पंकज सिंह महर था तो सरकारी नौकरी (विधानसभा में प्रतिवेदक/रिपोर्टर) में, पर राज्य बनने के दो दशक बाद भी विकास व व्यवस्था के स्तर पर जो चिंताजनक हालात हैं, उसके खिलाफ वह मुखर होकर सोशल मीडिया में लिखता था. पिथौरागढ़ जिले के सुदूर गॉव देवलथल के रहने वाले पंकज ने अपने कॉलेज के दिनों मे अलग राज्य बनने पर विकास व रोजगार की बेहतरी के सपने देखे थे. राज्य आन्दोलन के मूल में यही बात आन्दोलन के समर्थन में तर्क देकर कही जाती थी कि राज्य बनेगा तो रोजगार के लिए किसी को अपने घर-गॉव से पलायन कर के मैदान की और लूढ़कना नहीं पड़ेगा. बीमार होने पर कोई डॉक्टर व इलाज के अभाव में अकाल मौत के मुँह में नहीं जाएगा.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
इसी सपने को लेकर पंकज महर भी अपने स्कूल के दोस्तों के साथ “आज दो, अभी दो. उत्तराखण्ड राज्य दो” कहते हुए जुलूस व प्रदर्शनों में शामिल हो जाता. जब 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड एक नए राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया तो तब तक पंकज लखनऊ विश्वविद्यालय से बीकॉम व उसके बाद कानपुर विश्वविद्यालय से एमकॉम कर चुका था और नौकरी की तलाश में कुछ लोगों की सलाह पर उसे शार्टहैंड भी सीख ली थी. इसी काबलियत पर उसे अपने राज्य उत्तराखण्ड की विधानसभा में नौकरी भी मिल गई और इस समय वह प्रतिवेदक/रिपोर्टर के पद पर नियुक्त था और एक बढ़िया जिंदगी जी रहा था. पर इस सब के बाद भी वह खुश नहीं था.
वह इसलिए कि उसे एक बेहतर नौकरी मिल जाने के बाद भी वह अपने गॉव देवलथल से दूर हो गया था, उस गॉव से जिस गॉव में रहते हुए रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य व उच्च शिक्षा का सपना उसने “आज दो, अभी दो- उत्तराखण्ड राज्य दो” के नारे लगाते हुए देखा था. उसका गॉव देवलथल आज भी इन सब मौलिक सुविधाओं से बहुत दूर था. और उसके अपने कितने ही संगी-साथी या तो बेरोजगार थे या फिर घर-गॉव में रहते हुए अभावग्रस्त जीवन जी रहे थे. साथ ही सांस्कृतिक व बोली/भाषा के तौर पर भी हम अपनी विशेष पहचान दो दशक बाद भी नहीं बना पाए थे. यही कारण था कि यह सब पंकज को अन्दद तक व्यथित करता था.
व्यवस्था का अंग होने के कारण उसे इस बात की पीड़ा और अधिक होती थी कि क्यों नहीं 20 साल बाद भी सरकारें व हमारे माननीय विधायक गण अपने घर-गॉव के लिए ठोस व धरातल पर उतर सकने वाली विकास योजनाएँ बना पा रहे हैं? क्यों आज भी प्रसव से कराहती बेटी व भुली को डॉडी-कॉठी में अस्पताल ले जाना पड़ रहा है? और क्यों उसे अव्यवस्था के कारण असमय ही काल का शिकार होना पड़ता है?क्यों आज भी एक युवा को अपने उच्च शिक्षा के सपने को पूरा करने के लिए महानगर की और जाने को विवश होना पड़ रहा है? अपने अन्दर उमड़ते इसी तरह के सवालों के झंझावतों से उलझते हुए ही वह व्यवस्था में रहते हुए उसी व्यवस्था से सवाल करने से नहीं चूकता था. इसके लिए उसने सोशल मीडिया को अपना हथियार बना लिया था.
फेसबुक वॉल पर लिखने के अलावा उसने पहाड़ के ज्वलन्त मुद्दों व सवालों को उठाने और उन पर गम्भीर विचार-विमर्श के लिए कई वाट्सएप ग्रुप भी बना रखे थे. जिनमें से एक “मेरा पहाड़” नाम से भी था. जिसमें हर दल व विचारों का समर्थन करने वाले लोग शामिल थे और पूरे राज्य व बाहर प्रवास में रह रहे लोग भी थे. इस तरह के वाट्सएप ग्रुप बनाने का उसका मकसद था कि इस तरह की बहस को व्यापक स्तर पर ले जाकर एक जनदबाव जनप्रतिनिधियों व सरकारों पर डाला जाय, ताकि पहाड़ व गॉव को केन्द्र में रखकर योजनाएँ बन सकें और उसका लाभ व्यापक व निचले स्तत पर उस व्यक्ति तक पहुँच सके, जिसके लिए अलग राज्य बनाने के बाद के लिए एक सपना देखा था.
इसी सपने को पूरा होता देखने के लिए वह व्यवस्था के खिलाफ तीखी टिप्पपी करने से भी नहीं घबराता था. व्यवस्था में रहते हुए व्यवस्था के खिलाफ तीखी टिप्पपी करने के सवाल पर वह हमेशा लापरवाही वाले अंदाज में कहता ,”यार दा! डर कर के कैसे काम चलेगा? वैसे मैं जानता हूँ, ये कुछ नहीं कर सकते हैं.” और फिर कहता कि राज्य की मूल अवधारणा को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है. कैसे चुप रहें यार दा?”
