1930 के दशक में पिथौरागढ़ जैसे दूरस्थ कस्बे में पहला रेडियो लाए धनीलाल और फिर दिखाया सोर वासियों को सिनेमा. इस पर एक लेख मुझे इतिहास के खोजी प्रवक्ता डॉ दीप चंद्र चौधरी ने सोर घाटी के जाने अनजाने प्रसंगों पर छापी जाने वाली पत्रिका के लिए दिया. इसे तब के जिलाधिकारी श्री अमरेंद्र सिन्हा प्रकाशित कराना चाहते थे पर वह पत्रिका जिलाधिकारी महोदय के ट्रांसफर के कारण छप नहीं पाई. पुरानी फाइलें पलटते धनी लाल के जीवन पर यह हस्तलिखित लेख मिल गया.यह बातचीत डॉ दीप चौधरी ने धनी लाल जी से तीस पेंतीस साल पहले की थी.
(1st Radio in Pithoragarh)
“सोर के पहाड़ी लोगों के कहाँ ऐसे भाग कि रेडियो सुन सकें, सिनेमा देखने को मिले”.
कर्नल शाही ने जब ये बात धनी लाल से कही तब वह तिलमिला उठे. भीतर से ऐसी लगन लगी कि अपने देश -मैदान के संपर्क टटोल डाले . फिर जब जॉर्ज पञ्चम की मौत हुई तो उनकी मृत्यु का समाचार सुनने के लिए धनी लाल के घर के आँगन पर लोग ही लोग जमा थे आखिर कार पिथौरागढ़ में वह रेडियो ले ही आए.
मार्च 1932 की 27 तारीख को उनके पास न्यूयार्क रेडियो कंपनी से इको कोलस्टर ब्रांड के दो रेडियो आए. बटन घूमते,चरखी चलती,डब्बे से आवाज निकलती. संगीत गूँजता , गीत बजते, दुनिया जहान में जो भी हो रहा उसकी खबर सीधे कानों में टकराती. लोग झूम गए.कइयों के लिए ये अजूबा था तो धनी लाल जी का फितूर, जिद और नये यँत्र कल पुरजों के लिए असीम सम्मोहन. तब धनी लाल जी ने रेडियो सप्लायर स्टोर कलकत्ता, शिकागो टेलीफून एंड रेडियो कंपनी हैदराबाद, लंदन रेडियोस बॉम्बे से रेडियो मंगाने शुरू किए और लोगों ने इन्हें हाथों हाथ लिया. रेडियो लाने और सुनाने की उनकी जिद पूरी हो गई. अब जो भी कुछ नया होता उसकी खबर लोगों को होती. फिर सवाल जवाब उभरते. टीका टिप्पणी होती. देश आजादी की लहर में था. इस सीमांत धरा के कई सपूत आज़ाद हिन्द फ़ौज में भी थे तो ब्रिटिश आर्मी में भी. सबकी खबर पता चलती कि स्वराज्य के लिए क्या कुछ हो रहा. गाँधी बाबा क्या कर रहे?नई सरकार बनेगी. देश आज़ाद होगा. सब हमें खट्ट से पता चलेगा.
धनी लाल जी के दिमाग में फिर एक नई लहर आई. इसके परिणाम स्वरुप पिथौरागढ़ वासियों ने चलते -फिरते चित्र की लड़ी यानी सिनेमा देखा. इसके लिए धनीलाल जी दिल्ली गए. वहां बड़े जुगाड़ लगाए . आखिर कार अपने सीमित साधनों और असीमित हौसलों की बदौलत वह पिथौरागढ़ में सिनेमा ले ही आए.ये टूरिंग सिनेमा था.
(1st Radio in Pithoragarh)
8 फरवरी 1935 को पहली मूक फ़िल्म ‘सोने की चिड़िया’नगर के टाउन एरिया में अनेकानेक लोगों ने देखी. आम भी थे और खास भी. टाउन एरिया के अध्यक्ष लाला चिरंजी लाल साह ने प्रोजेक्टर का बटन दबा कर उदघाटन किया.
