कुट्टनीमतम् में कहा गया है कि जो लोग भ्रमण न कर के जन-जन के वेश, शील और वार्तालाप का ज्ञान नहीं प्राप्त करते वे बैल के समान हैं (श्लोक 212). सुभाषित भांडागार में यात्रा का महत्त्व बताते हुए लिखा गया है कि जो लोग देश की यात्रा नहीं करते, उनकी बुद्धि संकुचित होकर पानी में पड़ी घी की बूंद की तरह अचल और जड़ हो जाती है, जबकि यात्रा करने वाले व्यक्ति की बुद्धि पानी में पड़ी तेल की बूंद की तरह फैल जाती है. ऑग स्टाइन ने ठीक ही कहा है कि संसार एक बड़ी पुस्तक है जिसमें वे लोग जो घर से बाहर नहीं जाते, केवल एक पृष्ठ ही पढ़ पाते हैं यात्रा व्यक्ति को कई स्तरों पर शिक्षित और रूपांतरित करती है सबसे बड़ी बात यह है कि वह उसे सहिष्णु, मानवीय, प्रकृति प्रेमी बनाती है और कल्पना तथा यथार्थ का समन्वय करना सिखाती है.
(Pilgrimage and Tourism in Uttarakhand)
‘यात्रा’ शब्द के साथ या तो धर्म का भाव जुड़ा है या फिर वह सामान्यतः एक स्थान से दूसरे स्थान जाने की क्रिया को व्यक्त करता है जिसमें लक्ष्य सामान्य से विशिष्ट कुछ भी हो सकता है आधुनिक युग में पर्यटन शब्द ने नए अर्थ ग्रहण किए हैं. आज पर्यटन केवल विलास और मनोरंजन के लिए निरुद्देश भ्रमण के साथ संबद्ध हो गया है. इसे लोग स्वांतः सुखाय मानने लगे हैं. इससे देश और जाति को कोई लाभ नहीं होता. राहुल जी यह मानते हैं कि सच्चे और जागरूक घुमक्कड़ों का, देश और जाति के उत्थान में बहुत बड़ा हाथ होता है. राहुल जी के शब्दों में हमारे स्वतंत्र देश को यदि महान् बनना है तो हजारों घुमक्कड़ पैदा करने होंगे. घुमक्कड़ की सद्वृत्तियों के मूल में उसकी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना होती है. जैनेन्द्र के शब्दों में ‘यात्राओं में आँखों को और दूसरी वृत्तियों को बहुत खुराक मिलती है.’
यात्रा अनुभूति, अनुभव, सामाजिक संवेदन तथा साहित्यिक भाव प्रवणता का मूल आधार रही है. वह गतिशीलता की पहली पाठशाला है. अज्ञेय तो यायावर के चिन्तन पथ को ही जीवन मानते हैं- यायावर ने (इस सत्य को) समझा है कि जहाँ देवता भी मंदिरों में रुके कि शिला हो गए और प्राण-संचार को पहली शर्त है गति, गति, गति. सौन्दर्य और जीवन बोध के लिए संभवतः इससे बढ़िया और कोई युक्ति नहीं.
