सुंदरी के पेड़ों, खूब मिट्टी, कीचड़ और दलदल से भरा एक ज्वारग्रस्त इलाका है सुंदरबन. खाड़ी में गिरने से पहले गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियाँ सुस्त और लापरवाह हो उठती हैं और अपने लम्बे रास्ते से बहा कर लाई हुई मिट्टी यहाँ डाल दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा बनाती हैं. दुनिया भर के जीव जंतुओं से भरे, जीव विविधता के लिए उत्तम माने जाने वाले इस डेल्टा में कुछ द्वीप भी हैं. नदी के द्वीप. पश्चिम बंगाल का दक्षिणी 24 परगना जिला ऐसा है जिसमें छोटे-बड़े 37 नदी-द्वीप हैं. गोसाबा उन्हीं में से एक है.Remembering Tagore Amit Srivastava
सुंदरबन के संरक्षित वनों को जाते समय आख़िरी आबादी वाला क्षेत्र जो मुख्य भूभाग से कटा हुआ और जिसपर नाव या स्टीमर से ही जाया जा सकता है. लगभग 5 हज़ार की जनसंख्या वाले इस गाँव में ज्वार के समय खूब पानी भर जाने और तेज़ समुद्री हवाओं की वजह से साल के कई महीने कोई नहीं रहता था. अब स्थितियाँ कुछ बदल रही हैं, हालांकि पानी और तूफ़ान अब भी नियमित आगन्तुक हैं इस इलाके के. सुंदरबन घूमने जाने वालों के पैकेज में नाव के कुछ घण्टों का ठहराव यहाँ होता है आप उस दौरान लोकल मार्केट घूम सकते हैं, या आती हुई नावों गोदी पर बांधते बूढों की आँखों में समुद्री तूफ़ान के कुछ निशान पढ़ सकते हैं या फिर…
…या फिर लकड़ी की बहुतायत से का बना एक घर देख सकते हैं. एक अहाते के बीच बना पुराना लेकिन मजबूत घर. इस घर में एक इतिहास है.
साल 1880 में स्कॉटलैंड से एक अमीर व्यापारी सर डेनियल हैमिल्टन एक कम्पनी मैकिनन एंड मैकेंजी के कारिंदे और हेड के रूप में बॉम्बे पहुंचे. यहाँ काफी अच्छा व्यापार और सम्पदा जोड़ते हुए बीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों में वो कलकत्ता आए और यहीं रच-बस गए. बंगाल को अपना दूसरा घर कहने वाले सर हैमिल्टन ने लगभग 9 हज़ार एकड़ का द्वीपीय इलाका, गोसाबा खरीद लिया. वो देश में स्वदेशी आन्दोलन और उग्रपंथी विचारों के साल थे. बंगाल अपनी शैक्षिक दृष्टि से अग्रणी होने और सांस्कृतिक जागरूकता की वजह से देश के आंदोलनों का प्रतिनिधित्व कर रहा था. उस जटिल भौगोलिक इलाके में जहाँ जीवन ही अपने आप में बहुत कठिन था, प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ बहुत गरीबी और भुकमरी थी. सर हैमिल्टन ने गरीबी हटाने के उद्देश्य से कोऑपरेटिव सिस्टम की नींव रक्खी जो सम्भवतः देश में कोऑपरेटिव आन्दोलन के बेहद शुरुआती प्रयोगों में से एक था. कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी के बाद कोऑपरेटिव बैंक तक का सफ़र तय करते-करते उन्होंने स्थाई कृषि की शुरुआत की, कृषि उपज की बिक्री की व्यवस्था करवाई और चावल मिल तक उस क्षेत्र में खुलवाईं. यहाँ तक कि गोसाबा में एक समय ऐसा भी आया जब एक रूपए के नोट प्रिंट होने लगे. ये सारे सफल प्रयोग ग्राम स्वराज की संकल्पना के थे. पूर्णतः स्वदेशी. Remembering Tagore Amit Srivastava
कहते हैं कि सर हैमिल्टन ने तीस के दशक में महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर को गोसाबा बुलाया अपने किये हुए कार्यों को देखने-परखने के लिए. महात्मा गांधी स्वयं न आ पाए उन्होंने अपने सचिव महादेव देसाई को भेजा अध्ययन के लिए जिन्होंने सर हैमिल्टन के काम की तारीफ़ के साथ अपनी रिपोर्ट `हरिजन’ में प्रकाशित करवाई. टैगोर स्वयं आए.
