उस कक्ष में पांच कर्मचारी उपस्थित थे- तीन पुरुष और दो महिलायें. सभी कुछ देर पहले ही अपने-अपने स्थानों पर आकर बैठे थे. शासकीय भाषा में कहें तो मध्याह्न पूर्व का समय था. कक्ष में -ज़मीन पर, टेबलों पर, अलमारियों के भीतर, अलमारियों के ऊपर- फ़ाइलें ही फ़ाइलें लदी थीं. उन्हीं फ़ाइलों के बीच उनके टिफ़िन रखे हुए थे. पांच में से तीन कर्मचारी खैनी-गुटखा ग्रहण कर चुके थे (जिनमें स्त्री-पुरुष बताना आवश्यक नहीं है). शेष रोज़ की तरह घड़ी की ओर देख कर भोजनावकाश की प्रतीक्षा कर रहे थे. उसी समय एक आगन्तुक ने कक्ष में आकर ऐसी बात कही जिसे सुनकर सभी स्तब्ध रह गये.
आगन्तुक एक सत्तर-पिचहत्तर वर्ष का ग्रामीण वृद्ध था. देखने में यूँ लगता था जैसे मुंशी प्रेमचंद के किसी उपन्यास का कोई पात्र सीधे उस कार्यालय में आ गया हो. उसने कार्यालय में प्रवेश किया और पूछा -पाबती को दैगौ?
‘पाबती को दैगौ’ अर्थात पावती कौन देगा – ये तीन शब्द कार्यालय के उस कक्ष में किसी विस्फोटक की तरह फटे, जिसकी ध्वनि से सभी के कान सहित पूरे शरीर सुन्न हो गये. कक्ष में बहती हवा थम गई. सारे वार्तालाप रुक गये. पूरे कक्ष में सन्नाटा छा गया. केवल ब्रिटिश कालीन पँखे की आवाज़ गूंजती रह गई. और क्यों न हो ऐसा ! आख़िर उनसे पावती माँगी जा रही थी, पावती!
उनसे सम्पत्ति माँगते, वे दे देते. स्वर्ण माँगते, वे दे देते. वृक्क माँगते, वे दे देते. यकृत माँगते , वे दे देते. जान माँगते, वे वो भी दे देते. पर पावती?
ऐसा लगा जैसे उस कक्ष में साक्षात यमराज प्रगट हो कर पूछ रहे हों कि तुम में से कौन मेरे साथ चलेगा? जिसे चलना हो वो पावती दे! या पंज-प्यारे की तरह गुरु गोविंद सिंह पूछ रहे हों कि तुम में से कौन ये पावती देकर बलिदान करेगा. और जो शीश आगे करेगा ,गुरु उसका पावती में लगा लहू लाकर सबको दिखा देंगे.
फिर उन पांचों में से उसने , जिसने उस कक्ष में, उस पंखे के नीचे साढ़े तीन दशक बिताये थे , अपनी टेबिल के काँच के पर विराजमान बजरंगबली के चरण स्पर्श किये और कोने में बैठे एक किशोर की ओर देख कर अधिकारपूर्वक कहा ,’ पावती दे देना बेटा!’
बेटा ने उस कक्ष में, उस पंखे के नीचे अभी केवल साढ़े तीन माह ही बिताये थे. परन्तु नौकरी में आने से पूर्व ही उसे पर्याप्त सचेत कर के भेजा गया था कि बेटा सावधान रहना, नौकरी में बेटा कहने वाले ऐसे बहुत से बाप मिलेंगे जो बेटा-बेटा करते-करते तुम्हारी नौकरी को खुद अपने हाथों से मुखाग्नि दे देंगे.
बेटा ने कुछ देर सोचा और बोला ,’ बाबूजी ,साहब ने कहा था कि मुझे दिखाए बिना कोई लैटर नहीं लेना!’
बाबूजी को उस हल्की सी रेख वाले छोकरे के इस उत्तर पर क्रोध तो बहुत आया ,पर ‘साहब ने कहा था’ वाक्यांश के कारण उन्हें अपमान का घूँट पीकर रह जाना पड़ा. यदि उस लड़के ने -‘साहब ने कहा था’- न कहा होता, तो वे उसे सबक सिखा देते ,आखिर सबकी सेवापुस्तिकाऐं उन्हीं के पास थी . बाबूजी ने अपने को सामान्य करते हुए ,कि जैसे अपमान वाली कोई बात ही न हुई हो, मध्य में विराजमान ,मोबाइल फोन में व्यस्त महिला से पुनः अधिकारपूर्वक कहा- ‘अरे मीना मैडम ,पावती दे देना ज़रा! बब्बा खड़े हैं .’
