कथा

नदी-पुत्र : पिथौरागढ़ की एक लोककथा

पीपल पलवृक्ष के नीचे ढोल रख धरमदास ने अंगौछे से पसीना पोछा और गोरी नदी की ओर मुँह कर एक चौड़े पाथर पर बैठ गया. कैलास-मानसरोवर की दुर्गम यात्रा की थकान के स्थान पर एक बहुत बड़ी उपलब्धि का आनन्द उसके रोम-रोम में समाया हुआ था.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

उसके पीछे तीर्थयात्रियों की भीड़ थी जिसमें सन्यासी, व्यापारी, राजपुरुष और कलाविद् अपनी टोली के साथ बतियाते हुए चल रहे थे. उसके साथ भी दो व्यक्ति थे- तांत्रिक बनने का इच्छुक बिणभाट और चमड़े का व्यवसाय करने का इच्छुक रैदास. दोनों कभी राजपुरुषों के साथ चलते, कभी व्यापारियों के साथ बतियाते और कभी सन्यासियों के साथ धर्मचर्चा करते हुए मार्ग के उतार-चढ़ाव को पार करते रहे गौतम बुद्ध, शंकराचार्य और गोरखनाथ के अनुयायियों के बीच जाकर बिणभाट तरह-तरह की धार्मिक शंकायें करता और आर्यावर्त के तुर्क आक्रमण के परिणामों को सुनाकर वर्तमान धार्मिक विश्वासों में परिवर्तन पर बल देता.

धरमदास छोटी उम्र का होते हुए भी गम्भीर प्रवृति का था. उसे बिणभाट की बातूनी आदत अच्छी नहीं लगती थी, इसी कारण वह विजयसार की लकड़ी से बने ढोल को दाहिने कंधे पर डाले आगे-आगे चलता था. कभी-कभी सूनी राह पर बैठकर वह विभिन्न लय में ढोल बजाता रहता जिससे यात्रियों का मनोरंजन होता था. सुन्दर प्रकृति के दृश्य सामने आते ही वह एक ऊँची जगह पर बैठ जाता और निर्निमेष आँखों से वनस्पति, पुष्पवन, पर्वतशिखर, सरिता के मोड़ और सरोवरों को देखता रहता. उस समय किसी का बात करना उसे अच्छा नहीं लगता था. उसे सहृदय और कवि मानकर उसके साथी उसे कई बार अकेला छोड़ देते थे.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

वे तीनों साधारण तीर्थयात्रियों की तरह कैलास की ओर चले थे लेकिन उस देवभूमि में अचानक एक रहस्य का शिकार हो गये. उस दिन दोपहर के बाद भयंकर वर्षा और आंधी-तूफान के कारण धरमशाला में घबराहट का वातावरण था क्योंकि अँधेरा होने के बाद भी एक टोली के पांच यात्री लौट नहीं पाये थे. उन चिन्तित यात्रियों को धरमदास ने कई बार आश्वासन दिया. अंधेरा होते ही रैदास ने आग जलाई और धरमदास धीरे-धीरे ढोल बजाते हुए गुन-गुनाने लगा-

जाग! जिया कुन्तो जाग!
धरमी राजा युधिष्ठिर जाग!
गदाधारी भीमा जाग!
गाण्डीवधारी अर्जुन जाग!!

बिणभाट आग सेक रहा था, अचानक जोर से चिल्लाया- धरमी राजा… और फिर एक विशेष गति से अपना सिर हिलाकर कांपने लगा. उसकी रक्तिम आंखें और बार-बार हिलते सिर को देखकर धरम दास ने लय बदलकर और जोर से टोल बजाते हुये कहा-

देवी ! द्रुपदा जाग !!
नौकुल ! पाण्डव जाग !!

बिणभाट अपने स्थान पर खड़ा हो गया. आकाश की ओर हाथ नचाकर अजीब नृत्य करने लगा. धरमदास भी खड़ा हो गया और गोल घेरे में नाचते हुए ढोल बजाने लगा. रैदास से भी न रहा गया. सामने पड़ी भोजन की थाली को सिक्के से बजाकर वैसी ही लय निकालने लगा जैसी धरमदास अपने ढोल से निकाल रहा था. धरमशाले के चारों खण्डों से यात्री आकर उनके नृत्य के साथ ताली बजाने लगे. थोड़ी देर में धरमदास ने लय बदल दी और बिणभाट की कंपन कम हो गई. वह अपने स्थान पर बैठ कर कांपने लगा. ज्यों ही धरमदास ने ढोल गले से उतारकर जमीन में रखा बिणभाट ने कांपते हाथों से आग की लौ को छूते हुए अपने साथियों की चिन्ता में वे पांच डूबे यात्रियों की ओर देखकर कहा –

