उसका वहां होना, जहां उसे नहीं होना चाहिये था, स्वयं में एक घटना थी. सभागृह- प्रेक्षागृह, वाचनालय- पुस्तकालय, विश्वविद्यालय-मदिरालय, ऐसे न जाने कितने आलयों में वह निरन्तर जाता रहा था. कहते हैं कि जहां-जहां रवि नहीं पहुंच पाता था, उन समस्त स्थानों पर उसका आना-जाना था. परन्तु एक स्थान ऐसा था जहां रवि पहुंच तो सकता था, परन्तु पहुंचने से डरता था. और रवि क्या, सभी वहां पहुंचने से डरते थे. कवि आज वहीं पर खड़ा हुआ था. थाने में.
फटा हुआ उपरिवस्त्र. गीला अधोवस्त्र. गले में पुष्पहार, जिसके पुष्प उसके चेहरे की तरह ही मुरझाए हुए थे. पुष्पहार में गुन्ठित स्वर्णाभ मेडल. हाथ में पुरस्कार जैसा कुछ. एक पैर में चर्म उपानह, दूसरे में रबड़ उपानह. अस्त-व्यस्त केश. म्लान मुख.
शिथिल,क्लांत कवि ने थानाप्रभारी से कुछ ऐसा कहा जिसे सुनकर सभी चौंक गये. ऐसा विषय उनके समक्ष कभी उपस्थित नहीं हुआ था. विधि की किसी भी पुस्तक में इस प्रकार के अपराध का उल्लेख नहीं था. न संज्ञेय, न असंज्ञेय. कवि ने कहा कि मुझे…
दस वर्ष पूर्व…
कवि ने बाल्यकाल से ही महान कवियों की रचनाएँ पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था. उसने कविता के शिल्प को समझा. रस, छंद, अलंकार के रहस्य को जाना. किशोरावस्था में लिखी गई कुछ कविताओं से उसे कक्षा में प्रेम का प्रसाद प्राप्त हुआ. जिससे उसका उत्साह दूना-चौगुना हो गया. कविता ने उस दीन-हीन एटलस साइकिल वाले कवि को, महाविद्यालय में कनखियों से देखे जाने योग्य बना दिया था. जिस कविता को वह अब तक बौद्धिक विलास का साधन समझता रहा, वह भोग विलास का साधन भी निकली. कवि अब कविता की महत्ता को पूर्णतः पहचान गया था.
किसी कविता की महत्ता यही है कि वह कवि की महत्ता को बढ़ाये, अन्यथा वह व्यर्थ है, भले ही कितनी भी सुंदर, सुगठित क्यों न हो. कविता की इस महत्ता को पहचान कर कवि ने अपना सम्पूर्ण जीवन कविता को समर्पित करने का निर्णय लिया.
दस माह पूर्व…
इतने वर्षों में कवि, कविता लेखन में पारंगत हो गया था. वह एक से एक सुंदर कविताएँ लिखता था. कभी छंदबद्ध,तो कभी छंदमुक्त. कभी दोहे, तो कभी चौपाई. सरस विचार प्रवाह. प्रांजल भाषा. गूढ़ चिंतन. क्या नहीं था कवि की कविता में! अल्पकाल में ही कवि ने नवरस सिद्ध कर लिये थे.
शनैः-शनैः कवि की ख्याति चहुं ओर फैलने लगी. कवि से अनेक नवीन कवि आ जुड़े. सभी एक-दूसरे को अपनी नवीनतम रचनाओं का पान कराते. सभा जुड़ती तो रात्रि के तीसरे पहर से पहले ख़त्म ही न होती. कविताएँ तो सभी सुनाते थे, पर कवि का कोई जोड़ नहीं था. अद्भुत, अतुलनीय लेखन.
