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जोहार घाटी की जीवनदायिनी जड़ी-बूटियां और खुशबूदार मसाले

गोरी गंगा नदी पर बसी नयनाभिराम घाटी है जोहार की उपत्यका. जो घिरी है पंचचूली, राजखंबा, हंसलिंग और छिपलाकेदार पर्वत श्रृंखला से. अप्रतिम सौंदर्य के सम्मोहन से इसे “सौ संसार एक जोहार” की संज्ञा दी गई. इसके दो फलक हैं मल्ला जोहार और तल्ला जोहार. कालामुनि से कुंगरी विंगरी तक है मल्ला जोहार जिसके प्रमुख गाँव हैं मिलम, बुर्फू, पादू, विज्जू, गनघर, मापा, मार्तोली, टोला, खिलांच, टोपीढूँगा, रिलकोट और लास्पा. इनमें मिलम गाँव को एशिया का सबसे बड़ा गाँव कहा जाता रहा. इन्हीं गांवों में गर्मियों के मौसम में प्रवास होता है तो दूसरी तरफ थल कस्बे से कालामुनि तक का इलाका तल्ला जोहार कहलाता है जिसके मुख्य गाँव हैं नाचनी,समकोट डोर, रातापानी, बला, बनिक, गिरगांव, क्वीटी, बांसबगड़ तेजम और थल. उछैती से मवानी -दवानी तक का इलाका गोरीफाट कहलाता है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

मुनस्यारी में शौका जनजाति, रं समुदाय, बरपटिया समुदाय के साथ ही सामान्य जाति के लोगों का बसाव है. शौका जनजाति द्वारा गर्मियों में मल्ला जोहार के सुदूर गांवों इलाकों में प्रवास किया जाता है जिनमें मिलम, विज्जू, बुर्फू, पादू, मापा, टोला गनघर, मर्तोली, खिलांच रिलकोट, टोपी ढूँगा और लासपा मुख्य हैं और यही वह इलाके हैं जो जीवन दायिनी भेषज, औषधीय पादप व सुगन्धित मसालों से समृद्ध हैं. इनकी खेती भी की जाती है.

मल्ला जोहार के लिए जो “सौ संसार एक जोहार” की उक्ति प्रचलित रही है उसका अनुभव यहाँ पहुँच नयनाभिराम हिम पर्वतों की गोद में अनोखी वन सम्पदा व धरती पर बिखरी हरियाली की सघन राशि व उससे उपजी सुवास से होता है. इन सब से अनुकूलन करती इनके बीच बसाव करती जोहार वासियों की दिनचर्या व काम धंधों की नियमितता उस स्वस्थ व सबल जीवन का दर्शन देती है जिसके पीछे लोक थात और परम्पराओं का अपूर्व संगम है.

महर्षि चरक ने कहा, हिमालय औषधि भूमियों में सर्वश्रेष्ट है “हिमवानौषधि भूमिनाँ श्रेष्टम”. जोहार हिमालय का वह भू भाग है जो विशिष्ट फ़्लोरा फोना से युक्त है और यहाँ जीवनदायिनी भेषजों का विपुल भंडार है. इनमें से अनेक वनौषधियों के प्रयोग से कई औषधियों का निर्माण होता रहा है. लोक थात और लोक चिकित्सा में भी इनका बहुल प्रयोग है और स्थानीय निवासियों में इनके उपयोग की परंपरा से चली आ रही भरपूर समझ और ज्ञान है.

जोहार के मिलम गाँव को एशिया के सबसे बड़ा गाँव की मान्यता है. 1962 तक यहाँ की जनजाति का मुख्य व्यवसाय व्यापार था पर भारत चीन युद्ध के बाद तिब्बत व्यापार के बंद होने से यहाँ उपलब्ध जीवनदायिनी भेषज व जड़ी बूटी के संग्रहण व कृषिकरण पर अधिक जोर दिया गया .

