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1 Comments

  1. के एस चौहान

    हमारी संस्कृति ने अपने नाश का बीज अपने अंदर ही शदियों पहले रोपित कर दिया था। काष्ठ कला , वादन कला , गायन कला हो अथवा भवन निर्माण का शिल्प , खेती के औजारों के निर्माता , धातु व मृदा के बर्तनों के कर्मकार , हमारी आत्मघाती सोच ने अपने जीवन के आधारभूत अवश्यकताओं के सेवा प्रदाता इन शिल्पकारों के साथ शदियों तक अमर्यादित व्यवहार किया । आश्चर्य है कि यह जर्जर ढांचा इतने दिनों तक खड़ा कैसे रहा।

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