अनेक सहकवियों ने उसे अपने संघ में आमंत्रित किया. सभी चाहते थे कि वह उनके संघ की शोभा बढ़ाये. कविता के माध्यम से उनकी विचारधारा का विज्ञापन करे. परन्तु कवि ने सभी आमंत्रण ठुकरा दिये. वह स्वयं का स्वतंत्र अस्तित्व बनाना चाहता था. स्वयं अपने विचारों का प्रवर्तक. वह कविता की प्रत्येक विधा में ‘आगे का काम’ करने का इच्छुक था.
दस दिन पूर्व…
महागुरु के अखाड़े में आज विजयापान का आयोजन किया गया था. अखाड़े के सभी चेले वहां उपस्थित थे. कहानीकार, कवि, व्यंग्यकार, चित्रकार, शिल्पकार, इतिहासकार, पत्रकार. एक से एक विद्वान, प्रतिभाशाली, उद्भट. किसी भी विवाद पर दिगम्बर हो जाने वाले. अखाड़ा दिगम्बरी था.
कहानीकार ने बताया कि वह चित्रकार के एक चित्र पर कहानी लिख रहा है. वही चित्रकार ने बताया कि वह कहानीकार की एक कहानी पर चित्र बना रहा है. कवि ने बताया कि वह शिल्पकार के एक शिल्प से अत्यंत प्रभावित है और उस पर खण्डकाव्य की रचना कर रहा है. वहीं शिल्पकार ने बताया कि वह कवि की एक कविता से अत्यंत प्रभावित है और उसको शिल्प में उकेर रहा है. पत्रकार ने बताया कि वह अखाड़े के सभी चेलों का अपने न्यूज़ चैनल पर साक्षात्कार लेगा. और इतिहासकार ने बताया कि वो अखाड़े के सभी चेलों का अपनी इतिहास की पुस्तक में उल्लेख करेगा.
“यूँ ही एक दूसरे की उन्नति के निमित्त बने रहो सदा”- महागुरु ने मुदित होकर सभी चेलों को आशीर्वाद दिया.
महागुरु शिवप्रिया को अपने हाथों से पीस रहे थे.उनके भुजदण्डों में आलोचना, प्रकाशन, पुरस्कार का विपुल बल था. वे बहुत बारीक पीसते थे. इसी बीच नवोदित कवि की चर्चा भी चल निकली. चेलों ने बताया की नवीन कवि अत्यंत प्रतिभाशाली है.
“हूँ “- महागुरु सुनते जा रहे थे- “ज़रा भींगे बादाम और खरबूजे के बीज तो उठा लाओ!”
एक चेला, जिसका पहला ही कविता संग्रह महागुरु की कृपा से बीए प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम हेतु चयनित हुआ था,लपक कर बादाम और बीज ले आया. चर्चा जारी रही.
महागुरु ने कहा कि उन्होंने भी उस कवि का नाम सुना था कहीं. कहां, याद नहीं आ रहा. चेलों ने उसका प्रशस्ति गान जारी रखा.
नवोदित कवि कविता के नवीन प्रतिमान बना रहा है. वह ऐसा लिखता है, वह वैसा लिखता है. उसने कहा है कि वह किसी भी गुट में सम्मलित नहीं होगा. वह चाटुकारिता में विश्वास नहीं करता. वह कभी पुरस्कार नहीं ग्रहण करेगा. आदि-आदि.
चर्चा चल ही रही थी तभी एक चेला बोला -“महागुरु वह आपका भी प्रशंसक है,परन्तु कह रहा था कि साहित्य में राजनीति और गुटबंदी पैदा करने के आरोप से महागुरु को बरी नहीं किया जा सकता.”
“उसने तो आपकी कविताओं में भी कई त्रुटियां पकड़ी हैं महागुरु!” एक दूसरे चेले ने कहा.
सिल-बट्टे पर चलते महागुरु के हाथ अचानक रुक गये.
“हूँ… ज़रा सौंफ़ तो दे!” हाथ फिर चलने लगे.