मीना मैडम ने बिना फोन से नज़रें हटाये हुए उत्तर दिया, ‘न बाबा न! पिछली बार ऐसे ही एक बुड्ढे पर दया खा कर पावती दे दी थी मैंने. अब मुझे क्या पता था उस कागज़ में क्या लिखा है. वो निकला कोर्ट का सम्मन. था तो पुराने वाले शुक्ला साहब के लिये, पर ले लिया मैंने. नये साहब ने जैसे ही देखा तो उनके तन-बदन में आग लग गई . बहुत नाराज़ हुए मुझ पर. फिर डर के मारे ख़ुद ही कोर्ट चले गये, तो कोर्ट वालों ने उनका नाम-पता लिख लिया. अब हर पेशी पर उनके नाम से सम्मन भेज देते हैं. और वो जब भी जाते हैं तो खुन्नस में एक इंक्रीमेंट रोकने का नोटिस मुझे थमा देते है. मैं न देती पावती!’
‘अरे पावती देने में क्या है!’ बाबूजी ने कहा.
‘तो आप दे दो पावती!’ मीना मैडम झल्लाईं.
‘हाँ, हाँ ,आप दे दो न पावती! मीना मैडम के बगल में बैठी रीना मैडम ने कहा और धीरे से मीना मैडम को देख कर मुस्कुराईं. यह ‘पावती नारीवाद’ था.
‘अच्छा! मैं दे दूँ पावती?’ बाबूजी बिफर पड़े,’ एलडीसी, यूडीसी पावती देने में आना-कानी करें और मैं ,ऑफ़िस सुप्रिटेंडेंट, पावती दूँ? अरे क़िस्मत ख़राब न होती तो बगल वाले कमरे में साहब बन कर बैठता.’
‘तो को दैगौ पाबती?’ बब्बा ने पुनः पूछा.
‘बब्बा तुम्हें पावती को दैगा?’ तीसरा व्यक्ति खड़ा हुआ और बोला,’बब्बा तुम्हें पावती वो दैगा….. जिसने पाप न किया हो , जो पापी न हो …. यार हमारी बात सुनो ..ऐसा इक इंसान चुनो.. ‘
यह गीत सुनकर सभी कक्ष में ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे.
‘जा कौ मल्लब तुम्मे सैं कोई पाबती नाईं दैगौ,’ बब्बा ने कहा ,’तौ का कलैट्टर साब के ढिंगा जाएं पाबती लैबे?’
क्लैट्टर साब अर्थात कलैक्टर साहब – ये दो शब्द कार्यालय के उस कक्ष में पुनः किसी विस्फोटक की तरह फटे. और कक्ष का माहौल पुनः वैसा ही हो गया जैसा ‘पाबती को दैगौ’ के समय हुआ था. गायक मिथलेस बाबू का अंतरा उनके मुखड़े के रंग के साथ उड़ गया. पांचों कर्मचारियों ने उस वृद्ध को पुनः देखा. जिसे वे प्रेमचंद के उपन्यास से निकला कोई दीन-हीन किसान समझ रहे थे वह रेणु के उपन्यास का घाघ, खूसट बुढ़ऊ निकला. मामला जटिल होने लगा. बात अब जिलास्तर तक पहुँचने वाली हो गई. क्योंकि सवाल पावती का था.
पावती देना सिर्फ़ किसी किसी कागज़ पर अपने हस्ताक्षर करना मात्र नहीं है. यह करेंसी नोट पर लिखी इबारत की तरह है. जहाँ पावती देने वाला , पावती लेने वाले धारक को उस कागज़ को अनन्तकाल तक सुरक्षित रखने का वचन देता है. यह दो पक्षकारों के बीच एक संविदा है. और अनेक बार यह संविदा से भी कुछ अधिक है.
यह खो-खो के खेल का ‘खो’ देना भी हो सकता है. सरकारी खो-खो में ‘खो’ कागज़ के जरिये ही दी जाती है और इस कागज़ को स्वीकार करने का अर्थ होता है – खो पड़ना. मतलब यह कि यदि यह कागज़ बब्बा के हाथों से न आया होकर ,किसी सरकारी चपरासी के हाथों आया होता, तो यह ट्रांसफर, पोस्टिंग, निलम्बन जैसा कोई कागज़ भी हो सकता था. जिसको लेने, न लेने पर किसी का भविष्य निर्भर होता.
सरकारी विभागों में पावती, सिर्फ पावती नहीं है. अनेक विषयों में यह वृहद रणनीति का हिस्सा भी होती है.
यह पावती यदि दो दिन टाल दी जाय तो किसी निलम्बित हो रहे कर्मचारी के लिये ,जिसके उम्मीद के सारे द्वार बंद हो चुके हों, स्थगन प्राप्त करने की खिड़की भी बन सकती है. यह किसी का स्थानान्तरण रुकवा भी सकती है , और किसी स्थानान्तरित हो चुके कर्मचारी को भगा भी सकती है. यह इतनी महत्वपूर्ण है कि वकील अपने मुवक्किल को ख़ास ताक़ीद देता है कि – ऑर्डर रिसीव मत करना बस! बाकी मैं सम्भाल लूँगा. और यदि ऑर्डर रिसीव हो जाय तो वही वकील कहता है – ऑर्डर रिसीव कर लिया, अब मैं कुछ नहीं कर सकता.