इसी प्रोजेक्टर से उन्होंने सोर निवासियों को ‘बंगाल का जादू’, ‘देहाती लड़की’,’नारी नागिन’जैसी मूक फ़िल्में दिखाईं.14 मार्च 1940 को ‘आलम आरा’ और 4 अक्टूबर 1940 को ‘हरीश चंद्र’ फ़िल्म दिखाई गई. इतने से ही धनी लाल जी संतुष्ट न थे. कुमाऊं कमिशनर वुडविल तभी पिथौरागढ़ के दौरे पर आए. वह धनी लाल जी के जीवट और लगन देख आश्चर्य में पड़ गये बोले ‘ओ मैन, आखिर तुम कितना कुछ कर इस रिमोट में फ़िल्म दिखाता है.’ धनी लाल जी ने वुडविल को उस समय की प्रसिद्ध फ़िल्म सोने की चिड़िया दिखाई.हाकिम खुश हो गया और धनी लाल जी को धर्मशाला के निकट लीज पर जमीन दी ताकि वो थिएटर बनवा सकें.
इसी धर्मशाला लाइन के पास उन्होंने ‘कृष्णा टाकीज’खोला जिसमें अनेक मूक और सवाक फ़िल्में चलायीं गईं.यहाँ की धर्मशाला को बनवाने में पीलीभीत के सेठ और चीनी मिल मालिक हरप्रसाद -ललता प्रसाद ने तीन हज़ार रुपये नकद दिए जिसे मालदार परिवार ने बनवाया.
अभी उनके व्यक्तित्व के और कई आयाम बाकी थे जिन्हें उभरने का सही समय आ गया था. गीत, संगीत, सिनेमा के तो वह रसिया थे ही अब उनकी इच्छा थी कि नाटक करवाये जाएं. तब स्थानीय रूप से सोल्जर बोर्ड के पास गोरखा पलटन रहती थी. तो 1940 बीतते ही डॉ प्रहलाद गुप्ता का लिखा नाटक ‘गोरिंग’ उन्होंने करवाया. ये नाटक बहुत पसंद किया गया.फिर तो जैसे कृष्णा टाकीज में नाटक, प्रहसन, नौटंकी, नाच गाने व अन्य स्टेज कार्य क्रम की बहार आ गई.1932 से 1942 तक धनी लाल अपने यांत्रिक कौशल और मनोरंजन के हुनर से लोगों का दिल जीतते रहे. आखिर एक नई शुरुवात जो की थी, उसे तमाम परेशानियां झेल सफल भी बनाया था.
1942 में ब्रिटिश सरकार की फ़ौज में ‘अनिवार्य सेना सेवा’ के अंतर्गत सनीमा प्रोजेक्शन के लिए धनीलाल जी को जबलपुर छावनी व बम्बई में कोलाबा बुलाया गया. जबलपुर के ट्रेनिंग सेंटर में वह सन 1942 से सन 1947 तक रहे. जहां उनका काम था सैनिकों को युद्ध सम्बन्धी फ़िल्में दिखाना.
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1948 में पिथौरागढ़ में फिलिप्स के रेडियो जर्मनी से आ गए थे. इन्हें फ़ौजी घर लौटने पर लाये. इनकी गुणवत्ता और आवाज बहुत अच्छी थी. धनोड़ा गाँव के कर्नल शाही ने फिलिप्स का एक रेडियो अल्मोड़ा की जिला कांग्रेस कमिटी को दिया था. फिलिप्स का एक बेहतरीन रेडियो पुरानी बाजार पिथौरागढ़ में जोगा कृपा गिरधारी सर्राफ के पास था. जब महात्मा गाँधी की मृत्यु का समाचार आया तो तमाम घर जहां रेडियो थे वहां लोगों की भीड़ लग गई. उनके आंसू रुकते न थे. शोक की लहर फैल गई.
