जिसने मेरे लाल को नजर लगायी उसकी आँखें जल कर छार हो जाईं. रसोई में जलती बांज कुकाट की लकड़ियों के दहकते क्वेलों को पण्यू से टीप बड़े तवे में डाल आमा गुस्से में फनफनाई. बदजात काणी च्याव! म्यार बालगोपाल कें गुम्म कर गो. कस डॉरी रोछी अल्ले तक, येल देखो गुम्म कर दे. गू वाल किड़ पड़ाल येक आंग में.
(Jadu Tona Uttarakhand Tradition)
घर की देली से बाहर आ चार बाटे में जलते क्वेले डाल बड़ी फुर्ती से गोठ में वापस आयी आमा. अपने अजब-गजब के पिटारे पुंतुरी से निकालती अब डांसी चकमक पत्थर, साँप की केंचुली का टुकड़ा, कैरू का कांटा और इसमें रखती साबुत लाल खुस्याणी और डले वाला लूँण. सारा माल हाथ की मुट्ठी में समेट चारपाई पे बिडोव पड़े नतिया के सर पर तीन बार फिराना शुरू होता. मुंह में मंत्र का बुदबूदाना चालू रहता इतने हौले कि खुद को सुनाई दे दूसरे को नहीं. क्योंकि मंत्र तो परम गोपनीय हुआ. तीन बार सर के चारों ओर घुमा तेजी से आमा देली से बाहर चौबट्या पे सुलग रहे क्वेलों में बंद मुट्ठी का मसाला डाल देती है. अब सुना सुना के कह रही, ‘थू :थू -डीठ -मूठ थू :थू :’ और साथ ही अपने बाएँ पाँव से तीन बार ठोकर मार रही. लाल खुस्याणी के साथ सब अगलम बगलम का धुंवा ऊपर को उठ रहा जिसकी खोकेंण नहीं लगनी चहिये बल. किसी का भी किया धरा सब उड़ जाएगा आमा के टुटके से.
किसी भी चीज पे नजर लगे. आमा बुबू के पास पूरे तनतर मंतर हुए. इनमें सबसे रामबाण राई-सरसों हुई. जिनको लाई और देंण के साथ मिला कर बाएँ हाथ की हथेली में रख दाएं हाथ की उँगलियों से अभिमंत्रित किया जाता. इस मंत्र सिद्ध राई की पुटली बना बिस्तर के सिराने भी रख देते और पहने लुकुड़ों की जेब में भी ठूंस सकते. राई मंतर पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े बुजुर्गों से हस्तांतरित होते रहता. अब असर तो मंत्रित करने वाले के जस पर टिका होता जो राई के पारलौकिक असंख्य गुण जाने:
सरस्यों -सरस्यों, सातों सरस्यों, आठू राई.
यू मेरी पीठी का भाई,
जहां लगाऊं तहां जाई,
महादेव ले बनाई, पार्वती ले बोई,
बिया नाना फल जैसे बेल,
जो लगावे ढीठ, उसकी मारे पीठ,
भूत- प्रेत -मार -मसाण-दैत्य -डीठ -मूठ स्वाहा,
संकल्पेन रक्षि, रक्षि, रक्षि ॐ स्वाहा.
नान्तिनो को डर झस्स से बचाने के लिए कपास के बीज जिन्हें बिनौला कहा जाता के साथ डांसी पत्थर और कछुवे के हाड़ या हड्डी मंतर कर ताबीज में रखा जाता. पहाड़ में शिशूण के तने और पातों को भी बुरी ताकतों से बचाने वाला माना जाता. अपने घर से गोद के छोटे बच्चे के साथ कहीं दूर आने जाने पर औरतें शिशु को पकड़ने छाती से चिपकाये रखने के साथ ही कोई धारदार हथियार जैसे चक्कू, छुरी या दराती के संग शिशुण की टहनी भी कपड़े में लपेट हाथ में ले चलतीं हैं. हाथ में लगे तो खुजाते रहो फिर जलन के मारे. इसी शिशुण की टहनी पत्ती से झाड़ा भी जाता है. गुम चोट और मोच भी इसको झपकाने से ठीक होती हैं. शिशुण की टहनी में गोल मुड़ी ककड़ी भी लगी दिखती है जिसका मिलना बड़ा शुभ माना जाता है.