गत अप्रैल में जब उत्तराखण्ड के जंगल चारों ओर से धधक रहे थे, तब उसने 4 अप्रैल 2021 को अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा- आग लगने से जंगल का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ में हवा भी प्रदूषित हो रही है. जंगल जलने से ग्रेविटी वाटर भी कम होगा, क्योंकि जंगल में नमी खत्म हो जायेगी. जंगली जानवर आबादी क्षेत्रों में आयेंगे और वन्यजीव तथा मानव संघर्ष सामने आयेगा. यह समझ में नहीं आता कि इतने बड़े जंगलात के महकमे के होते हुये यह सब हर साल कैसे हो जाता है? क्या जंगलों की आग की आड़ में कोई खेल तो नहीं खेला जा रहा? चीड़ के बिखरे जंगल वनाग्नि के लिए पैट्रोल का काम कर रहे हैं. हम पहले से कहते आये हैं कि योजनाबद्ध तरीके से पहाड़ से चीड़ के जंगल हटाकर मिश्रित वन तैयार करने चाहिए.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
इसी पोस्ट में उसने आगे लिखा कि ग्रामीणों की सहभागिता वनाग्नि को बुझाने में उत्तरोत्तर कम होती जा रही है क्योंकि उन्हीं के बनाये जंगलों में उनके अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं. सरकार को इस आपदा पर गम्भीरता से सोचना होगा. पहले तो वन पंचायतों को अधिकार सम्पन्न बनाना होगा और उन्हें फायर फाइटिंग की ट्रेनिंग, उपकरण भी देने होंगे. दूसरा ग्रामीणों को जंगल से जोड़ना होगा. उनमें पहले की तरह जंगल से अपनत्व पनपाना होगा. तीसरा जंगल की आग के लिए सीधे फारेस्ट रेंजर की जिम्मेदारी तय की जाय. चौथा जंगलों में फायर लाईन बनाने का अनुश्रवण डीएफओ स्तर पर किया जाय. वर्तमान में सब भगवान भरोसे है. अधिकारी जिला मुख्यालय में बाबू बने बैठे हैं. फील्ड में कोई जाता नहीं, इसलिए आग लगने के लिए जिम्मेदारी तय की जाय. साथ ही उत्तराखण्ड में जो 50 हजार से ऊपर एनजीओ काम कर रहे हैं, उनसे भी जंगलों की रखवाली और वनाग्नि रोकने का काम लिया जाय. इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र के लोगों से भी वनाग्नि रोकने के लिए वन विभाग मदद मॉगे. राजनीतिक दलों को भी अपने कार्यकर्ताओं से जंगलो की आग बुझाने के लिए अपील करनी चाहिए. काश जंगल भी वोटर होते तो अब तक राजनीतिक दल अपने-अपने बैनर लगाकर आग बुझा रहे होते. जंगलों में हर साल लगने वाली आग पर कितनी सटीक टिप्पणी थी पंकज की.
अपनी मॉ, पत्नी और 14 साल की बिटिया को रोता-बिलखता छोड़कर गए पंकज के परिवार पर लगभग दो महीने पहले ही एक और बज्रपात हुआ था, जब उसके पिता सेवानिवृत्त अध्यापक डुंगर सिंह महर गत 21 अप्रैल को 68 वर्ष की आयु में अचानक अनन्त यात्रा पर चले गए थे. अपने पिता की आकस्मिक मौत से पंकज अन्दर से टूट सा गया था. प्रकृति के चलन को सच होते हुए भी वह स्वीकार नहीं पा रहा था. इसका आभास पिता के पीपलपानी के बाद फेसबुक में 1 मई 2021 को लिखी गई उसकी पोस्ट से भी होता है. जिसमें उसने लिखा –
आज पूज्य पिताजी का पीपलपानी हो गया. उनकी आदत थी कि हमें कोई परेशानी न हो, भले ही उन्हें कितने ही कष्ट उठाने पड़ें. इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया, चुपचाप चले गए, बिना कुछ बताये. मैं पितृकर्म कर रहा हूँ. आज पीपलपानी भी हो गया, किंतु अभी तक पिता जी का जाना मैं स्वीकार नहीं कर पाया हूँ. बस! जो बुजुर्गों और आचार्यों द्वारा कहा जा रहा है, यांत्रिक रूप से कर रहा हूँ. आज तक पिताजी के रहते मैं बिल्कुल अलमस्त रहता था, किसी भी समस्या से नहीं घबराता था, क्योंकि उनके रहते मुझे बहुत सहारा था. आज लग रहा है कि मेरे सिर से जैसे छत हट सी गई है. मन बहुत विचलित है. इतने दिन से रो भी नहीं सका हूँ. अगर मैं रोता तो औरों को कौन सम्भालता?
गरुड़ पुराण सुनकर भी मन को शान्ति नहीं मिली है, विचलित हूँ. मन को समझाने की चेष्टा करता हूँ. ऑसू आते हैं, पर ईजा और छोटे भाई को देखकर अन्दर ही रुक जाते हैं. कुछ घुट सा रहा है मन में. यहॉ पर दुख साझा कर क्या पता मन का बोझ कम हो?