(Pilgrimage and Tourism in Uttarakhand)
तीर्थयात्रा एक समग्र अनुभव है जो भगवान से भी उतना ही जुड़ा है जितना पर्यावरण से. पर्यावरण का व्यक्त रूप पेड़-पौधे, सुरम्य उपत्यकाएँ और गगनचुम्बी पर्वत मालाएँ, उद्दाम वेग से बहती नदियाँ और निर्झर, वनों में क्रीड़ा करते जीवजन्तु, पशु-पक्षी, उन्मुक्त आकाश, तन-मन को सहलाती शीतल वायु, सभी तो उस परम शक्ति की महिमा को प्रकट करते हैं! क्या हम भगवान के निवास की कल्पना किसी ऐसी जगह कर सकते हैं जहाँ की भूमि प्राकृतिक शोभा से हीन हो, जहाँ कोई नदी या निर्झर न बहता हो, जहाँ कोई वृक्ष-लताएं और फूल न हों और सुबह-सुबह चहकते पक्षियों की आवाज कानों में न पड़े? इसीलिए अधिकांश तीर्थ नदी तटों पर मिलते हैं जहाँ प्रकृति का भरपूर सौन्दर्य पेड़-पौधों की हरियाली और वन्य जन्तुओं की उछल-कूद से उल्लसित हो, प्राचीन काल के किसी तपोवन या आश्रम का वर्णन ऐसा नहीं जिसमें लता गुल्मों, पुष्पों तथा कुलांचे भरते मृगशावकों का उल्लेख न हो. पर्यावरण की इसी अनिवार्यता को देखते हुए वन प्रान्तर तपस्या के लिए उपयुक्त स्थल माने जाते थे और तीर्थो को जाने वाले मार्गों पर धर्मप्राण राजा और श्रेष्ठी वृक्ष लगवाते थे, आम्रवनों में यात्रियों को ठहराते थे और वंश वृक्ष के खूब फलने-फूलने का आशीर्वाद प्राप्त करते थे. कहावत है कि मनुष्य की दया माया और वृक्ष की छाया बड़ा सहारा देती है किंतु आज स्थिति यह है कि मार्ग उजाड़ से लगते हैं. बद्रीनाथ की ओर चले जाइए तो नगे पहाड़ नजर आयेंगे. किसी भी तीर्थ की ओर चले जाइए नगरीकरण की जोर पकड़ती प्रक्रिया के बीच हरियाली का नामोनिशान नहीं मिलेगा.
सच्चाई यह है कि व्यावसायिक प्रवृत्ति हमारे तीर्थों के साथ खिलवाड़ कर रही है. एक ओर परिवहन के कारोबार में जुटे लोग भगवती जागरण नाम पर लोगों के आगे एक गुपचुप वातावरण पैदा करते हैं फिर उन्हें बोरों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान को ढोते हैं जिसमें मानवीय संबंध नहीं के बराबर पनपते है. दूसरी ओर स्थानीय व्यापारी, होटल वाले पंडे-पुजारी प्रकृति का और साथ ही यात्रियों का जी भर कर दोहन करते हैं तीर्थों का इतना अधिक व्यवसायीकरण हो चुका है कि उनको पर्यावरण की दृष्टि से बचाना आवश्यक है. यात्री भी इसमें पीछे नहीं रहते. उनमें से कई लोग सैर-सपाटे के लिए आते हैं इसलिए पर्यावरण के प्रति निर्मम होते हैं जो धर्मं प्राण यात्री होते हैं वे अपनी आदतों के कारण अपना मैल और गंदगी नदी में बहाकर पुण्य लाभ करते हैं पर कभी यह नहीं सोचते कि बेचारे इस तीर्थ या पवित्र नदी का क्या होगा? कई तीर्थ लगातार इतने गंदे किए जाते रहे हैं कि उनमें नहाने के लिए बहुत आग्रह चाहिए.