दस घण्टे पूर्व…
अभी-अभी अखाड़े के अतिरिक्त वरिष्ठ कवि (एएसपी) का कवि के पास फोन आया. उन्होंने बताया कि आज शाम को हिंदी भवन के सभागार में काव्यगोष्ठी का आयोजन है. साथ ही विशिष्ट प्रकार की मदिरा और अति विशिष्ट प्रकार के माँस का भी प्रबंध रहेगा. एएसपी महोदय ने बताया कि सत्र में महागुरु स्वयं पधार रहे हैं और आपकी कविताएँ विशेष रूप से सुनना चाहते हैं. साथ ही महागुरु की महाशिष्या भी कवि से बहुत प्रभावित हैं और वे भी आपसे मिलना चाहती हैं. आप सादर आमंत्रित हैं.
कवि को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि महागुरु से मिलने का सौभाग्य उसे मिल रहा है. और उस पर भी ये कि महागुरु उसके नाम से परिचित हैं. और उसके भी ऊपर ये कि महाशिष्या उससे मिलना चाहती है.
महानगर के एक श्रेष्ठी के महालय में आयोजित पाँच कवियों की महासभा में कवि का महाशिष्या से प्रथम नैनाचार हुआ था. साँवला वर्ण, उसके ऊपर श्वेत साड़ी, श्वेत स्लीवलैस ब्लाउज़ और श्वेत कर्णफूल. लगता था जैसे रजत मुद्रिका में कृष्ण मोती जड़ा हो. उसको देखते ही कवि के मन में तत्काल चार कविताएं प्रस्फुटित हुई थीं.
महाशिष्या तो चली गई पर कवि के हृदय में अपनी श्वेत शिफॉन छोड़ गई.
आज कवि को पता चला कि वह भी उस कवियत्री के मन में अपना मटमैला मारकीन छोड़ आया था. उसके हर्ष का पारावार न रहा.
मदिरा, माँस, महासभा, महाशिष्या और महागुरु- कविता के पंचमकार की एक साथ उपलब्धि. कवि को वहां पहुंचना ही था. उसने अपनी कुछ उत्कृष्ट रचनाएँ अच्छे से कंठस्थ कीं और उनका पुनः-पुनः अभ्यास किया.
दस मिनट पूर्व…
जैसा एएसपी महोदय ने बताया था, उससे कवि को लगा कि सभा में आकर्षण का मुख्य केंद्र वह ही होगा. इसलिये उसने निर्धारित समय से थोड़ा देर से पहुंचने का निश्चय किया.
नगर के बाहर निर्जन अटवी में वह हिंदी भवन स्थित था, जिसका निर्माण अनेक वर्ष पूर्व हिंदी साहित्य के उत्थान के लिये कराया गया था.
हिंदी साहित्य का यह भवन प्रारम्भ में अत्यंत चहल-पहल का केंद्र रहा. बहुत रौनक रहती थी यहां. साहित्य की सभी विधाओं के लेखकों का आना-जाना था. पाठक भी इस भवन में खूब आते. भले ही यह नगर से बाहर बनाया गया था,पर लेखकों का आकर्षण कुछ ऐसा था कि पाठक इतनी दूर भी खिंचे चले आते थे. कुछ वर्ष तो यह सिलसिला चलता रहा. पर फिर परिस्थितियां बदलने लगीं.
शनैः-शनैः कवियों ने इस भवन पर अपना आधिपत्य जमाना प्रारम्भ कर दिया. उनके अंदर यह भावना घर कर गई कि वे साहित्य में सर्वोपरि हैं. अन्य सभी विधाओं को कविता के अधीन आना होगा. थोड़ा बहुत सम्मान वे कहानी-उपन्यास लेखकों को देते थे. अब इस भवन में अन्य विधाओं के उन्हीं लेखकों का प्रवेश अनुमन्य था जो कवि और कविता को सर्वोपरि माने . परन्तु इन कवियों में भी परस्पर कुछ कम विवाद नहीं थे.
