समाज

सोमेश्वर घाटी में श्रम का महीना ‘असोज’

सोमेश्वर, कोसी और साईं नदी के बेसिन पर बसा एक उपजाऊ इलाका है. मुख्य फसल धान वाली सोमेश्वर घाटी को चावल का कटोरा कहा जाता है. चावल इस घाटी के लोगों के लिए केवल फसल नहीं है बल्कि इस पौधे के जीवन चक्र के साथ घाटी के लोगों का जीवन भी एकसार है.
(Someshwar Valley Rice Cultivation)

आषाढ़(जून-जुलाई) वह महीना होता है जब इस फसल को रोपा जाता है. तब जगह-जगह धान के खेत में घुटनों तक पानी और कीचड़ में सनी महिलाएं बड़ी तल्लीनता से धान रोपती हुई देखी जा सकती हैं. रोपाई का काम एक तरह की सहकारिता से किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में “पल्टा” कहते हैं. पल्टा का अर्थ है- गाँव के लोग आपस में एक दूसरे के खेत में रोपाई लगाने में मदद करती है. सावन और भादो चावल की निराई और गुड़ाई में बीत जाता है और फिर वह महीना आता है जिसकी तासीर से सोमेश्वर में रहते हुए आप दूर नहीं रह सकते- असोज.

असोज यानी धान के तैयार होने का महीना. हिंदी कलैंडर में आश्विन के नाम से जाना जाने वाला यह महीना अंग्रेजी कैलेंडर के सितम्बर और अक्तूबर माह को एकाकार करता है. हिन्दू परम्परा के अनुसार आश्विन माँ दुर्गा का महीना है. शारदीय नवरात्र, दशहरा जैसे पवित्र त्यौहार इस महीने में पड़ते है. सोमेश्वर घाटी के लिए यह महीना एक महीने भर चलने वाले लोक पर्व के समान है. इस महीने में सोमेश्वर की कई दुकानें और छोटे होटल आपको बंद मिलेंगे. स्कूल कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियां इस महीने स्कूल कॉलेज की राह छोड़ खेत की राह पकड़ते हैं. नौकरी पेशा तबका जिसका कार्यालय जाना अनिवार्य है अपना रविवार असोज की भेंट करता है. अगर सोशल मीडिया की लहर से असोज को मापा जाए तो सोमेश्वर के लोगों की फेसबुक डीपी से लेकर व्हाट्सएप्प स्टेटस तक में असोज कब्जा कर लेता है.

इन दिनों सोमेश्वर में कितनी ही अलसुबह उठ जाए लेकिन खेतों में काम करने वाले लोग आपको देर से उठने का एहसास कराते हैं. लोग इसे जो कुछ भी कहें मैं इस महीने को “श्रम का पर्व” कहती हूँ. मुझे तो आजकल यहाँ कि हवा तक धान कटाई, मड़ाई जैसे शब्द कहते हुए सुनाई देती है. कॉलेज आते-जाते हुए मेरा सामना इन्हीं धरती पुत्र और पुत्रियों से होता है जिनसे असोज के किस्से सुनने का अपना मजा है.

एक उम्रदराज जोड़ा जो धान काटने आया है उनमे प्रेम भरी बहस चल रही है, मैं उनसे चुहल करती हूँ. आमा, बूबू सही से काम नहीं करते हैं टाइट करो इनको. प्रतिउत्तर में दोनों पोपले मुह से हंसते हैं और बूबू कॉलेज में पढ़ाने की मेरी बात सुन कर अभिवादन के लिए सुबह-सुबह मुझे गुड नाईट कहते हैं. खेतों में काम करती अनजान महिलाओं से मैं दुआ-सलाम करती हूँ उनका हाल चाल लेती हूँ. शान्ति देवी असोज के बारे में कहती हैं- असज्ज का महीना हुआ इसलिये तो नाम ही असोज हुआ. इस महीने हम दो या तीन बजे उठ जाते हैं और खेतों को आ जाते हैं फिर दिन भर खेत में धान काटना, सुखाना, माड़ना हुआ,बची हुई घास(पराल) को समेटना हुआ तो रात को ही लौट पाते हैं. घर में भी चैन नहीं हुआ बारिश हुई तो फैली हुई घास समेटने आना होता है.
(Someshwar Valley Rice Cultivation)

शान्ति देवी की बहु पुष्पा कहती हैं- यहाँ कहावत है, असोज में तो बीमार भी खड़े हो जाते हैं. अगर खड़े नहीं होंगे तो खायेगे क्या? फिर आगे जोड़ती हैं- असोज का बस इतना सुख हुआ आस-पास की महिलाओं से भेट-घाट हो जाती है. बातचीत में काम का पता नहीं लगता. मैं पूछती हूँ- असोज के बाद तो आराम होता होगा न? शान्ति देवी हंसते हुए कहती हैं फिर सुबह चार बजे उठ कर जंगल जाते हैं जाड़ों के लिए लकड़ी, पिरूल, घास भी तो लानी हुई. पहाड़ की औरतों के जीवन में नहीं हुआ मैडम आराम.

महिलाओं से बात करते हुए मुझे जानकारी मिलती है कि सोमेश्वर में अधिकांश लोगों के पास अपने खेत नहीं हैं. धान बोने के लिए बटाई पर खेत लिए जाते है. जिनको लेने की दो प्रथाएं प्रचलित है- अधिया और क़िस्त. अधिया में आधी फसल खेत के मालिक की और आधी श्रम करने वाले की. इसमें बीज खाद आदि बोने वाले का होता है. क़िस्त में कुछ नकद पैसा देकर खेत के मालिक से खेत लिया जाता है. इसमें फसल पर खेत मालिक का कोई अधिकार नहीं.
(Someshwar Valley Rice Cultivation)

मैं चलते चलते पूछती हूँ- आप लोग लाल चावल नहीं उगाते? क्योंकि पिथौरागढ़ में बचपन बिताने के कारण आज तक मेरे लिए पहाड़ी चावल मतलब लाल चावल ही होता था. यहाँ लाल चावल नहीं होता. लाल चावल वहाँ होता है जहाँ पानी कम होता है जहां रोपाई नहीं लगाई जाती अपने पारम्परिक ज्ञान के आधार पर महिलायें मुझे उत्तर देती हैं. मैं अपने पारम्परिक ज्ञान में वृद्धि कर उनसे तस्वीर खिचवाने का आग्रह करती हूँ और कुछ एक तस्वीरें खीच उन्हें अलविदा कह. मैं हमारे महाविद्यालय के एक वरिष्ठ सहकर्मी के व्हाट्सएप्प इस्टेटस को गुनगुनाती हुई अपने घर की राह लेती हूँ

महीनों का राजा है ये असोज,
जब धान माड़ोगे तभी करोगे,
चावल का भोज

अपर्णा सिंह

इतिहास विषय पर गहरी पकड़ रखने वाली अपर्णा सिंह वर्तमान में सोमेश्वर महाविद्यालय में इतिहास विषय ही पढ़ाती भी हैं. महाविद्यालय में पढ़ाने के अतिरिक्त अपर्णा को रंगमंच पर अभिनय करते देखना भी एक सुखद अनुभव है.

इसे भी पढ़ें: पुरुषों के वर्चस्व वाले परम्परागत पेशे को अपनाने वाली सोमेश्वर की ‘गीता’ की कहानी

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago