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जंगलों में गांव की भागीदारी बनी ही रहनी चाहिए

टिहरी जिले के थत्युड ब्लॉक से कोई 10 – 12 किलोमीटर आगे देवसारी और मोलधार गांव हैं.  यह सुंदर तस्वीरें इसी गांव की हैं जो बरबस ही आपका ध्यान खींच लेती हैं.  यहां गांव के ठीक पीछे देवदार का घना जंगल है और जंगल तक गांव की खेती फैली है.  गांव और जंगल की सरहद को अलग कर पाना मुश्किल है.  इस सरहद को ठीक से पहचानने के लिए मैंने गाड़ी रुकवा दी.  देवदार के जंगल का यह मनोहारी दृश्य आपको मंत्रमुग्ध कर देता है. और जंगल से चलने वाली हल्की सांयं-सांयं का हवा-मधुर संगीत सुना, मानो कुछ कहना चाहती है. Villagers Deserve Participation in Forest Management

खेतों में फसलें कट चुकी हैं.  कुछ खेतों में अभी फसल कटी रही है, काम चल रहा है. ग्रामीण महिलाएं खेतों में काम कर रही हैं.  बुजुर्ग महिलाएं घर की छत पर बैठी हैं. गांव और जंगल का ऐसा संबंध अब देखने को नहीं मिलता. Villagers Deserve Participation in Forest Management

कुल मिलाकर स्वप्नलोक सा दृश्य. गांव के अगले हिस्से में बड़ा कुल देवता का मंदिर है. पीछे घना जंगल. यह तस्वीर आभास देती है कि यहां की परम्परा में देवता और जंगल का कोई खास संबंध है.

मैं अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए पास ही छत पर बैठी 3 महिलाओं से बातचीत करने लगता हूं . यह जंगल गांव का है? नहीं जंगलात का.

और यह मंदिर?

“यह मंदिर हमारे कुल देवता का है. जंगल की देखभाल कौन करता है?  जंगल भले ही सरकारी है लेकिन इसकी देखभाल हम करते हैं. हमारा गांव करता है. बस जंगल से बहुत थोड़ा चारा पत्ती लाते हैं बाकी कुछ भी नहीं. पहले जंगल से हक मिल जाता था. अब वह भी बंद है. लेकिन फिर भी हम जंगल की अपने देवता के समान पूजा करते हैं क्योंकि यह बात हमने अपनी बड़ी सास से सीखी है कि घर के पीछे हमारा जंगल देवता है और गांव के आगे कुलदेवता. इन दोनों की देखभाल में ही गांव की भलाई है.”

  गांव के इस जंगल में कभी आग लगी?

“ना कभी नहीं. कैसे लग सकती है? इस जंगल की देखभाल हम अपने घर की तरह करते हैं. जंगल में आग तो विलायती पेड़ चीड़ से लगती है.”

इन बुजुर्ग और अनपढ़ सी महिलाओं के टके से जवाब से मैं हतप्रभ हूं कि गांव की साधारण महिलाओं की पर्यावरण की समझ कितनी गहरी है और उन्हें गांव और जंगल के आपसी संबंध की कैसी गहरी पहचान है.  जब तक हमारी परंपराओं में पर्यावरण संरक्षण की ऐसी समझ है तब तक वनों को बचाने के लिए कड़े कानूनों की नहीं बल्कि गांव और जंगल के ऐसे अंतर्संबंधों को विकसित करने की आवश्यकता है यह मुद्दा मेरे मन मस्तिष्क में गहरा होता चला गया.