(Jadu Tona Uttarakhand Tradition)
अब झसक-नजर की छोटी-मोटी बाधा अगर जरा ज्यादा ही खराब असर दिखा दे. बालक न खाये न पिए, चिंग चिंग करे, कभी उल्टी करे,कभी हगभरी जाये तो बिरादरी परिवार के जानकार ढटयालु की टहनी से पूरा बदन झाड़ते. सुना इसके झाड़ने से साँप का काटा भी ठीक होता और बाइ-लकवे का प्रकोप भी निबटता. किसी ने कुछ खिला पिला दिया हो या लुच्च घटिया बुरी नियत की ताकत का बदन में कोप कर दिया हो तो इसी ढटयालु की झाड़ -फटक सब ठीक ठाक कर देती. इतना ही नहीं,ढटयालू घर बिरादरी में हो रहे शुभ काज में भी पूजा जाता. बाल गोपालों के नामकरण, फिर जनेऊ और लगन में जल से भरे लोटे में सरसों या ढटयालू की कोमल टहनी रख पूजी जाती हैं जिसे स्यो पूजा कहते :
स्यो पूजा स्यो पूजा
माई सेवा
हरिया गोबर लीपि श्यवा
पिहला ऐपण थापि श्यवा
मन मनोरथ पुजि श्यवा
श्यवा बारम्बार, ऊनी रया हमार घर.
बदन दर्द, जोड़ दर्द, बाइ गठिया में स्यांली या निर्गुन्डी की पत्ती से झाड़ते. इसका रस भी पिलाते और तेल बना के भी लगा देते. कालीचारी या हंसराज का पौंधा, और चिरचिटा भी रोग शोक हरता. मास या उर्द की दाल और काले भूरे तिल भी झाड़ने झूड़ने में काम आते. बेल की पत्ती और कण्या का पौधा घर के बाहर लटकाते. जटामासी की धूप जलाते. जानवरों की नजर उतारने को भूतकेशी का धुवां गोठ के भीतर करते. घर के अंदर ब्रह्म कमल रखते. अब घर में एक की भी तबियत बिगड़े तो उसके टिटाट के साथ तो पूरे घर में ही रोग शोक हो जाये. क्या पता दुख बीमारी किस रूप में आए?
(Jadu Tona Uttarakhand Tradition)
कइयों की नजर बड़ी खराब मानी जाती. लोक विश्वास ने ऐसे कई लक्षण चुन लिए जो मुख़ाकृति की प्राथमिकता सूची में ऊँचे रख लिए गए जैसे डुणा, काणा, बिराऊ जस आँख वाला, टेड़ी गर्दन और नाख वाला जो अगर किसी भी चीज को ललचाई नजर से देख ले या इस राग दाह से भर उठे कि ये उसके पास नहीं तो इसे हाक लगना या दाग पड़ना कहते. ऐसे ही किसी ने सुन्दर सलोनी कन्या को अपनी दगडुओं के साथ हँसते बोलते देख लिया और फिर वो गुम्म पड़ जाये तो भैम पड़ गया कि हाक लग गयी. थोड़ी ही देर में कैसी छुई मुई सी सिमट गयी, ओ बबा अब तो बला भी नहीं रई. गुम्म हो गयी है बस्स. ऐसे ही दुधारु जानवर की ओर किसी की टेढ़ी नजर पड़ जाए तो फिर दूध दन्याली देना ही बंद.बस गर्दन हिलाते बड़ी बड़ी आँखें डुलाते बाँ बाँ करने में है रात दिन.बोल भी कहाँ सकने वाला हुआ. अब इसे मंत्र से झाड़ा जाएगा.
नजर के साथ कुछ खिलापिला के वश में कर लेना, ठीक ठाक हो रहे का बिगाड़ कर देना भी होते रहने वाला हुआ. इन सबकी जड़ में भैम हुआ. बरमाण्ड में खचबच हो जाए तो उससे उपजे पगलैट पने में भी जादू-टोने की झस्स होती. मन के इस विकार को हरने वाले, इस दुविधा को हरने के मंत्र जानने वाले दागी इन्हें झाड़ देते. वैसे तो हर गाँव में इस विद्या के कुछ कुशल अकुशल मौजूद ही होते पर टिहरी गढ़वाल के दोगी पट्टी के मांत्रिक इस विद्या के पारंगत माने जाते.
गढ़वाल से और पंडित भी गाँव घरों के चक्कर लगाते और एक छोटी सी मूर्ति सिंहासन पर रख सारे भेद खोलते. फिर एक चक्कू सामने रख सब किया कराया झाड़ जाते. कुछ एक पत्थर पर रेखाएं खींच एक रेखा को हाथ से छुवाते फिर कुछ गणत लगा समाधान बताते.
कई टोने टूटकों में आस पास पायी जानी वाली वनस्पति का भी प्रयोग होता जैसे पहाड़ों में बेडू खूब होता. इसका पेड़ भी झाड़ने की क्रिया में उपयोगी माना जाता. जिस औरत के बाल बच्चे न हो रहें हों तो उसे झाड़ने में लगी चीजें बेडू के पेड़ में डाली जातीं अब अगर ये पेड़ हरा रहा तो यह इच्छा पूरी होने की बात बताता पर अगर पेड़ सूखने लगा तो हरि इच्छा. ऐसे ही जब पहली बार रजोदर्शन हो तो बेडू तिमुल जैसे पेड़ जिनसे दूध सा चोप निकलता है, के नीचे नहलाने से उसके भाग में संतानवती होने व शिशु हेतु पर्याप्त दूध होने की बात कही जाती. इसी तरह गाय भैंस के ओंर को भी बेडू के पेड़ की जड़ में गाढा जाता.