प्रारम्भ में भवन का आधिपत्य छंद लेखक संघ (छलेस) के पास रहा. पर समय बदला, और समय के साथ सत्ता भी. भवन पर धीरे-धीरे मुक्त लेखक संघ (मुलेस) का अधिकार हो गया. और छलेस,भवन के छोटे से कक्ष तक सीमित हो कर रह गया. इधर मुलेस के भीतर भी हितों का संघर्ष हो रहा था.
मुलेस के कुछ लेखक चाहते थे कि भवन का पुनर्निर्माण सोवियत स्थापत्य के आधार पर किया जाय. वे भवन के शिखर क्रेमलिन की तरह बनाना चाहते थे. वहीं कुछ इसे यूरोपीय तरीके से ढालने के इच्छुक थे. कुछ इसमें ग्रीक शैली के पक्षधर थे, तो कुछ फ्रेंच.
कुल मिलाकर जिसका भी अधिकार भवन पर हुआ,उसने भवन को अपनी तरह से तोड़ा-फोड़ा. कभी शिखर बनाये गये तो कभी गुम्बद. कभी गोपुरम तो कभी बगीचे.हमेशा चलने वाली इस तोड़-फोड़ से पाठक इस भवन से दूर होते चले गये. और भवन भी कुरूप दिखने लगा.
कवि वहां पहुंचा तो द्वार पर एएसपी महोदय स्वयम स्वागत के लिये उपस्थित थे. वे कवि को भवन के भीतर ले गए. अनेक प्रकाशमान-भव्य कक्षों से निकल कर वे एक सँकरे,अंधेरे गलियारे की ओर बढ़े. संकेतक लगा था – नवीन सभागार. कवि वहां ठिठका तो एएसपी महोदय ने उसका हाथ पकड़ कर कहा- घबराइए नहीं! मेरा हाथ पकड़ लीजिये. फिर वे उस अंधेरे में कभी सीढ़ियां उतरते, कभी मुड़ते, तो कभी दीवार से सट कर चलते.
‘यहां इतना अंधकार क्यों है? ’कवि ने पूछा, ‘और ये मार्ग इतना दुर्गम क्यों है कि कोई पहुंच ही न पाए?’
‘महागुरु इसे इसी तरह बनाना चाहते थे, ‘एएसपी महोदय ने बताया, ‘उनका विशेष आग्रह था कि नवीन सभागार का मार्ग ऐसा ही रखा जाय. आप हिंदी भवन से बाहर रह कर कविता लिखते रहे इसीलिये आपको इसकी जानकारी नहीं है. यूँ समझ लीजिये कि जो यहां तक नहीं पहुंचा, वो कहीं नहीं पहुंचा. महागुरु कहते हैं उस व्यक्ति की कविता का कोई मोल नहीं है जो हमारे सभागार में नहीं आया.
वे सभागार में पहुंच गये. जहां बहुत हल्का सा लाल प्रकाश हो रहा था. नीचे, आगे की कुर्सियों पर आठ-दस लोग विराजमान थे. जिनमें ठीक मध्य में महागुरु बैठे थे. कवि ने महागुरु को प्रणाम किया. महागुरु ने दूर से ही हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया. कवि की दृष्टि महाशिष्या को खोज रही थी. परन्तु महाशिष्या वहां नहीं दिखी.
कवि को एएसपी महोदय सीधे मंच पर ले गए. कवि को कुछ संशय हुआ तो उसने पूछा,’सीधे मंच पर क्यों?’
‘आज का पूरा कार्यक्रम आपको समर्पित है,’ एएसपी महोदय ने उत्तर दिया.
