पहाड़ों की तेज ठंडी ताकतवर हवा, मुझे मेरे पिट्ठू के साथ सर्पीली पगडंडियों पर सहलाती हुई मेरी थकान उतार देती हैं. मेरी आँखें घनी गहरी हरियाली से सजे जंगलों, दूर ऊँची बर्फ़ीली छोटी से तेजी से उतरते फेनिल गधेरों, देखे अनदेखे पंछियों की धुनों में खोयी यात्रा करती हैं.
(Ye Mann Banjara Re Book)
ये घुमक्कड़पना उस शांत सहज और मोहिले से व्यक्तित्व का हिस्सा है जिन्हें लोग गीता दी के नाम से जानते हैं. यानी गीता गैरोला जो मानती हैं कि एक ठेठ सा पहाड़ीपन और आवारागर्दी उनकी जिंदगी की प्राणवायु है. इसी की बदौलत वह पहाड़ के अप्रतिम सौंदर्य, नयनाभिराम चोटियों, दूर तक फैले बुग्यालों के स्पर्श से खुश ही नहीं हो जातीं बल्कि यह भी महसूस करतीं हैं कि इन ग्लेशियरों के नीचे पसरा जो रौखड़ है वह यहाँ की तल्ख़ हकीकत है. गाड़ गधेरे में बहते पानी की तरह पत्थरों को घिसते ढुँग सी नियति यहाँ के मानस के कपाल पर भी उकेरी दिखती है. यह एहसास तो तब और सिर्फ तब हो सकता है जब इन चेहरों के पीछे के राग भाग को जानने समझने के लायक का स्पर्श आपके मन के भीतर हो. अपनी ही सिमटी दुनिया से हट कर अपनी संवेदना को उस लोक से जोड़ने में लगा दिया जाय जो आज भी कई किस्म की विसंगतियों के साथ द्वेधताओं से भरा हुआ है. रूढ़ियों से ग्रस्त है और लकीर की फकीरी कहीं इनकी गहराईयों का स्पर्श नहीं दे पाती. इन्हें जानना समझना अनुभूत करना है तो वो पन्ने पलटने पड़ेंगे जिनकी शुरुवात में ‘ओस में भीगती रात है’
1987 के साल के आते आते घरेलू दायित्वों और उनसे उपजी परेशानियों के भंवर से निकल छूटने का एक ही सहारा बचा था कि आर्थिक रूप से खुद को मजबूत करने का कोई तो अवलम्ब मिले. दो विषयों में एम.ए.हो चुका था. अब नौकरी के लिए बी. एड करने की ठानी. गोपेश्वर डिग्री कॉलेज में प्रवेश भी मिला और घुमक्कड़ी के लिए चार सहेलियों का ग्रुप बना. पहाड़ की लोक थात को अपने कदमों और कैमरे से नापने वाले कमल जोशी को गीता दीदी पोस्टकार्ड लिखती हैं -“हम तो चले अपनी नई उड़ान पर, अपने पँख मजबूत करने.”
रिचर्ड बाश के जोनाथन सीगल सी उड़ान. लोग कहते रहेंगे इतना ऊँचा नहीं पंख झुलस जायेंगे. तन कमजोर पड़ जाएगा, पर कहाँ? ये तो उत्तराखंड में हर बारह साल बाद होने वाली नंदा देवी राज जात की यात्रा पर चल पड़ी. सन 2000 तक इस धार्मिक यात्रा में औरतों के शामिल होने पर कड़ी रोक थी. पर गीता गैरोला सहित पांच औरतों ने इस परंपरा को तोड़ दिया. यही क्यों, उनका सफर उत्तराखंड के बेलक बुग्याल, महासर ताल, अस्कोट-आराकोट, तुंगनाथ, अनुसूया देवी के साथ पहाड़ के दूरस्थ डानों-कानों, गाड़ गधेरों को पार करता रहा. पहाड़ के आग्नेय पत्थरों सी परम्पराओं के साथ कपाल में सदियों से चिमटी सोच पर चूने की खानों से रिसता प्रसूत भी है जो सहज सरल नहीं बेडौल आकृतियाँ बना डालता है. मेटामोरफिक भ्रंश बोझ से झुकी हड्डियों की धारक क्षमता का हरण करते हैं और बाई के साथ लोगों के हाड़ को खोखल करती सुन्न झटक से कम्पित कर देते हैं. युवा होते कपाल में अवसाद की धीमी रेखाएं खींचने लगती है. इन सबसे त्रस्त कुनबों,राठ और बिरादरी में लूतापन दिखाई देता है. कितना सिसूण झपकायें.
