(पिछली कड़ी: ब्रिटिश एयरफोर्स से जंगलात की नौकरी तक का सफ़र : त्रिलोक सिंह कुंवर की आत्मकथा का तीसरा हिस्सा)
सब कुछ ठीक चल रहा था. 1962 के शरद में चीनियों ने हमारी सरहद पार कर कश्मीर और अरुणांचल की हमारॊ चौकियों पर धावा बोल दिया. अन्ततः एक माह के बाद चीनी एकतरफ़ा तरीक़े वापस चले गए क्योंकि सम्भवतः उन्हें भीषण सर्दी बरदाश्त करने की आदत न थी. सुरक्षा में आई ख़ामियों के चलते भारत सरकार ने कुमाऊं के पिथौरागढ और गोपेश्वर ज़िलों के सीमावर्ती इलाक़ों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सेना को सौंपने का फ़ैसला लिया. धारचूला में बाक़ायदा सेना की एक ब्रिगेड तैनात कर दी गई.
एक दोपहर एक रेवेन्यू अधिकारी मेरे साथ आकर बोला कि श्री बीरेश्वरनाथ, ब्रिगेड कमांडर चाहते हैं कि मैं तुरंत उन्हें रिपोर्ट करूं. मैंने वैसा ही किया और अस्कोट के पी डब्लू डी डाकबंगले में उनसे मिला. उन्होंने मुझसे कुछ देर बातचीत की और फिर कहा कि उन्हें बंकर बनाने के लिए तुरंत खासी मात्रा में बल्लियों की ज़रुरत है. मैंने जवाब में कहा कि ऊपरी इलाकों में जंगल हमारे अधिकार में रहते हैं जहां हम उनकी मांग पूरी कर सकते हैं लेकिन निचले इलाकों में जंगलों पर स्थानीय अधिकारियों का नियंत्रण होता है, अलबत्ता मैं उन्हें थोड़ी बहुत बल्लियाँ मुहैय्या करवा सकता हूँ. इस पर उनकी प्रतिक्रिया तीखी थी और वे बोले “देखो लड़के, मुझे चाहिए बल्लियाँ और ये सिर्फ तुम्हारा ज़िम्मा है कि तुम किस तरह उन्हें हम तक पहुंचाते हो. तुम जानते हो अगर चीनी नीचे आ गए तो क्या होने जा रहा है. तुन्हें नंगा करके गोली से उड़ा दिया जाएगा.” मेरे पास कोई चारा नहीं बचा था कि मैं सिविल जंगलों से बल्लियों की सप्लाई सेना की यूनिटों को करता और कम्पनी कमांडरों से उनकी रसीद प्राप्त करता. रसीदों की प्रतियों को नत्थी कर मैंने जिला मजिस्ट्रेट, पिथौरागढ़ को भी इस बारे में सूचित कर दिया. मुझे बाद में पता लगा कि ब्रिगेडियर नाथ का तबादला बाद में नागालैंड कर दिया गया था जहां उन्होंने नागा विद्रोहोयों पर काबू करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की थी.
उक्त घटना से मुझे बहुत फायदा हुआ. सेना के अफसरों के साथ मेरे बेहतर व्यवहार की कारण जब मैं अपने अधिकारियों के साथ उन जगहों पर होता था जो हमारे नियंत्रण से बाहर होती थीं, हमें सेना की मैस और सैन्य अधिकारियों की संगत मिल जाने में दिक्कत नहीं होती थी.
उसके बाद मेरा तबादला रेंज अफसर भवाली के तौर पर कर दिया गया. यह तत्कालीन मुख्य वन संरक्षक, कुमाऊँ श्री एन. पी. त्रिपाठी की कृपा से संभव हुआ. मैंने तीन माह का अर्जित अवकाश लेने के बाद मई 1964 में पदभार ग्रहण कर लिया. कामकाज चलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. यह तबादला मेरे किये सुविधाजनक था क्योंकि मेरे दो बड़े बच्चों ने अस्कोट से विज्ञान में इंटर की परिक्षा तब तक उत्तीर्ण कर ली थी. उस समय मेरी आवश्यकता यह थी कि मैं उन्हें नैनीताल के डिग्री कॉलेज में आगे की पढाई करवा सकूं.
