समाज

पूंजीवादी व्यवस्था में : कबाड़ और उसका मूल्य

सुबह-सुबह  फुटपाथ के किनारे पड़ी हुई पलास्टिक पालीथीन  गत्ता  कागज  पालास्टिक से बने अन्य समान जो अब कूडे का आकार ले चुके है पड़े हुये दिखते है जहां पर हमें यह सब ज्यादा दिखता है उस इलाके के बारे में हमारी एक राय बनती है गंदा, दूषितश कि फलानी सड़क, फलाना मोहल्ला, फलानी गली कितनी गंदी है और उस कचरे को केवल बेकार का समान जिसका अब कोई उपयोग नही रह गया है उस निगाह से देखते है. लोग सुबह-सुबह गलियों में फेरी लगाने वाली नगर निगम की गाडियों का इंतजार कर रहे होते है जिसमें वह घरों से निकला कचरा उसमें फैंक सके जिसमें तमाम तरह का कचरा होता है, इन इलाकों में असंगठित क्षेत्र के तहत काम करने वाले कचरा उठाने वाले मजदूर भी आते है, कुछ लोग कबाड़ी का इंतजार कर रहे होते है कि वह घर का कबाड़ बेच सके जिसमें लोहा, पालास्टिक, एलमुनियम, तांबा, रद्दी सब आते है. आज जब हम एक उपभोगितावादी संस्कति और वैश्वीकरण की चपेट में आ ही चुके है तो लगातार पुराने को बाहर फैकना और नये को घर में लाने की प्रकिया लगातार जारी है. लोग नया लाना और पुराने फैकनें की प्रकिया में अपनी कामयाबी का जश्न मानने में लगे हुये हैं की हम उस लायक है कि हम नया खरीद सकते है. पर ये जो पुराना है जिसमें हम लगातार बाहर फेंकते जा रहे है इसे कौन समेट रहा है इसका भार कौन उठा रहा है इससे किसी को कोई वास्ता नही है, कि यह जो इतना कचरा पैदा हो रहा है यह जा कहा रहा है, लगातार शहरों का विकास हो रहा है और साथ ही कचरे का भी. जाहिर सी बात है की कबाड़ सिर्फ कबाड़ नही है शहरी योजनाकार केविन लिंच कबाड़ और मूल्य के संघर्ष की बात करते है, उनका मानना है कि कबाड़ किसी एक के लिए मात्र कबाड़ हो सकता है परन्तु वही वह कबाड़ दूसरे के लिए जीवनयापन करने का जरिया. केविन का मानना है कि कबाड़ की अपनी न सिर्फ एक राजनीति है बल्कि यह मुख्य राजनीति को प्रभावित भी करती है, इसका प्रत्य़क्ष प्रमाण दिल्ली शहर की मुण्डका मार्केट है, यह दिल्ली में कबाड़े की सबसे बड़ी मार्केट है और राजनीति इससे अछूती नहीं है. (Junk and capitalist system)

खैर, यहा सवाल यह है कि कबाड़ कैसे असंगठित आर्थिक गतिविधियों में अपनी भूमिका निभा रहा है, जमीनी स्तर पर कौन लोग कबाड़ निपटान का काम कर रहे है और उनकी सरकार द्वारा बनाई गई कूड़ा निपटान की योजनाओं में कितना समावेशीकरण है जो उन्हें एक वैकल्पिक रोजगार के अवसर मुहैया कराये, कूड़े से किस तरह मूल्य उत्पन्न हो रहा है एंव सबसे अहम सवाल की कबाड़ से मूल्य उत्पन्न कौन कर रहा है और मुनाफा किसके पास जा रहा है.

यह एक ऐसा समय है जब भारत देश के राजनैतिक एजेंडे में देश के शहरों को विकसित करने की नीति को शामिल किया गया है. सिर्फ भारत ही नही बल्कि दुनिया के स्तर पर देशो का प्रयास है कि उनके शहर सबसे ज्यादा विकसित हो, खैर राजनैतिक और पूंजीवादी दृष्टिकोण से विकास क्या है और उसके परिणाम क्या है इससे कोई अंजान नही है. विकास की प्रकिया में बड़े स्तर पर झुग्गी, बस्तियों को उजाड़ा जा रहा इन झुग्गी बस्तियों में असंगठित क्षेत्र के मजदूर रहते है, इन्हीं बस्तियों के नजदीक अलग से बस्तियां बनाकर कचरा बीनने वाले मजदूर भी रहते है, जिनका जीवन ही कबाड़ से चलता है.