रवीन्द्रनाथ टैगोर साल 1932 में सर हैमिल्टन के साथ लम्बे पत्र-व्यवहार, जो कि उनके बीच गाढ़े अपनत्व को दर्शाते हैं, के बाद गोसाबा आए. उनके लगभग एक माह के प्रवास के लिए लकड़ी की बहुतायत से एक घर बनवाया गया. ज्वार और समुद्री तूफानों से जूझने वाले इस इलाके की दलदली मिट्टी में वो घर आज भी खड़ा है. स्थानीय किवदंतियां ये कहती हैं कि ये बंगला सर हैमिल्टन ने स्कॉटलैंड से ही अधबनी अवस्था में स्टीमर से मंगवाया था और यहाँ असेम्बल करवाया. जो भी हो कमाल की कारीगरी वाला यह घर लकड़ी के ऊंचे खम्बों पर टिका है जिससे हवा और पानी मकान के नीचे से निकल जाते हैं और इसे नुक्सान नहीं पहुँचता.
गोसाबा के रहने वाले जितना सर हैमिल्टन को याद करते हैं उतना ही `अमार सोनार बांगला’ कहने वाले टैगोर को. क्योंकि स्वावलम्बी ग्राम की नींव रखने वाले सर हैमिल्टन भी स्वदेशी, स्वराज और विश्व बंधुत्व की बात करने वाले टैगोर को अपना मार्गदर्शक मानते थे.
इस भयावह होते जा रहे समय में जब सही-गलत के बीच की विभाजक रेखा धुंधली पड़ती जा रही है, जब छद्म राष्ट्रवाद चरम पर है, जब राजनीति आत्ममुग्ध है, धर्म मतभ्रष्ट और समाज दिशाहीन, हमें टैगोर की ओर लौट जाना चाहिए. उनके आदर्शों की ओर लौट जाना चाहिए. उनके चित्रों की ओर, उनकी कविताओं, उनके गीतों की ओर लौट जाना चाहिए. जल्द से जल्द. क्योंकि टैगोर को जानने-समझने के लिए एक जीवन कम पड़ सकता है. वैसे ही जैसे उनके इस गीत को सुनने-गुनने के लिए इन्द्रियां कम पड़ जाती हैं. Remembering Tagore Amit Srivastava
जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे तोबे एकला चलो रे जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे तोबे एकला चलो रे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे
इसे 1905 में लिखा और गाया था टैगोर ने. तब, जब फूट डालने और राज करने की नीयत से ‘अमार सोनार बांग्ला’ यानि बंगाल को ब्रिटिश हुकूमत ने विभाजित कर दिया था. तब, जब उदारवादी-सुधारवादी नेतृत्व हाशिये पर जाने लगा था और चरमपन्थ आन्दोलन ने गति ले ली थी लेकिन देश के स्वतंत्रता आन्दोलन को कोई निश्चित नेतृत्व नहीं मिल पा रहा था. इस अनिश्चय के दौर में लिखा गया ये गीत दुनिया की किसी भी भाषा में लिखे गए सर्वश्रेष्ठ क्रांति गीतों में शुमार किया जाता है.
इस पोस्ट के साथ जो ऑडियो है उसमें गीत के बोलों को जस्टीफाई करती हुई शर्मिष्ठा चक्रवर्ती बिष्ट की मधुर लेकिन दृढ़ आवाज़ है. मुझे इस गीत, इस बंगले और इसके रहवासी की ओर लौटना है.
-अमित श्रीवास्तव
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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