बाबा नीमकरौली के साथ नोकझोंक
1964-65 में भवाली से कोई 8 किमी दूर दक्षिण में कैंची नामक गाँव में मेरी देखरेख में एक लीसा उपकरण शेड का निर्माण करवाया गया. तब हमारे विभाग के मुखिया मुख्य वन संरक्षक श्री आर. सी. सोनी थे. श्री एवम श्रीमती सोनी दोनों बाबा नीमकरौली के अनन्य भक्त थे. जंगलात की भूमि पर कब्ज़ा कर बाब और उनके शिष्यों द्वारा कुछ साल पहले एक मंदिर और अन्य एनी इमारतें बना ली गयी थीं. उत्तर प्रदेश के उच्च अधिकारियों पर बाबा का अच्छा खासा प्रभाव था, सो इस बात को अनदेखा कर दिया गया. श्री एवम श्रीमती सोनी गर्मियों के महीनों में अक्सर कैंची आया करते थे. उक्त इमारत उन्हीं की इजाजत से बनी थी, जो बहुउद्देश्यीय थी जिसमें एक अर्ध फारेस्ट रेस्ट हाउस की सभी सुविधाएँ उपलब्ध रहती थीं.
अपने प्रमुख के गुरु-चेला सम्बन्ध के चलते ज़ाहिर था कि मेरे लिए यही उपयुक्त होता कि मैं भी बाबाजी का सम्मान करता. यह अलग बात है कि मैं एक दृढ़निश्चयी अनीश्वरवादी था. तो जो भी हो मैं और मेरे डिप्टी साहब ऐसा ही किया करते थे. अपने चेलों के माध्यम से इन गुरुओं और बाबाओं की सूचना सेवा खासी अप-टू-डेट रहा करती है. मेरा मातहत बाबा के चरणों पर साष्टांग लेता हुआ था जबकि मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया. बाबा बोले “कौन रेंजर, बड़ा सीधा सच्चा आदमी है. प्रसाद ले और जा.” मई 1965 के मध्य में मैं चीड़ के वन-वर्धन पर कैंची में फॉरेस्टरों की पैदल कक्षा ले रहा था. कैंची पहुँचने पर मैंने प्रशिक्षणार्थियों से कहा कि अगर वे उचित समझें तो मंदिर हो आएं. इधर मैं यह देखने चला गया कि शेड की उचित देखभाल हो रही है या नहीं क्योंकि आने वाले दिनों में श्री सोनी कभी भी वहां आ सकते थे. जब मैं इस कार्य में लगा हुआ था, बाबा के कुछ चेले मुझ तक आये और कहने लगे कि मैं रात में किसी के रहने के लिए शेड को खोल दूं. मैंने सिर्फ इतना ही कहा “चूंकि निकट भविष्य में हमारे मुख्य वन संरक्षक यहाँ आने वाले हैं, ऐसा कर सकना मेरे लिए संभव नहीं होगा.” मैंने उनसे फिर पूछ कि आने वाला महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन है और यह अनुरोध किया कि वे लिखित में दे दें कि हमारे मुख्य अधिकारी के आगमन पर वे इमारत को ख़ाली कर देंगे
उसक बाद मैं वापस लौटा और फॉरेस्टरों की बस में चढ़ गया. कुछ ही मिनटों के बाद मुझसे कहा गया कि मैं बाबाजी के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत करूं. मैं गया और हमेशा की तरह मैंने उनके आगे हाथ जोड़े. बाबा ने तुरंत चिल्लाते हुए कहा “ तूने क्या पाखण्ड मचा रखा है? बड़ा धूर्त है, भाग जा यहाँ से!” उनके सामने खड़ी भक्तमंडली के सामने इस बुरी तरह लताड़े जाने बाद मैंने अपने पीछे खड़े चपरासी से कहा कि वह किसी को भी शेड में रहने न दे चाहे वह कोई भी हो. इससे एक बखेड़ा तो खड़ा होना ही था. मुझे पता लगा कि अगले दिन श्री सोनी को इस घटना से अवगत कराया गया. इसे मेरे द्वारा की गयी महान धृष्टता समझा गया होगा. यह खबर नैनीताल शहर उसके आसपास के इलाकों और हमारे विभाग में आग की तरह फ़ैल चुकी थी.
अगले दिन मैं वन संरक्षक श्री त्रिपाठी के पास पहुंचा और उनसे अनुरोध किया कि मुझे कोई अन्य स्थान पर तैनाती दे दी जाय. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या कैसे हुआ. मैंने उन्हें घटना की तफसील से अवगत कराया और समझाया कि मैं गुरुओं में आस्था नहीं रखता. कुछ ही दिनों में मेरा तबादला कोसी रेंज (बेनिक मुख्यालय) में कर दिया गया, जो नैनीताल से पैदल 15 किलोमीटर उत्तर में स्थित था. जून 11, 1965 को मैंने नई रेंज में पदभार सम्हाल लिया. इस तरह मैं विभाग के अधिकाँश लोगों के मध्य कुख्यात और विख्यात दोनों हो गया.
