स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) ने अपने जीवनकाल में उत्तराखण्ड (Uttarakhand) की चार बार यात्रा की. स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने मित्रों को लिखे पत्रों, उनके साथ भारत आये उनके शिष्यों आदि के संस्मरणों से पता चलता है कि स्वामी विवेकानन्द को उत्तराखण्ड से विशेष लगाव था.
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पहली उत्तराखण्ड यात्रा जुलाई 1890 में की थी. विवेकानन्द ने यह यात्रा अपने गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द के साथ की थी. जुलाई 1890 में स्वामी विवेकानन्द रेल से काठगोदाम पहुंचे जहां से पहले वह सरोवर नगरी नैनीताल पैदल गये. नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द रामप्रसन्न भट्टाचार्य के घर पर छः दिन तक रहे. इसके बाद वह अल्मोड़ा की राह पर चल पड़े.
अल्मोड़ा के रास्ते में तीसरे दिन वे काकड़ीघाट पहुंचे. काकड़ीघाट अल्मोड़ा से 28 किमी की दूरी पर स्थित है. यह कोसी और सील नदियों के संगम पर स्थित छोटी सी घाटी में बसा हुआ है. इसे संत सोमवरी गिरी महाराज और हैड़ाखान बाबा की साधना स्थली भी माना जाता है. माना जाता है कि स्वामी विवेकान्द को भी यहीं आत्मज्ञान की अनुभूति हुई थी.
आत्मसाक्षात्कार के बाद स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा की तरफ चल दिए. अल्मोड़ा से तीन किलोमीटर पहले करबला के पास भूख प्यास के कारण स्वामी विवेकानन्द अर्ध-बेहोशी की हालत में गिर पड़े. तभी पास में एक छोटी सी झोपड़ी में रहने वाले एक मुस्लिम फ़कीर जुल्फिकार अली की नज़र स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी. वह स्वामी विवेकानन्द के लिये ककड़ी लेकर आया. स्वामी विवेकानन्द के आग्रह पर उसने उनके मुंह में ककड़ी का टुकड़ा डालकर उनकी जान बचाई.
सात सालों बाद 1897 में अपनी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान जुल्फिकार अली को गले से लगाकर स्वामी विवेकानन्द ने यह बात सभी को बताई. आज उस स्थान पर स्वामी विवेकानन्द मेमोरियल रैस्ट हॉल स्थित है. यहां आज भी जुल्फिकार अली के वंशज रहते हैं.
अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानन्द रघुनाथ मंदिर के सामने खजान्ची मुहल्ले में एक मकान में रहे. यह मकान लाला बद्री साह ठुलघरिया का था. लाला बद्री साह ठुलघरिया ने स्वामी विवेकानंद का बड़े मन से स्वागत किया. अल्मोड़ा की अपनी इस प्रथम यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने कसारदेवी की एक गुफा में तप भी किया. वर्तमान में यहां शारदा मठ स्थित है.
अल्मोड़ा पहुंचकर स्वामी विवेकानन्द को अपनी बहन की आत्महत्या की ख़बर तार से मिली जिसके बाद वे अल्मोड़ा से निकल पड़े और एकांतवास के लिये बद्रिकाश्रम की यात्रा पर चल दिये.
स्वामी विवेकानन्द सोमेश्वर की घाटी से पैदल पहले कर्णप्रयाग पहुंचे. उन दिनों केदार-बद्री के रास्ते पर दुर्भिक्ष के प्रकोप के कारण सरकार ने रास्ता बंद किया हुआ था. स्वामी विवेकानन्द रुद्रप्रयाग की ओर मुड़ गये. यहां स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान किया. काठगोदाम से रुद्रप्रयाग तक की 280 मील की यह यात्रा स्वामी विवेकानन्द ने एक माह में तय की थी.