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एक बात जो सबसे अधिक खटकती है कि तीर्थ यात्रा या पर्यटन पर्यावरण पर निर्भर करता है उसके लिए यह आवश्यक है कि प्राकृतिक मूल्यों का संरक्षण किया जाय और तीर्थ का पूरा स्वरूप प्राकृतिक विशेषताओं और परम्पराओं से मेल खाए. किन्तु आज विकास के नाम पर दुकानों, होटलों और नए तरह के निर्माणों की चल पड़ी है. पहले धर्मशालाओं या पांथशालाओं का रिवाज था. अब पांच सितारा होटलों की सुविधाएं मुहय्या की जाने लगी हैं जहाँ भोग-विलास और सुख-सुविधा के सारे सामान मिलते है. पहाड़ों का पानी फ्रिज को भी मात करता है किंतु पहाड़ की तीर्थ यात्रा पर आपको सभी तरह के ठंडे बाजारू पेय मिलेंगे. वह सब्जी और दालें मिलेंगे जो वहाँ नहीं उगाई गई बल्कि सेंकड़ों मील दूर मैदानों से खरीदकर लाई गई. स्थानीय वातावरण पर थोपी हुई विजातीय सुविधाएँ और अग्रेजियत कहीं तीर्थ का अहसास कराता नहीं लगता. इस पर स्थानीय पंडे-पुजारियों, व्यवसायियों यहाँ तक कि साधु-संन्यासियों की धन लिप्सा के कारण तीर्थों का स्वरूप बदल रहा है. व्यवसायी अवैध निर्माण कर कंक्रीट का जंगल उगाने में व्यस्त रहते हैं. पंडे-पुजारी और साधु-सन्यासी धर्म और आश्रमों के नाम पर पैर पसारते जाते हैं. वे धर्म और व्यवसाय एक साथ चलाने पर उतारू हैं. फलतः आश्रम फैलते जा रहे हैं और अवैध कब्जे हो रहे हैं.
कुल मिलाकर हिमालय के धामों पर तीर्थाटन का भारी दबाव आ गया है. हिमालय का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि यहाँ के तीर्थों में पहले आबादी बहुत कम हुआ करती थी. लोग पैदल मार्गों से प्रकृति का आनंद लेते हुए जाते थे और भीड़-भड़ाका कम होता था. आज स्थिति यह है कि कई विद्युत योजनाएं चल रही हैं. विकास योजनाओं और वनों के कटान से भूस्खलन और भूकंप आने लगे है. झाला के नीचे इसी तरह झील बन गई. भागीरथी अपने स्रोत पर लुप्त होती जा रही है. ऊपर चीड़-वासा और भोजवासा के वन नष्ट हो गए हैं. लोगों की व्यावसायिक गिद्ध दृष्टि अब दोहन पर टिक गई है. गंगा के जिस जल के लिए लोग गोमुख पहुंचते थे, वहाँ अब पानी की फैक्ट्रियां लगने लगी हैं. गंगोत्री के रास्ते पर ‘हिमालयन मिनरल वाटर’ का कारोबार चालू है जहाँ से गंगा का जल बोतलों में भरकर बेचने को बाहर भेजा जायेगा. ग्रामीण जीवन पर जब यह बाजारू छाया पड़ेगी तो गांव केवल मजदूर मुहय्या करने के साधन रह जायेंगे.
तीर्थाटन का पर्यटन में बदलना कोई अच्छा लक्षण नहीं है. तीर्थ के पीछे पाप मुक्ति और पुण्य प्राप्ति का भाव मुख्य होता है. तीर्थ का अर्थ ही होता था- तरति पापादिकम् यस्मात् अथवा तोरयते अनेन इति. किंतु जब से तीर्थ पर्यटन के लिए भी प्रयुक्त होने लगे हैं तो स्वयं तीर्थयात्री पर्यटक की भावना से आविष्ट होते दिखाई देने लगे हैं. अब तीर्थयात्राएं नहीं, जगह-जगह से वाहनों के मालिकों द्वारा पर्यटन यात्राएं आयोजित होने लगी हैं और लोग बद्रीनाथ-केदारनाथ भी उसी तरह पैकेज टूर में जाते हैं जैसे एलोरा अजन्ता या गोवा. सरकार भी तीर्थों का विज्ञापन पर्यटक केन्द्रों के रूप में करती है. अब नई पीढ़ी के नौजवान शहरी तीर्थों में पूजा या स्नान की अपेक्षा सैर-सपाटे के लिए जाते हैं या बहुत हुआ तो एक पत्थर से दो चिड़िया मारने के लिए. किसी तीर्थ के महात्म्य को अन्दर से महसूस करने की अपेक्षा वे केवल स्थान के बाहरी व सौन्दर्य को भी आंखों में भरना चाहते हैं या स्नान के नाम पर मात्र डुबकी लेने की भावना से प्रेरित होते हैं. पुरी में पर्यटक तैराकी का आनंद लेकर इतिश्री समझते हैं.
