देवेन्द्र मेवाड़ी साहित्य की दुनिया में मेरा पहला प्यार था. दुर्भाग्य से हममें से कोई कविता नहीं लिखता था इसलिए रूखे गद्यकार बनकर रह गए और शायद इसीलिए रूखे प्रेमी भी. हाँ, अगर वह लड़की होता तो हो सकता है कि मैं कवि बन चुका होता, मगर ऐसा संभव नहीं था क्योंकि विज्ञान की जानकारी के बावजूद हममें से कोई ऐसे खुले संस्कारों की उपज नहीं था और हम अपनी नस्ल बदलने की बात सोचते. ऐसा भी नहीं था कि हमारे मित्रों में लड़कियाँ नहीं थीं, उस उम्र में सभी के मन में खुद की अभिरुचि के व्यक्ति को चुनकर हमराही बनाने की इच्छा जागती है, हमारी भी जगी और वक़्त आने पर हमने हमराही चुने भी.
(Yayavar Ki Yaadein Book Review)
देवेन जिंदगी भर कुढ़ता रहा कि मेरी तरह वह अपनी इच्छित लड़की के साथ शादी नहीं कर पाया, हालाँकि उसे धीरे-धीरे मालूम हो ही गया कि जिस लड़की से मेरी शादी हुई वह कविता नहीं लिखती थी और न वह मेरी साहित्यिक मित्र थी. वह अपने गणित लगाता रहा मगर मेरा मामला खालिस इकतरफा था और घोर सस्पेंस के बाद शादी की पहल मुझे ही करनी पड़ी थी. अब ये बारीक बातें दोस्तों को क्या मालूम? जिंदगी जिस ढंग से सरकती गई, हम भी उसी के साथ सरकते चले गए, बिना किसी गिलवा-शिकायत के.
दोस्तों के मामले में मैं सौभाग्यशाली रहा हूँ और अनजाने ही हर वर्ग, अनुशासन और रुचियों के लोगों से मेरे बेहद आत्मीय संबंध रहे हैं. मेरे पहले साहित्यिक मित्र मेवाड़ी से कुछ ही पहले बने वीरेन डंगवाल और मोहम्मद सईद की साहित्य में कोई सीधी अभिरुचि नहीं थी. दोनों मनमौजी और अपनी धुन में रहने वाले हालाँकि एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देने वाले आत्मलीन-से लड़के थे. वीरेन बला का खुराफाती, वाचाल और बिना बात अपने निजी शौक बीच में घसीट लाता था. सईद चुप्पा और बोरिंग लड़का, जो मुख्य रूप से पुनर्जागरणकालीन यूरोपीय कलाकारों के संसार में खोया राहत. दोस्तों के साथ उबाऊ बातचीत करना और घर जाकर पेंटिंग करना उसका शौक था. उसकी रुचि घड़ी-रेडियो के कलपुर्जों के साथ खेलते रहने में ज्यादा थी, साहित्य की बातें तो शुरू में हम कम ही करते.
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ब्रजेन्द्र नैलवाल था तो ग्रेजुएशन का हमारा सहपाठी ही, मगर इतना धीर-गंभीर कि उससे खुलकर हल्की-फुल्की बातें करने में डर लगता था. ब्रजेन्द्र बाद में आइपीएस अधिकारी बना, हालाँकि उसने बचपन के दोस्तों के साथ अपना आत्मीय रिश्ता हमेशा बनाए रक्खा. नवीन शर्मा साहित्यकारों और दार्शनिकों से जुड़े चुटकुले सुनाते हुए कब गंभीर संवाद में लौट आता था, पता ही नहीं चलता था. पढ़ता-लिखता था मगर साहित्य-लेखन से दूर रहता था; प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहता था, जो वह बना.
पूरन पंत और नंदू भगत तो एकदम शुरुआती दिनों के दोस्त थे, जिनके साथ कहानी लिखने-सुनाने की घोर प्रतिस्पर्धा रहती थी. मगर ये दोनों शहर के लड़के थे जो मुझे हमेशा मेरे गवईं सरोकारों से मुक्त होने के उपदेश देते हुए मुझमें हीनता भाव पैदा करते रहते. जब भी मेरी कोई कहानी कहीं छपती, दोनों दोस्तों के बीच प्रचारित करते रहते कि उन्होंने ही मेरी कहानी करेक्ट की है, जिस कारण वो आज प्रकाशन योग्य बन पाई. लड़कियाँ देर से संपर्क में आईं जरूर; हालाँकि उनमें से कुछ में कवि-व्यक्तित्व मौजूद था मगर हमराही तो किसी एक को ही बनना होता है, जिसे हम अंततः अपनी शर्त पर तलाश ही लेते हैं. मैंने और देवेन ने भी यह तलाश एक दिन पूरी कर ली.