नैनीताल नगर में चारकोल की आपूर्ति
इसके बाद मुझे अप्रैल 1966 में रेंज अफसर नैना के बतौर स्थानांतरित किया गया, जिसका मुख्यालय नैनीताल में था. मेरी प्रमुख ज़िम्मेदारी थी नैनीताल नगर में चारकोल की आपूर्ति को प्रभावी तौर पर प्रबन्धित करना. इन कार्यों का मैंने गहरा अध्ययन किया और पाया कि वर्षों से जंगलात के मुहर्रिर चारकोल के स्थानीय डीलरों के सांठगाँठ किये हुए थे और इस तरह चारकोल के इस्तेमाल और बिक्री पर उनका एकाधिकार था. सबसे पहले मैंने ऐसे मुहर्रिरों को नैनीताल के आसपास वन-मुहर्रिर बना कर स्थानांतरित किया और वन-मुहर्रिरों को उनकी जगह तैनात किया.
तब के हमारे डी.एफ़.ओ. श्री डी. सी. पांडे ने इंग्लैण्ड में अपनी उच्च शिक्षा के लिए जाने से पहले मुझसे कहा, “अगर तुम चारकोल के सारे डिपो की आपूर्ति को सही ढर्रे पर लाने में कामयाब हो जाओ तो समझना यह तुम्हारे लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी.” इसे बात को मैंने एक चुनौती की तरह लिया और काफी सोच विचार के बाद फैसला किया कि चारकोल की आपूर्ति और बिक्री को दोहरे ताले और दोहरे नियंत्रण में रखा जाना चाहिये. मैंने यह तरकीब निकाली कि उक्त कार्य एक तरफ तो डिपो के मुहर्रिर को करना होता था, वही दूसरी ओर प्रति मांड चारकोल (एक मांड = 37 किलो) के हिसाब के मिलने वाली रौयल्टी के आधार पर नियुक्त किये गए बिक्री एजेंटों को. तत्कालीन डी.एफ़.ओ. ने इस व्यवस्था पर सहमती दे दी और इसे जुलाई 1967 से लागू किया गया. शुरू में इसे ठीक तरीके से नहीं चलाया जा सका पर जल्दी ही चीज़ें काबू में आने लगीं. समय के साथ साथ इस कार्य में विभाग को होने वाला नुकसान पूरी तरह शून्य पर आ गया.
इसके बाद नैनीताल में मेरा जीवन शांतिपूर्ण बना रहा, सिवाय गर्मियों में लगने वाली आगों से लड़ने के मामूली कर्तव्यों के. इन्हें मैंने एक वन कर्मचारी के जीवन का आवश्यक हिस्सा मांकते हुए स्वीकार कर लिया.
जुलाई १९७० में मेरा तबादला नैनीताल के 8 किमी दक्षिण में स्थित मनोरा रेंज, बल्दियाखान मुख्यालय में कर दिया गया. यहाँ मैं पांच साल तक यानी 1970 से 1975 तक रहा. इस रेंज में मेरा जीवन विशुद्ध वनकर्मी का था जिसके अंतर्गत मुझे वनों के संवर्धन, मोटर मार्गों के बगल में 5-10 हैक्टेयर के इलाके में वृक्षारोपण और नैनीताल से काठगोदाम के मध्य की टेलीफोन लाइन को डालने और उसकी देखरेख का काम करना होता था. रेंज में पांच साल बिताने के बाद मैं अपना स्थानांतरण जुलाई 1975 में कोसी रेंज, बेनिक में करवा सकने में कामयाब हुआ, जहाँ मैं कुल चार माह रह सका.