भारत के शहरों में नीजिकरण की प्रक्रिया के बाद, देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर कूड़ा निपटान को लेकर नीजिकरण की प्रकिया शुरू हुई. इस प्रकिया के तहत कूड़ा निपटान का काम मुनसिपालिटी के हाथों से लेकर बड़ी-बड़ी नीजि कंपनियों को दे दिया. निजी कंपनियों को कूड़ा निपटान का काम देने का मुख्य कारण था मुनिसिपालिटी का कूड़ा निपटान प्रकिया में असफल होना. जिस समय मुनसिपालिटी के हाथो में कूड़ा निपटान की प्रकिया थी, उस समय मुनसिपालिटी का काम था शहरों में तयशुदा जगह पर बने ढलावघरों से कूड़ा उठाकर लैंडफिल तक पंहुचाना. शहरों के प्रत्येक इलाके में आबादी के अनुसार ढलाव बनाये जाते थे एंव इन ढलावघरों पर घरों से निकला कचरा लाकर डालने की जिम्मेदारी नागरिकों की होती थी. मुनसिपालिटी द्वारा बनाये गये ढलावघरों पर यह कचरा बीनने वाले मजदूर जाते थे और पुनचक्रित होने लायक कबाड़ बीन कर अपना रोजगार चलाते थे, इसके साथ ही साथ ढलाव घरो को बिना सरकार से एक भी पैसा लिये साफ सुधरा रखते थे. कूड़े का निजीकरण करने से पहले यह मजदूर अपना परिवार कैसे पालेगे इसके लिए न कोई नीति बनी और न ही इनके लिए वैक्लपिक व्यवस्था ही की गई. नीजिकरण के बाद कूड़ा निपटान की पूरी प्रकिया में ही बदलाव हो गया अब गली मोहल्लों में कूड़े की गाड़िया जाने लग गई. ढलावघरों पर गिरने वाला कबाड़ अब सीधे बड़े-बड़े कम्पैक्टरों में गिरने लगे, जिससे इन मजदूरों को कबाड़ छांटने के लिए न्यूनतम समय भी नही मिल पा रहा है ताकि यह बेचने लायक कबाड़ बीन सकें. इससे इनका रोजगार बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है. इस सारी प्रकिया में महिलाओं की स्थिति ज्यादा दयनीय हुई है क्योंकि पहले यह महिलाएं ढलावघरों पर बैठकर कबाड़  छांट  लेते. परन्तु जब से कम्पैक्टर लगे है तब से कूड़े का भरा रिक्शा सीधे कम्पैक्टर में उठा कर डालना पड़ता है जिसे उठाना एक व्यक्ति के बस की बात नही है तो जो थोड़ा बहुत पहले कबाड़ बीनने वाले महिलाओं को आमदनी होती थी वह अभी पूर्णतः बंद हो चुकी है.

कूड़ा निपटान की प्रकिया में दूसरा बड़ा बदलाव हुआ ई पी आर नीति के तहत— अगर सरल भाषा में कहे तो ई पी आर का मायना है कि कोई भी बड़ी कपनी जितनी जो भी उत्पाद करेगी, चाहे वह शैम्पू, हापाक्सि, हार्लिक्स, आदि के डिब्बे हो या कोई भी उत्पाद जिसको इस्तेमाल करने बाद उसके डिब्बे, बोतल जितनी मात्रा में बनाऐगी उतनी ही मात्रा में वह उसे वापस भी लेगी इसके बदले में सरकार की तरफ से उस कंपनी को रियायत मिलेगी और यह रियायत प्रर्यावरण को सुरक्षित रखने हेतु मिलेगी. अब यंहा पर ध्यान देने की बात है कि कंपनी गली, मोहल्लों, सड़कों से अपने बनाये गये उत्पाद को इक्ठ्ठा करने के लिए अफसर, मजदूरों की भर्ती तो नही करेगी, की वो जाये और बीन कर लाये. जाहिर सी बात है की यह सब इकठ्ठा कचरा बीनने वाले मजदूर ही कर रहे है और वह जब इस इक्ठठे माल को मार्केट में बेचने  जाते है तो उन्हें मार्केट रेट के अनुसार भी पैसा नही मिल पाता है. ई पी आर नीति तो बनी पर इन मजदूरों को उस नीति में जगह नही मिली जबकि बुनियादी स्तर पर काम यही मजदूर कर रहे है. कचरा बीनने वाले मजदूरों द्वारा बीने गये प्लास्टिक को पुनचक्रित करके फिर से इस्तेमाल किया गया जोकि असंगठित आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान देता है. अगर हम रिसाइलिंग की पूरा प्रकिया को समझने का प्रयास करे तो हम देखते है की यह देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है. रिसाइलिंग उद्योग में अलग-अलग चरणो पर अलग अलग लोग काम कर रहे है जब हम इस पूरी प्रकिया को समझते है तो हम पाते है की पुर्नचक्रण की इस पूरी प्रकिया को सार्थक कचरा बीनने वाले मजदूर और गलियों में फेरी लगाकर कबाड़ खरीदने वाले मजदूर ही बनाते है बावजूद इसके इन मजदूरों को इनके काम का मेहनताना पूरा नही मिलता है जितने के ये मजदूर हकदार है.

प्रसिद्व इतिहासकार सुसैन स्टाउसर का कहना था की 20वीं सदी की आर्थिक गतिविधियों का परिचालन कबाड़ से होगा क्योकि पूंजीवादी युग में हर वस्तु को इस तरह से पैक करके लोग के सामने प्रस्तुत किया जायेगा की लोग उसे खरीदें, जोकि वर्तमान स्थिति में सच हो रही है.

(लेखिका बलजीत जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं)

 

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Sudhir Kumar

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