देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों के पीछे छिपे बदनुमा दागों पर चर्चा कम ही होती है. 26 अप्रैल की रात गढ़वाल मंडल के गाँव कोट में बसाणगाँव निवासी 21 साल के दलित युवक जितेन्द्र की हत्या कर दी गयी थी. सवर्णों द्वारा यह हत्या सिर्फ इतने भर के लिए की गयी थी कि उन्हें उस दलित युवक का शादी समारोह में अपने सामने कुर्सी पर बैठकर खाना नागवार गुजरा. जितेन्द्र की बुरी तरह पिटाई की गयी. इस पिटाई के बाद बुरी तरह घायल जितेन्द्र ने कुछ दिनों बाद ही अस्पताल में दम तोड़ दिया.
हालिया घटनाक्रम में जौनपुर तहसील की ही नाबालिग दलित बच्ची के साथ बलात्कार की घटना सामने आयी है. सेंदूल गाँव की 9 साल की इस दलित बच्ची का बलात्कारी 24 वर्षीय स्थानीय सवर्ण युवक है. गौरतलब है कि सेंदूल गाँव उसी बसाणगाँव के पास है जहाँ पर एक माह पूर्व सवर्णों द्वारा मामूली विवाद पर जितेन्द्र दास की पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी थी.
पीड़ित बच्ची का बलात्कारी उसका पड़ोसी है जिसने बंधक बनाकर पीड़िता का बलात्कार किया. पीड़िता की मां द्वारा गंभीर हालत में उसे देहरादून अस्पताल में भर्ती करवाया गया. गौरतलब है कि चार साल पहले पीड़ित परिवार की एक अन्य युवती की भी गाँव के सवर्ण युवकों द्वारा सामूहिक बलात्कार कर हत्या कर दी गयी थी. बाद में दबाव बनाकर मामले को जमींदोज भी कर दिया गया था.
पुलिस का असंवेदनशील रवैया
इस मामले में भी स्थानीय दबंगों द्वारा पीड़ित परिवार पर दबाव बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं. मामले में ‘मित्र’ पुलिस प्रशासन का रुख भी हमेशा की तरह ही मामले को ठंडा कर देने का दिखाई पड़ रहा है. पुलिस ने मामला दर्ज कर दोषी युवक को तो गिरफ्तार किया. लेकिन इसके बाद जांच में पुलिस द्वारा अपराधिक लापरवाही बरती जा रही है. ख़राब शारीरिक व मानसिक हालत के बावजूद पुलिस द्वारा 31 जून को बच्ची को उसकी मां के साथ घंटो थाने में बिठाकर रखा. इस दौरान दरिंदगी करने वाले युवक को भी बच्ची के पास ही बिठाया गया, जबकि पोक्सो एक्ट के तहत बच्ची के बयान उसके घर पर ही लिए जाने चाहिए थे.
इतना ही नहीं 31 मई को पुलिस द्वारा दून अस्पताल से जांच के नाम पर बच्ची और उसकी मां को 150 किमी दूर गाँव ले जाया गया. 2 जून को पुलिस बच्ची को पुनः 164 के बयान दर्ज करवाने के लिए 250 किमी दूर टिहरी ले जाया गया. असंवेदनशीलता और अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए कैम्पटी थाना पुलिस एक निजी वाहन में पीड़िता और उसकी मां को बिठाकर ले गए. पीड़िता के पिता और मामा को तो यह कहकर नहीं ले जाया गया कि उनकी जरूरत नहीं है. लेकिन आरोपी विपिन पंवार को उसी गाड़ी में बच्ची के साथ बैठाकर ले जाया गया.
जिम्मेदार अधिकारीयों के शर्मनाक बयान
इतना ही नहीं न्यायालय परिसर में भी दिन भर बच्ची और उसकी मां के इर्द-गिर्द ही रखा गया. कानूनी प्रक्रिया के दौरान 13 घंटे तक बच्ची को भूखा भी रखा गया. 4 घंटे के सफ़र की इस मानसिक यातना के कारण सहमी हुई बच्ची बयान दर्ज नहीं करवा सकी. पुलिस का यह रवैया देखकर समूची जांच प्रक्रिया ही संदेह के दायरे में दिखाई देती है. हद तब हो गयी जब पुलिस का बचाव करते हुए आईजी अजय रौतेला ने शर्मनाक बयान दे डाले. उन्होंने कहा कि पुलिस जीप चढ़ाई नहीं चढ़ पाती इसलिए पीड़िता को निजी वाहन में ले जाया गया. जबकि वही पुलिस जीप रोजमर्रा मसूरी की चढ़ाई चढ़ती है. पीड़िता और बलात्कारी को एक साथ ले जाने के सवाल पर उन्होंने एक बचकाना सफाई यह दी है कि पीड़िता को अगली तो अभियुक्त को पिछली सीट पर बैठाकर ले जाया गया.