परंपरागत ज्ञान व उपयोग की जानकारी के साथ जोहार के निवासियों के अध्यवसाय से उच्च हिमालय की जड़ीबूटियों का संरक्षण व संवर्धन संभव बना.फिर भेषज शोध एवं विकास के लिए एच् आर डी आई के प्रयास भी जारी रहे. भौगोलिक परिस्थितियां और वायुमंडलीय दशाएं यहाँ की जड़ी बूटियों को विशिष्ट बनाती रहीं तो परंपरागत ज्ञान एवं व्यावसायिक सूझबूझ व कुशलता से यहाँ उपलब्ध भेषजों की गुणवत्ता दुनिया भर में उच्च प्रतिमान पाती रही. जोहार का सम्पूर्ण इलाका अपनी जैव विविधता के लिए वनस्पति शास्त्रियों और पर्यटकों को आकर्षित करते रहा.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

सामान्य रूप से मुनस्यारी में सुगन्धित मसालों के रूप में जम्बू और गंधरेणी की मांग सदैव बनी रहती है. इसका कारण यह है कि एक ओर तो ये विशिष्ट सुगंध व स्वाद युक्त होते हैं तो दूसरी ओर इनमें अनेक औषधीय गुण हैं. जम्बू की सूखी कोमल पत्तियों और फूलों का प्रयोग दाल और सब्जियों को छोँकने या बघार देने में किया जाता है. इसकी सुवासित गंध रसोई को महका देती है.

पहाड़ी दालों से बने रस, डुबुक, उरद या मास व पहाड़ी राजमा में जम्बू गंधरेंणी का छौंक इनको एक विशेष स्वाद तो देता ही है. पाचन की अनेक समस्याओं को भी दूर कर देता है. वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार जम्बू में एलिसीन नामक रसायन विद्यमान होता है जो शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को तो बढ़ाता ही है जोड़ों के दर्द व मांसपेशियों की सूजन को भी दूर करता है.

जम्बू सुखाते ग्रामीण

दूसरी तरफ गंधरेंणी की सूखी जड़ें पेट के कई जटिल रोगों का निदान करने में सहायक है. इनमें अल्सर की कई किस्मों व पित्त की समस्यायें मुख्य हैं. यकृत के विकारों को दूर करने में परंपरागत रूप से यह लोकप्रिय रही है. साथ ही पेट की कई बीमारियां जैसे कब्ज, अजीर्ण, उल्टी, अपच, वायु विकार मुख्य हैं. गन्धरायण को छीपी के नाम से भी जाना जाता है.

लोक चिकित्सा में गंधरेंणी का प्रयोग जहरीले कीड़ों के काटने और काठी सांप के काटने के साथ जुवों को मारने और पशुओं के रिंडरपेस्ट जैसे रोगों को दूर करने में किया जाता है. साथ ही बच्चों के रोगों, आँख, कान, गले की बीमारी श्वास, ट्यूमर, गठिया व कैंसर में भी यह प्रभावी है. इसके प्रयोग से नशा कम होता है और यह शरीर की ऐंठन, कुष्ठ, खुजली और व्रणों को दूर कर देता है. उत्तराखंड के सहकारी संघटन के विक्रय केंद्रों व सरस बाजारों में यह मसाले अच्छी व टिकाऊ पैकिंग में भी मिलने लगे हैं. खुले में अक्सर इनमें मिलावट की शिकायत पाई जाती है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