अपने बचपन से ही गीता दी पहाड़ के समाज और उसकी संस्कृति पर ऐसा बहुत कुछ लिपटा चिपटा देखती समझते आईं. ऐसे ही कई दोष थे जिन्हें हटाने मिटाने की पुरजोर कोशिश उनके दादा जी करते आए थे. उन पर सर्वोदयी आंदोलन के अग्रणी भवानी भाई और बिहारी लाल का गहरा असर रहा. अपनी अलमस्त हंसी और जिद्दी तबियत के पीछे बहुत कुछ ठीक किया जा सकता है की फितूरी देवी उन पर सवार होती रही. 1989 से 2017 तक उत्तराखंड के 25 विकास खण्डों के 2500 गावों में महिलाओं को संगठित कर 65000 महिलाओं को उनके हक की लड़ाई के लिए गीता गैरोला मजबूत करती रही. उनके पास महिला समाख्या में जमीनी स्तर पर काम के साथ बेहतर व दक्ष प्रबंध का दीर्घकलिक अनुभव था तो पहाड़ की खेती की सार और जंगलों के फलने फूलने की लोक परंपरा व पद्धतियों का परंपरागत ज्ञान भी. उन्होंने विश्व बैंक की कृषि विविधीकरण परियोजनाओं को भी समझा तो वन पंचायतों पर जमीनी काम किया. उनकी सोच पहाड़ की औरतों के हाड़तोड़ परिश्रम और विगलन की आपबीतियों से जूझते रहने की लकड़ियां सुलगाती रहीं. उनके हाथ कइयों का सहारा बने. वह उन लोगों के साथ चली जिन्हें बीच मझदार लोग छोड़ गए. उनकी लड़ाई ऊर्जावान बने रहने की उत्प्रेरक बन गई. ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे ‘ किताब के हर पन्ने से इसे घटता हुआ महसूस किया जा सकता है. जो हासिल हुआ उन औरतों की सफलता की आत्मकथाएं ‘ना में विरवा ना में चिड़िया’ में हैं.
(Ye Mann Banjara Re Book)
“पेड़ पौंधों की हरियाली, फूलों का रंग और बास, सब औरतों के गाए गीतों से ही बनते हैं”. इस बात की थाह पाने, कुटले से क्यारी तैयार करती अपनी दादी के खुरदरे पर मजबूत हाथों की खटखट के बीच वो पूछतीं हैं, “अच्छा अगर औरतें गीत लगाना बंद कर देंगी तो पइयाँ, मेलू, कुंजा, बुरांश पर फूल नहीं खिलेंगे. पत्ते हरे नहीं होंगे क्या? दादा जी तो कहते हैं कि फूलों के रंग और पत्तों का हरापन, सूरज उन्हें अपने इंद्रधनुष से देता है. सुबह होते ही जो अपनी पीली धूप पेड़ों पर बिखेर देता है. घाम लगते ही पत्ते हरे और फूल रंग-बिरंगे हो जाते हैं. इन्हीं फूलों से मधुमक्खी शहद भी बनाती है.” उनकी बात सुन दादी गहराई से मुस्काई और बोली -“लाटी छोरी, तेरे दादा को क्या पता रंग और हरापन सूरज देता है, पर चमक और खुशबू तो बस जनानियों के गीतों से आती है.’
