नवीन जोशी

अभिनय और संगीत पियूष की रगों में दौड़ता था

“कोमलांगी सिया प्यारी तू कहाँ? ढूँढता फिरता तुझको मैं यहाँ.” मंच पर राम का विलाप चल रहा है. सीता के आग्रह पर स्वर्ण मृग का आखेट करने गए राम लौटकर कुटिया में सीता को नहीं पाते. उन्हें मालूम नहीं है कि रावण ने छल करके सीता का हरण कर लिया है. उसी छल से लक्ष्मण भी सीता को अकेला छोड़कर उनके पीछे चले आए थे. अब दोनों भाई जंगल-जंगल सीता को खोज रहे हैं. ‘वर्षा विगत शरद ऋतु आई’ और राम का धैर्य जवाब देने लगा है. ‘पिया हीन’ उनका हृदय फटा जा रहा है. किसी अत्यंत करुण राग में निबद्ध गीत गाते हुए राम का व्याकुल स्वर खचाखच भरे मुरलीनगर के मैदान में एकाग्र चित्त बैठे दर्शकों का हृदय भी विदीर्ण कर रहा है. महिलाएं आंचल से आंखें पोछ रही हैं. उस दृश्य में तो वे सिसकने लगती हैं जब युद्ध के मैदान में लक्ष्मण को शक्ति लग गई है और संजीवनी बूटी लेने गए हनुमान अब तक लौटे नहीं हैं. लक्ष्मण का सिर गोद में रखे हुए राम सिसक रहे हैं- “रण बीच अकेला तड़पूं भैया, अंखिया खोल-खोल-खोल.” यह 1970 के दशक में मुरलीनगर में कुमाऊं परिषद की रामलीला का अविस्मरणीय दृश्य है.
(Obituary to Piyush Pandey)

वह पियूष पाण्डे का स्वर होता था जो राम के पात्र का पर्याय बन गया था. अपनी किशोरावस्था में तभी हमने पियूष पाण्डे का नाम सुना था. शास्त्रीय संगीत पर आधारित उस दौर की इस प्रख्यात रामलीला में राम की भूमिका कई किशोरों-युवाओं ने निभाई लेकिन पियूष पाण्डे जैसा राम कोई नहीं बन सका. इसीलिए वे कई-कई वर्ष राम बनते रहे. 1951 में जन्मे पियूष ने छह साल की उम्र से रामलीला में अभिनय करना शुरू कर दिया था और शत्रुघ्न से लेकर अंगद तक कई भूमिकाएं निभाईं लेकिन राम के रूप में पियूष की अदाकारी एवं गायकी को दर्शक कभी नहीं भूल सके. आज जब पियूष हमारे बीच से अनंत यात्रा पर चले गए हैं तो भी उनके उसी रूप की स्मृतियां उस पीढ़ी के दिल-दिमाग में ताज़ा हो रही हैं.

पियूष ही नहीं, उनका पूरा परिवार संगीत-अभिनय निपुण रहा है. नौकुचियाताल (नैनीताल) के सिलौटी गांव से लखनऊ आ बसे पीताम्बर पांडे ने 1930 के दशक में मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक (आज का भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत विशारद किया था. यही तब वहां की सर्वोच्च डिग्री होती थी. ‘पित्दा’ के नाम से मशहूर पीताम्बर पाण्डे गायन और वादन निपुण थे और तत्कालीन सचिवालय के कई आईसीएस अधिकारियों के बच्चों को संगीत की शिक्षा दिया करते थे, जिसके प्रमाण पत्र आज भी एक संदूक में सुरक्षित हैं. लखनऊ में 1941 में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मेलन की आयोजन समिति में वे भी शामिल थे. तब उनके छोटे से घर में कई वाद्य यंत्र रखे रहते थे. वे ही कुमाऊं परिषद की रामलीला के संगीत उस्ताद थे. संगीत का जुनून उन पर इतनी हावी रहा कि उन्होंने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया लेकिन उनकी सभी नौ संतानों के डीएनए में संगीत खूब रचा-बसा और पल्लवित हुआ. छह लड़के और तीन लड़कियां, सभी गायन-वादन में बिना विधिवत प्रशिक्षण या डिग्री के भी पारंगत हुए. किताबी शिक्षा से अधिक संगीत ही उन सबकी पहचान बना और सभी ने रामलीलाओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही आकाशवाणी में भी खूब भागीदारी की.