रेंज अफसर स्टेटिस्टिकल पार्टी – सिल्विया हिल
इसके उपरान्त मैंने नवम्बर 1975 में नैनीताल मुख्यालय के सिल्विया हिल में स्वेच्छा से रेंज अफसर स्टेटिस्टिकल पार्टी का पदभार सम्हाला क्योंकि तब मैं उत्तर प्रदेश की अधीनस्थ वन सेवा संघ के प्रमुख सचिव का काम भी देख रहा था. ऐसा करते हुए मैं अपनी आधिकारिक ड्यूटी निभाने के साथ साथ अधीनस्थ काडर की समृद्धि और विकास के लिए कार्य कर सकता था. रेंज अफसर स्टेटिस्टिकल पार्टी के तौर पर मुझे पूर्व में अल्मोड़ा से लेकर पश्चिम में उत्तरकाशी तक के पर्वतीय इलाके को देखना था. मुझे सैम्पल मेंदिये गए प्लॉट्स के पेड़ों की मोटाई और ऊंचाई नापनी थी, नए प्लॉट्स तैयार करने थे और पुराने पेड़ों को कटवा कर उन्हें तख्तों में बदलवा कर नये प्लॉट्स की नापजोख करनी होती थी. मेरी यात्राएं आमतौर पर हर साल इलाके के आधार पर अक्टूबर/ नवम्बर से जून में शुरू होती थीं. स्वयं यह काम करने में मुझे आनन्द आने लगा था क्योंकि मुझे अहसास होता था मैं शोध में अपना योगदान दे रहा हूँ. इसके आलावा मुझे इस बात का भी संतोष था कि मेरी टीम ऐन मेरी नाक के नीचे काम करती है. आज भी, अपनी बढ़ी हुई उम्र के बावजूद मेरा मन उन इलाकों में जाने का करता है.
मेरा अगला तबादला रिसर्च रेंज अफसर, हल्द्वानी, मुख्यालय सिल्विया साल हल्द्वानी में अगस्त 1981 में हुआ. पैंतीस सालों तक पहाडी इलाकों में काम कर चुकने के बाद मेरा यह नया काम एकदम नई प्रकृति और नए वातावरण का था. धीरे-धीर मैं अभ्यस्त होता गया और मैंने पोपलर की नर्सरियां बनाने का काम शुरू किया और साथ ही अलग अलग प्रजातियों के बेहतर गुणवत्ता वाले बीजों को एकत्र करना भी. आगे बताई जाने वाली घटना को छोड़ दिया जाय तो मेरा समय यहाँ ख़ासा सुविधापूर्ण रहा.
मृत्यु से साक्षात्कार
एक सुबह, अचानक मेरे एक युवा सहकर्मी डिप्टी रेंजर श्री एस.डी. सुयाल, जो तब बीज एकत्रीकरण रेंज के इंचार्ज थे, ने अजीबोगरीब व्यवहार करना शुरू कर दिया. बाद में पता चला उनका मामला मनोवैज्ञानिक था जिसके कारण वे कब ही कभी हिंसा पर भी उतारू हो जाया करते थे. तो यह फैसला किया गया कि 15 जून 1982 को डी.एफ़.ओ. की ट्रेलर वाली जीप में लादकर उन्हें बरेली के मानसिक चिकित्सालय ले जाया जाय. मेरे साथ मेरे नायब श्री सी. बी. छिम्वाल, एक युवा सहकर्मी श्री आर. के. दुबे, प्लान्टेशन जमादार श्री सुयाल, नर्सरी के दो मजदूर – बालेश्वर प्रसाद और सुरेन्द्र, और ड्राइवर श्री पान सिंह थे.
करीब तीन बजे दोपहर हम श्री एस. डी. सुयाल को बरेली में भरती करवा पाने में सफल रहे. उसके बाद हमने खाना खाया और कुछ घंटे आराम किया. चूंकि गर्मी का मौसम अपने उरूज पर था, हमने साढ़े छः बजे हल्द्वानी की तरफ प्रस्थान किया. हमारा ड्राइवर शराब का लती था. मैंने उससे निवेदन किया कि आराम से गाडी चलाए और वादा किया कि हल्द्वानी पहुँचने पर उसे उसकी खुराक दे दी जाएगी.
कोई 20 किमी चलने के बाद वह अचानक एक देसी शराब के ठेके के पास रुक गया. उसने बोनट उठाकर रेडियेटर खोला और टीन का कनस्तर थाम लिया. उसने ऐसे दिखाया मानो वह रेडियेटर को ठंडा करने के लिए पानी लेने जा रहा है. असल कहाने कुछ और थी. वह कनस्तर में शराब भर लाया और बोनट के हुड के पीछे जाकर उसे गटक गया.
