कला साहित्य

हिमांशु जोशी की कहानी ‘भगवान नहीं हैं’

भगवान नहीं है

पावरोटी !

हां-हां पावरोटी चुराई थी उसने.

सुना भाग रहा था.

भागेगा नहीं तो क्या चोरी कर के वहीं खड़े रहेगा. कहेगा मुझे गिरफ्तार कर लो.

नहीं, मैंने अपनी आँखों से देखा. भागता नहीं था, रोटी बगल में दबाये बीच सड़क पर खड़ा था चिल्ला रहा था जोर-जोर से. मैंने चोरी की है. मुझे सजा दो.

क्या कहा?

हां हां… बूढ़ा चोरी भी करता था और फिर ईमानदार भी बनता था. कैसी अजीब बात है.

भई अजीब कुछ भी नहीं है. ये लोग पक्के ठग होते हैं ठग. आये दिन ऐसे ही लोग तो करते हैं चोरी. कभी भीख मांग ली, दाव लगा तो कभी हाथों की सफाई दिखला दी. मौका लगने पर बच्चों तक को ये उड़ा ले जाने से चुकते नहीं. जेल हो गयी तो बस ससुराल समझकर दो-चार दिन छुट्टी मना आये और फिर धंधे से लग गये. देखो तो इसकी सूरत कैसा भोला बना बैठा है लगाओ ना एक लात इसको.

पों अभी-अभी फटी है, बदली छाई है, धरती ओस से गिली है. हल्की-हल्की धुंध सी चारों बिखर रही है. सड़कों पर चहल-पहल शुरु नहीं हुई. लोग ठण्ड से बचने के लिये खिड़कियाँ दरवाजे सब बंद किये बैठे हैं. इस ठण्ड में कौन निकलेगा बाहर. सड़क पर केवल अखबार बांटने वाले तेजी से भाग रहे हैं या कुछ लोग ओवरकोट या कंबल लपेटे मफलर बांधे हाथ में दूध का बर्तन थामे अपने-अपने घरों को आ-जा रहे हैं लेकिन इस समय भी विनयनगर के इस चौराहे पर ऐसे ही एक नहीं अनेक का एक जमघट लगा है जो कोई भी गुजरता है खड़ा हो जाता है. क्या बात हो गयी- ये पूछे बिना किसी से रहा नहीं जाता.

एक बूढ़ा बीच सड़क पर औंधे मुंह पड़ा है. मैली दाढ़ी है, गंदे लम्बे बाल हैं, नाममात्र का गले में टंगा कुर्ता है, एक फटा टुकड़ा कमर पर लिपटा है. हाथ-पाँव छिले हुये हैं. एक-आध जगह से खून भी बह रहा है. डब-डबाई आँखों से वह सभी ओर देख रहा है बोलता कुछ भी नहीं है. पावरोटी सीने से कसकर चिपकाये हुये है जिसे कोई छीन न ले. ये विनयनगर का चौराहा है. नगरों की नगरी दिल्ली का एक चौराहा. 

कौन सी अनहोनी घटना यहां किस दिन नहीं घटती. किस रंग का, किस ढंग का, आकर-प्रकार का, किस प्रदेश या देश का आदमी है जो यहाँ नहीं रहता. विनयनगर भी इन्हीं सभी का सम्मिश्रण है विदेश का नहीं तो कम से कम अपने देश का ही सही.

वैसे सवा सोलह आने बाबू लोगों कि बस्ती है पर पास ही कुछ झोपड़ियाँ भी हैं. खासकर रेल की पटरी के उस पार. कुछ काले रंग के वहां के रहने वाले, भाषा उनकी समझ में नहीं आती पर इधर कुछ वर्षों से यहां रहने से हिन्दुस्तानी साफ बोल लेते हैं मद्रासी कहे जाते हैं. पता नहीं मद्रासी हैं भी या नहीं. जो कोई भी आदमी काला हो दक्षिण का हो बिना पूछे ही उसे मद्रासी की संज्ञा दे दी जाती है.

मर्द क्या काम करते हैं पता नहीं लेकिन इतना निश्चित है कि उनका महत्त्व कोई ख़ास है नहीं. औरतें बाबू लोगों के घरों में बर्तन मांजती हैं. उनकी आमदनी कुछ अधिक बतलाई जाती है. कुछ ख़ास लहजे से बोलती हैं चलती हैं, कुछ ख़ास ढंग से कपड़े पहनती हैं. सुबह से रात के बारह-एक बजे तक सुनी सड़कों पर अकेली-दुकेली चलती-फिरती आसानी से देखी जा सकती हैं. बूढ़े भीख मांगते हैं और बच्चे भी उनकी देखादेखी सड़कों पर- बाबू एक पैसा और बदले में ढेर सी दुआएं देते नजर आते हैं. उन्हीं में से एक यह बूढ़ा भी है.