कोई चिन्ता की बात नहीं, वर्षा थमने वाली है. आप लोगों के साथी बगल वाले धरमशाले में वर्षा रुकने के इन्तजार में बैठे हैं. यहाँ तक आने के लिए मसाल का इन्तजाम कर लिया है. धर्मात्मा पाण्डवों की आत्मायें उनको सकुशल यहां पहुंचा देंगी.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

यात्रियों के झुण्ड में से एक ने उठकर धूपबत्ती से बिणभाट, धरमदास और आग की आरती करते हुए कहा- धर्मात्मा पाण्डवों की जय हो.

बस फिर क्या था, धरमशाले के सभी यात्री पाण्डवों की आत्मा समझ बिणभाट के चारों ओर अक्षत चढ़ाकर धूपबत्ती करने लगे. वह उनके कष्ट पूछने लगा और उसके निवारण के उपाय बताने लगा. शौक की वेषभूषा में आये एक युवक ने ज्यों ही अक्षत फेंके, बिणभाट ने आग की राख में से एक टीका उसके माथे पर लगाते हुए कहा- पाली पछाऊं के राजकुमार ! एक दिन तुम हिमालय के चक्रवर्ती सम्राट बनोगे.

शौक के वेष में घुटनों तक लम्बा बूंट, श्वेत कम्बल का कञ्चुक और सिर में कनछोप पहने पाली पछाऊँ का राजकुमार ब्रह्मदेव और उसके दोनों साथी भीम कठायत और भीका प्रहरी आश्चर्य से बिणभाट की ओर देखने लगे. यात्रियों में से एक ने कहा -शौक का वेष और पालीपछाऊँ का राजकुमार नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. जब द्वापरयुग से पाण्डवों की आत्मायें हिमालय में हो सकती हैं तो पालीपछाऊँ का राजकुमार शौक के वेष में क्यों नहीं हो सकता?- दूसरे यात्री ने कहा.
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यात्रियों के साथ-साथ अपने कौतुहल को शान्त करने की इच्छा से भीम कठायत ने बिणभाट के पास नमस्कार की मुद्रा में बैठते हुये कहा- गुरु !… आपने राजकुमार को कैसे पहचाना?

बिणभाट ने आकाश की ओर देखकर कहा- ईश्वर उवाच. और फिर बेहोश होकर जमीन में गिर पड़ा. रैदास ने उसके सिर पर खूब तेल मल दिया जिससे वह सहज हो पाया. बादल छंटने लगे थे. कुछ ही देर में मशाल लेकर बिछुड़े यात्रियों ने आकर जब बगल के धरमशाले में होने की बात कही तो सभी की आत्मा में पाण्डवों की आत्मा के जाग्रत होने की शंका होने लगी. वर्षा के थमते ही ब्रह्मदेव और उसके साथी धरमशाले से चले गये.

दो दिन तक धरमशाले में बहस होती रही. एक वर्ग का कहना था कि बिणभाट की आत्मा जागी है. वह बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृति का रहा होगा. मानव कल्याण की भावना होने से चिन्तित यात्रियों की दशा ने उसे कम्पित कर दिया. गन्धर्व सिद्ध और यक्ष नाम की पर्वतीय जातियों में नृत्य के माध्यम से आत्मा को जगाने का एक पुराना रिवाज था जिसका उद्गम कैलासवासी शिव के ताण्डव नृत्य से हुआ था. उद्बोधन नृत्य करने वाले को योग के आदर्श का अनुसरण करना पड़ता था बिणभाट की योग के प्रति विशेष असक्ति थी धार्मिक वातावरण पर भी वह बचपन से सोचता था और उसमें परिवर्तन की बात करता था इसी कारण उसकी आत्मा जागी इसी तरह का वातावरण तैयार कर पुनः उसकी आत्मा को जगाया जा सकता है.

दूसरे वर्ग का कहना था कि महाभारत अनुसार पाण्डव हिमालय में मरे थे और तब से उनकी आत्मायें यहां के वायुमण्डल में विद्यमान हैं. चिन्ता के वातावरण में धरम दास ने उनको जगाने का प्रयास किया. लगभग वैदिक यज्ञों की स्थिति थी. ऋषि-मुनि आग जलाकर जिस तरह वैदिक देवताओं की स्तुति गाकर यज्ञ के समय उनका आवाह्न करते थे, उसी तरह का आवाह्न धरम दास ने किया है. वह ऋषियों की तरह कविहृदय है. उसी के कारण पाण्डवों की आत्मा का अवतरण हुआ है. संस्कृत भाषा में जिसे ‘याग’ कहा जाता है, उसी परम्परा में इसे लोकभाषा में ‘जागर’ कहा जा सकता है.

