पूस की रातों में कांसे की थाली, ढोल-हुड़के की थाप पर देवता भी अवतरित किए जाते. कहीं गंगनाथ जू तो कहीं भोलानाथजी. भोल ज्यू तो जब आ गए तो बड़े शांत, बोलते भी धीरे-धीरे, कुछ बतायें तो जैसे सलाह दे रहे हो. वहीं गंगनाथ फटाफट सवाल-जवाब करें. निबटारा भी वहीं. छुरमल, गणमेश्वर ज्यादा चीख पुकार से आते. उग्र हुए ये. गुस्सैल भी.
(Winter in Uttarakhand)
तो मसाण, देवताल के आगमन पे कम्प-डर-भय. कम्प में गणमेश्वर की टांगे तो लकड़ी के गिंडे जैसी स्थिर हों पर धड़ से ऊपर का बदन सर हाथ इतनी तेज हिलें जैसे आंधी में जवान पेड़. अभी घात वाले देव-देवता भी होने वाले हुए. लाग डांठ भी पहाड़ में हुई ही किसी न किसी से मन मोसियाया ही रहने वाला हुआ. सो अपने बैरी के छल बल को मिटा डालने के लिए देवता से पुकार लगानी हुई. यही घात हुई. जिनमें क्षेत्रपाल या खेतर पाल, कालिका और नरसिंग खट्ट से बिनती सुन लेने वाले हुए.
नरसिंग भी दो टाइप के हुए, पहला दुध्या जो रोट-दूध से खुश हो जाता है और थाली डमरू से नाच जाता है. नाचने वाला लोहे की सांकल को अपने बदन में मारता है बस. अब अगर किसी को अचानक कोई कष्ट विपदा आ जाए तो उसे नर सिंग को दोष या गोरिल समझा जाता है अब जिस परिवार में इसका दोष सपड़ गया तो ये फिर बलि लिए बिना मानता भी नहीं. दूसरा खैराड़या हुआ जो भयानक माना जाता है. अब किसी से किसी मामले में जबरदस्त ठन जाए तो इन्हीं की शरण हुई. इनमें मशाण तो बहुत ही तंग कर देने वाला हुआ. इसमें एक जल मशाण हुआ जो छोटी लड़कियों पर चिपटता है. तब जब वो पानी वाली जगह पर गिर गुरा जाएं. अभी हंतया की भी झसक होती है जो अपने ही परिवार राठ पर चिपटता है.
कोई देवता जगरिये को शांत भाव देते तो कई सर्वांग हिला नचा देते. जहां अक्षत पड़ गए वहां पूछ भी शुरू. अभी ऐसे ही मौकों में परी-चरी की फसक भी शुरू हो जाने वाली हुई. इनमें एक दुध परी भी होने वाली हुई. बर्दानी हुई ये. आंचरियों के भी किस्से हुए. अब जो बिन ब्याही कन्याएँ बेटेम ही भगवान जी की प्यारी हो जाएं वो ही आंछरी बनी. बताते हैं ये सब अपना गुट बना समूह में इकट्ठा हो जातीं और अपनी मनपसंद चीज हर लेतीं. पीले कपड़े पहनतीं और पीले फूल पसंद करतीं. दूसरी ओर लाल कपड़े और लाल फूल पसंद करने वाली मांतरी कहलाती. जब कोई लड़की या सैणी चटक कपड़ों में होतीं तब ये उस पर अपना प्रभाव डाल देतीं हैं उसका दिमाग मून देती. और पूजा में मुर्गा पा खुश हो जातीं.
(Winter in Uttarakhand)
बरफ से लकदक पहाड़ में लाल कपड़े पहिन कर न जाने पर बुड बुड़े खूब रोक-टोक भी लगाने वाले हुए. वहीं से चढ़ जातीं हैं परी आंचरी. अभी डागिनी या डेणी भी हुई जो डायन कहलाती. अभी जाड़ों की ऐसी ठण्डी में जब मौसम साफ हो तो दूर जंगलों में अँधेरी रात में टोले भी दिखने वाले ठेरे. आग का पीला सा गोला घुप्प अंधियारे में चम्म चमकेगा फिर गायब. अब ज्यादातर तो इसे भूत पिशाच मानने वाले हुए पर जरा समझदार कहते हैं कि फोस्फोरस हुआ ये. जानवरों की हड्डियों में.जब हवा का झोंका इससे टकराये तो धप्प करेगा. आग जैसी सुलगाएगा. दूर से देखने में हिलता डुलता नजर आएगा.कुछ भी हो नानतिन तो क्या कमजोर दिल वालों के तो फड़फडेट होइ जाने वाली हुई.
(Winter in Uttarakhand)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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