“सच्ची बोल सौं (कसम )खा तो “
गीता दी लिखती हैं इस सच्चाई की कौँध मेरे साथ निरन्तर चल रही है. उन जिन्दा दिनों की धड़कन, उम्र के इन रूपहले दिनों के किनारे पर आज भी हंस रही है. उन्होंने पहाड़ के गावों में बिताये संस्मरणों को ‘मल्यो की डार’ में पिरोया. औरतों के संघर्ष की जलती मशालों की ऊष्मा उनके कविता संग्रह, ‘नूपीलान की मायरा पायवी’ में महसूस की जा सकती है. वहीं भोगी गई सच्चाईयां ‘विरासतों के साये में’ की जिल्द खोल बार-बार पढ़ने को विवश करतीं हैं. आम आवाज का हिस्सा बन उनकी पीड़ा, विवशता और संघर्ष को जीवंत बनाने के संयोजन से उन्हें जन कवि गिर्दा सम्मान व बिगुल संस्था का पहला गार्गी सम्मान प्रदान किया गया. साथ ही मीडिया ने उनकी प्रतिभा का आंकलन कर हिंदुस्तान एच टी सम्मान, अमर उजाला सम्मान दिया. दिव्य ज्योति जागृति संस्था और अखिल गढ़वाल सभा ने अंचल विशेष में किए गुणात्मक विकास की श्रृंखलाओं से उनके योगदान को पहचान दी.पहाड़ की पीड़ा और पहाड़ की औरतों के दुख दर्द के कुचक्र को खंडित करने में उनका शांत, सहज और तनाव हीन व्यक्तित्व उस विशेषज्ञता की बानगी बना जिससे स्कूल, महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों के साथ स्वयंसेवी संस्थाओं और पुलिस विभाग, आकाशवाणी व दूरदर्शन ने बार- बार रिसोर्स पर्सन के रूप में आमंत्रित कर नवप्रवर्तन का पाठ सीखा.
खुद उनके अंदर की संवेदना ‘जंगल में तारों की तशतरी’ ढूंढने में लगी रही. रास्ते में टकराते चेहरों की लकीरों में किरच-किरच धंसे दर्द मिलते रहे. अपनी व्यथा से आहत ये सब कहीं न कहीं किसी बदलाव किसी उम्मीद के भरोसे थे. खूब घूमी गीता दी. जब मौका मिला तब कदम चढ़ाइयाँ चढ़ने को बेताब रहते. उनकी हर यात्रा एक नया सबक देती. साथ ही उन वजहों को भी काले-सफ़ेद छाया चित्र सा सामने रख देती जिनके रंग परिवेश ने उभरने ही न दिए. कैसी-कैसी वजहें हर परिवार, हर कुनबे, हर गाँव के बड़े अंश में कहीं न कहीं एक भोंतरे चाकू से मन की दुविधा को उधेड़ती फिर रही थी. गीता दी ने पाया कि यहाँ तो हर बच्ची, किशोरी, युवा, विवाहिता, कामकाज के बोझ से पस्त, दादी-आमा आखिरी क्षणों की सांसे गिनती दिख रही. पता नहीं कितना कुछ अनसुना-अनकहा रह जा रहा है. इनके जीवन ने जो भोग लिया उसकी विपदा से परे तारों सी टिमटिमाती पीड़ा है जो दिखाई देती है आहत कर दे रही है. सीधे दिल की गहराईयों में खुबे जा रही है.
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“मैतो गों कख च माई जी “(मायका कहाँ है माई जी )
“अरे बाबा जोगी और साँप का कोई गाँव कोई मैत नहीं होता.”- माई जी अपने गंजे सर पर हाथ फिराते हँसते हुए बोली – ” मेरा सब यही कुटिया है.” बात खत्म होने के आशय से माई जी ने चाय के गिलास उठा लिए.
“कुछ तो बताइये अपनी कहानी माई जी”- मैंने बात बढ़ाई. “अरे क्या बात अर क्य छवीं. बस जब औरतों के सारे सहारे खतम हो जाते हैं तो वो सन्यास न लें तो कहाँ जाएँ?”
मुझे माई जी की इस बात से सारी कहानी समझ में आ गई. कोई भी औरत स्वेच्छा से दुनियादारी क्यों छोड़ेगी, कुछ तो सामाजिक दुश्वारियां रही होंगी. हमारे समाज में औरतों की जगह ही कहाँ होती हैं? पता चला माई जी के पति चल बसे थे. ससुराल का दरवाजा बंद हुआ तो मायके आ गई. मायके पर बोझ बनी तो जोगन बन गई. औरतों के लिए हमारे समाज में कितनी कम जगह होती है, कितनी विडम्बना है.
आगे ‘चौमासा’ है. धारों -धार बरसात की झड़ी लगी है. भीगा-भीगा उदास मौसम है. कमर झुका कर गोड़ने-नेलने से पहाड़ी औरतों की कमर थक जाती है. वो बरसात में बैठ कर गुड़ाई नहीं कर पातीं थीं. बैठ कर गोड़ने से सारे पौंधे पैरों तले दब सकते थे, इसलिए औरतों को कमर झुका कर ही काम करना पड़ता था. कमर झुका कर छाता नहीं पकड़ा जा सकता. झुक कर दोनों हाथों से गुड़ाई करनी होती इसीलिए बारिश से बचने के दो ही उपाय थे. बोरे का तिकोन चुंगटा बना कर सर से कमर तक ढक दें या रिंगाल और मालू के पत्तों से बनी गोल बिना छड़ी की छँतोली पीठ पर रख कर काम करें. भीगना तो किसी भी हाल में होता ही था. बस कमर भीगने से बच जाती. गीली फसल गीली मिट्टी, गीले कपड़े और रोज की घनघोर बारिश में खेतों का काम.