गंदरायण का पौधा और फूल

फिर आती है कूट और कुटकी. इनमें कुटकी मूलतः उच्च पर्वतीय क्षेत्रों व बुग्यालों में उगने वाली वनस्पति है.कुटकी की पतली मुड़ी हुई जड़ें स्वाद में बहुत कड़वी, कटु, तिक्त होती हैं पर भूख बढ़ाने, रोगों की पुनरावृति रोकने, खून की कमी दूर करने, प्रमेह व दाह कम करने में यह उपयोगी है. चर्म रोग, बहु मूत्र, मधुमेह, सर्वांग शोथ, शिशु रोग व सेहत बनाये रखने के लिए इनका प्रयोग वैद्यों एवं जानकारों द्वारा खूब किया जाता है. मधुमेह की उत्तम औषधि के साथ ही कुटकी लीवर टॉनिक तथा रक्त शोधक के रूप में प्रयोग की जाती रही है. लोक उपचार में जटिल बुखार दूर करने के लिए कुटकी की जड़ों को काले जीरे के साथ मिला पानी में भिगा व छान कर पिलाते हैं. कुटकी में पिकरोराइजिन ग्लूकोसाइड मुख्य है.कुटकी एक दुर्लभ प्रजाति है. जोहार के उच्च हिमालयी क्षेत्र में नम छायादार स्थानों, बुग्यालों व घाटियों के पथरीले स्थानों में उगती है.

कुटकी. फोटो: उत्तराखंड लीक्स से साभार

कूट की जड़ें अपेक्षाकृत कुछ मोटी होतीं हैं. इसकी जड़ों का चूर्ण या क्वाथ गैस व पेट की कई बीमारियों का निवारण करता है. पेट में दर्द व अपच को कूट तुरंत दूर करता है.यह बल दायी है. उन्माद,अपस्मार, मानसिक विकारों में, चर्म रोग दूर करने, सर की खुजली और कोढ़ के निदान हेतु बनी औषधियों में कूठ का प्रयोग होता है. अस्थमा, टाइफाइड, अल्सर घाव व गठिया के साथ ह्रदय रोगों में अनुपान भेद से इसकी जड़ों का चूर्ण दिया जाता है जिसमें ससुरीन नामक अलक्लोइड व वाष्पशील सुगन्धित तेल विद्यमान होता है

मानसिक विकारों के साथ स्वाभाविक नींद लाने के लिए तगर प्रयुक्त होती है. तगर को सपेवा, सुम्यो, सुनिया भी कहा जाता है. इसका वैज्ञानिक नाम वैलिरियांना जटामासी है. यह मानसिक तनाव, चिंता, मिर्गी और दुर्बलता को दूर करती है.

इसकी जड़ों के साथ पंचांग व प्रकन्द का भी उपयोग किया जाता है. इसकी जड़ों को चीनी के साथ मिला कर देने से मूत्र रोग तुरंत ठीक होते हैं. ऐसे ही जड़ों को पानी में निचोड़ कर इस पानी से स्नान करा गठिया दूर करता है. लोक वनस्पति के रूप में इसका प्रयोग बेहोशी, तिल्ली बढ़ने व लीवर की परेशानियों में किया जाता है.साथ ही इसका काढ़ा जतकालियों के अनेक विकारों को दूर करने के लिए देते हैं. तगर या सम्यो में जटामेंसोन अलक्लोइड विद्यमान होता है. इसके टिंचर और वाष्प शील तेल का प्रयोग कई एलोपैथी की दवाओं में भी किया जाता है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

जोहार में पाई जाने वाली बिल जिसे ज्यूनियर भी कहते हैं के पत्तों से भी धूप बनती है. इसकी खासियत यह है कि इसका पौंधा कच्चा ही जल जाता है. अक्सर ग्रामवासी आग जलाने में भी इसका प्रयोग करते हैं.

जोहार इलाके में दो ऐसी भेषज भी विद्यमान हैं जो कैंसर प्रतिरोधी सिद्ध की गईं . इन पर लगातार अनुसन्धान किए गए हैं. इनमें मुख्य है थुनेर जिसे ल्वेँटा भी कहा जाता है. जोहार में थुनेर तीन हज़ार मीटर तक उच्च इलाकों में होता है. कोषा वृद्धि की रोकथाम के साथ यह कफ और वात की जटिल बीमारियों को भी दूर करता है. यह रक्तचाप को भी नियंत्रित करने में सहायक होता है. औषधि के रूप में इसकी छाल और पत्ती का प्रयोग किया जाता है.इसकी छाल की चाय भी पी जाती है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