दोस्ती की इसी तलाश में जब हम सिरफिरों ने एक अर्ध-संस्था ‘क्रैंक्स’ की नींव डाली. मेवाड़ी सारे दोस्तों में मेरा दाहिना हाथ था. देवेन के साथ मेरे जुड़ाव का बड़ा कारण उसका और मेरा समान पृष्ठभूमि में से अंकुरित होना था. वीरेन के पिता नैनीताल के एडीएम थे, ब्रजेन्द्र के पिता नैनीताल के थानेदार, जिनके साथ उन्मुक्त अंतरंगता के साथ उठना-बैठना संभव नहीं था जो देवेन के साथ मेरे लिए सहज ही संभव हो गया. देवेन के साथ जो एक और चीज मुझे जोड़ती थी, वो थी उसका ताज़ा-ताज़ा गाँव से शहर आया हुआ भोला व्यक्तित्व. गाँव को लेकर उसके संभालकर रखा था. जल्दी ही हम लोगों के सामाजिक और साहित्यिक आदर्श भी एक बन गए, लेखक, विचारक और शौक भी लगभग समान. किताबें-पत्रिकाएं भी एक ही तरह की पढ़ने लगे, जुनून भी एक जैसा, शाम होते ही खास जगह बैठकर साहित्य-चर्चा करना और अपने समकालीनों के रचना-संसार के बीच गोते लगाना. देवेन के अलावा बाकी किसी और दोस्त में यह जुनून नहीं था, न ही वैसा खुलापन. टोलिया और मिताली गांगुली दोनों ही चित्रकार मित्र थे, उनके परिवार से कोई संबंध नहीं था, दोनों ही एक समृद्ध परिवार से जुड़े थे, मगर मिताली नए कलाकारों, खासकर आस्तित्ववादी चिंतकों की गहरी जानकार थी. मगर यह संदर्भ देवेन के संस्मरणों का है,
इस छोटी-सी भूमिका को लिखने के पीछे राज यह है कि हाल ही में प्रकाशित मेवाड़ी की किताब ‘यायावर की यादें’ को पढ़ने के बाद यादों का सिलसिला करवट लेने लगा. सारे संस्मरणों के बीच क्रैंक्स के हमारे दोस्त सईद और वीरेन के अलावा और कोई आत्मीय संस्मरण नहीं दिखा, मैंने इस सिलसिले में उनसे बातें भी कीं जिसके जवाब में बताया गया कि ये सारी यादें दिवंगत मित्रों की हैं. मगर मुझे लेकर तो किताब में अनेक प्रसंग मौजूद थे, इसलिए पृष्ठभूमि के रूप ये बातें देनी जरूरी हो गई थीं.
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क्रैंक्स के अलावा बाकी दोस्त देवेन के कैरियर के दिनों में अपनाई गई स्मृतियों के रिपोर्ताज हैं इसलिए सभी चित्रों में गुरु-गंभीर व्यक्तित्वों के प्रदान की गई उन प्रेरणाओं का जिक्र है जो किसी संवेदनशील युवा को आगे बढ़ाने में मदद करती हैं. वीरेन और सईद वाले आलेखों में इसीलिए जो जीवंतता और ताजगी है, वह बाकी में नहीं आ सकी है. बाकी जगह लेखक एक जिज्ञासु शिष्य की तरह सारे परिदृश्य का रेखांकन करता दिखाई देता है. अगर किताब में मानसी के जीवंत रेखाचित्र न होते, जो एक नवजात हाथों से उकेरे गए रेखांकन हैं, किताब की छवि एक पाठ्यपुस्तकीय गरिमा जैसी ही होती. हाल के वर्षों में एक रचनाकार देवेन के वृहत रचनकर्म से गुजरने के बाद, जिसने कला और विज्ञान के क्षेत्र में अनंत ऊँचाइयों तक छलाँग लगाई हो, अपने चरित्रों को एक कमर्शियल पेंटर की तरह प्रस्तुत कर देना मात्र पाठक की प्यास नहीं बुझा पाता. लेखक अगर चरित्रों के भीतर घुसकर उनके अंतःकरण से जुड़े बारीक रेशे खींचकर बाहर ले आता तो निश्चय ही संस्मरण अधिक जीवंत हो उठते.
ये सारे स्मृतिचित्र लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले हैं, प्रेरक भी; फिर भी संबंधित लोगों की स्मृतियों के प्रति ऋण चुकाने के भावनापूर्ण उपक्रम लगते हैं. ये चित्र देवेन के सहज, भावुक चरित्र की बेलाग प्रस्तुतियाँ हैं, कलात्मक प्रस्तुति भी. 261 पृष्ठों की इस आकर्षक किताब में बेटी मानसी के बनाए 20-22 बेहद जीवंत रेखांकन हैं जिनमें देवेन का और उसका आत्मचित्र भी है जो एक तरह से देवेन-परिवार से जुड़ी कला-सर्जना की अनवरत विकसित हुई परंपरा का आकर्षक दस्तावेज़ है.