सुबह-सुबह गोपी की दुकान अभी खुली थी कि इसने अपना करिश्मा दिखला दिया. पावरोटी दोनों हाथों में कसकर दबाई और लड़खड़ाते पांवों से भागने की कोशिश की पर वास्तव में वह भागा नहीं. लो मुझे पकड़ लो, जेल में डालो, खूब लम्बी सजा दो मैंने चोरी की है डांका डाला है रोटी चुराई है. कहता हुआ वह चौराहे पर खड़ा हो गया और अंधेरे में चिल्लाने लगा. गोपी इतने में भागता हुआ आया और उसकी गर्दन धर दबोची और फटे जूते से पीटते-पीटते डामर की पक्की सड़क पर दे पटका. बस फिर क्या था भीड़ जमा हो गयी जो आता बिना पूछे ही दो लात लगा देता.

बाबू लोग मुंह बनाते हुये घृणा से उसकी और देखने लगे और लम्बी-चौड़ी हांकने लगे. जैसे महर्षि विश्वामित्र के सगे चेले हों और आश्रम से छूटकर सीधे वहीं पर रुके हों. देखते-देखते दो-चार पहलवान दारासिंह को भी चुनौती देने लगे. अखाड़े पर मय कपड़ों के उतर आये. वे भी आखिर क्या करें, क्या न करें. ऐसा न करना तो चोरी को बढ़ावा देना है. आये दिन ऐसे मौके आते रहते हैं. वैसे भी लोगों के हौसले बहुत बढ़ गये हैं. आज़ादी क्या मिली बस सभी आजाद हो गये हैं.

तुम भाला मानुस है चोरु केसो करता है? एक बंगाली बाबू ने पूछा. पर वो चुप रहा.

बोलता क्यों नहीं? चोरी क्यों करता था? दूसरे सज्जन भड़के.

साssssला भर्ती सूंघ रिया से. एक और आवाज आई.

एक मद्रासी महोदय बड़बड़ाते हुये अंत में हारकर दूध की बाल्टी थामे चले भी गये. फिर भी उसका मौन टूटा नहीं. तो एक सरदार जी उबल पड़े-

दस्सो हुंण कोई गल्ल है. हरामजादे नू चुग कै ले जाओ थाणेदार कोल. बस फिर क्या था कहने भर की देर थी दो-तीन आस्तीने चढ़ गयी. गोपी पनसेरी फटा जूता लिये सबके बीच हीरो बना खड़ा था. वो और आगे बढ़ आया.

कानून अपने हाथ में लेना ठीक नहीं. और फिर सरकारी नौकरी में, बाबू लोगों को ऐसी बहुत सी बातें रटी-रटाई याद रहती हैं, पास ही थाना है. भीड़ थाने की ओर मुड़ी, ड्यूटी पर खड़ा एक सिपाही दौड़ता हुआ अपना कर्तव्य निभाने के लिये आगे बढ़ आया. बूढ़े की बांहें उसने कसकर पकड़ ली. रौब में ऐंठा हुआ आगे-आगे चलने लगा. जैसे अपने प्राणों की बाजी लगाकर किसी भयंकर डाकू को पकड़ लाने में वही वीर सफ़ल हुआ हो.

तुमने चोरी की, थानेदार ने मूंछे ऐंठते हुये पूछा.

बोलता क्यों नहीं, मैं पूछ रहा हूँ तुमने चोरी क्यों की? बोलता क्यों नहीं बदमाश. कड़ककर थानेदार ने पूछा और मेज पर रखा डंडा उठा लिया. इसबार भी वह कुछ न बोल पाया. थोड़े से होंठ खुले और फिर बंद हो गये. एकबार उसने अपनी गीली पलकों से सीने से चिपकी रोटी की ओर देखा फिर आँखें जोर से मिच ली.

थानेदार का सारा शरीर क्रोध से थर-थर काँप रहा था. हाथ में उठाया शीशम का भारी डंडा तड़ातड़ नाचने लगा. हरामजादा, मक्कार, बंद करो सुअर के बच्चे को.

और न जाने किन-किन अवर्णनीय संबंधों से वह अतिथि देव की पूजा करने लगा. बहुत देर तक अतिथि सेवा का धर्म निभाने के पश्चात अंत में थककर थानेदार हांफता हुआ कुर्सी पर बैठ गया. कागज का पेट भरने में जुट गया. खानापूर्ति कर चुकने के बाद उसने आँखें ऊपर उठाई तो देखा सभी स्तब्ध खड़े हैं अपराधी की तरह और उस बूढ़े की तरफ देख रहे हैं जो ठंडे फ़र्स पर सिकुड़ा दर्द से बुरी तरह कराह रहा है.