तीन हज़ार मीटर की ऊंचाई में छायादार वनों और बुग्यालों में चिरैत या चिरायता उगता है जिसका पंचांग प्रयुक्त होता है. ज्वर को दूर करने के लिए किरात इसका बहु प्रयोग करते थे इसलिए इसे किरातका या किराइत भी कहा गया. यह तिक्त होता है. इसका काढ़ा बना कर कठिन बुखार को दूर करने के लिए दिया जाता है. साथ ही यह कफ, खांसी, सांस व पित्त की अनेक समस्याओं को दूर करता है. फोड़े फुंसी, पेट के कीड़े, कोढ़, बदन की शिथिलता का निवारण करता है. दाह दूर करने में इसका शरबत उपयोगी होता है. मलेरिया को दूर करने की दवा भी इससे बनी है. यह बेहद कड़वा होता है जिसका कारण इसमें पाया जाने वाला एल्कल्योइड एमरोजेंटिन है.

जोहार के ऊँचे व उप इलाकों में भोजपत्र, कैल, खरसू, मोरु व जूनिफर के जंगलों में जैवांश युक्त, नम व छाया वाले ढलानों व चट्टानों की दरारों में प्राकृतिक रूप से उगती है वन ककड़ी. यह बुग्यालों में भी पाई जाती है . यह कैंसर की रोक थाम की भेषज है.वनककड़ी की जड़ों में पोडोफिलोटॉक्सिंन व पायडोफाईलिन नामक अलक्लोइड होता है.इसकी पत्तियों और प्रकंदों में से गोंद सा रेजिन निकलता है जो कोषाओं में होने वाली अनियंत्रित वृद्धि को रोकने में सहायक होता है.यह तीखी, कटु और तीक्ष्ण गुण की होती है. यह पित्त का शोधन करती है, तीव्र रेचक व कृमि नाशक है.रक्त कैंसर रोधी, घाव व ट्यूमर को दूर करने वाली और पाचन सम्बंधित जटिलता दूर करने में वन ककड़ी या पापरा का प्रयोग बढ़ रहा है. इसे रिखपात, अगुल्या व ककरया के नाम से भी जाना जाता है.अविवेकी दोहन से अब यह दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी में रखी गई है. इसके प्रकंद व जड़ प्रयोग की जातीं हैं.अब इसकी खेती भी की जाने लगी है. इसकी फसल में रोग और कीट नहीं लगते.

शरीर में विष के प्रभावों को दूर करने में अतीस महत्वपूर्ण मानी गई है. इसे विषा, अतिविष, प्रतिविषा, उपविषा के नाम से भी जाना जाता है.यह घासीय मैदानों और ढलानों में उगता है. यह एक शाकीय पौंधा है. इसकी जड़ों का प्रयोग किया जाता है जो शंकु के आकार की कंदीय बाहर से मटमैली व भीतर से सफ़ेद रंग की होतीं हैं. इसके फूलों में हरी पीली बैगनी आभा होती है जिनकी एक पंखुड़ी बड़ी और साँप के फन के आकार की होती है.

अति दोहन से अतीस संकटग्रस्त प्रजाति में रखा गया है.मुनस्यारी में मिलम, गनघर, लास्पा और गनघर में इसकी व्यावसायिक खेती होती है. यह कन्धों के दर्द, तेज बुखार और पेट दर्द को दूर करने में भी सहायक होती है. अतीस को सर्वरोग हर कहा जाता है. यह जटिल रोगों के बाद होने वाली दुर्बलता को तो दूर करता है. शरीर में खून की कमी होने पर इसे पुनर्नवा के साथ देते हैं. लोक व्यवहार में इसकी जड़ें स्फूर्ति कारक व बलवर्धक मानी जातीं हैं. खांसी, बुखार, सर्दी जुकाम व शरीर में दर्द होने पर इसकी थोड़ी पत्तियाँ चबाने को दी जातीं हैं. पेट दर्द व अतिसार में अतीस की जड़ का काढ़ा पिलाया जाता है. यह बुखार की अचूक दवा है. इसकी फसल तीन साल में तैयार होती है. इसके कंद धो कर छाया में सुखाये जाते हैं.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