पहले-पहल अंग्रेज़ पावती को अधिक महत्व नहीं देते थे, वे ज़ुबान को महत्व देते थे. पर जब वे भारत आये तो उन्हें पता चला कि यह तो अत्यंत महत्वपूर्ण शासकीय प्रक्रिया है और आदिकाल से प्रयोग हो रही है.
जब हनुमानजी ने कहा था- मातु मोहे दीजे कछु चीन्हा – तो वे अशोक वाटिका में माता सीता से पावती ही माँग रहे थे. अपनी पुस्तक ‘मानस की नौकरशाही’ में प्रियोस्की लिखते हैं- आप पाठकों में से अनेक स्वयं को भक्त शिरोमणि, मानस मर्मज्ञ समझते हैं. पर क्या आपने कभी ग़ौर किया या किसी से पूछा कि – भाई माना रामचन्द्र जी ने हनुमान जी को अपनी मुद्रिका मनोहर इसलिये दी ,क्योंकि सीता जी हनुमान जी से परिचित नहीं थी, अतः मुद्रिका देख कर वे उन्हें पहचान लें कि ये कोई मायावी राक्षस नहीं , रामदूत मैं मात जानकी हैं. परन्तु सवाल ये है कि हनुमान जी ने सीता जी से चीन्हा क्यों माँगा?
यदि वे भगवान राम को ऐसे ही मौखिक बता देते कि मैं सीता माता से मिल आया हूँ , तो क्या वे विश्वास नहीं करते? और सीता माता भी कुछ चिह्न न देकर ,ऐसे ही मौखिक कह देतीं कि पतिदेव से बोल देना यहाँ बस मरे ही नहीं हैं हम, वरना सब करम हो गये ; तो क्या हनुमान जी वापस जाकर ऐसा नहीं बोलते? बताइये!
प्रियोस्की लिखते हैं – वे ऐसा कर सकतीं थीं . लेकिन नहीं! माता सीता ने ऐसा नहीं किया. इसके कारण था.
नौकरशाही को माता सीता भी अच्छे से समझती थीं. वे जानती थीं कि प्रभु राम तो हनुमान जी पर विश्वास कर लेंगे, परन्तु ऑडीटर नहीं करेंगे. इसीलिए उन्होंने – चूड़ामनि उतारि तब दयऊ, हरष समेत पवनसुत लयऊ.
यहाँ पवनसुत, हरष समेत इसलिये लयऊ क्योंकि चूड़ामणि दिखाए बिना बड़े बाबू उनके यात्रा भत्ते और दैनिक भत्ते का भुगतान भी नहीं करने वाले थे. इसकी दो वजह थीं ; पहला- उनके पास आने-जाने का कोई टिकट नहीं था (कारण आप जानते हैं) और दूसरा- जाने का आदेश भी मौखिक मिला था, लिखित नहीं. यहाँ केवल पावती ने ही पवनसुत की मदद की.
अंग्रेज़ों ने पावती के इस महत्व को पहचाना और दण्ड प्रक्रिया संहिता में एक पूरा अध्याय इस बात को समर्पित कर दिया कि सम्मन्स की तामीली कैसे होगी. पावती के इस महत्व से भारतवर्ष का एक-एक कर्मचारी परिचित है.
मीना मैडम जानती हैं उस कागज़ पर पावती देने का अर्थ है भविष्य में सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत उस पर की गई समस्त कार्यवाही की नकल देना.
मिथलेस बाबू जानते हैं कि पावती देने का अर्थ है किसी न्यायालय के कटघरे में खड़े होकर बयान देना कि हाँ ,ये मेरे हस्ताक्षर हैं ,मैं ने ही ये पावती दी थी.
रीना मैडम को पता है कि यदि उन्होंने पावती दी तो मीना मैडम उस कागज़ को कहीं छुपा कर उन्हें उसी तरह परेशान कर सकती हैं जैसे उन्होंने स्वयं मीना मैडम को किया था.
हल्की रेख वाला बेटा, नवजात सरकारी शिशु, सचिन भोपटकर बाखूबी जानता है कि पावती देने के बाद यदि इस बब्बा ने घर जा कर आत्महत्या कर ली तो सरकार सारे किसानों की आत्महत्या का ठीकरा उसके सर फोड़ देगी.
