरूरत छीनने की नहीं बल्कि छीनने की और झपटने की पड़ गयी हैं.
हमारी कमजोरी यह है कि हम मात्र आन्दोलन करते रहे और विश्लेषण व व्याख्या का जिम्मा हमने अन्य वर्गों पर छोड़ दिया खास वर्ग के लिए चिपको एक फेशन या धंधा हो गया है. और छीनो झपटो आन्दोलन वस्तुतः चिपको का व्यवहारिक प्रश्न है. यह किताब हमने असली घरों के उजड़ने की गहरी असली चिंता है जो बौद्धिकों के सेमीनारों व नेताओं प्रशासकों के माफिया के माफीदारों के साथ गहरे संबंधों के थोथे खतरनाक इरादों पर गहरी चोट करती है.’ इस आन्दोलन के दो प्रमुख पात्रों यथा चंडीप्रसाद भट्ट, सुन्दरलाल बहुगुणा जी को मैंने करीबी से देखा है.
चंडीप्रसाद ने एक बार मुझसे ही कहा कि मैं बिनोवा भावे से कम, निम्बूदरीपाद से ज्यादा प्रभावित हुआ हूं. अपनी सोच, अपने कर्म में और अपनी कार्यवाही में वह सुन्दरलाल जी से अधिक चतुर है. शेखर ने चंडीप्रसाद जी को ही अधिक दमदार माना है वह लिखते है –
अस्कोट आराकोट अभियान 1974 के यात्रियों से चण्डी प्रसाद भट्ट इन नौजवानों को कंचित शंका से देखते थे. कदाचित वे नौजवानों से अपने से ज्यादा आक्रमकता और स्पष्टता देखना चाहते थे. वो शहरों में निलामी विरोध के मुकाबले जंगलों में प्रत्यक्ष चिपको के समर्थक थे. पर सर्वसम्मति के कारण उन्हें निलामी विरोध को स्वीकारना पड़ा. सुन्दलाल बहुगुणा अपनी यात्राओं के कारण नौजवानों के सम्पर्क में थे पर नौजवान को बहुगुणा अपने से अलग तथा कभी-कभी दूर लगते थे.” (पेज 402)
सुन्दरलाल बहुगुणा एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने जंगलों को लेकर काफी काम किया पर उनकी सबसे अधिक आलोचना उनके ही समूह ने की. देखा जाय तो चंडीप्रसाद भट्ट जी के खामोश, सहज स्वभाव, सबके साथ संबंध बनाने के उनके कुशल अंदाज ने उन्हें सुन्दरलाल जी से आगे ला दिया. इस कथन की ध्वनि के मनोविज्ञान को पाठक समझना चाहिए. कभी दो नेताओं का विरोध, नेतृत्व को लेकर अधिक, सैद्धातिक कम होता है.
महात्मा गांधी, सुभाष में विरोध नेतृत्व को लेकर अधिक था, अपेक्षाकृत सिद्धांत के. वैसे गांधी, नेहरू में भी मतभेद था पर उनकी भक्ति उन्हें गांधी के समानान्तर एक नेता नहीं खड़ा करती थी. सुन्दरलाल जी, चंडीप्रसाद जी दोनों सर्वोदयी थे दोनों हिंसा को ‘एज ए पालीसी’ एक्सैप्ट नहीं कर सकते थे. खुद उग्र समझी जाने वाली उत्तराखंड सघर्ष वाहनी सर्वोदय मार्क्स का बेमेल संघटन बन के रह गयी. उसका विभाजन भी विचारधारा के कारण नहीं, नेतृत्व के कारण हुआ.
राजनीतिक हर इतिहास में मैकियावली को ही आप वहां पायेंगे. राजनीति में यह विभाजन बारीक होते हैं जिसे जनता नहीं समझ पाती. आदर्श, राजनीति का लुभावना पक्ष है जो इस्तेमाल कम होता है. शेखर आगे कहते –
आपातकाल के बाद का यही दौर थी जब कुछ कार्यकर्ताओं ने अपनी विकास यात्रा खारिज कर दी और शोधकर्ताओं ने चिपको आन्दोलन की भाषा ही बदल दी. सुन्दरलाल ने परिभाषा ही बदल दी. (पेज 452)
यह सही है चिपको ने जंगल के सवालों पर हर अंदाज से सवाल उठाये. पर इसका भरपूर लाभ भी होशियार लोगों ने इसे तरह तरह का आकार देकर किया जिससे इसकी आकृति वैसे ही बिगड़ो जैसे सी.एम जोड समाजवाद के लिए अपना प्रसिद्ध कथन कहते हैं कि समाजवाद एक ऐसी टोप है जिससे सब पहनते हैं जिस कारण इसकी आकृति बिगड़ गयी है. ‘चिपको’ के लिए भी यह किया जा सकता है.