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नदी हो या समुद्र सबमें स्नान करने के पीछे एक दर्शन था जो अब नई पीढ़ी के लोगों, विशेषतः पर्यटकों में जिज्ञासा और आम चिन्तन के अभाव में कहीं प्रकट नहीं होता. पहले पंडे-पुरोहित यह भाव भरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, पर आज वह पूरी नस्ल ही समाप्त प्राय है. इसलिए आनुष्ठानिक क्रिया कलाप की उपेक्षा से भी तीर्थ यात्रा का सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष गौण होता जा रहा है जिसका श्रद्धाभाव पर निरंतर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. पर्यटक के लिए पूजा अर्चना अथवा अनुष्ठान का कोई मूल्य नहीं होता. पंडे-पुरोहितों का स्थान अब गाइडों ने ले लिया है जो उनमें कोई संस्कार नहीं जाग्रत कर पाते. पहले धर्मशालाएँ हुआ करती थीं. अब पर्यटक सारी सुविधाएं चाहते हैं, इसलिए होटल आम हो गए हैं. उनमें से कई ऐसे होते हैं जो अपने ऐश्वर्य में मंदिर को भी मात करते है. कई ऐश्वर्यशाली लोग अब मंदिरों के आस-पास होटलों में टिककर महानगरों की दुनिया से दूर आराम की जिन्दगी बिताते हैं और लौट जाते हैं.
जहाँ तक पर्यटन का सवाल है, सारा हिमालय पर्यटन के नाम पर रौंदा जा रहा है. यह क्षेत्र अपने सौन्दर्य के लिए पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है. यहाँ के देव-दारु, चीड़ और बाँज के सुरम्य बन हरे भरे बुग्याल, हिमाच्छादित चोटियाँ तरह-तरह के फूलों से भरी घाटियाँ और कल-कल बहती नदियाँ तथा निर्झर ही नहीं कूदते चहकते पशु-पक्षी सदा से आकर्षण के केन्द्र रहे हैं. पहाड़ों पर बसंत आता है तो बर्फ पिघलने लगती है, घास और पेड़-पौधे जाग उठते हैं, डाँडों पर बुराँस के लाल फूल खिलने लगते हैं और तरह-तरह के पक्षी पेड़ों पर बासने लगते हैं. इसी समय वहाँ पर्यटकों का पदार्पण होता है वे पेड़ काटते हैं, पौधों को उखाड़ डालते है नदियों को गन्दा करते हैं और वन्य जीवों का शिकार कर वहाँ की बनी-बनाई व्यवस्था को आकर भंग कर जाते हैं. एक ऐसी भोगवादी क्रूर मनोवृत्ति से प्रेरित होते हैं कि सौंदर्य भावना के अभाव में उनमें पर्यावरण के रहस्य को आत्मीयता पूर्वक महसूस करने की क्षमता ही नहीं होती. इसीलिए वे उसे दूषित ही नहीं बर्बाद भी करते हैं.
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हर वर्ष हिमालय, काश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों आदि में आतंकवाद के कारण पर्यटन निष्क्रिय है किंतु अब सारा दबाव कुमाऊँ-गढ़वाल, हिमांचल पर आ गया है या फिर गोवा अंडमान निकोबार जैसे समुद्र तटीय स्थलों पर. इधर उन्होंने हिमालय के प्रसिद्ध तीर्थों की जो दुर्दशा कर डाली है, उससे लोग बहुत दुखी हैं तथा ‘हिमालय बचाओ’ की आवाज के साथ एक पुकार भी जोरों से उठी है- हमारे तीर्थों को अकेला छोड़ दो. तीर्थों को पर्यटन स्थलों में बदलने के पीछ शैतान का दिमाग काम कर रहा है. तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए रोपवे और न जाने क्या-क्या योजनाएँ बन रही हैं. कुछ तो तीर्थयात्री को पैदल चलने दें. यदि उसे सारी सुविधाओं के साथ पहुँचना है तो घर में बैठा रहना क्या बुरा है? तीर्थयात्री को पर्यटक की तरह समझना तीर्थ को बर्बाद करना है उसकी मानसिकता को विकृत करना है तीर्थयात्री तो धार्मिक यायावर होता है वे भावना से चलते हैं, ईश्वर की सत्ता का प्रकृति और पर्यावरण में अनुभव करके चलते हैं हम जब प्राकृतिक सौन्दर्य के स्थान पर मशीनी उपकरण ला जोड़ते हैं तो तीर्थों का बड़ा नुकसान करते हैं बद्रीनाथ को ही लीजिए- यह तीर्थ बसों में डूब गया है. इसलिए पर्यटक सुविधाओं से तीर्थों को दूर रखिए नहीं तो वहां पुण्य की खोज का विचार ही छोड़ दीजिए.