परिवहन मंत्री यशपाल आर्य ने पीड़िता के परिवार से मुलाकात कर दून अस्पताल के रवैये पर रोष जताया और पुलिस को फ़ौरन पीड़िता को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने के आदेश दिए. मंत्री द्वारा जांच प्रक्रिया के दौरान पीड़िता व अभियुक्त को लम्बे समय तक साथ रखे जाने पर भी असंतोष जताते हुए इस मामले में डीजीपी से बात करने का आश्वासन दिया.
बीमार अस्पतालों से कैसी उम्मीद
उत्तराखंड बाल संरक्षण योग की अध्यक्ष ऊषा नेगी ने भी पीड़ित परिवार से मुलाकात कर दून अस्पताल और पुलिस की कार्रवाई पर असंतोष जताया है. उन्होंने कहा की बच्ची को अस्पताल से इस हालत में डिस्चार्ज नहीं किया जाना चाहिए था. उन्होंने यह भी कहा की पुलिस द्वारा बच्ची को पुलिस स्टेशन ले जाना भी सरासर गलत है जबकि पोस्को एक्ट की गाइडलाइंस हैं की इस तरह के मामलों में बयान घर से ही दर्ज किये जाने चाहिए.
सामाजिक कार्यकर्त्ता जबरसिंह वर्मा बताते हैं कि अभी तक भी पीड़िता के द्वारा घटना के समय पहने गए खून से सने कपड़े घर में ही पड़े हुए हैं, पुलिस द्वारा जांच में कौन से कपड़े जमा किये गए हैं इसका पता नहीं. जबर बताते हैं कि जिन दबंगों द्वारा पीड़ित परिवार को पुलिस कार्रवाई न करने के लिए धमकाया जा रहा है और उनका पीछा किया जा रहा है, उन सभी का नाम पुलिस को दिए जाने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है.
दून अस्पताल द्वारा भी इस मामले में घोर लापरवाही का रुख अपनाया गया. पीड़िता की मां द्वारा गंभीर हालत में उसे अस्पताल में भर्ती कराये जाने के बावजूद अस्पताल द्वारा 4-5 घंटे के इलाज के बाद ही बच्ची को डिस्चार्ज कर दिया गया. जबकि इस समय तक बच्ची ठीक से चल-फिर नहीं पा रही थी, न सो पा रही थी. बच्ची के शरीर से लगातार खून भी बह रहा था.
सतह के नीचे दफ़न सवाल
उत्तराखंड के सामाजिक ढांचे में जाति उत्पीड़न का एक ऐसा तंत्र मौजूद है जिसकी गूँज भीतर ही दबी ही रह जाती है. इसका मुख्य कारण ही सामाजिक संरचना में दलितों की बहुत कम आबादी, वह भी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से बहुत अक्षम. उत्तराखंड देश के उन राज्यों में से है जहाँ कुल आबादी में अनुसूचित जाति-जनजाति व पिछड़ी जातियों का प्रतिशत बहुत कम है. इसी वजह से उनके उत्पीड़न की सशक्त सामाजिक, राजनैतिक अभिव्यक्ति नहीं है. अधिकांश मामले जंगल, पहाड़, नदियाँ, हिमालय और चारधाम के छद्मावरण के भीतर घुटकर रह जाते हैं, शेष भारत में उत्तराखंड की छवि एक ऐसे राज्य के रूप में बन पड़ती है जहाँ दलित-वंचित जातियों का उत्पीड़न बहुत कम या न के बराबर है.
कुल मिलकर सतह पर दलित उत्पीड़न के वही मामले सामने आते हैं जो कि बेहद संगीन हुआ करते हैं यानि एक दरिंदगी भरा बलात्कार या फिर पीड़ित की मौत ही ऐसे मामले संज्ञान में ला पाती है.
ऐसा हो भी कैसे सकता है कि जिस राज्य की बुनियाद में ही मंडल कमीशन के बाद सवर्णों का उग्र आरक्षण विरोधी आन्दोलन रहा हो वहां निचली समझी जाने वाली जातियां पीड़ित न की जाती हों.
-सुधीर कुमार
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