शेखर इसके महिला स्वरूप के बारे में कहते हैं. चिपको को महिला आन्दोलन कहने वालों के लिए वह कहते हैं –
यह अप्रत्याक्षित था पर असम्भव नहीं आखिर इन महिलाओं के भीतर भी रीणी और चिपको आंदोलन का ‘मनुष्य’ (पुरूष नहीं) विराजमान था. (पेज 465)
वह उत्तराखंड में हुए अन्य आंदोलनों को तथ्यात्मक कम, भावात्मक मानते हैं – चिपको अंदोलन में उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के आन्दोलन के अंतिम चरण (1994-95) की जैसी जिम्मेदारी न थी. उत्तराखंण्ड आंदोलन में यह हिस्सेदारी भावना प्रधान थी, इसमें दो राय नहीं है. चिपको में भी भावनाएं थीं, पर निश्चय ही उसमें तर्क और विवेक का अधिक इस्तेमाल था. (पेज 420)
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कहीं उनको प्रवाहमय लेखनी अच्छी लगती है – चिपको का कोई सर्वमान्य नेता विकसित न हो सका. यह सम्भव न था. सर्वोदय और छात्र आंदोलन ने एक रचनात्मक सामूहिकता विकसित की थी, जिनको अनेक बार व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षा ने क्षति पहुंचाई… भूदान आन्दोलन के दौर में विकसित हुई सर्वोदयी एकता चिपको आन्दोलन के उत्तरार्ध में बिखरने लगी. कार्यकर्ता अलग-अलग दिशाओं की ओर जाने लगे. निष्कीय चाहे कोई न हुआ हो पर सामूहिक उर्जा का ताप कम होने लगा. अपने अपने अजनबी सब एक तरफ हो गये. (पेज 406)
चिपको के बाद उत्तराखंड क्रांति दल के काटो आन्दोलन पर वह कहते हैं – चिपको आन्दोलन में भाग लेने वाले उत्तराखंण्ड क्रांतिदल के कतिपय सदस्यों ने एक बार पेड़ काटो आन्दोलन भी चलाया था, जबकि उन्हें यह स्मरण करने की समझ नहीं रही कि जिस वन संरक्षण अधिनियम 1980 के कारण उन्हें विकास कार्यो से रोक लगती महसूस होती थी, वह पूरे देश में लागू था. उत्तराखंड से अधिक सघन जंगलों तथा वनवासी वाले क्षेत्र इस देश में अन्यत्र भी थे… वह त्रिपाठी जी क कथन को देते हैं – पेड़ काटो अभियान तो सिर्फ डराने भर के लिए था और वोट की राजनीति को प्रभावित हाने से बचने के लिए थी. फिर वह संरक्षित क्षेत्र के बारे में नहीं बोल सके. इस तरह का चतुराई भरा और और अस्पष्ट उत्तर इन्द्रमणि बडूनी ने दिया था विभाजन पर. (पेज 408)
वाहनी के विभाजन पर वह कहते हैं – धीरे धीरे वाहिनी के वाम हिस्से ने इसके सर्वोदयी हिस्से को दबोच लिया. फिर एक वाम हिस्से ने दूसरे को. पर सर्वोदय मिज़ाज कभी तिरोहित न हो सका. (पेज 408)
और अपनी पुस्तक को समअप करने के मूड में वह शीर्षक देते हैं और सबसे अंत में. उस पर वह लिखते हैं – और सबसे अंत में चिपको की चमक का धुंधलाना अस्वाभाविक नहीं है. चिपको की उपलब्धियां भी कम नहीं हैं पर धुंधलाहट के पीछे सबसे बड़ा कारण है चिपको से जुड़े तमाम समूहों का उस कातिकारी सिद्धात पर एकमत न रह सकना, जिसके तर्क के अन्तर्गत प्राकृतिक सम्पदा पर पहला हक समुदाय का होता है. (पेज 315)
(Hari Bhari Umeed Review)
इस पुस्तक में बहुत कुछ है पर कुछ कम है या छिपाया गया सा लगता है. मैं इन आन्दोलनों के सभी पात्रों के बहुत करीब रहा. गोपेश्वर वास के समय चंडीप्रसाद से मिलता रहा. सुन्दरलाल मेरे प्रेरणा रहे तो गोविंद सिंह जी मेरे गुरू, कुवर प्रसून, प्रताप शिखर मेरे शिष्य, चिपको कवि, घनश्याम सैलानी मित्र, गोपेश्वर, उत्तरकाशी मेरी नौकरी. इस हादसे पर मैंने भी बहुत कुछ अपनी पुस्तक सियासते उत्तराखंड व अन्य जगह लिखा है.