काला जीरा जिसे थोया या तिब्बती व भोटिया जीरा भी कहा जाता है, के बीज पतले व काले रंग के होते हैं. पाचन के सभी विकार दूर करने में इसके बीज और फलों का प्रयोग किया जाता है. यह काफी सुगन्धित व महंगा मसाला है जिसे चटनी, रायता सलाद व दाल सब्जी में अल्प मात्रा में डाला जाता है. काले जीरे के सेवन से ज्वर, वात, कफ और शोथ नष्ट होता है. यह रेचक, पाचक है. इसमें मुख व पेट की दुर्गन्ध दूर करने के गुण हैं. शरीर की जकड़न को दूर करने में इसका काफी प्रयोग किया जाता है.

काले जीरे में कारवोन व कारविन के साथ वाष्पशील तेल होता है. इस कारण इसकी मांग साबुन, टूथपेस्ट, पैकेज्ड फ़ूड और शराब उद्योग में काफी होती है. जोहार के ऐसे इलाके जहां बारिश अधिक नहीं होती और शीत ऋतु में बर्फ पड़ कर जम जाती है, पर अंकुरण समय में ना बर्फ हो न पाला,वहां काला जीरा खूब उगता है.इसकी खेती भी ऐसे ही इलाकों में होती है.

मसाले में प्रयुक्त तेज पत्र भी इस क्षेत्र में होता है जो अन्य जगहों की अपेक्षा अधिक सुगन्धित होता है. तेज पात का प्रयोग मधुमेह में भी किया जाता है.यह पुराने जुकाम को दूर करता है और सूंघने की शक्ति को बढ़ाता है. मुख की दुर्गन्ध मिटाने और दांतों को मजबूत बनाने में भी तेजपात का प्रयोग होता है. तेजपात में ऑलिओरेजिन तथा यूजिनोल युक्त वाष्प शील तेल पाया जाता है. जिससे वात पित्त कफ दूर होता है. इसमें सिनेमिक एसिड होता है जो क्षय प्रतिरोधक होता है.

ऐसा ही गुणकारी है तिमुर. तिमुर को टिमरू, टेमरु, बोग्या और नेपाली धनिया भी कहा जाता है. सामान्य प्रयोग में तिमुर के बीजों की चटनी बनती है. इसका नमक भी काफी स्वाद होता है. तिमुर लाला ग्रंथियों को उत्तेजित करता है. इससे मुंह की बदबू दूर होती है और इसका प्रयोग दांतों की कई बीमारियों में किया जाता है.इसके साथ है यह सफ़ेद कोढ़ और अस्थमा, ह्रदय की दुर्बलता, पेट दर्द, गठिया के साथ आँख और कान की कई औषधियों में डाला जाता है. तिमुर की छाल में बेरबेरीन, डिकटेमनिन एल्कलॉयड पाए जाते हैं तो इसके फलों में तीन प्रतिशत तक लिनेलोल युक्त पीला तेज गंध वाला वाष्प शील तेल पाया जाता है. इस कारण सुगन्धित तेल व मसाला उद्योग में इसकी काफी मांग बनी रहती है. इसके दातून से दाँत साफ किए जाते हैं तो मसूड़ों में झुनझुनी होने लगती है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

तिमूर के दाने. फोटो: सुधीर कुमार

जोहार में रतनजोत पाई जाती है इसे लालजड़ी भी कहते हैं. यह तेल में घुल कर लाल रंग छोड़ती है. कई नामी ब्रांड के हेयर ऑइल और जोड़ दर्द निवारक तेलों में यह डाली जाती है. इसकी जड़ ह्रदय की दुर्बलता, रक्त विकार, घाव, गठिया और तीव्र बुखार के निदान में उपयोगी हैं. साथ ही कोढ़, डिप्रेशन व सिफलिस को नियंत्रित करने में इसका प्रयोग किया जाता है. इसकी जड़ें लाल पत्रकों से ढकी होतीं हैं.