उद्घोषक ने कवि का परिचय कराते हुए चार अन्य नवोदित कवियों को भी मंच पर आमंत्रित किया. उसके बाद इतिहासकार, कहानीकार, निबंधकार, शिल्पकार, संगीतकार एवम कुछ अन्य ‘कार’ भी मंच पर बुलाये गए. कवि को पुनः संशय हुआ. परन्तु अब संशय समाधान हेतु अवकाश नहीं था.
सभी ने कवि को घेर लिया. फिर उद्घोषक ने माल्यार्पण के लिये महागुरु को मंच पर आमंत्रित किया. महागुरु ने कवि को माला पहनाई. फिर उद्घोषक ने घोषणा की कि कवि को मलेस की तरफ से उसके नवीन कविता संग्रह के लिये सर्वश्रेष्ठ बाल कवि पुरस्कार प्रदान किया जायेगा और साथ में विशिष्ट महागुरु मैडल दिया जाएगा.
कहानीकार हाथ में पुरस्कार लेकर कवि की ओर बढ़ा.
कवि ने कहानीकार से विनम्रतापूर्वक कहा, ‘मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझे इस योग्य पाया . परन्तु प्रथमतः तो मैं बालकवि नहीं हूँ और न ही मैं बालकविताएँ लिखता हूँ. अवश्य कोई भ्रम हुआ है. और द्वितीयतः पुरस्कार ग्रहण न करने के स्वयम् के संकल्प से मैं आबद्ध हूँ. अतः मैं ये पुरस्कार नहीं ग्रहण कर सकता.’
कहानीकार बोला, ‘आपका सौभाग्य है कि महागुरु ने पुरस्कार हेतु आपका चयन किया है. यूँ इसे वापस करना, इसका अपमान होगा.
‘नहीं! मैं अपने सिद्धांत पर अडिग हूँ.‘
‘तेरे सिद्धांत की ऐसी-तैसी. ये ले, पकड़ पुरस्कार!’ यह कह कर कहानीकार ज़बरदस्ती कवि के हाथ में पुरस्कार पकड़ाने लगा.
‘आप इतनी अशिष्टता से बात नहीं कर सकते मुझसे! और मुझे बलात पुरस्कृत नहीं कर पायेंगे आप!’ कवि ने अपना हाथ झटक दिया.
‘पकड़ो तो ज़रा इसको!’ पीछे खड़े एएसपी महोदय ने बाकी लोगों से कहा. सब ने मिलकर कवि को पकड़ लिया.
‘अरे-अरे! ये क्या कर रहे हैं आप लोग? ये क्या ज़बरदस्ती है! कवि चीखा.
‘ज़रा महागुरु मैडल तो लाना! पहनाता हूँ इस साले को! बड़ा आया ‘मैं पुरस्कार ग्रहण नहीं करता’.‘
एएसपी महोदय हाथ में मैडल लेकर कवि की ओर बढ़े. मंच पर झूमा-झटकी शुरू हो गई. एटलस साइकिल वाला वह कवि भले ही पतला था पर उसकी हड्डियाँ दधीच ब्राण्ड थीं. वह बराबरी से संघर्ष कर रहा था. एएसपी महोदय एवम उनके साथी पूरे प्रयास के बाद भी कवि के गले में मैडल नहीं पहना पा रहे थे. यह सब महागुरु देख रहे थे. शीघ्र ही उनका धैर्य जवाब दे गया.
वे ज़ोर से चीखे, ‘रिपोर्ताज!’
सभागार में ठीक मध्य की कुर्सी पर बैठा रिपोर्ताज लेखक खड़ा हो गया, जो देखने में रिपोर्ताज शब्द से भी अधिक भयानक था.
छः दशमलव पांच फुट का वह रिपोर्ताज, जिसके चेहरे के दाहिने भाग पर चाकू के घाव का निशान था, मंच पर पहुंच गया और उसने कवि को पकड़ लिया. कवि को अपनी कमर पर कोई नुकीली वस्तु चुभने का अनुभव हुआ. वह रिपोर्ताज का छः दशमलव पांच इंच का चाकू था.