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“पोथली (चिड़िया) हमारा पहाड़ बहुत गरीब है. गरीबी के सताये माँ-बाप बेटी के ब्याह में चार पौणो को भात कहाँ से खिलाते. इसलिए कोई -कोई लोग बेटी की शादी के खर्च के लिए लड़के वालों से पैसे लेते थे. अरे बाबा हमारे पहाड़ी लोग अपने बेटे के लिए बहू के रूप में बौल्या (मजदूर) लाते थे. पहाड़ की हर औरत खेती के काम के साथ घास, लकड़ी काट कर सारी जिंदगी बाप का कर्ज ही तो चुकाती है.”
दादी की बात सुन कर मैं डर गई -“देख भई दादी, तू मेरा ब्याह ऐसा मत करना. मैं पहाड़ मैं ब्याह नहीं करुँगी. मुझे घास काटना नहीं आता.” मैंने अपनी व्यथा फ़ौरन दादी के सामने रखी.
“न-न बाबा हम तो अपनी पोथी को खूब पढ़ाएंगे, लिखाएंगे. बड़ी साहिब बनेगी तू तो. पर याद रखना बाबा हमारा गाँव, हमारी जन्मभूमि है. तुम चाहे कहीं भी जाओगे, तुम्हारी जड़ें यहीं रहेंगी. जहां भी तुम रहोगे यही जड़ें अपनी भूमि की मिट्टी से खाद-पानी ले कर पनपाएंगी. हमें पूरी जिंदगी कुछ कर्ज चुकाने होते हैं. मां के दूध के साथ सबसे बड़ा कर्ज होता है जन्मभूमि का. पढ़ने -लिखने के बाद नौकरी चाहे जिस देश मैं करना, रहना यहीं पहाड़ में. इसे छोड़कर मत जाना बाबा. पहाड़ का कर्जा कभी मत भूलना बाबा.”
“यहाँ ठंडा पानी है ठंडी हवा है. देशों में थोड़ी होते हैं बुरांश, प्योँली के फूल. वो तो बस पहाड़ में ही होते हैं न बाबा.”
मेरी मां कहा करती थी -“मैं पहाड़ी खाना खिला कर जीभ के रास्ते अपने बच्चों को पहाड़ से जोड़ कर रखूंगी.”
मेरा बेटा हमेशा कहता है, “मां घर के इस हलवे और प्याज की सब्जी मैं वैसा स्वाद नहीं आता, जैसा नगुण के सेरों में मामाजी के बनाए हलवे मैं आया था.” जिन सेरों ने मेरे बेटे की अपनी जड़ों से पहचान कराई अब वो सारे खेत टिहरी बाँध की झील मैं समा गए हैं. हो सकता है मेरा प्रवासी बेटा कभी टिहरी झील के पानी में डूबे सेरों की मिट्टी का सौंधापन ढूंढने ही अपनी जड़ों की तरफ वापिस चला जाये.
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‘अभी बहुत कुछ कहना है’ के पन्ने सरिता की कहानी से शुरू होते हैं. मोटर सड़क पर बैठी गाली देती और रोती जाती चौदह बरस की उम्र में अपने से दस साल बड़े से ब्याह दी गई वह औरत जिसका भोग लगा. पति ने जी भर भोगा. न उमर देखी न असर की परवाह की. साथ में घर -खाना- कपड़ा, कुनबे राठ की जिम्मेदारियों का बोझ मिला. नहीं मिला तो प्यार, दुलार, स्नेह और झीना सा संवेदनात्मक सहारा जिसे पाने के लिए आखिरकार वह इस चाहरदिवारी से बाहर निकल आई. बाहर की ठौर में भी मिला छलावा, बदनामी और झूठ. वह निष्काषित कर दी गई बिना जड़ों के भटकने को, सड़क पर फिरने को मजबूर.
