उत्तरी नेपाल के सुदूरवर्ती गँड़की प्रान्त में उत्तर की ओर फैले हिमालय में जहां आठ हजार मीटर ऊँचे अन्नपूर्णा व धौलागिरी के शिखर हैं तो दूसरी ओर रूखे वनस्पति विहीन होते जाते तिब्बती पठार जिनके बीच बसा है मुस्तँग. मुस्तँग जिला नेपाल के पश्चिमी विकास क्षेत्र में धौलागिरी का एक हिस्सा रहा जिसे 2017 से पांच ग्रामीण नगरपालिकाओं में पुनर्गठित किया गया. 1992 तक मुस्तँग का ऊपरी इलाका संरक्षित था जिसके बाद ही इसे पर्यटन हेतु विदेशी नागरिकों के लिए खोला गया. भौगोलिक बनावट की तीव्र भिन्नताओं के रहते यह ट्रेकिंग व साहसिक पर्यटन के लिए आकर्षण भरे लोकप्रिय क्षेत्र के रूप में उभरते रहा.
(Mustang Valley Nepal Travelogue)
पोखरा से मुक्तिनाथ जाते 175 किलोमीटर की यात्रा के हर मोड़ में अचानक ही रुख बदल देने वाले दृश्य हैं. किसी समृद्ध महानगर से टक्कर लेता पोखरा अब क्रमिक रूप से विकास के हर उन्नत मानक से समृद्ध है. साफ सुथरी सड़कें जिन पर शहर की विस्तृत सीमा में एकबारगी ही आवारा पशु व कारों का पीछा करते कुत्ते नहीं दिखाई देंगे. कई कई सितारा वाले होटलों में खान पान की हर सुविधा. आरामदेह यात्रा व रोमांचक पर्यटन गतिविधियों के अवसर देती प्रबंध व्यवस्था व कई विदेशी भाषाओं के जानकार गाइड भी . उस पर साफ सुथरी व किसी भी जोखिम से निबटने को तैयार रक्षकों की तैनाती से नाव की सवारी को अधिकतम संतुष्टि से भर देने को में तत्पर कटोरेनुमा झील. झील के एक कोने में टापू पर उभरा उपासना स्थल.
पोखरा से मुस्तँग की ओर जाते साफ दिखाई देने लगता है कि इस रोमांचक और नयनाभिराम स्थल के बिल्कुल अलग स्वरूप हैं जिनमें नदी के बड़े पाट भी हैं तो वेगवान बहाव भी. कहीं इतना साफ पानी कि जल क्रीड़ा में मस्त मछलियों का विचरण साफ दिखाई दे तो कहीं नदी का रंग ही काला दिखता है. दूध की सफेदी से बढ़ चकाचौंध करने वाले झरने हैं तो चट्टानों के तल पर बह रही गाड़ जिसका शोर दूर ऊपर सड़क तक सुनाई देता है. सड़क पर टिके बोल्डर भी हैं जिनमें कुछ तो ऐसे, जिन्हें देख लगता है कि अभी बस ये अपना गुरुत्व भुलाने ही वाले हैं. कच्ची सड़कें जिनमें ज्यादातर वन वे हैं उनमें बेहिसाब खड्डे हैं और तीस डिग्री से सत्तर डिग्री का ढाल भी. पत्थर, चट्टान और ऊबड़ -खाबड़ पथों से गुजरते यह आंकड़ा सही लगता है कि मुस्तँग में नदी, नाले, टीले, पहाड़, पत्थर और रुक्ष चट्टान की हिस्सेदारी चालीस प्रतिशत से कहीं ज्यादा है. इतनी ही चारागाह की भूमि भी, पर वह हरियाली से भरी बुग्यालों सी नहीं. उसकी वनस्पति कुछ भिन्न किस्म की रंग बिरंगी पर धूसरित छटा देती है. ऊपर बर्फीली चोटियां हैं पर बर्फ से ढका इलाका सिर्फ आठ प्रतिशत आँका गया है तो जंगल सिर्फ तीन प्रतिशत. यहां प्रदूषण की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि जनसंख्या का घनत्व मात्र 3.8 प्रति वर्ग किलोमीटर है. 2011 की जनगणना के आधार पर मुस्तँग अपर व लोअर की कुल आबादी मात्र 3,305 पाई गई.