नारी-देह को उपभोक्ता सामग्री में परिणत कर दिखाना पूँजीवाद पर्यटन पद्धति के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. सांस्कृतिक, नैतिक और आर्थिक ह्रास का लाभ उठाकर पर्यटन व्यवसाय भले ही जन कल्याण का दावा करे किंतु असल में इसके नाम पर कई देशों में लोग इस तथाकथित समृद्धि के क्रूर शिकार हो रहे हैं.
सबसे दुखद अनुभव यह है कि पर्यटन नैतिकता को ही नहीं, संस्कृति को भी हड़पता जा रहा है यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास भी है कि हम सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए भी पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं. प्रायः यह कहा जाता है कि भारत में सांस्कृतिक कलात्मक और ऐतिहासिक रूचि वाले पर्यटक अधिक आते हैं. अतः उनके लिए प्राचीन स्मारकों, मंदिरों, बौद्ध केन्द्रों, तथा कला गुफाओं की रोमानी श्रृंगारी मुद्राएँ दिखाकर उनकी जिज्ञासा शांत की जाती है. किंतु कितना विचित्र वैषम्य है कि हाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के और. दिखाने के लिए इतिहास और संस्कृति है और व्यवहार के लिए भौतिक भोग के परोसे. अन्दर गौतम बुद्ध है, बाहर नाचघर है. दृष्टि नाचघर है, तो बुद्ध पर कैसे जायेगी? अगर जायेगी भी तो उसका मुंह काला कर के रहेगी. बुद्ध, ईसा, ताजमहल, अजंता, एलोरा को अपना मुंह खुद बचाना होगा. दूसरी ओर यह निहायत जरूरी है कि मध्य हिमालय के उन प्राचीन तीर्थ स्थलों की ओर भी लोगों का ध्यान दिलाया जाय जो किसी समय अपनी धार्मिक अस्मिता के लिए प्रसिद्ध थे. यह दुर्भाग्य ही है कि गढ़वाल की तुलना में कूर्माचल के बैजनाथ, बागेश्वर, जागेश्वर, सोमेश्वर आदि भारत भर में उतने प्रचलित न हो सके. कुमाऊँ की धरती पर ऐसे अनेक तीर्थ हैं जो अपने मंदिरों के स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध हैं और लोक की धार्मिक परंपरा में जो विशेष महत्व रखते हैं. गढ़वाल में भी केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री-जमनोत्री के अतिरिक्त भी अनेक धार्मिक स्थल हैं जहाँ स्थानीय मेले लगते हैं और पूजा होती है. ऐसे स्थलों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. पहाड़ों के शक्ति पीठ किसी युग में तीर्थ थे. उनकी परम्परा मरे नहीं इसके लिए प्रयत्न किए जा सकते हैं.
(Pilgrimage and Tourism in Uttarakhand)
–डॉ. गोविन्द चातक
डॉ. गोविन्द चातक का यह लेख ‘श्री लक्ष्मी भंडार हुक्का क्लब, अल्मोड़ा’ द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका पुरवासी के 1992 के अंक में छपा था. काफल ट्री में यह लेख पुरवासी पत्रिका से साभार लिया गया है.
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