अब घर से निकाल बाहर कर दी जूना का करुण क्रंदन है जो पेट से है और उसका आदमी औजी से उसका नाजायज रिश्ते की तोहमत लगा खुद दूसरी घर पर ले आया है. पहाड़ की तेज हरहराती हवा चट्टानों से टकरा रही है.फिर ये जूना गायब हो जाती है और बरसों के बाद जब मेरठ के सदर बाजार में टकरा जाती है तो बता रही है कि उस गाँव के मुर्दा लोगों के मुर्दा रिश्तों को वह तभी छोड़ आई. अब बेटी मेडिकल कॉलेज में स्टॉफ नर्स है. उसकी शादी कर दी है.
सरिता के आंसू भी सूखने लगे. उसने ठान ली थी कि मजदूरी करुँगी, पत्थर फोड़ लूंगी, लोगों के बर्तन मांज लूंगी पर न मायके जाऊँगी न ही ससुराल जाऊंगी. “में तुम्हारे गाँव को और सारे रिश्तों को उसी पेड़ के नीचे छोड़ आई जहां पर मारपीट कर तुमने मुझे छोड़ा था “कह उसने अपने पति से तलाक ले लिया. अब स्टे होम में खाना बनाती है.
‘नींद में उगते पहाड़’ में चौदह -पंद्रह साल की लड़की है सुमली जिसके गले में तीन सोने के दानों वाली तिमणियां लटकी है. यानी उसकी शादी हो चुकी है. गौर से देखती हूँ तो वह चार -पांच महिने की गर्भावस्था में लगती है और वो उसका बाप सा लगने वाला उसका पति है. इससे पहले भी एक बच्चा हो मर गया. बातें होती हैं सुमली से,तो वो साफ कह देती है कि -“मैंने तो देखना भाग जाना है, रहना थोड़ी है इस आदमी के लिए. जब ये बच्चा हो जाएगा न तब इसे छोड़ भाग जाना है मुझे.’
‘कहाँ जाएगी!’ -मैंने डर कर पूछा.
‘जाऊंगी न देश. एक लड़का है वो मुझसे ब्याह करेगा.’उसके चेहरे का पीलापन हल्की लाली से जगमगाने लगा. वो अपने सपनों की पोटली मुझे थमा बस में बैठ कर चल दी.
(Ye Mann Banjara Re Book)
उत्तरकाशी से आगे बढ़ते हरसिल है. सेव के बाग हैं. विलसन की कथा है. टिहरी के राजा से देवदार के जंगलों का सौदा. हजारों मोनाल पक्षियों का वध और उनके रंग बिरंगे पर,जिन्हें अंग्रेज औरतें अपने हैट में लगातीं थीं.
बागोरी गाँव में एक समतल मैदान में बैठ सेव खाते कमल जोशी को ‘दावानल’ उपन्यास सुनाया जा रहा है. अब बहस छिड़ गई है कि चिपको आंदोलन कैसे विश्व राजनीति का हिस्सा बन कर केवल पर्यावरण का आंदोलन बन कर रह गया. आंदोलन की आत्मा में स्थानीय लोगों की स्थानीय संसाधनों पर निर्भर आजीविका का जो सवाल था वो विश्व पर्यावरण के बड़े प्रश्नों की राजनीति के बीच खो गया. दुनिया भर में चिपको आंदोलन की धूम ने पहाड़ के वन आधारित समाजों की आवाज को निगल लिया लेकिन चिपको की एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका ये रही कि उसने वनों को जनों से जोड़ दिया. उसके बाद जल -जंगल -जमीन से जुड़े हर आंदोलन जिसमें स्थानीय लोगों की आवाज शामिल होती है को वो ग्लोबलाइजेशन के पीछे खोते चले गए.