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
मन के भीतर की यही टूटन उसे शारीरिक तौर पर भी कमजोर कर गई और अपने दोस्तों व परिजनों को कोविड-19 से बचने की सलाह देते रहने वाला पंकज खुद उसकी चपेट में आ गया. मधुमेह व थायरायड से पीड़ित होने के कारण कोविड-19 का सक्रमण उसके लिए जानलेवा साबित हुआ. लगभग 20 दिन तक उससे लड़ते हुए गत 17 जून 2021 को उसे देहरादून के एक निजी अस्पताल में अंतिम सॉस ली.
कितना स्तब्ध करके चला गया रे भुला पंकज ! कितनी जो बातें करता था राज्य की रीति-नीति को लेकर. कितनी पीड़ा थी तेरे अन्दर राज्य की अवधारणा को लेकर. अभी तो परिवार गत 21 अप्रैल के आघात से सँभल भी नहीं पाया था और तू उससे भी बड़ा आघात परिवार व बच्चों को देकर चला गया. किन शब्दों में भावपूर्ण नमन कहूँ तुझे?
गत 18 अप्रैल 2021 को “विश्व धरोहर दिवस” पर लिखा- उत्तराखण्ड के हर गॉव-गॉव में धरोहरों के रूप में बहुत कुछ है. बेहतर स्थापत्यकला तथा शिल्पकला के बेजोड़ नमूनों के रूप में कई नौले, धारे और मन्दिर भी हैं, जिनमें से कुछ 7वीं शताब्दी के भी बने हैं. उनका रखरखाव और पुर्ननिर्माण उसी स्थापत्यकला को बचाते हुए, उसी शिल्पकला से करना जरूरी है. यह हमारे पुरखों की धरोहरें हैं, किन्तु उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद इनके पुरातन स्वरूप से बहुत छेड़छाड़ हो चुकी है. आधुनिकता की अंधी चाह में मन्दिरों के पुराने स्वरूप को ध्वस्त कर सीमेंट के पहाड़ बना दिये गए हैं. गेरू-चूने के पुराने और उपयोगी प्रयोग की जगह चटखदार रंगों से इनको पोत दिया गया और तो और इनके पटागण तक टाईल्स से पाट दिए गए, हैं. जिससे वह चमकदार तो हो गये हैं, लेकिन पुराने पटाल से जो भूजल संरक्षित होता था, वह खत्म हो गया. यह गर्मी में गर्म और ठंड में अत्यधिक ठंडे होते हैं, जबकि पटाल में ऐसा नहीं था. बुजुर्गवार इन टाईल्स पर फिसलते हैं, पानी और तेल इन्हें और चिकना बना देते हैं.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
उसने इसके लिए हमारी विधायिका के माननीय सदस्यों को सीधे कठघरे में खड़ा करते हुए आगे लिखा- इन मन्दिरों का पुनर्निर्माण करना हमारे माननीय विधायकों का प्रिय शगल है, क्योंकि मन्दिर पर विधायक निधि खर्च करने से पूरा क्षेत्र संतुष्ट हो जाता है. मेरी पीड़ा यही है कि सदियों से उत्तराखण्ड की विशिष्ट स्थापत्यकला को यह आधुनिकता लील रही है. पुरानी शिल्पकला को सम्मान देते हुये आधुनिकता का समावेश होना चाहिये, परन्तु इस शर्त पर होना चाहिए कि उसका पुरातन रूप भी बचा रहे. ये अमूल्य धरोहरें विधायक निधि के द्वारा सीमेंट और टाईल्स से जकड़ दी गई हैं.
कितना सटीक लिखा था उसने. चिपको आन्दोलन के असली नायकों को भुला दिए जाने और उसका श्रेय दूसरों को दे दिए जाने या फिर श्रेय लूट लेने पर भी वह आक्रोशित था. इसने इस बारे में स्थापित कर दिए गए तथ्यों पर गम्भीर सवाल उठाते हुए गत 26 मार्च 2021 को तीखे शब्दों में लिखा-
आज ही के दिन 1974 में चमोली के रैणी गॉव में गौरा देवी जी ने महिलाओं के साथ चिपको आन्दोलन का सूत्रपात किया था. जो बाद में विश्वव्यापी भी हुआ. साइमंड कम्पनी ने रैणी में 2,400 से अधिक पेड़ काटने थे. इसके विरोध में वनों पर आश्रित और वनों को अपना परिवार मानने वाली महिलाएँ पेड़ों से चिपक गई और ठेकेदार के कारिंदों से कहा कि पहले हमें काटो. इस आन्दोलन के बाद ही भारत सरकार पर्यावरण के प्रति सजग हुई और पर्यावरण मन्त्रालय भी बनाया व वन कानून भी. इस प्रकार हमारे जंगल महफूज हुए.
पंकज आगे लिखता- इस आन्दोलन में बाद में जुड़े कई ख्यातिलब्ध नाम हैं, वे खुद और उनके समर्थक दावा करते रहते हैं कि यह आन्दोलन उन्होंने चलाया. सामान्य ज्ञान के सवालों में भी इस आन्दोलन के प्रवर्तक वही बने हैं, लेकिन तथ्य यह है कि इस आन्दोलन के जनक कामरेड गोविन्द सिंह रावत थे. उन्होंने ही सबसे पहले इस आन्दोलन का सूत्रपात किया. मेरी पीड़ा भी यही है कि इस असली नायक को सभी ने भुला दिया. यहाँ तक कि इस आन्दोलन से पर्यावरणविद् बने लोगों ने भी कभी रावत जी को श्रेय नहीं दिया. न कभी उनका नाम ही लेते हैं. खैर, चिपको आन्दोलन के असली नायक कामरेड गोविन्द सिंह रावत एवं गौरा देवी को इस आन्दोलन की याद में हमारा कोटि कोटि नमन.
