पहनावा या वेशभूषा किसी भी समाज की सांस्कृतिक पहचान है. कुमाऊँ के ठण्डे मौसम में अच्छे गर्म वस्त्रों का उपयोग और भी ज्यादा जरूरी रहा है. इसीलिए वस्त्रों का चलन यहाँ प्रागैतिहासिक काल से ही रहा है. इसका उदाहरण यहाँ से प्राप्त गुफाओं में बने चित्र हैं इन चित्रों में लबादा जैसे सदृश वस्त्र धारण किए मानव आकृतियाँ उकेरी गयी हैं. माना जाता है है कि यह लबादा पशु चर्म से बना होगा. परंतु रणिहाट उत्खनन से प्राप्त पकी मिट्टी की तकुली की घुरी इस बात का संकेत देती है कि इसका प्रयोग वस्त्रों के उत्पादन में किया गया होगा. कुणिंदराज अमोघभूति के सिक्कों में अंकित नारी आकृति को साड़ी और दुपट्टा ओढ़े दर्शाया गया है जो दूसरी शताब्दी ई. पू. में यहां वस्त्रों के चलन को दिखाता है. इसके बाद कई जगहों में प्राप्त प्राचीन मूर्तियों में कई तरह के वस्त्रों को दिखाया गया है, जिनमें वस्त्रों में छपाई और कढ़ाई के प्रचलन को भी देखा जाता है. (Traditional Cloth Making Kumaon)
कुमाऊँ के समाज में परंपरागत रूप से वस्त्र बनाने का काम ख़ास तौर पर शिल्पकार (अनुसूचित जाति), रं, शौका, (अनुसूचित जनजाति) और कुलिया (पिछड़ा वर्ग) करते थे.
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कुमाऊँ में अतीत से ही विभिन्न प्रकार के रेशों से निर्मित वस्त्र उत्पादों का प्रयोग किया जा रहा है. जिसमें रामबाँस, भाँग, भीमल (भिकव), अल आदि के रेशे प्रमुख है. इसमें से रामबांस, भांग, भीमल के रेशों से घास ढोने के लिए ‘बिर’ (जाल जैसा उपकरण), रस्सी आदि के अलावा पालतू पशुओं को बाँधने हेतु ‘गया’ (रस्सी) बनाए जाते हैं. अल के रेशों से बने धागों से मछली पकड़ने का ‘जाल’ बनाया जाता है. पुरानी पौड़ी के लोग भीमल, भाँग, अल आदि के रेशों से अनाज रखने के लिए ‘कुथल’ (बोरा जैसा कपड़े का थैला) तथा ‘बुदव’ (घास आदि ढोने हेतु लगभग 212-3 ‘हाथ’ लंबा व चौड़ा बिनाई युक्त कपड़ा) भी बनाते थे. इन सब में सर्वाधिक प्रचलन ‘भंगेला’ का था, जो हिमालय का एक प्रमुख उत्पाद था. इसे देश के विभिन्न हिस्सों में निर्यात भी किया जाता था.
रामबाँस के सख्त एवं कोमल दोनों प्रकार के पत्तों से अलग-अलग प्रकार से रेशा निकाला जाता है. रामबाँस की झाड़ी के मध्य में कोमल पत्तियाँ होती हैं, जो संयुक्त रूप से एक साथ चिपकी रहती हैं. इन्हें ‘गाव’ कहते हैं. ‘गाव’ एक निश्चित समय, एक महीना या उससे कम समय तक रहता है. उसके बाद ‘गाव’ खुलकर फैल जाता है और इसकी फैली हुई पत्तियाँ सूखकर सख्त हो जाती हैं. बाहरी पत्तों के फैलने से बीच में पुनः ‘गाव’ बनता रहता है. ‘गाव’ को तोड़कर उसकी चिपकी हुई पत्तियाँ अलग-अलग कर दी जाती हैं. ‘गाव’ की पत्तियों से रेशा निकालने के लिए समतल ज़मीन पर एक तख्ता रखा जाता है और उसके ऊपर ‘गाव’ की पत्तियों के एक छोर को पैर की अंगुलियों से दबाकर उसके दूसरे छोर को ‘बसूले’ की धार या किसी अन्य धारदार उपकरण से रगड़ते हुए छीला जाता है, जिससे पत्तियों के बाहर की हरी छाल निकल जाती है. यही प्रक्रिया पत्तियों को लौटाकर फिर की जाती है ताकि पत्तियों के दोनों खेर छिल जाएँ. लेकिन सख्त पत्तियों को छीलने से पहले ‘वसूले’ के ‘चान’ (पिछला भाग) से कूटकर कोमल बना लिया जाता है. उसके बाद उन्हें 2-3 दिन तक पानी में रखा जाता है. जब पत्तियों का सख्त भाग पानी के संपर्क में रहने के कारण सड़कर कोमल हो जाता है तब उन्हें भी पहली विधि की तरह छील लिया जाता है. इस प्रकार काफ़ी मात्रा में एक साथ रेशा निकाला जाता है.
