‘राजनैत’ लेखक आशुतोष मिश्र का पहला उपन्यास है. अपनी पहली ही रचना में उन्होंने प्रवाहमय विट-संपन्न गद्य लिखा है. उनमें एक समर्थ प्रतिभाशाली लेखक की झलक मिलती है. Review Ashutosh Mishra Novel Rajnait
उपन्यास का कथानक और विषय वस्तु प्राक्-लिंगदोह दौर के छात्र-संघ चुनावों पर आधारित है. लिंगदोह कमेटी के प्रतिवेदन के पश्चात छात्र संघ चुनावों का स्वरूप यकायक बदलकर रह गया. इससे पूर्व कॉलेज-विश्वविद्यालयों में चुनावों का नजारा कुछ और ही रहता था. कैंपेनिंग की रौनक देखते ही बनती थी. कमेटी की सिफारिशों के बाद पूर्व से चल रही परिपाटी पर कई बंदिशें लग गईं. सब सूना-सूना सा लगने लगा. Review Ashutosh Mishra Novel Rajnait
इसके उलट उस दौर में विद्यास्थली के नामांकन-जुलूस के चलते लंबा जाम लगा हुआ था. जब सवारी रिक्शा-चालक पर झुंझलाई, तो रिक्शा-चालक ने अपनी प्रतिभा उड़ेलकर रख दी- “रास्ता तो कई हौ साहब. ई बनारस हये. हियाँ न रास्ता के कमी हौ, न गलियन के, ना ही जाम के…लेकिन ऐह समय रिक्शा एक इंच हिले के पोजीशन में ना हौ..”
जाम के कारण में जाते हुए रिक्शा-चालक सवारी को ‘एनलाइटन’ करते हुए बताता है- “बतवली त अबही कि आज विद्यास्थली में नामांकन हौ… अध्यक्ष, महामंत्री बनत हैन..बहुत फेमस है यहाँ के चुनाव..”
सवारी के जिज्ञासा जताने पर नारायण खुलासा करते हुए बताता है- “भईयाजी ये यूनिवर्सिटी है. इहाँ बहुतै लड़का पढ़त हैन. अंदर कई हॉस्टल हैन, हजारों लोग ओकरे अंदर रहे लन. एक बात बताईं, केहु से कहिहा मत, इज्जत के बात हौ.. इहाँ पढ़ाई कम नेतागिरी जियादा होता है.”
वह राजनैत और राजनीति का फर्क स्पष्ट करते हुए बताता है – “नाहीं साहेब, राजनीति और राजनैत में फर्क होता है. हम इन दोनों के बारे में बहुत ठीक से जानत हई.. राजनीति आपके अमेरिका, इंग्लैंड में होत होई, काशी अउर विद्यास्थली में तो राजनैत ही होला. इहाँ के सारे नेता लोग राजनैत बोलत हैन..”
वह राजनैत की अच्छाइयों पर प्रकाश डालते हुए कहता है – “…पर राजनैत में आज भी अच्छाई जिंदा हौ, कम-से-कम जबान की कीमत तो हइये हौ. जबान देके धोखा देवल, इहाँ के नेता सोच भी नहीं सकत हैन..”
निष्कलुष हास्य और शार्प विट बनारस के पानी में है. बनारस, कबीर जैसे निर्भीक व्यंग्यकारों की स्थली रही है. वहाँ के जन-जीवन में सहज परिहास-बोध और कौतुकपूर्ण सूझ-बूझ यूँ ही पाई जाती है.
वह बनारस की जिंदादिली का रहस्य खोलते हुए बताता है, ये बाबा की नगरी है. यहाँ का मिजाज दूसरों से जुदा है – “… काल भैरव ने कभी कोतवाली का चार्ज इंस्पेक्टर को दिया ही नहीं. कभी देंगे भी नहीं. यदि किसी इंस्पेक्टर ने चार्ज माँग लिया, तो लतियाकर अपने नगर से बाहर भगा देंगे.”
रिक्शा-चालक नारायण की इस नगर में क्यों आएँ, कब आएँ, कैसे आएँ और कौन सी भाषा इस्तेमाल करें, को लेकर अच्छी-खासी समझ-बूझ दिखती है – “जैसे ही विद्यार्थी यहाँ के नल से दो-चार बार पानी पीता है, राजनैत का नशा अफीम की तरह असर करने लगता है.”
“मठाधीश कैंपस की धरोहर हैं. ये जब चाहे कैंपस में आग लगवा सकते हैं, लगी आग को बुझा सकते हैं. बस एक काम नहीं कर सकते. अपने पैनल-प्रत्याशियों को अपने दम पर दस-बीस से अधिक वोट नहीं दिलवा सकते.”
“इनका मानना है कि वास्तविक वोटरों के बीच जाने से उनका स्तर गिर जाएगा. पद की गरिमा धूमिल हो जाएगी, इसीलिए तो मठाधीश भीड़ में रहते हुए भी भीड़ से बिल्कुल अलग और तन्हा रहते हैं.”