कितनी बेबाक टिप्पपी की थी उसने.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
विश्व जल दिवस पर गत 22 मार्च 2021 को पंकज महर ने कई सवाल उठाते हुए लिखा – तथ्य यह है कि पृथ्वी में उपलब्ध जल का 3 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है. अगर बात उत्तराखण्ड की करें तो मध्य हिमालय को वाटर टैंक ऑफ एशिया भी कहा जाता है. यहॉ से निकलने वाली गंगा और यमुना हमारे आधे देश की जलापूर्ति करती हैं. गंगा और उसकी सहायक नदियों के बिना आप उत्तर भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते. पहाड़ों में लोग पेयजल के लिए धारों और नौलों पर निर्भर हमेशा से ही रहे, लेकिन लगातार बढ़ते वैश्विक तापमान, जंगलों की आग और उनकी उपेक्षा से लगभग अधिकतर धारे और नौले विलुप्ति की कगार पर हैं. जब पहाड़ के छोटे-मोटे गाड़ गधेरों से पानी को टैप करके घर-घर पहुँचा दिया गया तो आम व्यक्ति नौले और धारे से विमुख हो गया. आज बर्फबारी भी बहुत कम हो गई है, वर्षा भी लगातार कम होती जा रही है. मिश्रित वन घट रहे हैं और जंगलों में चीड़ फैल रहा है, तो ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो रहा है, जिससे पेयजल की दिक्कत सभी पहाड़ी गॉवों में भयावह होती जा रही है.
हमारे पुरखों ने नौलों और धारे के पास उतीस, सिलिंग, पइयाँ और बांज जैसे पौधे लगाए थे, जो भूजल को सुरक्षित रखते थे. आज घर-घर नल के चक्कर में यह उपेक्षित हो गए. धारों पर लगे पेड़ सूखे, उनके ऊपर के जंगल कटे तो वह सूख गए. नौले को कुटरना बंद हुआ तो उसका पानी छिर गया और स्रोत बन्द हो गया. पिछले ही साल गर्मी में मेरे गॉव के युवाओं ने पुराने नौले का जीर्णोद्धार किया, जिससे वहॉ गर्मियों में दिक्कत कम होती है.
जाड़ों की बर्फबारी और बरसात की बारिश पहाडों में साल भर के लिए ग्राउंड वाटर रिचार्ज करती है, लेकिन जब इसमें कमी आ रही है तो ऐसे में बहुत जरूरी यह है कि आम जनमानस को नौलों और धारों की ओर भी ध्यान देना चाहिये, बुजुर्गों की सलाह से उनका पुनरोद्धार करना चाहिये और सरकार को भी एक ठोस कार्ययोजना बनाकर इनके संरक्षण के लिए प्रयास करना चाहिए.
नौकरी के कारण देहरादून जैसे शहर में वह भले ही रहने लगा था, पर गॉव उसके मन मस्तिष्क में हमेशा छाया रहता था. अपने मन की इसी टीस को उसने गत 12 मार्च 2021 को अपनी फेसबुक पोस्ट को उसने बाहर निकाल दिया था. पंकज ने लिखा- गेहूँ के खेतों में मेरा फूल भिटोर खिल गया है. बचपन से ही न जाने क्यों इस भिटोर के फूल से लगाव हो गया कि मैं इसे “मेरा फूल” ही कहने लगा….इसका खिलना, हम लोगों को बतला देता कि फूलदेई आने वाली है….हम बेसब्री से फूलदेई त्यार का इन्तजार करते, क्योंकि इस दिन ईजा “मेरा हलवा” यानि कि सैय्या (सई) बनाकर खिलाती. यह सैय्या भी बचपन में मेरा हलवा हो गया था, जो आज भी हैं. लड़कियॉ इन फूल के डण्ठलों से अपने कर्णफूल बनाती थी और हम लोग घड़ी….वाह वे बचपन के दिन! आज भी फूलदेई के दिन मन करता है कि नहा-धो कर दौड़ता चला जाऊँ, गेहूँ के खेतों की ओर और समेट लाऊँ अधिक से अधिक भिटोर के फूल, ताकि घर के हर देहरी पर एक भिटोर का फूल रख पाऊँ, बचपन के दिनों की तरह. इसके अलावा आडू, पुलम और खुबानी के पेड़ों में आजकल बहार छाई होगी, प्योंली इतरा रही होगी. मेरा गॉव इन फूलों से लदा होगा, दुल्हन की तरह, प्रकृति इस समय मेरे पहाड़ का श्रृंगार करती है…मेरे गॉव…कैसे बताऊँ? मुझे तेरे हर प्रतिरुप की याद आती है और बहुत रुलाती है.” भिटोर व फूलदेई की यादों के बहाने जैसे उसने अपने मन का पूरा दर्द उड़ेल कर रख दिया था.