अब हमारी आगे की यात्रा शुरू हुई. मैं उसकी बगल में बैठा हुआ था. मैंने पाया कि उसका स्टीयरिंग अस्थिर था. हम बमुश्किल 10 किमी चले होंगे जब करीब आठ बजे हमारी जीप हमसे बचने का प्रयास कर रहे एक ट्रैक्टर की ट्राली से आमने सामने जा भिड़ी. हमारी तरफ एक निगाह डाले बिना ट्रैक्टर आगे निकल गया. हमारी जीप कोई दस मीटर तक चीखती हुई घिसटती गयी और पलट गयी. मैं और दुबे आगे थे. पलटी हुई जीप से सबसे पहले बाहर आने वालों में छिम्वाल, सुरेन्द्र और एक मजदूर थे. उन्होंने बुरी तरह घायल मजदूर बालेश्वर प्रसाद को बाहर निकाला और सड़क के किनारे रखकर सदमे में आ चुके सुयाल को उसकी बगल में खड़ा कर दिया. मैं, दुबे और ड्राइवर अब भी पलती हुई जीप के भीतर गड्डमड्ड पड़े हुए थे. छिम्वाल ने जीप के नीचे फंसे लोगों को बचाने की नीयत से गुजरते हुए वाहनों को रोकने की कोशिश की पर वह किसी काम नहीं आया.
आख़िरकार करीब नौ बजे हल्द्वानी से लखनऊ जा राही एक रोडवेज़ की बस अचानक रुकी और उसमें से कुछ यात्री बाहर उतरे. चूंकि अँधेरा बहुत घना था सो स्वतःस्फूर्त ढंग से एक यात्री ने माचिस जलाने की कोशिश की लेकिन छिम्वाल ने जोर से उस यात्री के हाथ पर प्रहार किया और माचिस नीचे गिर गयी, छिम्वाल ने चीखते हुए कहा कि सड़क पर और जीप में पेट्रोल फैला हुआ है “क्या तुम इन्हें भी जिंदा जला देना चाहते हो?” अगर छिम्वाल यह अक्लमंदी न दिखाते तो संभवतया मैं और दुबे जलकर राख हो जाते और हमारा भी वही हश्र होता जो ड्राइवर पानसिंह का हुआ.
सबसे पहले पानसिंह को बाहर निकाला गया. उसके सिर और छाती पर गहरे घाव थे, उसकी बाईं जांघ बुरी तरह से दो हिस्सों में फट गयी थी और वह बेहोश था. थोड़ी सी मदद से मैं और दुबे भी गाडी से बाहर आये. बचाव अभियान समाप्त होने पर मैं और दुबे वहां से कुछ किलोमीटर दक्षिण स्थित देवरनिया के निकटतम थाने में उसी बस से पहुंचे. बाकी के लोग वहीं रहे.
हमारी बातों पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि पुलिस स्टेशन में किसी अफसर की तरक्की की दावत चल रही थी जिसे अगली सुबह नए तबादले पर निकलना था. हम रिपोर्ट लिखाने की लगातार विनती करते रहे जिस पर अंततः एक इन्स्पेक्टर आया जिसे हमें सारी घटना बयान की. चूंकि दुबे के और मेरे ट्रैक्टर ट्रॉली से और दुबे के ट्रक से टक्कर के बयान हिसाब से मेल नहीं खा रहे थे, इंस्पेक्टर ने हम पर चीखना शुरू कर दिया. दुबे ने भी तीखी आवाज़ में जवाब दिया कि इंस्पेक्टर को पता होना चाहिए कि वह समूचे उत्तर प्रदेश के अधीनस्थ वन कर्मचारियों के संगठन के अध्यक्ष से बात कर रहा है, जो कि उन दिनों मैं था. उसके बाद इंस्पेक्टर कुछ ढीला पडा और उसने मेरा बयान यानी ट्रैक्टर ट्रॉली से टक्कर होना, को दर्ज कर लिया.
इसके बाद इंस्पेक्टर ने एक ट्रक का बंदोबस्त किया ताकि बाकी के लोगों के साथ हमें बरेली के सिविल हस्पताल ले जाया जा सके. इसी बीच मैंने अपनी ऊपरी बदन के कपड़े कर उतार दुबे को थमाए क्योंकि शरीर में लगे घाव पेट्रोल और लुब्रीकेंट्स में रगड़ जाने के कारण जलन पैदा कर रहे थे. इसके अलावा मैं नंगे पाँव था क्योंकि रात के अँधेरे के कारण मुझे अपने सैंडल नहीं मिल पाए थे. ट्रक वापस पुलिस स्टेशन तीन लोगों को लेकर आया; छिम्वाल वहीं ड्राइवर पान सिंह के शव के साथ रह गए थे, जिसका तब तक प्राणांत हो चुका था. अंततः उसी ट्रक ने हमें बरेली के सिविल हस्पताल में छोड़ा.