छात्रावासों के हालात पर गौर करते हुए बताते हैं, “अंतिम मेस-संचालक कंगाल हो गया. दो साल में अठन्नी तो कमाया नहीं, ऊपर से मुफ्त में खिलाते-खिलाते इतने कर्ज में चला गया कि उसका दोमंजिला मकान बिक गया..”
इससे छात्रों की सेहत को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. उपन्यास में इस मानसिकता पर सटीक बिंब खींचा गया है – “प्रत्येक कमरे के स्विच बोर्ड में हीटर जलाने के लिए बड़ा काला टिक-टॉक स्विच मय सॉकेट लगा रहता है, साथ ही स्विच बोर्ड के दोनों तरफ अलग से एलुमिनियम के लाल-काले (फेस-न्यूट्रल) दो तार दो-दो इंच नंगी अवस्था में मुड़े हुए लटके हैं. स्विच या सॉकेट या प्लग जल जाए, तो हीटर का वायर डायरेक्ट इन दोनों नंगे लटके तारों में मोड़कर कटिया डालने जैसी अवस्था में लटका दीजिए. हीटर टनाटन जलेगा. फिर पकाइए मनपसंद पकवान.”
छात्रावासों में आगंतुकों के लिए किस कदर दरियादिली दिखाई जाती है, इसका तस्करा पढें – “प्रत्येक कमरे में दो-दो तख्त पड़े हैं, जिनमें मिलाकर छात्र डबलबेड बना देते हैं… दो-दो मेज भी उपलब्ध हैं, जिन्हें दीवार और डबलबेड बने तख्त के मध्य बची जगह में चिपकाकर एक साथ लगा देने पर दोनों मेज मिल- जुलकर एक सिंगलबेड का निर्माण कर देते हैं, तख्त से लगभग बारह इंच ऊँचा. इस पर एक दरी पड़ी होती है और यह प्राइवेट छात्र या बाहरी छात्र या किसी नाते-रिश्तेदार के सोने के काम आता है. कम-से-कम तीन छात्र बिना किसी असुविधा के सोया करते हैं. प्रत्येक कमरा भले ही एक-दो छात्रों के नाम आवंटित होता है, लेकिन उनके साथ स्थाई रुप से दो या तीन परजीवी छात्र तो रहते ही हैं. छात्र चाहे तथागत हों, चाहे व्यक्तिगत, चाहे भूतपूर्व छात्र हों या भावी…”
‘”कमरा किसके नाम आवंटित है, यह कमरे में रहने वाले को पता ही नहीं होता. जबकि कागजों में तो हॉस्टल का कौन सा कमरा किस शोधार्थी के नाम आवंटित है, कब से आवंटित है और कितने समय के लिए आवंटित है, सब अंकित रहता है. बाकायदा रजिस्टर मेंटेन किया जाता है लेकिन कागजों के अनुसार कुछ होता ही कहाँ है.’
किसी मठाधीश के कमरे का ब्यौरा इस तरह से बयां किया गया है – “…वही इस कमरे के स्वामी, अध्यासी, किराएदार मालिक, सबकुछ हैं. कब से रह रहे हैं, यह रिसर्च का विषय है. इस पर कोई इतिहास का होनहार जागरुक छात्र रिसर्च कर सकता है और रिसर्च करते हुए यदि वह जान जाए कि नेता गुरु शोध में कब से और किस उद्देश्य से निवास कर रहे हैं, तो उसे कम-से-कम ‘वुल्फसन हिस्ट्री प्राइज’ तो मिलना ही चाहिए.”
छात्र राजनीति में बने रहने के लिए, बरसोंबरस इन मठाधीशों का तथाकथित शोध चलता रहता है – “उनके पास कम से कम दो विषयों में पीएचडी की डिग्री है और तीसरे विषय में फिर से शोध कर रहे हैं. किस टॉपिक पर कर रहे हैं? किस प्रोफेसर साहब के निर्देशन में कर रहे हैं? यह प्रोफेसर साहब जानें. जरूरत होने पर प्रोफेसर साहब खुद आश्रम में पधारकर, नेता गुरु से आवश्यक दिशा-निर्देश शोध के बारे में ले लेते हैं.”
हाईकमान के पार्टी बदलने का लोकल मठाधीशी पर मारक असर पड़ता है- “फिर क्या था. हमेशा प्रफुल्लित रहने वाले नेता गुरु अवसाद में चले गए. इतने उदास हो गए, जितना स्वयं चुनाव हारने पर भी कभी नहीं हुए थे.”
राजनीति में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं, उन्हें एडजस्टमेंट करना ही पड़ता है- “उधर नेता गुरु, इन गतिविधियों से बेपरवाह श्वेत वस्त्र त्याग दिए. नीले रंग का सफारी सूट धारण कर दिए और कैंपस में मदमस्त चाल से उस प्रकार से विचरण करने लगे, जैसे वही छात्र मोर्चा के सिंबल हों..”