उस चाकू की अनी ने अनीश कवि को भयभीत कर दिया. वह स्तब्ध रह गया. कवि को कंठस्थ कविताऐं, कंठ से नही, किसी अन्य स्थान से बह निकलीं. कुछ कविताऐं आँखों से भी बही.
एएसपी महोदय ने उसके गले में मैडल पहनाया. महागुरु ने उसे पुरस्कार दिया. पत्रकार ने कवि की फोटो खींच लीं, जिनमें वह मुलेस के सदस्यों के साथ पुरस्कार पकड़े खड़ा था. फिर महागुरु ने आदेश दिया कि कवि को बाहर छोड़ दिया जाय. किंकर्तव्यविमूढ़ कवि को एएसपी महोदय ने कहा,’चलो!’
किसी स्वचालित यंत्र की तरह कवि एएसपी के पीछे-पीछे चलने लगा. कहानीकार, शिल्पकार, संघ के कवि और अन्य सभी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. कवि के शून्यवत नेत्रों ने पूरे सभागार पर दृष्टि डाली. महाशिष्या अभी भी वहां नहीं थी. महाशिष्या की अनुपस्थिति ने कवि के अपमान की वेदना को कुछ कम कर दिया. फिर कवि को देख कर कहानीकार बोला,’ कलमा पढ़ गया भैया, कलमा! ला इलाह इल्लिल्लाह मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह!…हा!हा!हा!’ सब हँसने लगे.
दस सेकेण्ड पूर्व…
कवि थके कदमों से उस जंगल में चला जा रहा था. उसके मस्तिष्क में एक निर्वात बन गया था. विचारों का निर्वात. तभी सामने उसे थाना दिख गया.
वह सीधे थाना प्रभारी के पास गया और कहा,’ मुझे पुरस्कार दे दिया गया है. रिपोर्ट लिखिये!’
‘क्या? …क्या कही तैने?’ थाना प्रभारी को लगा जैसे वे स्पष्ट नहीं सुन पाये हों.
‘जी, मुझे पुरस्कार दे दिया गया है. मेरे सिद्धांतो का शील भंग हुआ है. मेरी कविता के छंद छिन्न-भिन्न कर दिये गये हैं. उनकी मात्राएँ मिटा दी गई हैं.‘
थाना प्रभारी अपनी कुर्सी से खड़े हुए. कवि को ऊपर से नीचे तक देखा और उसका अभिवादन कर दिया. फिर ज़ोर से चिल्लाए, ‘दीवान जी! कोउ पागल-सिर्री घुसि आये, तुम सब सोत रहियो. संतरी कितें है? मर गओ का?’
दीवान जी कवि को पकड़ कर बाहर छोड़ आये. लक्ष्यहीन-विकल्पहीन कवि भटकता हुआ एक बस स्टॉप पर पहुंचा और वहां लगी पत्थर की बेंच पर बैठ गया.
सुबह जब कवि की आँख खुली तो वहां अन्य यात्री खड़े बस की प्रतीक्षा कर रहे थे. एक यात्री अख़बार पढ़ रहा था. ख़बर छपी थी- बाल कविता में योगदान के लिये मुलेस ने कवि को किया सम्मानित.
ख़बर पढ़ कर एक यात्री ने दूसरे से कहा, ‘लो देखो! ये वही कवि हैं जो बड़ी-बड़ी बातें करते थे. ‘दूसरा यात्री बोला, मैं तो पहले ही कहता था ये मुलेस का आदमी है. ये साहित्यकार क्या नेताओं से कुछ कम गिरगिट हैं!’
बताते हैं कि आज भी वो कवि बरादरी चौराहे पर घूमता रहता है. और लोगों को पकड़-पकड़ कर कहता है – भाई साहब! मैं बाल कवि नहीं हूँ! मैं बाल कवि नहीं हूँ भाई साहब!
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प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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