आधी रात से अधिक समय हो चुका था और ड्यूटी पर कोई डॉक्टर नहीं था. उसे बुलाने ले लिए एक संदेशवाहक को भेजा गया. इस बीच बुरी तरह से घायल मजदूर बालेश्वर प्रसाद, जो ड्राइवर की बिलकुल बगल में बैठा था और सुयाल को हस्पताल के बिस्तरों पर शिफ्ट किया गया. एक घंटे में डॉक्टर आया; बजाय घायलों की पूछताछ करने के उसने दूसरों की हल्की फुल्की चोटों और चिकित्सकीय-कानूनी बातों पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया. उसने चोटों की नापजोख और अन्य विवरण लिखने में एक घंटा लगाया. उसके बाद वह हमारे मरीजों तक पहुंचा और उसने हमसे रात के दो बजे दो या तीन बोतल ग्लूकोज़ की लाने को कहा. भाग्यवश बरेली का डिवीज़नल स्टोरकीपर आसपास रहने वाला निकला. चूंकि उसके पास अपनी मोपेड थी, हम बाज़ार गए और ग्लूकोज़ ले आये. हस्पताल पहुँचते –पहुँचते हमें एक घंटा और लग गया होगा. इस बीच में बालेश्वर प्रसाद जिसके सिर में काफी खुली हुई चोट थी, अपने प्राण गँवा चुका था. अलबत्ता प्लान्टेशन जमादार सुयाल ग्लूकोज़ की ड्रिप चढ़ते ही सामान्य हो गए. संयोगवश 16 जून की भोर जब हम लोग हस्पताल में ही थे, ‘अमर उजाला’ का एक पत्रकार वहां आ पहुंचा और उसने दुर्घटना और नुकसान की रपट ली. उसी सुबह अखबार के शहरी संस्करण में दुर्घटना की खबर छप गयी.
बरेली के सिविल लाइंस में जंगलात के विश्राम गृह में कुछ देर अपने हाथ-पैर लम्बे करने के बाद हमने चाय पी. मैंने और दुबे ने फैसला किया कि हम पांच बचे हुए लोगों ने तुरंत हल्द्वानी अपने-अपने घरों में सूचित करना चाहिये कि हम खतरे से बाहर हैं. ऐसा करना ज़रूरी था क्योंकि बुरी ख़बरें और अफवाहें बहुत तेज़ी से फैलती हैं. यह संयोग ही था कि श्री डी. एन. लोहनी, अतिरिक्त मुख्य वन संरक्षक की एम्बेसेडर कार और उनका ड्राइवर वहीं थे, जबकि श्री लोहनी बाहर गए हुए थे. तय किया गया कि एम्बेसेडर कार और ड्राइवर की सेवाएँ इस शर्त पर ले ली जाएं कि हम गाडी में हल्द्वानी जाने-आने का पेट्रोल भरवा देंगे.
हमने यात्रा शुरू की और दुर्घटना स्थल से श्री छिम्वाल को अपने साथ ले लिया. अजीब बात थी कि छिम्वाल अकेले नहीं थे; उनके साथ दो कांस्टेबल थे. जब मैंने इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि करीब आधी रात को एक पुलिस जीप सड़क किनारे मृत शरीर को देखकर रुक गयी जिसकी बगल में बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त जीप के पास एक अकेला आदमी चहलकदमी कर रहा था. पुलिस अफसर ने छिम्वाल से घटना के बारे में पूछताछ की. वह छिम्वाल के संस्करण को मानने को तैयार ही नहीं था क्योंकि उसके हिसाब से जीप में सवार किसी के भी बच निकलना नामुमकिन था. उस सहृदय और दयालु पुलिस अफसर ने जीप तुरंत वापस लौटाई और देवरनिया थाने से दो कांस्टेबल अगली सुबह तक छिम्वाल को साथ और नैतिक सहायता देने के उद्देश्य से अपने साथ ले आया. बाद में पता चला कि वह अफसर रुद्रपुर में तैनात ए.एस.पी. रैंक का एक आई.पी.एस. था जो बरेली रेलवे स्टेशन पर किसी मंत्री को विदा कर रुद्रपुर वापस जा रहा था.