एक बार चिपको के प्रमुख आन्दोलनकारियों में एक, आन्दोलनकारी आनन्द सिंह बिष्ट जी से मैंने चिपको के परिणामों के बारे में पूछा तो उन्होंने जो कहा वह इस आन्दोलन का नैटशैल है – गुरूजी! बाकी तो आप जानते ही हैं. ज्यादे बोलूंगा तो बात कहां से कहां चली जायेगी पर असल बात सार-सक्षेप में इसकी यह है चिपको अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति तो प्राप्त कर गया पर वह अंगू का पेड़ नहीं दे पाया जिसके लिए वह लड़ा गया.
शेखर जब गौरादेवी को ही चिपको का प्रेरक मानने वालों पर भी तंज करते कहते है – पर वह चिपको आंदोलन की मां नहीं बेटी थीं. (पेज 420) तो वह नहीं बतलाते कि चिपको का पिता कौन था! इस सवाल पर गजबजाये से लगते हैं और वह जबाब दे भी नहीं सकते थे. आन्दोलन के कवि घनश्याम सैलानी ने एक बार उन्होंने मुझसे कहा – गुरूजी ! चिपको एक ऐसे पिता की अवैध संतान था जिसके धनवान होने पर हर कोई कहने लगा यह बेटा मेरा है यह बेटा मेरा है. अरे मैं भी तो भूखा था यश का. मुझे नहीं ले गये सुन्दरलाल जो हांगकांग…
(Hari Bhari Umeed Review)
शेखर चिपको आन्दोलन को बौद्धिक अधिक मानते हैं. वह कहते हैं- जनता की हिस्सेदारी के हिसाब से चिपको आन्दोलन विशिष्ट रहा. सन् 1994-95 के उत्तराखंड आन्दोलन की तरह नहीं था, जब समाज का बड़ा हिस्सा सड़कों में आ गया था. यह भावना प्रधानता दरसल ओबीसी आरक्षण, मसूरी, मुजफ्फरनगर हत्या और बलात्कार काण्ड ने बढ़ा दी थी. दलितों के प्रति पूर्वाग्रह समाज के कतिपय हिस्सों में देखे गये. चिपको आन्दोलन ने अपनी बहस और विश्लेषण की प्रकिया को कभी नहीं छोड़ा… (पेज 416)
गौरा देवी के इस्तेमाल पर पुस्तक पर कुछ कहा नहीं गया. यह हर जन आन्दोलन की गाथा है कि तवा वह गरम करते हैं और पराठे चालाक लोग सेंक जाते हैं. चिपको का परिणाम सकारात्मक उनके उन प्रमुख नेताओं का रहा जिन्हें इनामात पा लिये पर आम जनता और जिसके लिए लड़ा गया वह जनता तो यही कहते रह गयी ‘मेरा जीवन कोरा कागज कोरा ही रहा गया. जिदगी भर चार्जर लेकर मोटा चश्मा पहने चिरंजीलाल भट्ट जी कहते थे, “गुरू जी इस दुनिया में दिमाग वाला राज करता है दिल वाला मारा जाता है.”
सत्ता,आम आदमी की तरह जुल्म करती है वह ऐसी कातिल होती है जिस पर कभी मुकदमा नहीं चलता,उसे फांसी नहीं होती. इन्द्रागांधी हत्या के बाद सिक्ख का कत्ले आम, मुजफ्फर नगर कांड में क्या सत्ता अपराधी नहीं थी! पर इस अदोलन में काग्रेस सरकार उतनी गुनहगार नहीं रही. शायद सर्वोदय एक तरह से कांग्रेस का एक सामाजिक संगठन रहा हो. जां आन्दोलनकारी पुरूष्कृत हों, वहां कुछ तो है गड़बड़.
सामान्य जन भाव से भरे आन्दोलनकारी हर आन्दोलन के बाद रीते रह जाते हैं. उसके परिणाम खास उड़ा ले जाते हैं. चिपको, अन्ना आन्दोलन इसके गवाह है. पर यह तो है कि गलत के खिलाफ़ आवाज उठाना कलेजे वालों का ही काम है. आज को तकनीक, धनिकतंत्र ने यह स्थिति जनमायी है कि युवाओं को अपने लैपटाप, मोबाईल के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं उनके लिए चिपको,उसके आन्दोलनकारी क्याप्प हुए. इसलिए हर जुल्म के खिलाफ़ उठा आन्दोलनकारी हमारे लिए श्रद्धा के पात्र नहीं, उदाहरण होने चाहिए कि इस सर्ववाइल जगत में वह अपने लिए ही नहीं, अपनी आने वाली पीढ़ी के जैसे कुटला लेकर खोदने वाले कम होते हैं ! इसीलिए ‘हम, ‘हम हैं’
(Hari Bhari Umeed Review)
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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