भाँग/भँगेला तथा भिकव (भीमल) आदि का रेशा निकालने के लिए भाँग के पेड़ों तथा ‘भिकव’ की पतली टहनियों को लगभग एक सप्ताह तक पाना के छोटे-से ‘खाव’ (तालाब) में डालकर उनके ऊपर पत्थर रख दिए जाते हैं, ताकि वे पूरी तरह पानी में डूबे रहें. जब ये हफ्ते भर तक पानी में डूबे रहते हैं तो इनका रेशा स्वतः ही लकड़ी को छोड़ देता है, फिर इन्हें पानी से बाहर निकाल लिया जाता है और टहनी के एक छोर से रेशों को हाथ से खींचकर निकाल लिया जाता है. इनहें ‘ल्वात्’ कहते हैं. ‘ल्वात्’ निकालने के बाद इन्हें सुखा दिया जाता है. जब ये अच्छी तरह सूख जाएँ तो इन्हें हाथों या पैरों से मसल लिया जाता है, जिससे रेशा कोमल हो जाता है. अब इससे रस्सी इत्यादि का निर्माण किया जाता है.
रामबाँस, भाँग आदि के रेशे से रस्सी बनाने के लिए दो अलग-अलग उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, जैसे ‘प्याठ’ तथा ‘डण्डे’ (लगभग 12 बेत लंबी एक सामान्य लकड़ी). रस्सी बनाते समय सबसे पहले ‘प्याठ’ या ‘डण्डे’ के एक छोर में कुछ रेशा बाँध दिया जाता है. चूँकि रस्सी को पतली-पतली 2-3 डोरियों को एक साथ लपेटकर बनाया जाता है, इसलिए सबसे पहले पतली डोरियाँ ही बनायीं जाती हैं. पतली डोरी बनाने के लिए ‘डण्डे’ या ‘प्याठ’ के सहारे रेशे को दाईं ओर को मरोड़ते रहते हैं, जिससे रेशे एक-दूसरे पर लिपटते जाते हैं और एक पतली डोरी बनती जाती है. इसी तरह मरोड़ते-मरोड़ते जब रेशों का दूसरा छोरे (रामबाँस का 1½ ‘कुन’ व लंबे रेशे यथा भाँग आदि का 14½ बेत) शेष रह जाता है, तो उसमें पुनः रेशे जोड़ दिए जाते हैं. इसी तरह जब डोरी लगभग 2 ‘हाथ’ लंबी हो जाती है, तो उसे ‘प्याठ’ में लपेट दिया जाता है. इस तरह से जब आवश्यकतानुसार डोरी तैयार हो जाती है, तो दो डोरियों को एक साथ मिलाकर मरोड़ते हुए एक-दूसरे में लपेट दिया जाता है और रस्सी तैयार हो जाती है.