संयोगवश मुझे मेरी खोई हुए सैडिलें भी मिल गईं. कभी ख़त्म न होने वाली अपनी दास्ताने आपस में बांटते हुए हमने आगे की यात्रा जारी रखी. आख़िरकार हम सब अपने अपने घरों में पहुंचे जहाँ हमने दुर्घटना और अपने चमत्कारिक रूप से बच जाने की बातें परिवारजनों को सुनाईं.
जीप दुर्घटना के बाद की कार्रवाई
मैं जल्दी से हल्द्वानी के डी.एफ़.ओ. स्व. श्री एच.सी. जोशी के पास पहुंचा; मेरे शरीर और चेहरे पर मरक्यूरोक्रोम का लाल लोशन पुता हुआ था. मैंने संक्षेप में उन्हें सारे किस्से से अवगत कराया और उनसे आग्रह किया किया कि वे हमारे डी.एफ़.ओ. श्री आर.सी.खोलिया से संपर्क करें. उसके बाद हमने नाश्ता किया जिसकी हमें बेहद दरकार थी और छिम्वाल और दुबे के साथ करीब नौ बजे बरेली के लिए रवाना हुआ जहाँ हम साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गए. वहां हमने एक नए दिन की शुरुआत की और पोस्टमॉर्टम की कार्रवाई को देखते रहे जो 16 जून की दोपहर के बाद तक चला. जब मैं हस्पताल के परिसर में चहलकदमी कर रहा था मुझे अपने एक भतीजे से वहां अचानक मिलकर बड़ी हैरानी हुई जो उन दिनों इन्डियन वेटेरिनरी इन्स्टीट्यूट, इज्जतनगर, बरेली में काम कर रहा था. वह अखबार में छपी खबर पढ़कर वहां आया था जिसमें मुझे गंभीर रूप से घायल बताया गया था – यह पत्रकार की गलती थी. बाद में हमने नज़दीक के एक रेस्तरां में दोपहर का खाना खाया. तब तक नैनीताल से हमारे डी.एफ़.ओ. अपने साथ एक विभागीय ट्रक लेकर वहां आ चुके थे. उन्हें मृतक ड्राइवर के परिवार को सूचित करना था, जो अल्मोड़ा से २० किमी दूर एक तीर्थ केंद्र जागेश्वर का रहने वाला था; इसी वजह से उन्हें आने में देरी हुई थी.
इसके बाद हम बरेली पुलिस के अधिकारियों के पास पहुंचे ताकि अपनी टूटीफूटी जीप को देख कर उसकी अंतिम रिपोर्ट बना कर जारी कर सकें. इसी के बाद संभव था कि जीप को विभाग द्वारा वापस लिया जाता. यह कार्रवाई शाम के छः बजे तक चली. जब हम लोग भीषण व्यस्तता में संकट से भरे रात और दिन सड़क किनारे पड़े हुए थे, श्री खोलिया को हम पर दया आई और उन्होंने हमारी पीठ थपथपाई. मृत ड्राइवर पानसिंह और मजदूर बालेश्वर प्रसाद के शरीर विभागीय ट्रक में लादे जा चुके थे और हमने करीब आठ बजे हल्द्वानी का रास्ता थामा. करीब साढ़े ग्यारह बजे हम लालकुआं नर्सरी पहुंचे जहाँ अगली सुबह होने वाले दाह संस्कार के लिए मजदूर बालेश्वर प्रसाद के शरीर को उतारा गया. फिर हम आधी रात के बाद हल्द्वानी के तिकोनिया वन-परिसर की तरफ चले. यहाँ ड्राइवर पान सिंह का शरीर एक दूसरे विभागीय ट्रक में शिफ्ट किया गया जो उसे जागेश्वर लेकर जाने वाला था.
खाना खाने के बाद जब मैं बिस्तर पर लेटने की कोशिश करने लगा तो पीठ में दर्द शुरू हो गया. मुझे कुछ दर्दनिवारक लेने पड़े. जब मैं दर्द में ही था, अचानक यूं ही मेरे दिमाग़ में आया कि मरने वालों में मैं भी हो सकता था; उस स्थिति में मेरा शरीर बरामदे में धरा होता.
खैर इस तरह बयालीस घंटे तक तक चला यह त्रासद घटनाक्रम समाप्त हुआ.
जहाँ तक मेरे विचारों की बात है, जीवन और मृत्यु परिस्थितिजन्य घटनाएं हैं. अगले दिन जब एक नज़दीकी मित्र ने मुझस पूछा कि हुआ क्या था तो मेरा जवाब था “जीवन अपने आप में एक दुर्घटना है, मेरे साथ एक दुर्घटना घटी और दुर्घटनावश में बच निकला.”