हिमालय पुत्र हेमवती नन्दन बहुगुणा जी की पुण्यतिथि पर पंकज ने गत 17 मार्च को लिखा- बहुगुणा जी वास्तव में हिमालय पुत्र थे, क्योंकि उनके मन में हमेशा पहाड़ के लिये पीड़ा बसी थी और जब वह पीड़ा का समाधान करने लायक हुए तो उसका समाधान किया भी. उन्होंने उत्तर प्रदेश का मुख्यमन्त्री बनते ही उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों के लिए एक अलग विभाग का गठन किया और खास पहाड़ के लिये सभी विभाग पर्वतीय विकास मन्त्रालय के अधीन कर दिए. जिससे उपेक्षित पड़े पहाड़ के विकास के रास्ते खुले. उन्होंने पहाड़ में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया. छोटे-बड़े सभी अशासकीय विद्यालयों का प्रान्तीयकरण कर शिक्षार्थी से लेकर शिक्षक तक को लाभ पहुँचाया. पहाड़ की भूमि को सिंचित कराने के लिए लघु सिंचाई विभाग के माध्यम से पूरे पहाड़ में सरकारी गूलों का जाल बिछाने का श्रेय भी उन्हीं को है.
हेमवती नन्दन बहुगुणा एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इलाहाबाद में उन्होंने छात्रों का नेतृत्व किया. इसके साथ ही साथ वह एक विकट पहाड़ी भी थे. जो टूट सकता है, पर झुक नहीं सकता. संजय गांधी के सामने जब कॉग्रेस के सभी नेता नतमस्तक थे, तब उन्होंने संजय के किसी मामले में दखल देने पर कहा कि इसे मैं और तुम्हारी माँ देख लेंगे. बाद में दरार चौड़ी होने पर गढ़वाल लोकसभा सीट के उपचुनाव में उन्होंने कॉग्रेस को हरा कर राजनैतिक तौर पर इंदिरा गांधी को पटखनी दी थी.
अपनी इसी पोस्ट में तंज कसते हुए उसने आगे लिखा- आजकल के कुछ नेता भी अपने चमचों से अपने आप को हिमालय पुत्र, पर्वत पुत्र बुलवा व लिखवा रहे हैं, लेकिन हिमालय पुत्र होने के लिए हेमवती नन्दन बहुगुणा जैसी पहाड़ियत, हिम्मत, ख़ुद्दारी और सोच होनी चाहिये.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर गत 8 मार्च 2021 को वह लिखता है- पहाड़ की निडर और सबल महिलाओं के लिये भी महिला दिवसों के कुछ मायने होंगे? या एक दिन की खानापूर्ति महज कुछ संस्थाओं और सेमिनारों के बहाने जेब भरने और टेसुएँ बहाने के लिये होगी…सवाल बहुत बड़ा है. पहाड़ की नारी ने उसे जो भूमिका मिली, उसे बखूबी निभाया है. सुबह 4 बजे से शुरु हुई हाड़-तोड़ शुरुआत रात 10 बजे तक अन्धेरे में बर्तन मलते-मलते खत्म होती है. इसके बाद भी इन्हीं महिलाओं ने पहाड़ की सभ्यता भी बचा कर रखी, संस्कृति भी बचा कर रखी, ऋतुरैंण से लेकर झोड़े-चॉचरी भी इन्हीं के गले में बचे हैं. ऐपण की धार से लेकर मातृका पीठें, इन्हीं की अंगुलियों में बची हैं. घर-परिवार-गोठ-पन्यार-जंगल-स्कूल-बैंक सब इनके भरोसे हैं. छोटा-बड़ा कोई भी जनान्दोलन हो, पहली हुंकार इन्हीं की है, पहाड़ की इन अदम्य साहसी महिलाओं को मेरा नमन.
राज्य की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल करते हुए वह गत 27 दिसम्बर 2020 को अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखता है- राज्य की मॉग में एक प्रमुख मॉग लचर स्वास्थ्य सुविधाओं की भी थी, वो भी तब जब दूरदराज के अस्पतालों में भी डॉक्टर नियुक्त होते थे. राज्य बनने के बाद जब उ०प्र० के विकल्पधारी डॉक्टर वापस चले गये तो हमारे राज्य में इनकी बहुत कमी हो गई. आज भी सरकार निरन्तर अधियाचन भेज रही है. डॉक्टर मिल ही नहीं पा रहे हैं, जो मिल भी रहे हैं, वह पहाड़ जाना ही नहीं चाहते. स्थिति तो इतनी खराब हो चुकी है कि देहरादून से किसी डॉक्टर का तबादला होता है तो वह खुलेआम इस्तीफे की धमकी दे देता है और सख्ती करने पर दे भी देता है और अस्पताल नाम की दुकान खोलकर बैठ जाता है. सरकार ने बहुत कोशिशें की, मेडिकल के छात्रों को सस्ती सुलभ शिक्षा तक दिलवाई, लेकिन छात्रों ने डॉक्टर बनने के बाद उस शर्त का पालन तक नहीं किया, जब पहाड़ का लड़का ही डॉक्टर बनने के बाद पहाड़ नहीं जाना चाहेगा तो फिर बाहर वाले से आस लगाना बेमानी है.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
सवाल यह है कि इस स्थिति से निपटा कैसे जाये? मेरा मानना है कि सुदूर पहाड़ में साधारण और सीजनल बीमारियॉ ही ज्यादा होती हैं, इसलिये हमारा काम फार्मासिस्ट से चल सकता है और हमारे पास फार्मासिस्ट पर्याप्त हैं. वह दुर्गम में जाने को भी तैयार हैं, डॉक्टरों जैसा एटीकेट वह बेचारे ला भी नहीं पाये हैं. दिक्कत यह है कि कानूनी तौर पर फार्मासिस्ट शेडयूल एच की दवा नहीं लिख सकता है.अब समस्या यह है सारे एण्टीबायोटिक, सारे पेन किलर, एलर्जी की दवा, पेट दर्द की दवा, खॉसी के सिरप, दस्त की दवा, दर्द का इंजेक्शन शेडयूल एच में आती हैं और इन दवाईयों को फार्मासिस्ट बिना प्रिस्क्रिप्शन के दे नहीं सकता. इसे लिखने के लिये कानूनन एम.बी.बी.एस. डॉक्टर ही अधिकृत है.