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इसी तरह से मवेशियों को बाँधने के लिए ‘गयां’ भी बनाए जाते हैं. बकरी, बैल, भैंस आदि अलग-अलग जानवरों हेतु अलग-अलग नाप का छोटा तथा बड़ा ‘गयां’ बनाया जाता है. ‘गयां’ बनाने के लिए रस्सी को बीच में मोड़कर, इसके दोनों भागों को आपस में पुनः लपेटा जाता है और पशुओं की गर्दन की गोलाई के अनुसार इसके दोनों छोरों को अंत में (लगभग 1 ‘बेत’ से 1 ‘हाथ’ तक लंबा) अलग-अलग छोड़ दिया जाता है. इन दोनों छोरों को छोड़ने से पहले इनमें गाँठ लगा दी जाती है.
कुछ स्थानों पर घास ढोने के लिए ‘विर’ बनाया जाता है जो ‘जाल’ जैसा होता है. ‘विर’ बनाने के लिए पतली रस्सी बनाई जाती है. तथा ‘बिर’ में लगभग 5-6 अंगुल चौकोर खाने (छेद) बनाए जाते हैं. इसे लगभग 3-4 ‘हाथ’ तक चौकोर बनाया जाता है, जिसमें घास रखकर ढोई जाती है.
अल ज्यादातर कुमाऊँ में ठण्डे या ऊँचाई वाले स्थानों पर ही पाया जाता है. यह लगभग जुलाई के महीने में उगता है तथा अक्तूबर-नवंबर के महीने में रेशा निकालने के लिए तैयार हो जाता है. इसका पौधा लगभग 2 ‘हाथ’ तक ऊँचा होता है. आज से लगभग 4-5 पीढ़ी पहले तक यहाँ इसके रेशे से वस्त्र, बोरे, ‘जाल’ आदि का निर्माण किया जाता था. चूँकि इससे कोई भी सामग्री तैयार करने में काफ़ी समय लगता था, इसलिए जबसे कपड़ा आसानी से उपलब्ध होने लगा तो लोगों ने इससे वस्त्र, आदि बनाना धीरे-धीरे बंद कर दिया. लेकिन मछली मारने के लिए ‘जाल’ बनाने में भी अल के रेशे का प्रयोग परंपरागत रूप से किया जाता रहा है, क्योंकि यह पानी से सड़ने के प्रभाव का प्रबल अवरोधक है.
‘अल’ के पौधे से दो अलग-अलग विधियों से रेशा निकाला जाता है. पहली विधि में ‘अल’ के खड़े पौधे से ही रेशा निकाला जाता है. इसके पौधे में बिच्छू घास जैसे काँटे होते हैं. इसलिए रेशा निकालने समय हाथों में कपड़ा बाँधते हैं. फिर एक हाथ से इसका सिरा पकड़ते हैं और दूसरे हाथ से सिरे को तोड़ते हुए रेशे को उपर (सिरे) से नीचे (जड़) की ओर खींचते हुए रेशे को पौधे से तोड़कर अलग किया जाता है. फिर रेशे को तीन से पाँच दिन तक धूप में सुखाया जाता है. जब यह अच्छी तरह सूख जाए तो इसके दोनों सिरों को बारी-बारी से पकड़कर इसे झटका दिया जाता है, ताकि इसके काँटे झड़ जाएँ. उसके बाद इसे किसी बर्तन में राख तथा पानी के घोल में डुबाकर 24-25 घंटे तक उबाला जाता है. इससे रेशे का काला छिक्कल अलग हो जाता है और रेशा सफ़ेद हो जाता है. फिर इसे पानी से इतना धोया जाता है कि यह कपास की रुई जैसा हो जाए. अब इसे फैलाकर सुखा दिया जाता है.
दूसरी विधि, इसके पौधे सूखे हुए होते हैं, तो इसकी पत्तियों को अलग करके तनों को एक रात चूने के पानी में भिगाया जाता है. उसके बाद गीले तनों से रेशे निकालकर सुखा दिए जाते हैं, और सूखने के बाद रेशों को धोया जाता है, जिससे ये रुई जैसे हो जाते हैं. आखिर में ‘कतु’ (तकली) में इसकी कताई की जाती है. (Traditional Cloth Making Kumaon)
(साभार : मध्य हिमालय की अनुसूचित एवं पिछड़ी जातियाँ : परंपरागत शिल्प और उद्यम, सम्पादक-महेश्वर प्रसाद जोशी)
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