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तीन साल की उम्र भी पूरी नहीं कर पाया हूँगा, पिताजी का साया सिर से उठ गया. इसलिए उनकी छवि का भी कोई हल्का सा स्मरण मुझे नहीं है, लेकिन अपने अल्पजीवन में जिस उद्यमिता, पुरूषार्थ तथा बागवानी के प्रति समर्पण था, वह हमें हमेशा प्रेरित करता रहा और मीठे फलों का रसास्वादन कराता रहा. जमीन पुश्तैनी नहीं थी, पिताजी ने ही अपनी जवानी के दिनों में अपने पुश्तैनी गांव से आकर स्वयं ही इसे आबाद किया था. क्या नहीं उगाया था उन्होंने इस 18-20 नाली के भूखण्ड में? माल्टा, नारंगी, नींबू, मौसमी, गलगल, कागजी नींबू, विभिन्न प्रजातियों के प्लम, आड़ू, खुमानी, चुआरा, आलूबुखारा, बेड़ू, तिमिल, अखरोट, केला, लुकाट यानि वे सभी फलदार वृक्ष हमारे बगीचे में मौजूद थे, जो उस जलवायु के अनुकूल थे. इसमें काकू व कीमू (शहतूत) के दो ऐसे फलदार पेड़ भी थे, जो पूरे गांव में केवल हमारे घर पर ही हुआ करते. उन्होंने इन फलदार पेड़ों से कितने फल खाये होंगें, ये तो नहीं पता, लेकिन उनकी सन्तानों ने ही नहीं बल्कि पूरे गांव के लोगों ने इनका भरपूर लुत्फ उठाया.
(Keemu Tree Memoir Bhuwan Chandra Pant)
कीमू (शहतूत) का पेड़ हमारे खेत के एकदम किनारे पर था, और उसी खेत के नीचे एक गधेरा था. कीमू का पेड़ इस गधेरे की ओर 60 डिग्री के कोण पर झुका हुआ था. कीमू के पेड़ के ठीक नीचे गधेरे में पानी के ठहराव से एक बड़ा सा खाव (जलाशय) था, जो गर्मियों के दिनों में बच्चों से लेकर युवाओं तक का पसंदीदा स्वीमिंग पुल हुआ करता.
जाडों में कीमू के पेड़ पर पतझड़ रहता और होली के बाद बसन्त के आते-आते यह घनी पत्तियों से लकदक हो जाता और कीमू के फूल आने शुरू होते. हरे-हरे रंग के फूल अप्रैल के महीने में फलों का आकार लेने लगते. मई के महीने में इन फलों में गुलाबी रंगत बिखरने लगती और कीमू का उपयोग दिन में पुदीने के साथ चटनी बनाने के लिए किया जाता. भात के साथ कीमू की पुदीने वाली चटनी स्वाद का दुगुना कर देती. मई के अन्त व जून में कीमू के फल पककर तैयार होने लगते. यही समय होता जब हमारा स्कूल सुबह का हो जाता और दोपहर तक घर पहुंचकर न केवल हमारे घर के बल्कि पूरे गांव के बच्चे पेड़ पर कीमू खाने टूट पड़ते.
कुल मिलाकर उस पेड़ पर केवल घर वालों का मालिकाना हक न होकर यह पूरे गांव का पेड़ हो जाता. तब न तो आज की तरह बाजारवाद की सोच थी और न अपने-परायेपन की भावना, वरना आज तो यह फल भी सीधे बाजार पहुंचाया जाता. उस पेड़ का गांव का हर बच्चा बेराकटोक आ सकता था, भले ही कीमू के पेड़ तक जाने पर खेत में बोई आलू की फसल बच्चे कुचल डाले. सभी बच्चे जब तक मन न भरे पेड़ पर जी भरकर खाते और बीच-बीच में नीचे खाव में जाकर तसल्ली से नहाते. कीमू की तरह यह खाव भी एकमात्र ऐसा था, जो गहरा व चैड़ाई में सबसे बड़ा था. इसलिए गांव के हर युवा की तैराकी सीखने का यह सबसे मुफीद खाव हुआ करता. इसी खाव से तैराकी के गुर सीखे, किसी प्रोफेशनल तैराक से नहीं बल्कि बच्चों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा से. बिना किसी कोच की मदद के गांव के बच्चे बैक स्ट्रोक, फ्री स्टाइल, बटरफ्लाई जैसी तैराकी में प्रवीण हो जाते. जो बच्चा खाव में जाने को डरता, उसे जबर्दस्ती घकेल दिया जाता और उसे बचाने के लिए भी साथ के तैराक तत्पर रहते. अगर कोई लकड़ी का गिल्टा मिल गया तो हमारी नाव बन जाती. ऊॅचे पत्थर पर चढ़कर पानी के अन्दर ’डाइप’ लगाना और फिर पानी में अंगूठी जैसी चीजों को फैंककर उसे खाव के तले से ढॅूढ लाना हमारा शगल था. जब बहुत देर तक पानी में खलते ठण्ड महसूस होने लगती तो गधेरे के किनार ही चपटे पत्थर पर छिपकली की तरह चिपक जाते. नहाते समय अधोवस्त्र की अनिवार्यता भी नहीं थी.