मेरे मस्तिष्क में धीरे-धीरे वनों के सरकारीकरण और बन कानूनों की कड़े होने की परतें खुलने लगी.  यह साल 18 65 था जब कड़ा भारतीय वन कानून बनाया गया जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य ने संपूर्ण वनों पर अपना आधिपत्य कर लिया.  परंपराओं से चले आ रहे ग्रामीणों के अधिकारों को या तो खत्म कर दिया या बहुत सीमित.  ब्रिटिश राज में भारतीय बन कानून बनाने का मकसद भारतीय वनों का भारत के रेलवे लाइनों के विकास तथा ब्रिटेन के व्यवसायिक लाभ के लिए ही वनों को उपयोगी बनाने से था. वनों का संरक्षण करना उद्देश्य नही था. तब तक वनों के प्रति पर्यावरण चेतना का विकास भी नहीं हुआ था. इन कठोर वन कानूनों ने आजादी की लड़ाई के दौर में भी अनेकानेक जंगल के आंदोलनो को हवा दी. Villagers Deserve Participation in Forest Management

यह आंदोलन हिंसक भी हुए. 1920 से 1925 के बीच कुमाऊं की तराई में ग्रामीण विद्रोह के फल स्वरुप 1 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में आग लगा दी गई. 1930 की तिलाड़ी यहीं पास ही है. इसी प्रकार भारत के अनेक हिस्सों में अपने अधिकारों की बहाली के लिए वन कानून का विरोध किया गया और हिंसक आंदोलन भी हुए जिनके दबाव में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारतीय वन कानून 1927 बनाया जिसमें वनो के संरक्षण ,वनों में प्रवेश को सीमित करने के साथ ही बहुत सीमित मात्रा में ग्रामीणों को वनों में अधिकार दिए गए. लेकिन जंगलों में वन गुर्जर और आदिवासी बने रहे. उनके सीमित अधिकार भी बने रहे. उनकी खेती बहाल रही. जमीनों में उनका अधिकार कानूनी नहीं रहा. आदिवासियों की उनकी पुश्तैनी जमीन में कानूनी अधिकार की मांग ने असंतोष को बढ़ाकर माओवादियों की संभावना बढ़ाई है. वनों के मनमाने सरकारी दोहन ने उत्तराखंड में चिपको आन्दोलन पैदा किया जिसके दबाव में 1980 का बन कानून आया.

लेकिन अब वर्ष 2019 के प्रारंभ में एक सख्त बन कानून का मसौदा संसद में लंबित है जिसमें वन महकमे को वनों की रक्षा के लिए सीआरपीसी की निर्धारित प्रक्रिया से बाहर अधिकार प्रदान किए जा रहे हैं. तलाशी, गिरफ्तारी और छापेमारी के साथ ही वन अपराधों की आशंका में गोली चला देने के जैसे अधिकार प्रदान किए जाने की चर्चा है. कैसे अर्ध-प्रशिक्षित वन महकमा मानवाधिकार उलंघन प्रक्रिया से निकलेगा. दूसरी ओर कैंपा (कम्पशेटरी एफोरस्ट्रेशन मैनेजमेंट अथारिटी) कानून में बदलाव से वनों की भरपाई के लिए वृक्षारोपण की बजाए आर्थिक समाधान के रास्ते उपलब्ध कराए गए हैं जिससे पर्यावरण संकट बढ़ने की आशंका है.  

सरकार की जंगलों के संरक्षण की चिंता जायज है लेकिन सिर्फ ऐसा कठोर कानून जो जंगल को पूजने वाले समुदायों को सिर्फ लाठी दिखाए जायज नही है. जंगलों में गांव की भागीदारी बनी ही रहनी चाहिए. यह जंगल और समाज दोनों के लिए हितकारी है. Villagers Deserve Participation in Forest Management

इधर गांव के सिरहाने तक फैले वन यह बात कह रहे हैं कि गांव और वनों की दोस्ती परंपरागत है. उसे पहचानने और बढ़ाने की जरूरत है. अगर कड़े कानूनों से इस दोस्ती में दरार डाली गई तो समाज में इसके दूरगामी परिणाम बेहतर नहीं होंगे. यह संदेश समय रहते समझे जाने की आवश्यकता है. सायं-सायं की आवाज से मानो देवदार के वृक्ष लगातार यह चेतावनी दे रहे हैं और सन्नाटा तोड़ कर संवाद चाहते हैं.

-प्रमोद साह

प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

काफल एक नोस्टाल्जिया का नाम है

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