और कार्यालय अधीक्षक भूलाराम जी इस बात से चिंतित हैं कि कहीं तीन सौ साल बाद खुदाई हुई और इतिहासकारों को पता चला कि तीसरा विश्वयुद्ध इसलिये छिड़ा क्योंकि भूलाराम जी ने एक बब्बा को पावती दे दी थी, तो उनकी तो बड़ी बदनामी होगी.
वे सब जानते हैं कि पावती देना ,मात्र पावती देना नहीं है. यह दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता,साक्ष्य अधिनियम, आचरण नियम से लेकर अंतरराष्ट्रीय संधियों तक की ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर ओढ़ना है. जिसके लिये वे मानसिक रूप से तैयार नहीं थे.
‘मैं जाय रओ हूँ कलेट्टर साब के ढिंगा!’ बब्बा की आवाज़ पुनः गूँजी. जिसे सुनकर पांचों कर्मचारी सन्निपात से बाहर आ गये. पांचों ने एक-दूसरे को देखा और निगाहों ही निगाहों में धैर्य से बब्बा के इस कलेक्टरास्त्र का सामना करने का निश्चय किया. बब्बा दरवाज़े की ओर बढ़ चुके थे.
‘अरे रुको बब्बा!’ बड़े बाबू चीखे. वे जानते थे कि कलेक्टर साहब को नायक फ़िल्म बहुत पसंद है ,’ दो मिन्ट दो हमें!’
बब्बा वहीं ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गए. सभी कर्मचारी घेरा बनाकर आपस में खुसर-पुसर करने लगे. उनमें से कभी किसी की आवाज़ तेज हो जाती ,तो कभी किसी और की. अंत में ऐसा प्रतीत हुआ कि वे किसी नतीजे पर पहुँच गये हैं.
सचिन भोपटकर ने एक कागज़ के पांच टुकड़े किये ,उन पर नाम लिख कर पांच पर्चीयाँ बनाई गईं. सभी पर्चियाँ गड्ड-मड्ड की गईं और वरिष्ठता के नाते बड़े बाबू भूलाराम जी को पर्ची उठाने का अवसर दिया गया. बड़े बाबू जी ने पर्ची उठाई और नाम पढ़ा.
‘भूलाराम!’
‘क्या से क्या हो गयाss ‘, मिथलेस बाबू ने गाना प्रारम्भ किया,’ अरे ओ बब्बा! ओ मेरे जानेमन ! .आइये, आपका इंतज़ार था!’
मिथलेस के इस व्यवहार से बड़े बाबूजी को बहुत क्रोध आया , पर वे कर भी क्या सकते थे! आख़िर पर्ची डालने का विचार उनका ही था.
बब्बा धीरे-2 बड़े बाबूजी की ओर बढ़े. बड़े बाबूजी ने काँपते हाथों से कलम निकाली. उनकी की माने तो वे पावती पर नहीं, अपनी वसीयत पर दस्तख़त करने जा रहे थे. बब्बा ने एक कागज़ की दो प्रतियां उनकी टेबल पर विराजमान बजरंगबली के बगल में रख दीं.
बाबू जी कागज़ देखा और कहा – ‘अरे ! ये यहाँ नहीं देना है, वो सामने जो बिल्डिंग दिख रही है न , वहाँ देना है, वहाँ चले जाओ!’
बब्बा दूसरी जगह शासन-शासन खेलने के लिये लौट गये. भूलाराम जी ने पुनः बजरंगबली के चरण स्पर्श किये. सभी ने राहत की साँस ली. एक बहुत बड़ा ख़तरा टल गया था. पांचों कर्मचारियों ने अपने प्रयास से शासन की छवि को बचा लिया था;अन्यथा उसे गम्भीर क्षति पहुँचती.
भोजनावकाश हो गया . उन्होंने टिफ़िन निकाल लिये. वे परस्पर कितना भी झगड़ें, पर खाते मिलकर थे.
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प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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3 Comments
ऐश्वर्य मोहन गहराना
“भोजनावकाश हो गया . उन्होंने टिफ़िन निकाल लिये. वे परस्पर कितना भी झगड़ें, पर खाते मिलकर थे.”
कमजोर कर दिया इसे आपने – “भोजनावकाश हो गया . वे परस्पर कितना भी झगड़ें, पर खाते मिलकर थे.” इतना काफी था|
प्रिय
? धन्यवाद
इमरान बेग
बहुत ख़ूब , सरकारी नौकरशाही और लालफ़ीताशाही की पोल खोल कहानी रोचक लेकिन सत्य है । वैसे लोग अक्सर जिन सरकारी कार्यालयों मे जाते हैं जैसे RTO या अदालत वहाँ उनका agent या वक़ील साथ मेहोता है । वह सारी दान दक्षिणा का इंतज़ाम करके रखता है सारे काम आसानी से होते दिखते हैं । लेकिन कभी अकेले किसी सरकारी कार्यालय जाकर देखिए – दुबारा कभी नहीं जाएँगे ।