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मुस्तँग तिब्बती शब्द है जिसका अर्थ है “आकांक्षाओं का मैदान”. सुदूर पहुँच से दूर विरल आबादी लम्बे समय तक इस प्रतिबंधित इलाके में राजशाही के अधीन रही. परंपरागत रूप से मुस्तँग जिले के चार सामाजिक व भौगोलिक क्षेत्र थे जो दक्षिण दिशा से उत्तर की ओर क्रमशः थाक खोला, पंचगांव, बड़ा गांव या निचला मुस्तँग तथा लोत्सो धुन या ऊपरी मुस्तँग कहे गये. निचले मुस्तँग में काली गँड़की नदी के किनारे मुख्यतः डाकली जातीय समूह रहा जो दक्षिण में घासा से ले कर उत्तर में जोमसोम तक विस्तृत था. यह क्षेत्र 1786 तक तिब्बती शासन के अधीन रहा जिसे बाद में नेपाल में सम्मिलित कर लिया गया.
दूसरा भाग दक्षिण में घसा गांव के उत्तर में तुकूचे तक फैला है जो जोमसोम की सीमा से लगा है. जोमसोम के दक्षिण में काली गंडकी का एक खंड तेरह गांव कहलाता है. फिर ठाक खोला में अधिकांशतः तमांग समूह रहता है जो अब होटल मालिक व व्यापारिक क्रियाओं से संलग्न हैं. इन्हीं के द्वारा पर्यटन व बागवानी का खूब विकास हुआ. यहां सेब, खुबानी, व बेर से बने जैम -जैली व वाइन बहुत प्रसिद्ध है.
प्रसिद्ध तीर्थ मुक्तिनाथ और तुक्के के मध्य पंचगांव का इलाका आता है जहां ढाकली जातीय समूह निवास करता है. इन्हें पंचगावले या पांच गांव के लोग भी कहा जाता है. जोमसोम और लो के मध्य मुक्तिनाथ घाटी में बड़ागांव या बड़ा गांव आते हैं. बड़ागांव का मुख्य आवाजाही का इलाका मुक्तिनाथ है तो यहीं झोंग नदी व काली गंडकी नदी के संगम पर कागबेनी है.
इस घाटी में थोरॉंग ला पर्वत दर्रे के तल पर रानी पॉववा गांव के पास ग्यारह हजार फिट की ऊंचाई पर मुक्तिनाथ का तीर्थ है. वैष्णव संप्रदाय द्वारा इसे पवित्र माने जाने वाले 108 दिव्य देशम में 106 वां माना जाता है. यहां स्थित शालिग्राम शिला को श्री मन्नारायण का स्वरूप कहा जाता है. बौद्ध इसे चुमिग ज्ञात्सा कहते हैं जो उनके 24 तांत्रिक स्थानों में एक है. बौद्ध यहाँ स्थापित मूर्ति को अवलोकितेश्वर का स्वरूप बताते हैं जो उनके लिए करुणा के अवतार हैं. यह स्थान डाकिनियों के यहाँ होने के लिए भी प्रसिद्ध है.परी -चरी, डाकिनी -शाकिनी अतृप्त आत्माओं के स्वरूप में मानी जातीं हैं.
मुस्तँग के मूल निवासी लोपा हैं जो किसान, चरवाहे, व व्यापारिक क्रियाओं से संलग्न रहे. भौगोलिक परिस्थितियों के जटिल होने से उन्होंने प्रकृति के साथ अद्भुत अनुकूलन किया. यहाँ पास -पास बने घर दिखते है जो पत्थर के बने होते हैं व जिनमें खिड़कियां नहीं होती. तेज व आक्रामक हवाओं के चलने के कारण मकान की दीवारों में सुराख़ कर दिए जाते है.
नेपाल में दीवारों वाले शहर की संज्ञा लो मंथांग को दी जाती है. यहाँ उत्तरी मुस्तँग में रहने वाले लोग लोपा ही हैं जो अपने सरनेम में बिस्ता और गुरंग लिखते हैं. लोपा के सात जिले या लो तशो धुन की ऐतिहासिक महत्ता रही जिसके पहले राजा अमेपाल थे जिनके वंश को यहाँ का शाही परिवार माना जाता है.. यहां स्थित महल व दीवारों का निर्माण पंद्रहवीं सदी में हुआ.
लो मंथाँग राजाओं के शाही महल, चार मुख्य गोम्फा व सफेद ईँटों से बनी दीवारों के लिए आकर्षण का केंद्र है. दस हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित यह इलाका अपनी तेज हवाओं व शुष्क भूमि के कारण हरियाली की बाट जोहता है जो कुछ लघु सरिताओं के पास की धरा में जौ, गेहूँ, आलू और विलो की फसल में अनायास ही दिख जाती है. यहाँ अप्रैल -मई में पूरी पारम्परिक सज्जा व वेश भूषा के साथ लामाओं के द्वारा ग्राम के चौक में किये जाने वाले उत्सव तिजी को मुख्य त्यौहार के रूप में मनाया जाता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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