उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का जब भी इतिहास लिखा गया है तब एक सामान्य धारणा यह बनाने की रही है कि गोरखाओं की तुलना में ब्रिटिश साम्राज्य का काल में यहां के स्थानीय लोगों का जीवन शांतिपूर्ण और अधिक सरल था. ब्रिटिश काल में कुमाऊं के आमजन की हालत अत्यधिक दयनीय हो चुकी थी. सोर घाटी में ब्रिटिश काल की नीतियों और उसके प्रभाव से इसे समझा जा सकता है.
जब अंग्रेज पिथौरागढ़ आये तब यहां के समाज का अधिकांश हिस्सा अशिक्षित था. गोरखाओं के शासन से पहले यहां राज-काज की भाषा कुमाऊंनी थी और गोरखाओं के समय नेपाली. 1815 में ब्रिटिशों के आने के बाद अचानक हिंदी और उर्दू मिक्स जबान हिन्दुस्तानी इन लोगों पर जबरन थोप दी गयी.
सन 1881 तक पिथौरागढ़ उप-तहसील का सारा सरकारी कामकाज बजेटी से चलाया जाता था. बजेटी गांव बमों और चंदों के समय से प्रतिष्ठित सेठी जाति का प्रसिद्ध गांव था. सेठी लोगों की पारंपरिक प्रतिष्ठा के आधार पर ही 1917 तक थोकदारी का पद उनके पास था.
बजेटी में खज़ाने की कोठरी के साक्ष्य करीब पचास-साठ वर्ष पहले तक मौजूद थे. बजेटी में हवालात की कोठरियां सहित अन्य भवन, थर्ड गोरखा पल्टन ने खाली किये और लन्दन फोर्ट में उपतहसील का कार्यालय आ गया. बजेटी के खाली पड़े भवनों को 1902 में वर्नाक्यूलर हिन्दी-मिडिल-स्कूल को सौंप दिया गया.
इस दौरान सामान्यतः अपराध नहीं होते थे. अपराधी वही था जो कम्पनी का राजस्व न अदा कर सके. उसे बजेटी की हवालात में डाल दिया जाता था. रुपया वसूल हो जाने पर वह छूट जाता था.
अंग्रेजों के काल में ही इस हिस्से में पहली बार लोगों ने अपने गांव छोड़ने शुरु किये. अंग्रेज पूरा राजस्व रुपयों में लेते थे. चंद और गोरखा के समय लोग राजस्व अदा न कर सकने की स्थिति में आस-पास के गांव में छिप जाते और कुछ वर्षों में लौट आते लेकिन अंग्रेजों के समय लोग परिवार और जानवरों समेत भागने की कोशिश करते. सोर से डोटी की ओर न जाने कितने परिवार अंग्रेजों के कुशासन के कारण भाग गये.
सोर में इस समय अनाज के व्यापार के लिये कहीं बाजार नहीं था. क्योंकि राजस्व नकद देना होता था इसलिये वह लोग जिनके पास सिंचित जमीन हुआ करती थी बासमती उगाते और उसे कूट-बीनकर अपनी पीठ से लादकर टनकपुर, हल्द्वानी या काठगोदाम की मंडियों में दो रुपया मन (36 किलो) की दर से बेच आते. कुछ लोग घोड़ो में नारंगियां लादकर मैदानी मंडियों में पहुंचाते सही सलामत पहुंचे तो दो-चार रुपया घोड़ा उनको मिल जाता.
कुमौड़ गांव अंग्रेजों के समय धनी किसानों का एक गांव था कुशासन की ऐसी मार पड़ी की इस गांव के लोगों ने भी ब्रिटिश राज से बेहतर डोटी साम्राज्य में भागना बेहतर समझा. सोर घाटी का शायद ही ऐसा कोई गांव रहा हो जहां से लोगों ने पलायन न किया हो.
विक्टोरिया घोषणा पत्र के लागू होने के बाद यहां की जनता के सिर टैक्सों का भार और बढ़ गया. स्कूल के लिये कर, डाक के लिये कर, घराट पर कर न जाने कितने नये कर यहां की जनता के सर मढ़े गये.
इस क्षेत्र के इतिहास पर लोगों ने अंग्रेजों की न्यायप्रियता, प्रशासनिक कुशलता और ईमानदारी का बखान किया है जबकि हकीकत यह है कि अंग्रेजों ने अगर नाख़ून जितना भी कोई भला काम किया तो उसमें उनका लाभ था न कि जनता का हित. अभी भी इस क्षेत्र का निष्पक्ष इतिहास लिखने की आवश्यकता है.
-काफल ट्री डेस्क
डॉ. राम सिंह की किताब ‘सोर’ का अतीत के आधार पर.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
3 Comments
Piyush
Nice article
Nazim Ansari
इतिहास तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर लिखा जाता है। निस्संदेह अंग्रेज़ यहाँ के संसाधनों को लूट रहे थे लेकिन उनकी कर-प्रणाली के कारण सोर घाटी के लोग पलायन कर गए ,नेपाल में जाकर बस गए यह सब विश्वसनीय नहीं लगता। यदि उनकी कर वसूली इतनी खतरनाक थी तो पूरे अल्मोड़ा ज़िले से पलायन होता ,सोर और सीरा परगने तो उस समय अल्मोड़ा जिला के अंतर्गत थे। दूसरी बात पिथौरागढ़ को टनकपुर से जोड़ने वाली सबसे पुरानी सड़क जिसे आज आल वेदर रोड कहा जाता है उस समय जंगलात की सड़क थी यह अंग्रेज़ों ने ही शुरू की थी। काली,रामगंगा,सरयू आदि नदियों में जो झूला पुल आज भी मौजूद है सब अंग्रेज़ों ने ही बनवाए। मिशन स्कूल ,एल डब्ल्यू एस बालिका विद्यालय ,चंडाक का कोड़ीखाना ,अस्पताल की स्थापना आदि कार्य भी अंग्रेज़ो ने जनता के लिए ही किए। अंग्रेज़ों के समय में ही काली कुमाऊं से आकर लोग सोर घाटी में बसे। प० बद्री दत्त पांडे ने अपनी सात सौ पृष्ठों की पुस्तक में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं किया। अंग्रेज़ों ने तो नैनीताल और रानीखेत जैसे नगर बसाए ,सोर तक तो उस समय अधिक संख्या में अंग्रेज़ पहुँच भी नहीं पाए। गोख्योल पहाड़ में एक गाली /अपशब्द है जो गोरखा के अत्याचार को याद दिलाती है लेकिन अँग्रेज़ियोल जैसा शब्द कभी सुना नहीं।
Nazim Ansari
सोर घाटी के कुछ गावों से अंग्रेज़ी शासन के शुरुआती दौर में लोगों का नेपाल पलायन कर जाना सच है ,अंग्रेज़ अधिकारीयों के अपने सर्वेक्षण और रिपोर्ट्स में इसका उल्लेख किया गया है लेकिन यह बड़े स्तर का पलायन या लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया नहीं थी। नई कर प्रणाली में कर की अदायगी कृषक को अनाज की जगह नकद करनी थी जो छोटे और निर्धन किसानों के ऊपर आर्थिक बोझ बनने लगी जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों ने डोटी की ओर पलायन किया और वहीँ बस गए। बाद में अंग्रेज़ों ने इसमें बदलाव किए जिससे आने वाले समय में दूसरी समस्याओं का चाहे सामना करना पड़ा हो लेकिन पलायन नहीं हुआ।