1948 में ही धनी लाल जी हालदा कंपनी का टाइप लाये. बम्बई रहते वह टाइप की बारीकियां और इसे सुधारना सीख गए थे. नई तकनीक सीखने और उसका प्रयोग करने की तो उनमें धुन ही सवार थी. अब उन्होंने कलकत्ता से आटा चक्की मंगवाई जो क्रूड ऑइल से चलती थी. गाँव में महिलाएं हाथ चक्की से आटा पीसती जिसे जतारा कहा जाता.पहले पिथौरागढ़ में पनघट थे जो पुनेड़ी गाँव से ले कर ठुली गाड़ तक थे. इसमें बाईस घराट एक साथ चल सकते थे. तब पानी की कोई कमी न थी. गाड़ पानी से लबालब बहती थी. घट पपदेव में थे. इन घटों में अक्सर बड़ी भीड़ रहती. इतनी कि अनाज पीसने को कम से कम हफ्ता भर तो इंतज़ार करना ही पड़ता. देव सिंह मैदान के नीचे टी बी अस्पताल को नीचे उतरते ईसाई मिशन रियों ने धनी लाल जी से पवन ऊर्जा से चलने वाली चक्की भी लगायी थी.
धनीलाल जी बस कक्षा चार तक पढ़े. उनका तकनीकी ज्ञान अद्भुत था. कल पुरजों पर बारीक पकड़ और सबसे बड़ी बात तो यह कि अपने इलाके में नई चीजों की शुरुवात करने का जोखिम झेलना वह जानते थे.
सेना से उन्हें ग्यारह रुपये की पेंशन मिली. सेवा निवृत होने के बाद उनका अभियान और तेज हुआ. वह अपने प्रोजेक्टर और परदे के साथ अस्कोट, जौलजीबी, बलुआकोट, थल, धारचूला और नेपाल के अंचलों में ले जाते. उन्होंने इस तरह लोगों का खूब मनोरंजन किया और सिनेमा के प्रति लोगों की रूचि बढ़ाई. उनका ध्यान सिर्फ पैसा बटोरने में न था. उनके भीतर तो ऐसी छटपटाहट थी कि ऐसी बेहतर और कारगर तकनीक को लोगों के आकर्षण में कैसे लाया जाय जिसे देख समझ वह स्वयं भी इनका प्रयोग करें और उन्हें संतुष्टि मिले. धनीलाल जी बताते कि जहां कहीं भी लोग उन्हें बुलाते तो बड़ा आदर सत्कार होता. खाने रहने की पूरी व्यवस्था की जाती. कुली और घोड़े का इंतज़ाम होता. जौलजीबी के मेले में उनका टूरिंग सिनेमा चलता जिसका टिकट एक आना होता.
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प्रतिभा के धनी जीवट के पक्के धनी लाल जी की ख्याति खूब फैली.1950 के दशक में श्री गुरू दास साह एम एल सी, श्री बी एस खाती अध्यक्ष जिला बोर्ड, श्री श्याम लाल वर्मा एम एल ए, श्री देवी दत्त पंत ‘हुड़किया वकील’, श्री छेदी लाल अध्यक्ष हरिजन सेवक संघ, श्री रामप्रसाद टम्टा चेयरमैन रेलवे भारत सरकार द्वारा इनके कामों की खूब सराहना की गईं जिनके प्रमाण वह सम्मान पत्र हैं जो ‘समुचित तकनीक बेहतर भी और कारगर भी’ के सिद्धांत को अनुभवसिद्ध अवलोकन पर खरा उतारती हैं.
1970 के दशक में इ एफ शूमाकर की एक किताब ने कम विकसित देशों के विकास के लिए ऐसी ही बेहतर और कारगर तकनीक के प्रयोग की सिफारिश की थी. इस किताब का नाम था ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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