लोक उपचार में इसकी जड़ों के लेप से घाव भरे जाते हैं. इसे तेल के साथ गरम कर मालिश करने से गठिया दूर होता है. पत्तियों का रस नाक में चुआने से मिर्गी की मूर्छा दूर की जाती है. पत्तियों का क्वाथ तेज बुखार को दूर करता है व इसका काढ़ा ह्रदय की गति को नियंत्रित करता है. पत्तियों की भस्म को मुंह के छालों में लगाते हैं.शहद के साथ इसकी जड़ों के चूर्ण को देने से रक्त विकार दूर होते हैं. अब इसकी खेती होने लगी है व इसकी फसल पर रोग और कीटों का प्रकोप नहीं होता.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

जोहार इलाके में चार हज़ार मीटर की ऊंचाई तक पहाड़ी ढलानों और घाटी वाली पथरीली जगहों में जटामासी स्वतः ही उगती रही है. अनियंत्रित दोहन से यह काफी अल्प मात्रा में पाई जा रही है. छायादार स्थानों जहां पानी न रुके व फलों के बाग में पेड़ों के नीचे सह फसल के रूप में इसकी खेती के प्रयास हो रहे हैं. इसे मांसी, बालछड़ के नाम से भी जाना जाता है. बालों को काला करने व गंजा पन दूर करने के गुण होने से इसका उपयोग हेयर ऑइल बनाने में व्यापक रूप से होता रहा है.

जटामासी की जड़ों में हल्के पीले रंग का वाष्प शील तेल होता है जिससे इसकी विशेष खुश्बू होती है. धूप, अगरबत्ती और इत्र के निर्माण में भी इसका उपयोग किया जाता है. लोक चिकित्सा में इसकी जड़ों के लेप से घाव भरे जाते हैं और गठिया, बाइ की पीड़ा दूर करने हेतु जोड़ों पर लगाया जाता है. बच्चों के पेट के कीड़े मारने में इसकी अल्प मात्रा दी जाती है.इसका स्वाद तीखा और कसैला होता है. जटामासी की ताजी प्रकंदी जड़ों का प्रयोग किया जाता है पुरानी जड़ों का प्रभाव कम होता है. इसका चूर्ण अनिद्रा, चिंता, याददास्त कम होना, ऊँचे रक्त चाप, उन्माद व मानसिक उत्तेजना शांत करने में किया जाता है. मिर्गी, मूर्छा व ऐंठन कम करने में भी इसका उपयोग किया जाता है.

एक महंगी व प्रभावकारी भेषज हत्था जड़ी है जिसकी जड़ों के लेप से खून बहना बंद हो जाता है. यह मानसिक दुर्बलता, नाड़ी सम्बन्धी विकार, शुक्र विकार की प्रभावी औषधि है.इसे बाजीकारक व स्तम्भक की श्रेणी में रखा जाता है.वात पित्त विकार, प्रसव के बाद की कमजोरी, और कृषता दूर करने में यह बहुत लाभकारी है. शरीर को पुष्टि कारक बनाने के कई उत्पादों में इसे मिलाया जाता है. इसे सालमपंजा के नाम से जाना जाता है. जिसमें लोरोग्लोबिन नामक ग्लूकोसाइड होता है. जिन स्थानों पर बर्फ टिकती है वहां इसकी अच्छी उपज होती है. इसकी फसल में रोग-कीट भी नहीं लगते.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

आयुर्वेद में सालमपंजा और सलाम मिश्री को समान गुण का बताया गया है. सलाम मिश्री को हाटीपैला के नाम से भी जाना जाता है इसकी जड़ और प्रकंद का उपयोग किया जाता है जो फूली हुई और गूदेदार होतीं हैं. लोक चिकित्सा में इसे क्षय दूर करने के लिए दिया जाता है. सालम मिश्री पौष्टिक, वात पित्त नाशक व धातु वर्धक होती है. ये दिमाग और नाड़ी तंत्र पर उत्तेजक प्रभाव डालती है. इसे अनेक बलवर्धक टॉनिक व दवाओं में प्रयोग किया जाता है. यह भी अति दोहन से दुर्लभ हो गई है.

