“मैं तो अनाथ हो गया!” – रोते हुआ लक्ष्मण सिंह बिष्ट ने कहा. लक्ष्मण सिंह पिछले 30-35 सालों तक डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट जी की विभिन्न यात्राओं में उनके सबसे भरोसेमन्द सहयोगी व सारथी रहे. अल्मोड़ा के विश्वनाथ घाट पर उनसे मुलाकात करवाई उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के वरिष्ठ नेता व अधिवक्ता महेश परिहार ने. बिष्ट ने बताया कि जब वह कई साल पहले अल्मोड़ा पहुँच कर आजीविका के लिए बैंक से उधार लेकर टैक्सी लेना चाह रहे थे तो बैंक ने बिना किसी गारन्टर के उधार देने से मना कर दिया था तब शमशेर दा उनके गारन्टर बने.
इसके बाद तो लक्ष्मण सिंह हमेशा के लिए शमशेर दा के मुरीद हो गए. उत्तराखण्ड में विभिन्न जनान्दोलनों में भागीदारी का मामला हो या फिर शमशेर दा का कोई पारिवारिक कार्य उन्होंने जब भी बुलाया तब लक्ष्मण बिष्ट उनके सामने उपस्थित रहते. शमशेर दा के बुलावे पर वह यह तक नहीं पूछते थे कि कहॉ जाना है? कितने दिन के लिए जाना है? बस अपनी गाड़ी लेकर उनके घर पहुँच जाते! उसके बाद जैसा आदेश होता वैसा करते!उनके पास शमशेर दा के साथ बिताए गए दिनों की अनगिनत यादें हैं. कई जनान्दोलनों में शमशेर दा की भागीदारी के वे प्रत्यक्ष गवाह हैं.
रोते हुए उन्होंने कहा कि मैं तो आज अनाथ ही हो गया हूँ. शमशेर दा मेरे लिए सब कुछ थे. एक मार्गदर्शक, पितातुल्य, जो हर परेशानी व दुख-सुख में हरदम साथ खड़े रहते थे. गत 22 सितम्बर 2018 को भी वह हर दिन की तरह यात्रियों के इंतजार में अल्मोड़ा के टैक्सी स्टेंड में खड़े थे और हल्द्वानी जाने के लिए उनकी टैक्सी सवारियों से भर गई थी. केवल एक सवारी कम थी और वे इसी इंतजार में थे कि एक यात्री और मिले तो वह हल्द्वानी की ओर चलें. तभी शमशेर दा के अभिन्न राजनैतिक सहयोगी पूरन चन्द्र तिवारी वहां पहुँचे और उन्होंने शमशेर दा के न रहने की जानकारी उन्हें दी. पहले तो उन्हें तिवारी जी के कथन पर विश्वास ही नहीं हुआ. पर कुछ क्षण बाद उन्हें इस बात पर विश्वास करना ही पड़ा. उसके बाद उन्होंने अपनी गाड़ी में बैठे यात्रियों से यह कहते हुए क्षमा मांगी कि वह अब हल्द्वानी नहीं जा पाएँगे और उन्हें दूसरी टैक्सी में बैठाकर तुरन्त शमशेर दा के घर की ओर चल दिए !
लक्ष्मण सिंह बिष्ट ने सुबकते हुए कहा कि यदि तिवारी जी कुछ मिनट बाद वहॉ पहुँचते तो वह तब तक हल्द्वानी चले जाते और मैं अपने पितातुल्य मार्गदर्शक को अंतिम विदाई नहीं दे पाता. जिसका मुझे जीवन भर मलाल ही नहीं रहता , बल्कि मैं अपनी किस्मत पर रोता रहता कि जिन्होंने मुझे जीवन यापन करने का सहारा दिया और जिनके साथ रह कर एक राजनैतिक चेतना मेरे अन्दर विकसित हुई, पूरे उत्तराखण्ड को जानने और समझने का मौका मिला, उन्हें अंतिम विदाई तक नहीं दे पाया. पर लगता है कि शमशेर दा की आत्मीयता व उनके स्नेह ने ही मुझे उनकी अंतिम विदाई में शामिल होने का मौका दिया. अंतिम यात्रा पर जाने पर भी वे मुझे एक अनजाने अपराध बोध से मुक्त कर गए. जो हल्द्वानी चले जाने पर उनकी अंतिम यात्रा में शामिल न होने पर मुझे होता.
[फोटो और रिपोर्ट: जगमोहन रौतेला]
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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