पीताम्बर पाण्डे और विद्या देवी की पांचवें नम्बर की संतान पियूष सबसे अलग, जुनूनी और जिम्मेदार निकले. रामलीलाओं में उनका उल्लेखनीय प्रदर्शन उन्हें आकाशवाणी-दूरदर्शन और फिर शहर की रंग संस्थाओं की ओर ले गया. 1975 में बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी ने कुमाऊंनी-गढ़वाली बोलियों के नाटक मंचन के उद्देश्य से ‘शिखर संगम’ संस्था बनाई तो पियूष ने पहले ही नाटक ‘मी यो गयूं मी यो सटक्यूं’ में शहरी पहाड़ी-प्रवासी के किरदार में जान डाल दी थी. अगले नाटक ‘पुंतुरि’ (निर्देशन शशांक बहुगुणा) में अल्मोड़िया पाण्डे ज्यू के नौकर रेबाधर के रूप में उन्होंने ऐसा प्राणवान अभिनय किया कि दर्शक उनके मुरीद हो गए. ‘शिखर संगम’ संस्था बंद होने के बाद 1978 में जो दूसरी संस्था ‘आंखर’ गठित हुई, पियूष उसके न केवल मुख्य कर्ता-धर्ता बने, बल्कि अनेक नाट्य प्रदर्शनों का सबसे चर्चित अभिनेता भी वही साबित हुए. ‘आंखर’ ने कानपुर, भोपाल, नैनीताल, अल्मोड़ा, मुरादाबाद में भी अपने कुमाऊंनी नाटक मंचित किए. ‘आंखर’ नाम से ही कुमाऊंनी-गढ़वाली बोली की पत्रिका भी प्रकाशित की गई जिसमें प्रकाशक के रूप में पियूष का नाम छपता था. शंकरपुरी, फूलबाग, लखनऊ का उनका घर ही ‘आंखर’ का स्थाई पता होता था. ‘मोटर रोड’, ‘चंदन’, ‘ब्या है ग्यो’, ‘ह्यूना पौण’ समेत कुछ और कुमाऊंनी नाटकों का उन्होंने निर्देशन किया. ‘आंखर’ ने देवेंद्र राज ‘अंकुर’ के निर्देशन में शेखर जोशी की चार कहानियों (दाज्यू, बोझ, व्यतीत एवं कोसी का घटवार) का कुमाऊंनी में मंचन किया तो पियूष अभिनय से लेकर आयोजन तक में स्तम्भ की तरह खड़े रहे.’कोसी का घटवार’ में उन्होंने ‘गुसांई’ की भूमिका अदा की थी. 1982 में उन्होंने हिमांशु जोशी के उपन्यास ‘कगार की आग’ के कुमाऊंनी नाट्य रूपांतर का निर्देशन किया. मैंने उन्हीं के साथ दैनंदिन चर्चा करते हुए और पूर्वाभ्यास के बीच ही इस उपन्यास का कुमाऊंनी नाट्य रूपांतर किया और गीत लिखे थे. यह ‘आंखर’ का उत्कर्ष काल था तो अभिनेता के रूप में पियूष के मंजने और परिपक्व होने का समय भी.
(Obituary to Piyush Pandey)