इस परेशानी का समाधान बताते हुए पंकज ने लिखा- जहॉ तक मैं समझ पाया हूँ, हमें एक एक्ट बनाकर फार्मासिस्ट को शेडयूल एच की दवाईयॉ लिखने का अधिकार दे देना चाहिये ताकि हमारे दूर-दराज के ग्रामीणों को, जहॉ पर प्राईवेट स्वास्थ्य सुविधा नहीं है, फौरी इमदाद मिल सके. हिमांचल प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और पंजाब राज्य में यह व्यवस्था लागू भी है. हमें यह सुविधा सिर्फ सरकारी फार्मासिस्ट को ही देनी होगी और सरकारी सेवा में रहने तक अथवा अधिवर्षता आयु पूर्ण होने के उपरान्त ही देनी होगी, नहीं तो उनमें भी डाक्टरों वाला एटीट्यूड आ जायेगा और यह व्यवस्था भी धड़ाम हो जायेगी.
वह तीज-त्योहारों पर भी बड़ी सजगता के साथ लिखता था. गत 16 फरवरी 2021 को बसन्त पंचमी पर पंकज लिखता है- आयो नवल बसन्त सखी, ऋतुराज कहायो. नई ऋतु के आगमन से धरती फिर से पल्लवित और प्रफुल्लित हो जाती है. पहाड़ में सरसों खिल उठी होगी, आड़ू, खुमानी, पुलम, नाशपाती, प्योली और मेहुल के फूलों से धरती सज गई होगी. धरती का श्रृंगार इस ऋतु में अलौकिक हो जाता है. आज के दिन पहाड़ों में सरसों से फूलों से देवी सरस्वती भगवती का पूजन किया जाता है और छोटे बच्चों के सिर पर पीला रुमाल रख, जौ के तिनड़े रखे जाते हैं और उनको पीला भोजन कराते हैं. मान्यता है कि ऐसा करने से ज्ञान की देवी की अनुकम्पा बच्चों पर रहेगी. इसके साथ ही आज घर के मुख्य द्वार पर जौ की बाली को गाय के गोबर की सहायता से चिपकाया जाता है. मान्यता है कि ऐसा करने से घर में अनाज की कमी नहीं होगी. आज ही होली की चीर भी गढ़ेगी. वैसे तो पहाड़ों में होली की शुरूआत पौष के माह के पहले रविवार से हो जाती है, लेकिन आज से शिवरात्रि तक भक्तिमय बैठकी होली का गायन होगा. उसके बाद श्रृंगार रस की होलियॉ शुरू होंगी. आइए, हम भी कलुषता और लोलुपता छोड़ धरती की तरह सज जाँय और प्रेम के रंगों से सराबोर हो जाँय.
अपने सांस्कृतिक इतिहास पर भी वह गहरी नजर रखता था. गत 3 फरवरी 2021 को पंकज ने लिखा- कभी-कभी जनश्रुतियॉ अपने गौरवमयी इतिहास पर भारी पड़ती है. इसका ज्वलंत उदाहरण है, मेरे क्षेत्र देवलथल के एक गॉव चौपाता में अवस्थित एक सूर्य मन्दिर का. आप सभी जानते हैं कि उत्तराखण्ड में प्राचीन काल (कत्यूरी) में सूर्य की पूजा की जाती थी और अनेक जगहों पर इनके मन्दिर बनाये गये. मेरे क्षेत्र देवलथल में एक गॉव है-चौपाता. जहॉ पर एक प्राचीन मन्दिर है, लेकिन ग्रामवासी उसके इतिहास से वंचित हैं और उसे भूत का मन्दिर मानते हैं. वहॉ पर आज भी पूजा नहीं की जाती, लेकिन आज डा० यशवन्त सिंह कटौच की लिखी पुस्तक “मध्य हिमालय की कला” को पढ़ा तो उस पुस्तक में इसका निम्नवत उल्लेख मिला, जो आप लोगों के सामने प्रस्तुत है –
यह तृतीय चरण की सूर्य मूर्तियॉ (मध्यकालीन 8वीं सदी से 13वीं सदी) हैं. चौपाता के सूर्यदेव पत्र तोरण एवं पद्मप्रभामंडल से प्रदीप्त, पद्म पीठिका पर पद्महस्त शोभित है, कुहनी से आगे उभय भुजायें खण्डित हो चुकी हैं. वर्म, हस्तत्राण, ऊँचे उपानत एवं वाम पार्श्व में लटका खड्ग सभी अब वास्तविक उदीच्यवेग में नहीं, मात्र आकारवादी रीति से प्रदर्शित हैं. शेष उत्तरीय, अधोवस्त्र और अंगभूषण पूर्ण भारतीय हैं. परिकर में तेरह सह आकृतियों का समायोजन सुअनुपातिक एवं मध्यकालीन अधिक भराव प्रवृत्ति के अनुकूल हुआ है. निम्नतम स्तर पर दो चौरीधारिणी तथा दो नमस्कार मुद्रा सहित चार आसन स्त्री आकृतियों के साथ, देवता के पाद मध्य में महाश्वेता स्थानक प्रदर्शित है. सूर्य के अग्रभाग में महाश्वेता का निर्द्वेश भविष्यपुराण में मिलता है. इसके ऊपरी स्तर पर दक्षिण वाम पार्श्वों में लेखनी और पत्रधारी लम्बकूर्च पिंगल, खड्गीदण्ड तथा उनके दोनों ओर चामधारिणी निक्षुभा तथा जाग्यी, चारों अधिक प्रमुखता के साथ चित्रित हैं. इसके ऊपरी दो स्तरों पर देव के स्कन्ध पार्श्वों में प्रत्यंचा चढ़ाये अंधकार पर आक्रमण करतीं प्रत्यूषा उषा तथा तोरण के दोनों ओर उल्लासपूर्ण मुद्रा में दो माला विद्याधर अंकित हैं.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
