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  1. देवेंद्र मेवाड़ी

    अपनी पुस्तक ‘यायावर की यादें’ से संबंधित बटरोही की खंडित स्मृतियों पर आधारित पोस्ट पढ़ी। पुस्तक के उन्नीस आत्मीय संस्मरणों में से उन्हें केवल दो संस्मरण आत्मीय लगे, यह उनका चयन है जिसके लिए उनके प्रति बहुत आभार।
    इसे समीक्षा नहीं कह सकता क्योंकि पुस्तक की समीक्षा के बजाय मित्र बटरोही ने उस दौर के संगी-साथियों से जुड़ी खंडित यादों का ही अधिक ज़िक्र किया है। खंडित इसलिए कि वे उस समय की सही और सिलसिलेवार यादें नहीं हैं। जैसे वे लिखते हैं – “मेरे साहित्यिक मित्र मेवाड़ी से कुछ पहले बने वीरेन डंगवाल और मोहम्मद सईद” जबकि उनसे मुकम्मल परिचय क्रैंक्स संस्था में इंटरव्यू लेने के बाद ही हुआ था। यों भी तब हम एम.एससी.एम.ए. में और वे बी.ए.-बी.एससी. में थे। हम दोनों का परिचय तो दो वर्ष पहले 1962 में हो चुका था।
    इसमें लिखा गया है कि हम कविता नहीं लिखते थे इसलिए रूखे गद्यकार बन गए। लेकिन, मेरे अपरिचित पाठक तो मेरे गद्य को सरस बताते रहे हैं। अब क्या कहूं।
    एक अनोखी बात इस पोस्ट में लिखी है कि – “देवेन जीवन भर कुढ़ता रहा कि मेरी तरह वह अपनी इच्छित लड़की के साथ शादी नहीं कर पाया।” हद है, कौन थी वह लड़की? क्या एक अमीर घर की वह एकमात्र लड़की जिसे मैंने पढ़ने के लिए सार्त्र की कहानियों की किताब मांग कर पढ़ने के लिए दी थी लेकिन कोई बात नहीं हुई। आर्ट प्रदर्शनी में वह मेरी पेन्टिंग के बारे में बिना नाम के टिप्पणी लिख गई थी? इस अबोला परिचय के अलावा और किस लड़की से मेरा परिचय हुआ नैनीताल में? हां, पोस्ट लेखक को पता है कि उसके क़रीबी परिचय मैं जानता हूं।
    संस्मरण की पुस्तक के बजाय इन बातों पर चर्चा करने का मकसद कुछ समझ में नहीं आया। शादी की पहल की बात की जा रही है जबकि पोस्ट लेखक को अच्छी तरह पता है कि उसकी शादी तय कराने में मेरी और मेरी पत्नी की क्या भूमिका रही है। यह बताना उचित नहीं है।
    उनका कहना है -गुरु गंभीर व्यक्तित्वों पर शिष्य की तरह लिखा गया है।” असल में मैं इतना अशिष्ट और वाचाल नहीं हूं कि भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, डॉ. हेमचंद्र जोशी, नारायण दत्त, मनोहर श्याम जोशी, अरुण कौल, डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया जैसे वरिष्ठ और आदरणीय व्यक्तियों के साथ शिष्य की तरह नहीं और कैसे बातें करता। शायद पोस्ट लेखक को लगता हो कि अगर वह होता तो बराबरी पर बात कर लेता।
    पूरी पुस्तक को कमर्शियल आर्टिस्ट की तरह प्रस्तुत करने का आरोप लगाया गया है। यह तो मेरे पाठक तय करेंगे प्रिय भाई। जो पढ़ रहे हैं, वे बता रहे हैं मुझे कि ये संस्मरण उन्हें कैसे लग रहे हैं।
    लिखा गया है कि अगर रेखाचित्र न होते तो किताब की पूरी छवि एक पाठ्यपुस्तकीय गरिमा जैसी ही होती।
    हां, यह आकलन तो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर -डीन रहा व्यक्ति ही कर सकता है। मलाल बस यह है कि काश यह किताब मैंने अगर पहले लिख ली होती तो हो सकता है वे इसका चयन शायद पाठ्य-पुस्तक के रूप में करा देते।
    धन्यवाद काफल-ट्री, इस पोस्ट उर्फ़ टिप्पणी को पढ़ने का अवसर देने के लिए।

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