(Keemu Tree Memoir Bhuwan Chandra Pant)
तैरने से उकता जाने पर फिर वही कीमू का पेड़ हमारा दूसरा आशरा होता. पेड़ में फलों को खाने का लुत्फ उठाने के साथ-साथ कीमू के पेड़ की घनी छांव जेठ के महीने में जो सुकून देती, वह घर जाने की याद भुला देती. जब घर से कोई डांट भरी धाद लगाता, तभी घर की ओर रूख करते. घर से गायब बच्चे का ठिकाना हर मां-बाप के लिए वही कीमू का पेड़ होता. आप घर वालों से झूठ भी नहीं बोल सकते थे कि कीमू खाने नही गये क्योंकि कीमू खाने के बाद जीभ की लालिमा सब सच-सच बता देती. लेकिन कीमू के इस पेड़ में शुकून के साथ एक भय भी सदैव बना रहता. भय पेड़ से गिरने का नहीं बल्कि कीमू के पेड़ में होने वाले रेशम के कीड़ों का.
रेशम के कीड़ों का मुख्य भोजन शहतूत के पत्ते होता है, इसलिए पत्तों के पीछे छिपे इन कीड़ों से कभी भी दो-चार होना पड़ सकता था. इन कीड़ों की आकृति इतनी भयानक होती कि देखकर ही मन में सिहरन पैदा हो जाती. संयोगवश कभी अचानक इन पर हाथ पड़ जाय तो पेड़ में अपना सन्तुलन बनाये रखना मुश्किल रहता. एक और भय रहता जेठ की दुपहरियों में सांप का. क्योंकि एक बार एक दिल दहलाने वाली घटना का मैं स्वयं भुक्तभोगी रह चुका था. हुआ यों कि मैं पेड़ पर पके आलूबुखारा खाने पेड़ की सबसे ऊॅची टहनी पर चढ़ा था तथा चुन-चुनकर पके हुए आलूबुखारा खा रहा था. अचानक मैंने नीचे देखा तो एक बड़ा सांप उसी पेड़ के तने पर घिसटता हुआ ऊपर को चढ़ा जा रहा है. पेड़ गधेरे की ओर झुका था, इसलिए यदि मैं नीचे गधेरे को कूद लगाऊॅ तो गधेरे के पत्थरों पर गिर जाऊं और खेत के किनारे कूदना बड़ा मुश्किल लग रहा था. मेरे पास एक-दो मिनट का समय था, निर्णय लेने को. जरा सा विलम्ब करने पर सांप मुझ तक पहुंचने ही वाला था. मैंने खेत की तरफ ही छलांग लगाई और सीधे घर की ओर दौड़ लगा दी. सामने देखी मौत के भय से कुछ क्षण के लिए मैं अपनी होशो-हवाश खो बैठा था. घर के लोग पूछ रहे थे और मैं सांप-सांप से अधिक कुछ नहीं बता पा रहा था. जब थोड़ा संयत हुआ तो नजरों के सामने वही भयावह दृश्य तैर रहा था. आज भी वह पल याद करता हॅू तो सिहरन होती है.
(Keemu Tree Memoir Bhuwan Chandra Pant)
कीमू का वह पेड़ मई-जून में तो हमारे लिए अक्षयवट था,रोज कीमू खाने के बाद दूसरे दिन नये फल पककर तैयार मिलते. हां, हमारे अलावा एक और जानवर कीमू का बहुत शौकीन हुआ करता – खड़ोद. खड़ोद रात में चुपचाप आता और रातभर कीमू खाकर चट कर जाता. हालांकि ईजा को आभास हो जाता कि कीमू के पेड़ में खड़ोद आया है, वह बताती भी, लेकिन हम खड़ोद शब्द सुनते ही सिहर जाते, भगाना तो दूर की बात. अक्सर खड़ोद के आने पर कुत्ते का भौंकना इसका एक संकेत होता. दूसरे दिन कीमू के पेड़ के नीचे खड़ोद का मल का ढेर रात में ईजा की कही बात को सच साबित करने को काफी होता. दरअसल खड़ोद एक ऐसा जीव है, जो फलों को खाते रहता है और मल विसर्जन भी करते रहता है. खड़ोद समूह में नहीं बल्कि अकेले ही आया करता. मुझे नहीं मालूम कि पहाड़ में अलग-अलग इलाकों में लोग इस जानवर को किस नाम से पुकारते हैं, हमने तो बचपन से खड़ोद ही सुना है.
हमारे बचपन के सुनहरे दिनों का साक्षी यह पेड़ अब नहीं रहा, लेकिन हम उम्र मित्र आज भी जब मिलते हैं, तो कीमू के पेड़ के बहाने यादें साझा कर सुखद अनुभूति होती है. अब न वह पेड़ रहा, न वैसे संगी-साथी और न साझी विरासत जैसी कोई सोच.
(Keemu Tree Memoir Bhuwan Chandra Pant)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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