संभावना प्रकाशन, हापुड़ से प्रकाशित प्रथम संस्करण की किताब आप यहां से मंगवा सकते हैं – ‘यायावर की यादें’

हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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1 Comments
देवेंद्र मेवाड़ी
अपनी पुस्तक ‘यायावर की यादें’ से संबंधित बटरोही की खंडित स्मृतियों पर आधारित पोस्ट पढ़ी। पुस्तक के उन्नीस आत्मीय संस्मरणों में से उन्हें केवल दो संस्मरण आत्मीय लगे, यह उनका चयन है जिसके लिए उनके प्रति बहुत आभार।
इसे समीक्षा नहीं कह सकता क्योंकि पुस्तक की समीक्षा के बजाय मित्र बटरोही ने उस दौर के संगी-साथियों से जुड़ी खंडित यादों का ही अधिक ज़िक्र किया है। खंडित इसलिए कि वे उस समय की सही और सिलसिलेवार यादें नहीं हैं। जैसे वे लिखते हैं – “मेरे साहित्यिक मित्र मेवाड़ी से कुछ पहले बने वीरेन डंगवाल और मोहम्मद सईद” जबकि उनसे मुकम्मल परिचय क्रैंक्स संस्था में इंटरव्यू लेने के बाद ही हुआ था। यों भी तब हम एम.एससी.एम.ए. में और वे बी.ए.-बी.एससी. में थे। हम दोनों का परिचय तो दो वर्ष पहले 1962 में हो चुका था।
इसमें लिखा गया है कि हम कविता नहीं लिखते थे इसलिए रूखे गद्यकार बन गए। लेकिन, मेरे अपरिचित पाठक तो मेरे गद्य को सरस बताते रहे हैं। अब क्या कहूं।
एक अनोखी बात इस पोस्ट में लिखी है कि – “देवेन जीवन भर कुढ़ता रहा कि मेरी तरह वह अपनी इच्छित लड़की के साथ शादी नहीं कर पाया।” हद है, कौन थी वह लड़की? क्या एक अमीर घर की वह एकमात्र लड़की जिसे मैंने पढ़ने के लिए सार्त्र की कहानियों की किताब मांग कर पढ़ने के लिए दी थी लेकिन कोई बात नहीं हुई। आर्ट प्रदर्शनी में वह मेरी पेन्टिंग के बारे में बिना नाम के टिप्पणी लिख गई थी? इस अबोला परिचय के अलावा और किस लड़की से मेरा परिचय हुआ नैनीताल में? हां, पोस्ट लेखक को पता है कि उसके क़रीबी परिचय मैं जानता हूं।
संस्मरण की पुस्तक के बजाय इन बातों पर चर्चा करने का मकसद कुछ समझ में नहीं आया। शादी की पहल की बात की जा रही है जबकि पोस्ट लेखक को अच्छी तरह पता है कि उसकी शादी तय कराने में मेरी और मेरी पत्नी की क्या भूमिका रही है। यह बताना उचित नहीं है।
उनका कहना है -गुरु गंभीर व्यक्तित्वों पर शिष्य की तरह लिखा गया है।” असल में मैं इतना अशिष्ट और वाचाल नहीं हूं कि भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, डॉ. हेमचंद्र जोशी, नारायण दत्त, मनोहर श्याम जोशी, अरुण कौल, डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया जैसे वरिष्ठ और आदरणीय व्यक्तियों के साथ शिष्य की तरह नहीं और कैसे बातें करता। शायद पोस्ट लेखक को लगता हो कि अगर वह होता तो बराबरी पर बात कर लेता।
पूरी पुस्तक को कमर्शियल आर्टिस्ट की तरह प्रस्तुत करने का आरोप लगाया गया है। यह तो मेरे पाठक तय करेंगे प्रिय भाई। जो पढ़ रहे हैं, वे बता रहे हैं मुझे कि ये संस्मरण उन्हें कैसे लग रहे हैं।
लिखा गया है कि अगर रेखाचित्र न होते तो किताब की पूरी छवि एक पाठ्यपुस्तकीय गरिमा जैसी ही होती।
हां, यह आकलन तो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर -डीन रहा व्यक्ति ही कर सकता है। मलाल बस यह है कि काश यह किताब मैंने अगर पहले लिख ली होती तो हो सकता है वे इसका चयन शायद पाठ्य-पुस्तक के रूप में करा देते।
धन्यवाद काफल-ट्री, इस पोस्ट उर्फ़ टिप्पणी को पढ़ने का अवसर देने के लिए।