गंदरायण, गंदरायणी, गंदरायन या छिप्पी नामों से जाना जाने वाला हिमालयी मसाला ठेठ पहाड़ी खान-पान का अहम मसाला है. राजमा, झोई (कढ़ी) और गहत, अरहर व भट के डुबके (फाणु) में इसका दखल व्यंजन की खुश्बू और जायके को कई गुना बढ़ा देता है. गंदरायणी को हिंदी में चोरा, आयुर्वेद में चोरक कहा जाता है. हिमाचली इसे चमचोरा या चौरू बुलाते हैं तो कश्मीरी चोहारे. इसका अंग्रेजी नाम एन्जेलिका है. गंदरायण व हिमालयन एन्जेलिका इसके वाणिज्यिक नाम हैं. खुशबूदार एपिएसी (Apiaceae) परिवार का यह पौधा एन्जेलिका ग्लोका (Angelica Glauca) के वानस्पतिक नाम से जाना जाता है. एपिएसी परिवार में कई और खुशबूदार पौधे भी शामिल हैं, उनका जिक्र फिर कभी.
उत्तराखण्ड में ट्री लाइन के इर्द-गिर्द बसे गाँवों में दवा के रूप में भी गंदरायण का इस्तेमाल किया जाता है. यह पूर्वी एशिया और हिमालय के पश्चिमी भागों में 2000 से 3600 मीटर की ऊंचाई में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है. अपने प्राकृतिक वास में यह बलुआ मिट्टी वाली नम तथा छायादार पहाड़ी ढलानों में पैदा होता है. इसका पौधा 2 मीटर तक की लम्बाई का होता है. गाढ़ी हरी पत्तियों वाले इस पौधे में सफ़ेद, हरी-पीली रंगत वाले खूबसूरत फूल खिलते हैं. अगर आप इसे गंवारू मसाला मानकर तिरस्कृत करने वालों में शामिल हैं तो आप गलती कर रहे हैं.
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गंदरायण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ठसक के साथ बिकता है. इसके पौधे से बनने वाले उत्पादों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसके उत्पादों की कीमत भी बहुत ऊँची है. उत्तराखण्ड के अलावा यह हिमाचल, कश्मीर, उत्तरपूर्व, नेपाल, भूटान, तिब्बत, चीन, पाकिस्तान व अफगानिस्तान में भी पाया और इस्तेमाल किया जाता है. इसके अंधाधुंध व अनियंत्रित दोहन की वजह से यह पौधा विलुप्त होने की कगार पर पहुँच सकता है. अब सरकार ने इसके संरक्षण के लिए कदम भी उठाने शुरू कर दिए हैं. ग्रामीणों ने भी इसके महत्त्व और व्यावसायिक मांग को देखते हुए इसकी खेती शुरू करने की पहल की है.
गंदरायण के पौधे की जड़ों व प्रकंद को छाया में सुखाकर इसका इस्तेमाल मसाले के तौर पर किया जाता है. इसकी खुशबू और जायका तो अच्छा होता ही है, साथ ही इसमें मौजूद तत्व पाचन के लिए भी लाभकारी होते हैं. इसका मसाला पाचन में मदद करने के साथ ही एसिडिटी को भी ख़त्म करता है. इसके अलावा यह कब्ज को दूर करता है और ह्रदय व लीवर को मजबूत बनाता है.
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अपने औषधीय गुणों के कारण इसका इस्तेमाल दवा के रूप में भी किया जाता है. इसकी जड़ों का पाउडर बनाकर पानी में मिलाकर पीने से पेटदर्द में फायदा मिलता है. दुर्गम पहाड़ी इलाकों में, जहाँ दवा उपलब्ध नहीं होती, इसका इस्तेमाल बच्चों को पेटदर्द से छुटकारा दिलाने के लिए खूब किया जाता है. पेटदर्द के अलावा यह सरदर्द, बुखार और टायफायड की भी रामबाण औषधि मानी जाती है. गाय की दुग्ध क्षमता बढ़ाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है. महक से भरा होने की वजह से इसका इस्तेमाल धूप, अगरबत्ती में तथा अन्य तरीकों से घरों को सुवासित करने में भी किया जाता है.
इसकी जड़ों में 15% तक तेल की मात्र होती है. इस तेल में एन्जेलिक एसिड, वेलेटिक एसिड और एजेलिसीन नामका रेजीन पाया जाता है. अगर आप इन्टरनेट में सर्च करेंगे तो एन्जेलिका रूट ऑयल व एन्जेलिका सीड ऑयल नाम से नामी कंपनियों को गंदरायण का तेल बेचते हुए पाएंगे. अंतरष्ट्रीय बाजार में गंदरायण की जड़ों और बीजों के तेल की कीमत 5000 से 16000 रुपये प्रति किलो तक है.
अफ़सोस की बात कि अन्तराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग के बावजूद गंदरायण राज्य के नीति-नियंताओं की प्राथमिकता में यह कहीं भी नहीं है. इस तथ्य से अनभिज्ञ सीमान्त ग्रामीण भी गंदरायण को बेचने के लिए मेलों-ठेलों में धक्के खाते दिख जाते हैं. गंदरायण के व्यावसायिक महत्त्व की जानकारी न होने की वजह से ही अब तक इसका ठीक तरह से दोहन भी नहीं किया जाता है, जिसकी वजह से अपने प्राकृतिक वास में इसकी कमी होती जा रही है. उत्तराखण्ड में आज भी हिमालयी क्षेत्रों में पायी जाने वाली जड़ी-बूटियों की खेती, दोहन, विपणन की कोई ठोस नीति नहीं बन पायी है. जो लचर नीति है भी उसमें ग्रामीणों को इनका उचित बाजार मूल्य नहीं मिलता. इस मामले में नेपाल और भूटान हमारे देश-प्रदेश से बहुत आगे है.
(सभी फोटो इन्टरनेट से साभार )
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