जंगलों का धीरे धीरे खत्म होना, गावों का उजड़ना, लोगों का नौकरी के नाम पर प्रवास, गावों में पैर पसारती राजनीति, जंगलों का सफाया करते वन माफिया, सड़कों के नाम पर खुदाई कर अनियंत्रित विकास के नाम पर पहाड़ों को तहस नहस करता तंत्र सब ‘गोमू के गाँव तक’ आते-आते उमड़ता घुमड़ता रहता है .यह गोमू ‘कगार की आग’ उपन्यास की नायिका है जिसका गाँव लधोंन है. गोमती तो बहुत सुन्दर थी अपनी मां से बोलती भी है -‘क्या करूँ इजा इस रूप का. यही मेरा दुश्मन हो गया है’. वही गोमती को याद रखना है जिसने खुद को अपनी मेहनत के साथ चार सौ रुपये में तराई के ठेकेदार को इसलिए बेच दिया था कि उसे खुद को खुशाल के चंगुल से छुड़ा कर अपने अधपगले भंगलची पति और बेटे के पास जाना था. वो गोमती जिसने अपने दिमागी कमजोर पति की मौत का बदला लेने के लिए अपने चचिया ससुर कलराम और उसके गुंडे बेटे तेजराम को परिवार सहित भस्म कर दिया था और अपने बेटे की अंगुली पकड़ नये सबेरे की तलाश में निकल गई थी. पर असल गोमती आज भी गाँव के अंदर बिना अपने नाम की पहचान के बुढ़ापे के दिन बिताती दलित महिला है जिसने अपने मानसिक रूप सेकमजोर पति के मरने के बाद दूसरा ब्याह कर लिया और अपने बाकी बच्चों के साथ एक आम संतुष्ट महिला का जीवन जी रही है. लेखक हिमांशु जोशी का घर भी यहीं खेती खान में है पर अब दरवाजों, दीवारों और जंक लगे लोहे के छिरते कुंडों को देख ही किसी स्पर्श की कल्पना की जा सकती है.
(Ye Mann Banjara Re Book)
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‘मन बंजारा रे ‘अपने घर को देखने की ललक है. लगभग सभी लोगों के घर सालों से बंद पड़े थे. कुछ घर टूट गए, कुछ टूटने के कगार पर थे. घर जो गाँव में था. जिसे देखने की बरसों बाट जोही.वो गावजो मेरी रग -रग में खून के साथ दौड़ता है. वो गाँव जिसके रास्ते, खेत, जंगल,पेड़ -पौंधे, गलियां, पंदेरे मुझे सपनों में भी बौराये रखते हैं. मेरा गाँव, मेरे सपनों का गाँव, मेरे अपनों का गाँव. यहीं है हमारा पाणी माथ का खेत. धान की सुनहरी फसल से लहलहाता खेत और उस खेत में मेरी मां और दादी धान की लवाई करती दिख रही है. उफ़! मेरी उमर ऊपर की चढ़ाई चढ़ रही है और मन पीछे बीते बचपन में छलांग लगा रहा है. सच ही कहते हैं, जैसे जैसे उमर बढ़ती है, हर कोई अपने बचपन को शिद्दत से याद करने लगता है.
इस टूटे घर में हम अपना घर ढूंढ रहे थे. हम ख़ामोशी के भंवर में घिरे उन दीवारों को ढूंढ रहे थे जो हमारी हिफाजतें करती थीं. हम उस जगह में छूटे समय को ढूंढ रहे थे, जिसके कण हममें मौजूद थे पर उन कणों का समय कहीं टूट-फूट कर बिखर गया था. हम दो समयों के बीच के पुल पर खड़े हो कर अतीत को तलाश रहे थे. कहाँ था हमारे बचपन का खुशहाल चहल पहल वाला घर ? ये तो खंडहर है. कहाँ है हमारा बांज, बुरांश, अयार और काफल से भरा घना वन. वो सारे पंछी, वो चिड़िया कहाँ होंगी जो भिनसारे ही हमारे खेत में लगे पेड़ में -पृथ्वी भ्यो नमो -गाती थी. ये मन बंजारा रे.
(Ye Mann Banjara Re Book)
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.
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3 Comments
विजया सती
इस सुंदर आलेख के लिए आभार आपका
J.P.Maithani Maithani
ये सत्य नहीं है – गोपेश्वर से मेरे दोस्त नवल गैरोला की माँ – श्रीमती राजकुमारी गैरोला जी , मुंबई से सुश्री प्रतिभा नैथानी सल्ला गाँव की मेरी बुवा श्रीमती की हेमंती देवी सेमवाल ने वर्ष 2000 में गीता दीदी के दौर में ही हमारे साथ पूरी नंदादेवी राजजात पूरी की थी ! यही नहीं -पातर नचौनियाँ – तक हमारी दोस्त रानू बिष्ट और अलका बर्त्वाल जी ने भी नंदादेवी राज जात में प्रतिभाग किया था !
उमाभट्ट
सुन्दर लेख
मेरी प्रिय मित्र गीता के बारे में
धन्यवाद