एक माह रुद्रप्रयाग रहने के बाद स्वामी विवेकानन्द टिहरी चले गये. यहां उनकी मुलाक़ात टिहरी के दीवान रघुनाथ भट्टाचार्य से हुई. रघुनाथ भट्टाचार्य इस मुलाक़ात के बाद हमेशा के लिये स्वामी विवेकानन्द के भक्त हो गये.
अपने गुरुभाई अखण्डानन्द के अस्वस्थ होने के कारण स्वामी विवेकानन्द को देहरादून आना पड़ा. अक्टूबर 1890 में स्वामी विवेकानन्द देहरादून आये. यहां उन्होंने सिविल सर्जन मैकलारेन से अखण्डानन्द का इलाज करवाया. इसके बाद अखण्डानन्द के साथ स्वामी विवेकानन्द ऋषिकेश गये. ऋषिकेश में वे चंद्रेश्वर नामक शिवमंदिर के पास पर्णकुटीर में रहे. स्वामी विवेकानन्द की पहली उत्तराखण्ड यात्रा का यह अंतिम पड़ाव था.
विश्व भर में ख्याति पाने के बाद 6 मई 1897 को स्वामी विवेकानन्द कलकत्ता से अल्मोड़ा के लिये निकले. 9 मई को स्वामी विवेकानन्द काठगोदाम पहुंचे जहां गुडविन और अन्य शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया. 11 मई को स्वामी विवेकानन्द का अल्मोड़ा में भव्य स्वागत हुआ.
लाला बद्री साह के प्रयासों से स्वामी विवेकानन्द के लिये स्वागत सभा मंडल का आयोजन हुआ जिसमें पं. ज्वालादत्त जोशी ने हिन्दी में, पं. हरीराम पांडे ने बद्रीशाह की ओर से अंग्रेजी में और एक अन्य पंडित ने संस्कृत में अभिनंदन पत्र पढ़कर सुनाया.
अपनी दूसरी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने अपना अधिकांश समय दउलधार में बिताया. अल्मोड़ा-ताकुला-बागेश्वर मार्ग पर 75 किमी की दूरी पर स्थित दउलधार में अल्मोड़ा के चिरंजीलाल साह का उद्यान था. सुंदर तालाब के साथ लगे दो बड़े भवनों वाला यह स्थान वर्तमान में खंडहर हो चुका है.
स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता के विषय में अनेक लोगों को पत्र लिखकर बताया है. स्वामी शुद्धानन्द, मेरी हेल्बायस्टर, भगिनी निवेदिता आदि को लिखे अपने पत्रों में स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता का वर्णन किया है.
इस दौरान अल्मोड़ा नगर में स्वामी विवेकानन्द के तीन व्याख्यान हुये. पहला हिन्दी में जिला स्कूल (आज कल का जी-आई.सी) में, दूसरा इंग्लिश क्लब में और तीसरा चार सौ प्रबुद्ध लोगों की सभा में.
नवंबर 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने आठ दिवसी देहरादून की यात्रा भी की. उत्तराखण्ड की दूसरी यात्रा का अंतिम स्थल देहरादून ही था. स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर उनकी पश्चिमी देशों में रहने वाली उनकी शिष्याएं भारत आईं. मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द की बहुउदेशीय उत्तराखण्ड यात्रा प्रारंभ हुई.
स्वामी विवेकानन्द की तीसरी उत्तराखण्ड यात्रा के समय उनके साथ गुरुभाई स्वामी तुरीयानन्द और स्वामी निरंजनानन्द, उनके शिष्य स्वामी सदानन्द और स्वरूपानन्द थे. स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी देशों से आई शिष्याओं में ओली बुल, मैकलाउड, मूलर, भगिनी निवेदिता और पैटरसन शामिल थीं. 13 मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द अपनी टोली के साथ काठगोदाम पहुंचे.
डोली और घोड़े में बैठकर स्वामी विवेकानन्द और उनके साथी नैनीताल पहुंचे. नैनीताल में उनका स्वागत राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने किया. नैनीताल में वे तीन दिनों तक रहे.
नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द की भेंट खेतड़ी की दो नर्तकियों से हुई. नर्तकियों से मिलने पर बहुत से लोगों ने स्वामी विवेकानन्द की आलोचना भी की गई.
अपनी तीसरी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के थामसन हाऊस में रुके. कहा जाता है कि इस यात्रा से पहले तक भगिनी निवेदिता अपना पूरा जीवन सेवा में देने की बात को लेकर निश्चित नहीं थी. अल्मोड़ा में ही भगिनी निवेदिता ने तय किया की अब वे अपना पूरा जीवन सेवा में व्यतीत करेंगी.
25 मई से 28 मई तक तीन दिन स्वामी विवेकानन्द ने सैयादेवी के शिखर पर तपस्या में व्यतीत किये और 30 मई को एक सप्ताह के लिये किसी और जगह चले गये. इस दौरान टायफाइड के कारण गुडविन की मृत्यु हो गयी. गुडविन स्वामी विवेकानन्द के आशुलिपि लेखक और समर्पित भक्त थे.
गुडविन की मृत्यु का सामाचार सुनकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा – “अब मेरे जनता में भाषण के दिन समाप्त हो गये हैं. मेरा दाहिना हाथ चला गया है.”
स्वामी विवेकानन्द ने सेवियर को बंगाल से छपने वाले ‘प्रबुद्ध भारत’ का संपादन सौंपा. अब इसे अल्मोड़ा से छापने का आग्रह भी किया. इस तरह यह स्वामी विवेकानन्द का अंतिम अल्मोड़ा प्रवास था. इस प्रवास में स्वामी विवेकानन्द 23 दिन तक अल्मोड़ा रहे थे.
1896 के लन्दन प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द के मन हिमालय में एक मठ स्थापना के संबंध में हेल बहनों को एक पत्र लिखा. इसी वर्ष इस संबंध में एक पत्र स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के लाला बद्री साह को भी लिखते हैं. जब स्वामी विवेकानन्द ने इस संबंध में सेवियर दंपत्ति बात की तो वे उत्साहित होकर इसका हिस्सा बनने को तैयार हो गये.
सार्वजनिक मंच पर मठ की स्थापना की बात स्वामी विवेकानन्द ने 1897 की यात्रा के दौरान भी कह दी थी. 1898 में जब स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा से कश्मीर की यात्रा पर चले तो सेवियर ने मठ के लिये भूमि खोजना शुरू करा दिया.
अंत में उन्हें अल्मोड़ा से 70 किमी दूर लोहाघाट से 10 किमी दूर माईपट नाम का स्थान मिला. यह अवकाश प्राप्त जनरल मि. मैकग्रेगर का चाय बागान था. उसने मठ बनाने के लिये जमीन बेचने पर हामी भर दी. इसका नाम बाद में मायावती हुआ.
स्वामी विवेकानन्द का हिमालय मठ का स्वप्न 19 मार्च 1899 को पूरा हुआ. 26 दिसम्बर 1900 को स्वामी विवेकानन्द मायावती के लिए निकले. 29 दिसम्बर को वे काठगोदाम पहुंच गए. 3 जनवरी 1901 को अनेक बाधाओं के बाद स्वामी विवेकानन्द सीधा मायावती पहुंच गए.
स्वामी विवेकानन्द के मायावती पहुँचने से पहले कर्मठ सेवियर की मृत्यु हो चुकी थी. उनकी पत्नी श्रीमती सेवियर ने अपना अधिकांश समय मायावती में ही बिताया. स्वामी विवेकानन्द 3 जनवरी से 18 जनवरी 1901 तक मायावती में रहे. स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से ‘पत्रिका प्रबुद्ध’ के लिये तीन लेख लिखे. पन्द्रह दिन के अपने मायावती प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद प्रत्येक दिन सुबह और शाम आध्यात्मिक चर्चा करते.
18 जनवरी 1901 को स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से विदाई ली.
मोहन सिंह मनराल की पुस्तक उत्तराखण्ड में स्वामी विवेकानन्द के आधार पर.
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1 Comments
MAYANK PRASAD
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