सेवा का अंतिम दौर
मैं आर.आर.ओ. हल्द्वानी के तौर पर अगले नौ माह तक कार्यरत रहा जब तक कि एक दिन अपने डी.एफ़.ओ. सिल्वा साल, श्री बख्शीश सिंह के साथ 1982-83 के बजट आवंटन में हुए भेदभाव को लेकर मेरा विवाद हो गया और फिर मार्च के दूसरे हफ्ते में नैनीताल में उनसे झगड़ा. मैंने मीटिंग को छोड़ा और वापस हल्द्वानी चला आया औए उसके बाद मैंने गुर्दे में पथरी के कारण होने वाले स्थाई दर्द के कारण मेडिकल लीव की अर्ज़ी लगा दी; मुझे पिछले छः महीनों से वास्तव में यह तकलीफ़ थी.
अन्ततः मिनी ढाई महीने की मेडिकल लीव का इस्तेमाल किया जिसके बाद मुझे वन प्रशिक्षण संसथान, हल्द्वानी में पोस्ट कर दिया गया. यहाँ मैं ग्यारह महीने रहा. उसके बाद मैं सीधा तत्कालीन प्रिसिपल चीफ कन्ज़र्वेटर ऑफ़ फॉरेस्ट्स श्री डी. एन. मिश्र से मिला और उनसे आग्रह किया कि मुझे पिथौरागढ़ डिवीज़न में भेज दिया जाय, जो सीमान्त जिला था और जहां मुझे अपनी तनख्वाह के ऊपर रु. 200 प्रतिमाह अतिरिक्त पाने का अधिकार था. मैंने जुलाई 1984 में वहां कार्यभार सम्हाला. मुझे मुख्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया जहाँ मेरा काम न्यायालय के मामलों को देखना था. बिलआखीर 30 अप्रैल 1985 को तकरीबन 39 वर्ष सेवा कर चुकने के बाद मैं सेवानिवृत्त हुआ. उस समय मैं अपने संगठन का अध्यक्ष था. उस दोपहर डिवीज़न और रेंज के स्टाफ और अधिकारियों द्वारा मुझे बहुत गर्मजोशी के साथ विदाई दी गयी.
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2 Comments
navin chandra pant
Bahut sunder aatmakatha.
Sadhuvad.
Devendra Mewari
ज़िंदगी क्या-कुछ दिखाती है, कुंवर जी की आपबीती इसकी मिसाल है। क्या-कुछ नहीं देखा-सहा उन्होंने। यह जान कर बहुत खुशी होती है कि उन्होंने सदा सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने का साहस दिखाया।
घटनाओं के तार कब कहां जुड़ जाते हैं, यह भी आश्चर्यजनक है। संघर्षों में पले-बढ़े वन अधिकारी कुंवर जी ने जिस मुख्य वन संरक्षक आर सी सोनी जी का ज़िक्र किया है, मैंने भी तो 1965-66 में उन्हें ही लखनऊ पत्र भेजा था। 1965 और 1966 में दो बार लोकसेवा आयोग से एसीएफ की परीक्षा पास कर लेने के बाद भी जब मुझे ट्रेनिंग के लिए बुलाने का पत्र नहीं मिला तो मैंने दुखी होकर इन्हीं सोनी साहब को एक लंबा पत्र लिखा था कि मुझ जैसा ग्रामीण बालक जो वनों की गोद में पैदा हुआ, जो वनस्पति विज्ञान का विद्यार्थी है और जिसे वनों से बेइंतिहा प्यार है, उसे परीक्षा में फाइनल पास हो जाने के बावज़ूद अब तक ट्रेनिंग के लिए नहीं बुलाया गया है। उनका उत्तर भी मिला था कि उन्हें मेरी ही तरह के लोग चाहिए और वे इस मामले में पता लगाएंगे। खैर,न जाने क्या हुआ। बुलावे का पत्र आज 50 वर्ष बाद भी नहीं मिला है। और हां, जिन वनाधिकारी खोलिया जी का ज़िक्र हुआ है, वे डीएसबी नैनीताल में मेरे सहपाठी थे। हम कई विद्यार्थियों ने यह परीक्षा पास की थी। जीवन में कुछ और करने के लिए मुझे नियति ने दूसरी राह पर भेज दिया।