बहस बढ़ती गई. एक विचार यह भी था कि यदि पाण्डवों की देवरूप आत्माओं को जगाया जा सकता है तो हिमालय में मरे हुए अन्य देवरूप व्यक्तियों, सिद्ध, नाग यक्ष, देवी आदि को भी ‘जागर’ शैली से जगाया जा सकता है. केवल वैदिक ऋचाओं की तरह पहाड़ी भाषा में जागर गीत लिखने पड़ेगे बहस के अन्त में इस घटना को एक धार्मिक परिवर्तन का सूचक माना गया. इससे पहाड़ के प्रत्येक मन्दिर के आगे जागर लगाकर देवता के अंग का पता चलाने का एक अभियान छेड़ा जा सकता था.

बिणभाट को यह बात जंच गई. देवनृत्य की इस नई शैली से वह हिमालय के प्रत्येक मन्दिर में परीक्षण करना चाहता था. पहले मन्दिर की स्थापना से उसकी महत्ता के किस्से-कहानी एकत्र कर धरमदास उनको एक गाथा का रूप देगा फिर मंदिर के प्रांगण में रात्रि के समय खूब आग जला कर ढोल-नगाड़े की गगनभेदी ध्वनि के साथ देवता की गाथा गवायी जाय. उसके साथ पुरुष और महिलाओं के एकल नृत्य करवाकर देवता का आवाह्न किया जाय जो व्यक्ति जिस मन्दिर में उद्बोधन नृत्य के बाद थोड़ा फलित कह पायेगा उस मन्दिर के प्रधान देवता का अंश उसकी आत्मा के अन्दर मान लिया जायेगा. हर व्यक्ति ऐसे अवसर पर अक्षत डालकर अपनी समस्या का समाधान पूछ सकेगा.

यदि ऐसे एक-दो आयोजन सफल हो जाय तो समृद्ध गृहस्थ, मन्दिरों के रावल, ग्रामीण पंचायतें थोकदार आदि अपने यहाँ जागर के आयोजन के लिये आमंत्रित कर सकते हैं और यह कार्य आजीविका का साधन बनाया जा सकता है. धरमदास इसके पक्ष में न था. वह अपने गाँव वालों के बीच पैतृक रीति से शादी-ब्याह, मेले, नामकरण आदि में ढोल बजाकर कृषि तथा पशुपालन से ही जीवन व्यतीत करना चाहता था. आखिर मनुष्य को अपना जीवन बिताने के लिये धार्मिक विवादों में पढ़ने की क्या आवश्यकता है? ऐसे जटिल प्रश्न जिनका उत्तर न वेद पुराणों में है न कठोर तपस्या में. इसके बजाय वह चाहता था कि राजा और राजकर्मचारियों की लूट-खसोट और अन्याय से निर्बल जनता को उबारने के लिए कुछ किया जाय. बिणभाट जिनकी कृपा चाहता है, धरमदास उनसे उलझना चाहता है.

धरमदास का पसीना सूखने तक उत्तर की राह से बिणभाट और रैदास अपनी-अपनी पुन्थुरियों को लिये और पश्चिम की ओर से मच्छली पकड़ने का जाल लेकर भाना धीवर पीपल वाले चबूतरे पर आ पहुंचे. वह चबूतरा गोरी नदी के पुल से पश्चिम की दिशा में मुख्य मार्ग से कुछ हट कर स्थित था. अतः तीर्थयात्री उधर नहीं जा रहे थे. भोजन बनाने की उचित स्थिति देखकर ही धरमदास वहां पर चला आया था. तीर्थयात्रियों को देख भाना ने नमस्कार की मुद्रा के साथ कैलासपति बाबा की जै, कहकर एक उन्मुक्त खिलखिलाहट बिखेर दी. बिणभाट ने अपनी पुन्थुरी से असीका और प्रसाद निकाल कर उसके हाथ में देते हुये कहा – यह कैलास की असीका है. भगवान भोलानाथ तुम्हारा कल्याण करेंगे.