अब तो नहीं करेगा चोरी. वह कराहता रहा. सुनता नहीं खाल उधेड़ दूंगा सुअर. अब तो नहीं करेगा चोरी.

कराहते हुये उसने बड़ी मुश्किल से कहा- करूंगा,.

क्या कहा? हां…

हां-हां… अपने दुखते हाथों को वह इस बार कमर तक ले गया. कमर में से एक पैना चाकू निकाला, हौले से- इसे चलाना चाहता था इसे, देखो इसे पर. सूखे हाथों में इतनी ताकत कहाँ. उसने ठण्ड से अकड़ते घुटनों को कुछ आगे समेटा.

क्या बकता है. खून करना चाहता था. किसका? आश्चर्य से थानेदार ने पूछा.

हां…

किसका खून?

जो मिल जाये उसी का.

क्यों? और अधिक विस्मय में थानेदार ने पास आकर पूछा.

इसलिए की मुझे जेल चाहिये थी, लम्बी सजा चाहिये थी लड़खड़ाते हुए वह बोला. मुझे रोटी चाहिये था सिर छुपाने को मकान का साया चाहिये था, तन ढकने को एक कम्बल चाहिये था. मैं अब बूढ़ा हूँ मरते समय मुझे आसरा चाहिये था. वह पागलों की तरह अट्टहास कर हंस पड़ा. जेल के सिवाय ये सारी चीजें मुझे कहां मिल सकती हैं. इस दुनिया में कहीं भी नहीं. इसीलिए मुझे सजा चाहिये थी. क्यों रोटी चुराना भी तो अपराध है उसी पर सजा दे दो न. बड़े भोले भाव से उसने ऊपर की ओर देखा. सभी देखते रह गये.

थानेदार मौन भंग करते हुये सिपाही से बोला- बंद करो इसे. दिमाग खराब मालूम होता है.

उसका झुर्रियों से भरा चेहरा खिल पड़ा, बुझी आंखें दमक उठी. कृतज्ञता से गदगद होकर वह थानेदार के भारी बूटों पर सिर टिकाकर लेट गया. तुमने मेरी आखिरी तमन्ना पूरी कर दी. तुम्हारे बच्चे जीते रहें. तुम्हारी दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की हो. वह कहता चला गया- तुम्हारा एहसान कैसे भूलूंगा, जेल में रखकर जो चाहे तुम करो, मारो-पीटो पर एक टुकड़ा रोटी का दोगे ना, एक कम्बल भी दोगे, एक कोठरी भी दोगे न सिर छुपाने के लिए. मैं जानता था देर होती है अंधेर नहीं, फिर कौन कहता है कलयुग है भगवान नहीं है उसकी आँखों से बहुत बड़े-बड़े गर्म आंसू बूंदों पर होकर नीचे फ़र्स पर लगने लगे. धीरे-धीरे वह पूरा ही धरती पर ढुलक गया. सभी देखते रह गये. एक आदमी जो अभी-अभी बोल रहा था सहसा चुप हो गया है हमेशा के लिये. पावरोटी अभी तक भी हाथों से कसकर पेट में जकड़ी हुई है जैसे कोई छीन न ले. रोटी मिली, मरते समय मकान का साया मिला, मरने के बाद तन ढकने को एक टुकड़ा कफन का भी मिल गया. देर होती है दुनिया में पर अंधेर नहीं फिर कौन कहता है कलयुग है भगवान नहीं है.

हिमांशु जोशी

हिमांशु जोशी हिन्दी के ख्यातिलब्ध कहानीकार, उपन्यासकार और पत्रकार थे. उनका जन्म 4 मई 1935 को उत्तरांचल के जोस्यूड़ा गांव में हुआ था. शुरुआती पढ़ाई के बाद वह गांव से नैनीताल चले गये. हिमांशु जोशी की पहली कहानी ‘बुझे दीप’ ‘नवभारत टाइम्स’ के ‘रविवासरीय’ में सन् 1955 में प्रकाशित हुई. ‘जलते हुए डैने’, ‘अंततः’, ‘रास्ता रुक गया है’, ‘काला धुआँ’, ‘तपस्या’ से लेकर विदेशी तथा अन्य अनुभव-भूमियों पर लिखी ‘सागर तट के शहर’, ‘अगला यथार्थ’, ‘आयतें’, ‘ह्वेनसांग’, ‘एक बार फिर’ आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.

हिमांशु जोशी : एक सरल और निष्कलुष व्यक्ति-रचनाकार का न रहना

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