इतने ऎतिहासिक महत्व के मन्दिर की स्थिति आज बहुत खराब है, इसके रखरखाव की कोई व्यवस्था नहीं है. स्थानीय ग्राम वासियॊं में भी इसके लिये जानकारी का अभाव है. सरकार को चाहिये कि इसके रखरखाव की व्यवस्था करते हुये इसे पर्यटन मानचित्र में सम्मिलित किया जाय.
वह ऐतिहासिक महत्व की बातें भी अपनी पोस्ट में लिखता था. गत 22 दिसम्बर 2020 को अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लिखते हुए पंकज ने कहा- अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगौड़ी की शुरुआत कन्हैया लाल और नन्द लाल जी ने की थी. जहॉ पर आजकल शिब्बन पान भण्डार है, वहॉ पर उनकी दुकान हुआ करती थी. देश-विदेश में बाल मिठाई को प्रसिद्ध करने का श्रेय इनको ही जाता है. बताया जाता है कि इनके यहॉ लमगड़ा, जैंती, शहरफाटक से खोया आता था. यहॉ के लोग बांज की पत्तियों का चारा ही जानवरों को देते थे, जिससे खोये में नैसर्गिक स्वाद आया. कई साल पहले एक दिन अचानक कन्हैया लाल-नन्द लाल के यहॉ पुलिस का छापा पड़ा और उनका कारोबार बंद हो गया. उसके बाद जोगा लाल शाह जी ने नन्दादेवी से नीचे दुकान खोली और बाल मिठाई को फिर से स्थापित किया. शनै-शनै उनकी पीढियॉ उसकी साजो सम्भाल नहीं कर पाई. उसके बाद उदय हुआ खीम सिंह मोहन सिंह रौतेला का, जिन्होंने अपनी साख और क्वालिटी आज भी बनाये और बचाये रखी है. शुरुआत में उनके यहॉ सिर्फ खूँट गॉव का ही खोया प्रयुक्त होता था. अभी भी खोये की क्वालिटी से समझौता न करने से ही इनका ब्रांड नम्बर एक पर है. खोये की क्वालिटी परखने के लिए आज भी उनके कुशल जानकार अलग-अलग जगहों पर तैनात होते हैं. जो खोये को चखते हैं और जो सही मावा होता है, उस टोकरी पर एक विशेष निशान लगा देते हैं, वही टोकरी अल्मोड़ा दुकान पर उतरती है.
राज्य बनने के बाद देहरादून के बेतरतीब यातायात पर चिंता व्यक्त करते हुए 29 नवम्बर 2020 को पंकज महर ने लिखा- बढ़ते यातायात का दबाव हमारी मानसिक स्थिति को भी प्रभावित कर रहा है. इसके दबाव से हम लोग, चिड़चिडे, गुस्सैल और अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं. देहरादून के मेरे शुरुआती दिनों में यातायात बहुत कम था, गाड़ी टच होने पर भी मुस्कुराते लोग मेरे जहन में हैं. चूँकि उस समय मैं लखनऊ जैसे अत्यधिक ट्रैफ़िक दबाव वाले शहर से आया था तो मुझे यहॉ के लोग बहुत भले लगे, लेकिन जैसे-जैसे ट्रेफिक का दबाव बढ़ता जा रहा है, यहॉ भी लोग जरा सी बात पर साईकिल, आटो, टैम्पो को गरियाते मिलने लगे हैं.अब तो स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब होने लगी है. सर फुटव्बल की नौबत भी देखने में आ रही है. कार के अन्दर खींझते, गरियाते, चिड़चिड़ाते, झुँझलाते लोग अक्सर देखने को मिल रहे हैं. हमें सड़क पर चलते हुये पता नहीं कहॉ की जल्दी होती है? खासतौर पर दोपहिया चालकों को, चूँकि इस शहर में डिवाईडर वाली सड़के बहुत कम हैं, इसलिये लेन से बाहर आकर कट मारना तो आम है. ट्रेफिक सेंस तो न गाड़ी चलाने वालों में है, न यातायात सम्भाल रहे कार्मिक में और न ही पैदल चलने वाले को. जेब्रा लाईन का तो कोई मतलब इस शहर में नहीं है. सिग्नल का पालन भी तभी होता है, जब चौराहे पर पुलिसकर्मी तैनात हो. मुझे आज तक किसी दोपहिया चालक ने दांये से पास मांगकर आगे निकलने की जहमत नहीं उठाई, हमेशा दोपहिया सवार बांये से झन्न से निकल जाता है.