(Jadu Tona Uttarakhand Tradition)
जतकालियों के पीछे भी बड़े जतन और टूटुक होते. शिशु के जनम के समय उसे घर कुड़ि की निचली मंजिल यानी ओबरे में रखा जाता जहां इधर उधर से पहाड़ की ठंडी हवा न आती. बाहर आग जलाने के प्रबंध होते. जतकाली के क्वीड़ में दूसरी कोई जतकाली का प्रवेश भी वर्जित होता. ऐसा भैम होता कि इससे प्रसव में विघ्न पड़ता नाल फँसती और गर्भ पात तक हो जाता. फिर शिशु होने के दस दिन तक परिवार व बिरादरी में पूजा पाठ न होता, न कोई नया बीज बोया जाता. बड़े बूढ़े बताते कि फल के पेड़ को भी न छुवो.शिशु जनम के बाद ग्यारह दिन जतकाली या स्वीली के हाथ का छुवा पानी, खाना भी न खाया जाता.एक्कीसवें दिन बाकायदा गो मूत्र व गंगा जल छिड़क व पिला शुद्धि होती. तिल पात्र होता. हवन भी किया जाता. माता को गरम पजिरी खिलाई जाती जिससे आंग में ताकत आती और दूध भी बढ़ता. अब ये घर के सब काज में हाथ बंटा सकती.
बच्चे को नजर से बचाने के लिए सर पर काजल का टीका लगता तो गाल में कान के पीछे भी गोला ठुपका देते. सुते धागुले नामकंद के दिन पंडित जु प्रतिष्ठित कर देते. इस दिन शकुनाखर गाये जाते. शिशु के हाथ में धगुलों के साथ काला डोरा बंधता तो कमर में भी. सुते धागुले पहनाये जाते.
शिशु जनम से ही उसकी राजी ख़ुशी के जतन होते. झसक भैम भी निबटाये जाते. मशाण का भी डर होता खास कर छोटी बच्चियों से जब वो किसी सिमार वाली या पानीवाली जगह पर गिर जाएं या झस्की जाएं. अगर इनकी पूजा न मिली तो ये डर बना रहता कि बड़े होने पर या तो इनकी गोद नहीं भरेगी अगर हो भी गई तो बचेगी नहीं. मशाण के साथ मांतरी का भी डर होता जो बच्चियों कन्याओं के खूब चट्ट बट्ट सजे संवरे रहने पर चिपट जातीं. मांतरी ऐसी कन्याओं का समूह माना जाता जो शादी से पहले ही मर गईं हों. इनको लाल फूल और कपड़े पसंद होते और इनकी पूजा में मुर्गे की बलि दी जाती.मांतरी को खुश करने जिस पर ये चिपटी हैं उसके नाम की बकरी रखी जाती. अगर ये बकरी धीरे धीरे कमजोर हो मर जाय तो मांतरी उस कन्या या औरत को छोड़ देती है.
पीली चीज और पीले फूल के साथ पीले कपड़े पसंद करने वाली आछरी हुई जो अपनी मनपसंद को हरने में बहुत ही चंट हुईं. जानकार बड़े बूढ़े बताते कि आछरियों के गोल ने बंसी बजाते जीतू बगडवाल का तक बरमाण्ड मुन दिया था. ये परियां डांडों में रहती. जगह जगह इनकी चीर वाले पेड़ भी दिखते.गुमदेश, नेपाल बॉर्डर, बेरीनाग, लाल घाटी, सोर के जंगल के साथ नैनीताल में, अल्मोड़ा के नर सिंह डांडा, टिहरी में खैट के डांडे, उतारकाशी में राड़ी के डांडे, टोंस में मांझीवन जरमोलाधार, सने उडिया डांडा, देवबन, जाख, सिगाई और चालनी की आछरी पहाड़ में प्रसिद्ध हुईं.
रवाईं जौनपुर में तो डैणी, डागिनी, डाकिनी का भी कोप हुआ जो अपने मन्त्रों से दिन में आम औरत जैसी रहें पर रात को भेस बदल इस इलाके में आए नये आदमी को डंस दें जो दिन प्रतिदिन पगला कर आखिरकार मर ही जाये. ऐसे ही ख़तरनाक हुआ हंत्या जो अतृप्त इच्छाएं लिए असमय ही मर जाये. हंत्या अपने परिवार बिरादरी को ज्यादा पकड़ता है. इसको छुटाने के लिए जागर लगाए जाते. भूत प्रेत देत्यनिवारण के मंत्र रख्वाली से भी ये छुटाये जाते.
(Jadu Tona Uttarakhand Tradition)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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