‘पुंतुरि’ में पियूष, फोटो- सुरेंद्र श्रीवास्तव

यही वह दौर था जब पियूष ‘अंकुर’ जी, उर्मिल कुमार थपलियाल और शशांक बहुगुणा जैसे प्रयोगशील निर्देशकों की नज़रों में चढ़ चुके थे. ‘लक्रीस’ के वह सक्रिय सदस्य व अभिनेता ही नहीं, कर्ता-धर्ता भी थे. ‘लक्रीस’ ने ‘मनोशारीरिक रंगमंच’ के सर्वथा नए प्रयोग करते हुए ‘खड़िया का घेरा’ और ‘तुगलक’ जैसे नाटकों का मंचन किया जिनमें पियूष ने देह से अभिव्यक्ति की नई रंग-भाषा सीखी. फिर पियूष ने करीब-करीब इसी शैली में ‘दर्पण’ के लिए ‘सृष्टि’ नाटक का निर्देशन किया. संगीत की दक्षता और नैसर्गिक अभिनय क्षमता ने उन्हें उर्मिल थपलियाल का एक प्रिय अभिनेता बनाया जो लोक संगीत को अपने नाटकों का मुख्य आधार बना रहे थे. उर्मिल उन दिनों नौटंकी की पुरानी परम्परा को नागरी नौटंकी के रूप में नया संस्करण देने में लगे थे. पियूष उनकी स्वाभाविक पसंद बने. ‘यहूदी की लड़की’, ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’, ‘चूं-चूं का मुरब्बा’ और ‘हम फिदाए लखनऊ’ जैसे प्रदर्शनों में उन्होंने पियूष की प्रतिभा का शानदार उपयोग किया. ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’ को पियूष अपना प्रिय नाटक मानते थे. उर्मिल ने अपने दादा भवानीदत्त थपलियाल जी के 1911 में लिखे गए गढ़वाली नाटक ‘प्रह्लाद’ के लोक-संगीत-प्रधान-मंचन में भी पियूष को भूमिका दी थी. इन प्रदर्शनों ने पियूष को नैसर्गिक, जीवंत एवं प्रतिभाशाली अभिनेता साबित किया. ‘दर्पण’ के लिए उन्होंने शंकर शेष के नाटक ‘कोमल गांधार’ का भी निर्देशन किया था. झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों के लिए भी कुछ नाट्य-कार्यशालाएं एवं नाट्य प्रदर्शन किए.

प्रतिभा और क्षमता के अनुपात में पियूष के अभिनीत या निर्देशित नाटकों की सूची बहुत छोटी है. इसका मुख्य कारण उनका अत्यंत संकोची और अतिरिक्त स्वाभिमानी होना रहा. संकोच का एक बड़ा कारण उनकी सीमित स्कूली शिक्षा थी तो स्वाभिमान की अतिरिक्त सतर्कता ने उन्हें अग्रिम पंक्ति में आने से रोके रखा. अपनी पहल पर तो वे कोई प्रस्ताव रख ही नहीं सकते थे, बल्कि प्रस्ताव मिलने पर पीछे हटने लगते थे. जो नाटक उन्होंने किए, उसके लिए संस्थाओं/निर्देशकों ने उन्हें एक तरह से पकड़कर रखा. बहुत संकोची होना उनकी प्रतिभा के शिखरारोहण की राह में उनका शत्रु ही था.
(Obituary to Piyush Pandey)

कुमाऊं परिषद की जिस रामलीला ने उन्हें पहचान दी, लखनऊ के उत्तराखण्डियों की वह सबसे पुरानी संस्था 1980 के बाद न केवल निष्क्रिय हो गई बल्कि अपने अस्तित्व के संकट से जूझने लगी थी. लक्ष्मण भवन, हुसेनगंज स्थित उसका कार्यालय मुकदमेबाजी में फंस गया. करीब बीस वर्ष तक पियूष उसे बचाने के लिए लगभग अकेले अदालतों और वकीलों के दफ्तरों तक दौड़ते रहे. संस्था के संसाधन और सहयोगी बिखर गए थे और पियूष की अपनी आमदनी का कोई स्थाई माध्यम नहीं था. तब भी उन्होंने वर्षों तक लगभग अकेले मुकदमा लड़ा. कुमाऊं परिषद की अदालती पराजय और अंतत: संस्था का विलोपन उनकी स्थाई पीड़ा थी. उनकी प्रतिभा का बेहतर उपयोग कर सकने वाली ‘लक्रीस’ और ‘आंखर’ भी तब तक निष्क्रिय हो चुके थे. यदा-कदा उर्मिल थपलियाल और ‘दर्पण’ उनका रचनात्मक प्रयोग करते रहे. उसमें भी पियूष का संकोच अक्सर आड़े आ जाता था.