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
हमेशा की तरह उसकी पीड़ा एक बार फिर सामने आई थी,जब उसने गत 23 नवम्बर 2020 को अपनी एक पुरानी पोस्ट को रिपोस्ट करते हुए लिखा- राज्य बने कई साल हो गये, आज हमने बनाया, उसने बनाया, इसने बनाया, क्यों उत्तराखण्ड, क्यों गैरसैंण, क्यों जल-जंगल-जमीन कहने वालों पर तरस आता है, झ्ल्लाहट होती है, क्योंकि उन्हें कुछ याद नहीं, लेकिन मुझे सब याद है, याद आता है, जय उत्तराखण्ड का नारा लगाकर गोली खा जाने वालों पर उत्तरांचल थोप देना, गैरसैंण पहुचायेंगे लखनऊ को, कहने वालों पर देहरादून थोप देना भी याद है. आन्दोलन के दौर में पश्चिमी उ० प्र० को मिलाकर पश्चिमांचल का नारा देने वाले भी याद हैं. पहाड़ी राज्य बनेगा तो खायेंगे क्या? कहने वाले भी याद हैं. हरिद्वार और उधमसिंह नगर को उ०प्र० में फिर से मिलाओ और उत्तराखण्ड मुर्दाबाद का नारा लगाने वाले भी याद हैं,. हिल कौंसिल का नारा भी याद है और 52 फर्जी संगठन बनाकर दिल्ली में प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री को यह कहने वाले भी याद हैं कि हमें उत्तराखण्ड नहीं चाहिये. दिल्ली की रैली में निहत्थे आन्दोलनकारियों को, हथियारबंद लोग आ रहे हैं कहने वाले भी याद हैं. उस रैली में धमाचौकड़ी मचाकर रैली फेल करने की साजिश करने वाले भी याद हैं. वो चेहरे भी याद हैं, जो उस रैली में जेब में, थैले में पत्थर भरकर ले गए थे. सब याद है साहब, इसलिये दर्द होता है, फ्री में राज्य और पदवी पाने वालों को क्या एहसास होगा? क्योंकि उनका एहसास तो सिर्फ पैसा है.
फिर याद आती हैं, रामपुर तिराहे में अपनी मॉ-बहनों की कातर चीखें, गन्ने के खेतों में कहीं पर छुप जाने की असहाय कोशिश, अपनी बहनों की इज्जत बचाने के लिये आगे आये युवकों को डमाडम गोली मार देना, फिर उन दागियों को बचाना भी याद है. एक डी.एम. को इस घटना के बाद मुख्यमन्त्री का सचिव बना देना भी याद है. एक डी.आई.जी. , जिसके इशारे पर यह काण्ड हो गया, उसके लिये मसूरी में रेड कार्पेट बिछाने वाले भी याद हैं. इनके खिलाफ पैरवी न करने वाले भी याद हैं और जान बूझकर कमजोर पैरवी करने वाले भी याद हैं. दो दिन से भूखी बहन बेलमती चौहान भी याद है. जिसकी कनपटी पर मसूरी में गोली मार दी गई. राजेश नेगी भी याद है, जिसका पार्थिव शरीर आज तक नहीं मिला. जय उत्तराखण्ड का नारा लगाने वालों से पुलिस पूछती क्या चाहिये? वह कहते,. उत्तराखण्ड चाहिये, उनके पिछवाड़े में पुलिस डण्डे मारकर कहती ले बहन*** अपना उत्तराखण्ड….और चाहिये…. भौ*** के उत्तराखण्ड? यह भी नहीं भूले हम… सब लोग अपनी-अपनी रोटियॉ सेको. इतिहास तुमको कभी माफ नहीं करेगा.” कितनी पीड़ा, दर्द और आक्रोश था उसके इन सच्चाई से रुबरू कराते शब्दों में !
पहाड़ के प्रति उसकी कसक और पीड़ा को इन शब्दों से समझा जा सकता है,जो उसने राज्य स्थापना दिवस पर 9 नवम्बर 2020 को लिखे थे. पंकज ने लिखा- उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के अमर शहीदों और आन्दोलनकारियों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण एवं नमन. इन 21 सालों में इतना जरूर हुआ है कि हम राज्य का नाम उत्तर प्रदेश की जगह उत्तराखण्ड लिखने लगे और बाकी हालात सभी के सामने हैं. इस बारे में बस एक कहावत याद आती है, “कसो ज होलो ठार्यो समधी, कस ज भ्यो.
कुछ ऐसा ही अब तेरे लिए भी कहा जा सकता है भुला पंकज कि क्या-क्या जो करेगा और लिखेगा जो सोचा था. पर तू कैसे अधबीच से ही पता नहीं कहॉ को गायब हो गया रे ! कभी-कभी लगता है कि तेरा फोन आयेगा और इधर से हैलो कहते ही तू तुरन्त कहेगा, दा, पैलाग! और ठीक छैं तैं? और कि ह्वे रॉन ला दा हाल-चाल? सब कुसलै हो?
(Tribute to Pankaj Singh Mahar)
काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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