चोट और सूजन को तुरंत दूर करने वाला डोलू जोहार में तीन हज़ार मीटर की ऊंचाई पर उगता है.इसे आर्चा भी कहा जाता है. डोलू के अन्य प्रभावी उपयोग कफ व पित्त विकार दूर करने, दर्द दूर करने, अल्सर व संक्रमित घाव ठीक करने में लिए जाते हैं.यह वेदनाहर है. इसे दांतों की सफाई में भी प्रयोग किया जाता है. इसकी अल्प मात्रा यकृत के लिए उत्तेजक होती है तो अधिक मात्रा के सेवन में रेचक गुण होते हैं. अतः इससे अनेक रेचक औषधियां बनाई जातीं हैं. डोलू के प्रकंद उपयोग में लाये जाते हैं.औषधि के साथ ही डोलू के तनों का प्रयोग ऊनी वस्त्रों को रंगने के लिए किया जाता है.

ढलान वाले पहाड़ों में मृदाक्षरण को रोकने में तरु चूक या भोगडयारी चूक की जड़ें बहुत प्रभावी होतीं हैं. जोहार में यह काफी होता है जिसके फलों से चूक और बीजों से अचार बनाया जाता है. ऐसे ही ऊंचाई वाले इलाकों में भोज पत्र भी होता है. भोजपत्र की छाल गले के रोगों के साथ टॉन्सिल दूर करने में प्रयुक्त होती है. वहीं इसकी छाल पवित्र होने से धार्मिक कार्यों व पूजा पाठ में प्रयुक्त होती है.

सीमांत के वनों में प्राकृतिक रूप से झाड़ीदार कंटीला छोटा पेड़ जिसमें गोल फल लगते हैं अमृत फल कहलाता है.इसमें कैरोटिन, विटामिन सी और ए काफी अधिक मात्रा में होता है. इसे भोटिया तारवा व चूख भी कहा जाता है. इसके फलों का सीरप बनाया जाता है. तिब्बत में इसके चूक को क्षय की बेहतरीन दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है. फेफडों की बीमारी में भी काम आता है. इसके सेवन से त्वचा के फोड़े भी सूख जाते हैं.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

जोहार के नम छायादार ढलानों में चार हज़ार मीटर तक पथरीले स्थानों में पायरिया व दाँत के रोगों में प्रयोग की जाने वाली वज्रदंती जंगल में पेड़ों के नीचे काफी मात्रा में उगती थी. बाजार में अधिक मांग होने से इसका अविवेकी दोहन हुआ और अब यह कम होती जा रही है. इसे चीनिया फल भी कहा गया. इसकी जड़ों का उपयोग किया जाता है. डायरिया में इसका चूर्ण व दंत रोगों में लेप का प्रयोग होता है. अब इसकी खेती के प्रति रुझान बढ़ा है.

हिमालय के जोहार इलाके में पाई जाने वाली भेषज जीवनदायिनी हैं. अपनी विशिष्ट जैव विविधता के कारण यह समूचा इलाका उत्कृष्ट कोटि की गुणवत्ता वाली भेषजों का भंडार है. अब मात्र प्रकृति के दोहन से ही नहीं बल्कि औषधिय पौंधों की वैज्ञानिक खेती की तरफ रुझान बढ़ा है. अविवेक पूर्ण नीतियों और वन विदोहन से जड़ी बूटियों के अवैध व्यापार को नियंत्रित करने की जरुरत सबसे ज्यादा है इसलिए इन भेषजों की विज्ञान सम्मत जैविक खेती के साथ ही इनके विपणन, भण्डारण और मूल्य वर्धन तंन्त्रों का विकास भी जरुरी है.
(Traditional Herbs & Spices of Johar valley)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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