गिर्दा भी पियूष को बहुत पसंद करते थे. 1980 के शुरुआती वर्षों में दोनों का सम्पर्क अंतरंग हो गया था. नैनीताल से लखनऊ आने का कार्यक्रम बनते ही पियूष के लिए गिर्दा का पोस्टकार्ड और बाद में फोन आ जाता था कि ‘आ रहा हूं’. गिर्दा की लखनऊ यात्रा के दिनों और शामों में जब हम अखबार के अपने काम में व्यस्त होते तो दोनों रिक्शे में बैठकर कभी अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क या जीपीओ पार्क या किसी धर्मशाला के कमरे में दोपहर से देर रात तक बात करते रहते थे. बातचीत के केंद्र में संगीत और मध्य में सुरा के गिलास होते. पियूष गिर्दा से कुमाऊंनी लोक संगीत की बारीकियां समझने का प्रयत्न करते तो गिर्दा अपनी अबूझ-सी प्रयोगशीलता उन्हें समझाने में जूझते दिखते थे. हम सबकी तरह पियूष गिर्दा से सम्मोहित रहते और गिर्दा बाद में शिकायत करते थे कि लखनऊ वालों को पियूष का बहुत बढ़िया उपयोग करना चाहिए. सचमुच, पियूष की प्रतिभा का बेहतर उपयोग नहीं ही हो पाया. उनके जाने के बाद यह अनुभूति गहरी होकर परेशान करने लगी है. ऐसी कितनी ही प्रतिभाओं के योगदान से समाज वंचित होता रहता है और पश्चाताप ही हमारे साथ रह जाता है.    

पिछले कोई डेढ़ दशक से जयपुरिया स्कूल, गोमतीनगर, लखनऊ ने ‘ड्रामा डायरेक्टर’ के रूप में अनुबंधित करके उनकी प्रतिभा का सदुपयोग करना शुरू किया. बच्चों को समझाना-सिखाना उनकी पसंद का काम था और उन्होंने बहुत रुचि से विद्यार्थियों को नाट्य-प्रशिक्षण देना शुरू किया. बच्चों ने उनके निर्देशन में कई अच्छी प्रस्तुतियां दीं और प्रतियोगिताओं में पुरस्कार पाए. जयपुरिया स्कूल के साथ उनका अनुबंध अंतिम समय तक जारी रहा. इससे उनके जीवन में तनिक स्थायित्व और आर्थिक निर्भरता आई थी. महानगर रामलीला समति की वार्षिक रामलीला में भी पिछले कई वर्षों से वे कलाकारों को मांजने-संवारने का काम कर रहे थे. कई नए कलाकारों को उन्होंने तैयार किया. कैंसरग्रस्त होने के बावजूद बीते नवरात्र में भी उन्होंने इस रामलीला की तालीम का संचालन किया था. तब गले में उभरी गांठ इतनी खतरनाक नहीं लगती थी. डॉक्टरों ने भी कैंसर के ठीक हो जाने का विश्वास जताया था. दिसम्बर के पहले हफ्ते तक वे ठीक थे. दस दिसम्बर के बाद अचानक तबीयत बिगड़ने लगी. रक्त कोशिकाओं ने जवाब देना शुरू कर दिया था. 16 दिसम्बर की सुबह उनका जीवन एक कहानी भर रह गया.
(Obituary to Piyush Pandey)

अब पियूष नहीं हैं तो उनके न होने का शून्य रह-रहकर साल रहा है.

नवीन जोशी के ब्लॉग अपने मोर्चे पर से साभार

नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.

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  • Late sri Piyush Pandey ji was my first neighbor. He was my more than a real brother. I can never forget such a nice man and a more than real brother.
    Bhagwaan unki atma ko shanti de.
    🕉 शान्ति

  • रामलीला में श्री राम के पत्र का सजीव अभिन्य करने वाले पीयूष पांडे जी आगे चलकर युवा अवस्था में कई नाटकों के महत्वपूर्ण पात्र रहे ।उन्होंने कुमाऊनी भाषा के नाटको में भी संजीव अभिन्य किया।
    स्व0।पांडे जी के बारे में रिपोर्ट पेश कर साहित्य के प्रेमियों के लिए एक "गुड्डी के लाल" की जो कथा व्यक्त की है वह उत्तम श्रेणी की होने के साथ कलाकार के पूरे जीवन को अपने शब्दों में उतारकर रख दिया।।
    टिप्पणीकार खीम सिंह रावत हल्द्वानी से

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