एक प्रॉक्सी वोट डालने वाले जन्मजात मतदाता हैं- मामा. “उन्हें अच्छी तरह से याद नहीं कि सर्वप्रथम वह कब मतदान किए थे. किस चुनाव में वोट डाले, स्मृति-पटल पर अंकित ही नहीं है. वैसे उनके चाचा जी बताते हैं कि जब राजीव कक्षा तीन या चार में थे, तब उनके साथ प्रधानी के चुनाव में मतदान-केंद्र तक घूमने गए और यह पता चलने पर कि यहाँ वोट डाला जा रहा है, वोट डालने की जिद करके गला फाड़कर रोते हुए जमीन पर लोटने लगे. काफी मशक्कत के बाद भी जब चुप नहीं हुए, तो एक एजेंट ने मामा को चुप कराने के लिए किसी मृत मतदाता के स्थान पर उनसे वोट डलवा दिया. कहते हैं, तभी से मामा को वोट डालने का शौक-सा पड़ गया, जो बदस्तूर आज भी जारी है…”
उपन्यास में युवा नेताओं के सपने हैं. मानवता के नाते दूसरों को आसरा देते हुए, सालोंसाल छात्रावासों पर कब्जा जारी रखने के बहाने हैं. इसके बावजूद दिग्गजों का हाल ऐसा है कि, उनकी उपयोगिता केवल चुनावों में ही दिखती है – “मंगल भईया पक्का धूर्त आदमी है. झूठ बोलने में माहिर. छह साल से कैंपस में निकिया कर रहे हैं. घोषणा-पत्र तैयार करने और नामांकन पेपर भरने के अलावा आता ही क्या है उन्हें?” Review Ashutosh Mishra Novel Rajnait
“सोलह लाख का फंड है छात्र संघ का. एक बार अध्यक्ष बनने दो बच्चा, दस- बारह लाख कहीं नहीं गया. शहर से हर चुनाव में चंदा उठाए, वो अलग. राजनीति करने के लिए फंड चाहिए. छात्र संघ की राजनीति से पहचान मिलती है, पैसा अलग से … गाजीपुर में राष्ट्रीय अधिवेशन करुंगा और किसी तगड़ी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष, या हो सके तो प्रधानमंत्री जी को बुलाकर पार्टी की सदस्यता लूँगा. फिर देखना विधायकी का टिकट मेरे पीछे-पीछे घूमेगा. राजनीति तो भाई मैं लखनऊ-दिल्ली की ही करूँगा.”
उपन्यास में सीनियर- जूनियर के रोचक किस्से हैं. शक्ति-प्रदर्शन, टिकट-बँटवारा जैसे चुनाव के सभी अनिवार्य चरण आते हैं. उठा-पटक, खींच-तान, व्यूह-रचना चलती रहती है. विपक्ष के संभावित प्रत्याशियों पर डोरे डाले जाते हैं. भयंकर उलट-फेर मचाया जाता है-
“बस इतनी सी बात. सुबह ही तुम्हारे कमरे पर एक मारुति वैन और एक टंच मोटरसाइकिल पहुँच जाएगी. पेट्रोल की चिंता मत करना. लक्ष्मण जी एक लिफाफा देंगे, चुपचाप रख लेना. मालूम है हमें, बहुत संकोची हो तुम.”
रचना में नतीजे आने तक सिलसिलेवार ऐसे रोचक प्रसंगों की भरमार बनी हुई है. वह सब होता जाता है, जिसका उस दौर में दस्तूर बनता था. डेढ़ दशक से पूर्व के छात्र संघ चुनाव हों या विश्वविद्यालयी जीवन, पाठक, सीधे-सीधे कथा से कनेक्ट करने लगता है. रचनाकार का यह गुण, उसकी ताकत बनकर उभरता है. पाठक के मन में निरंतर आगे आ रहे घटनाक्रम को जानने की उत्कंठा बनी रहती है.
व्यंग्य का काम शांति और शीतलता उत्पन्न करना नहीं होता. व्यंग्य प्रहार करता है और पाखंड-विद्रूपताओं को उद्घाटित करता चला जाता है. इस लिहाज से उपन्यास में व्यंग्य की तिरछी नजर बराबर बनी हुई है. Review Ashutosh Mishra Novel Rajnait
तटस्थ नजरिए से देखा जाए, तो कथोपकथन इस उपन्यास की ताकत है. बिना दुराव- छिपाव के यथार्थ को ठेठ लहजे में व्यक्त किया गया है, जिसमें मौलिक गद्य के खुरदरेपन की झलक दिखती है. फड़कता हुआ बनारसी लहजा, रचना की प्रभावोत्पादकता को बढ़ा देता है.
-ललित मोहन रयाल
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समीक्षित पुस्तक – ‘राजनैत’ (उपन्यास), लेखक – आशुतोष मिश्रा, पृष्ठ – 209, मूल्य – रुपए 200, प्रकाशक – नवधारा पब्लिकेशन, रुड़की. आशुतोष मिश्रा: 14 नवम्बर 1979 को बलिया जिले के ग्राम गरया में जन्मे आशुतोष उच्चतर न्यायिल सेवा में अधिकारी हैं. ‘राजनैत’ उनका पहला उपन्यास है.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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