भाना की आयु चालीस वर्ष की थी लेकिन उसके हँसमुख चेहरे और कर्मठ स्वभाव के कारण वह छोटी उम्र का लगता था. वह एक नीले कपड़े को तिहराकर अपना सिर बाँधे था, घुटनों तक की छोटी सफेद धोती और काले ऊन के बनियान के अन्दर उसकी मांस से मसृण देह का कालापन घने बालों से और भी बढ़ गया था. बड़े नाटकीय ढंग से जाल जमीन पर रखकर भाना ने दोनों हाथों से अंजलि बना असीका ग्रहण की और उसे अपने शीश पर रखते हुये कहा- आज विवाह के बारह वर्ष हो गये, सन्तान का मुंह नहीं देख पाया. हो सकता है आज यह कैलास की असीका मेरा कल्याण करे.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

यह कहकर उसने अध्यात्मिक मुद्रा में उन तीनों की ओर देखा जो अभी कुंवारे थे और सन्तान शब्द का अर्थ समझते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर सकते थे. इस छोटी वय में कैलास की यात्रा करना भी गृहस्थ जीवन के प्रति उनकी उदासीनता का सूचक था. तीनों के रंग, रूप और स्वास्थ्य में पर्याप्त साम्य था. वे गन्धर्व वेष में थे. नाना रंगों से सजी पोशाक जिससे उनकी जाति, कुल आदि का अनुमान लगाना संभव न था. कुतुहल से एक के बाद एक को अपनी दृष्टि से टटोलते हुए अन्त में भाना ने रैदास को देखा जो चबूतरे के पिछवाड़े खिचड़ी बनाने की तैयारी कर रहा था. उसके पास जाकर उसने कहा- आपकी जाति और धर्म का कुछ पता नहीं चल रहा है, नहीं तो मैं नदी मैं जाल डालकर मच्छली पकड़ लाता. मच्छली के झोल के साथ भोजन करने से आपकी थकान दूर हो जाती.

रैदास ने मुसकराकर कहा- हम गैराड़ गाँव के रहने वाले हैं, झाड़फूंक की विद्यावाले. मच्छली हमारा प्रिय भोजन है. आराम से ले आओ हमें कोई जल्दी नहीं है लेकिन हम उसका मूल्य नहीं चुका पायेंगे. हमारे पास अब धन बचा हुआ नहीं है.

अब भाना की समझ में आ गया कि सर्प के काटने पर विष दूर करने की झाड़फूंक विद्या सीखने के बाद उसकी दीक्षा के लिए आदिनाथ शंकर के दर्शन हेतु कैलास गये होंगे जो सर्प विद्या के आदिगुरु माने जाते हैं. बड़ी श्रद्धा से उसने कहा- आप तनिक ठहरें. तीर्थयात्रियों की सहायता से बड़ा और पुण्य क्या हो सकता है.

यह कहकर वह तेजी से गोरी नदी के तट पर स्थित एक विशाल शिला पर बैठ गया और बांस के सहारे अपना जाल उसने नदी के गहरे पानी में फैला दिया. जब जाल को लगा तो वह बहुत भारी हो गया था. उसके बुलाने पर उसकी सहायता के लिए वे तीनों शिला पर गये. तीनों के एक साथ जोर लगाते ही एक लोहे की मंजूषा जाल के साथ नदी से बाहर आ गई.

बिणभाट ने मंजूषा का ढक्कन हटाया तो एक नवजात शिशु रूदन करता हुआ आँखें खोलकर उनकी ओर देखने लगा. उसकी तीव्र दृष्टि, ऊँचा माथा और उज्जवल गौर वर्ण के साथ उसकी हृष्ट-पुष्ट देह किसी अभिजात घर से उसे जोड़ रही थी. मंजूषा से बालक को उठाकर धरमदास उसे चबूतरे के पास लाया और खिचड़ी पकाने के लिए जली आग से हाथ तपाकर उसे सेंकते हुए बिणभाट से बोला-

मैंने तुमसे पहले भी कहा था. धार्मिक के स्थान पर राजनैतिक परिवर्तन की सोचो. जिस राजा के शासन में नवजात शिशु के साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा हो, उसे बदल देना चाहिए. ‘तुम चिन्ता न करो, हम जिस मार्ग से आगे बढ़ना चाहते हैं – वह समग्र परिवर्तन लायेगा. हिमालय में न ये अत्याचारी राजा रहेंगे, न ये धर्म के ठेकेदार जिन्होंने आम आदमी का जीवन दूभर कर रखा है.

बिणभाट ने अपनी पुन्थुरी में से एक स्वच्छ धोती निकाल कर उसमें से एक छोटा टुकड़ा फाड़ते हुए कहा और उससे बालक को लपेटकर पुनः मंजूंषा में रख दिया. पूजा के लिए रखी शहद की शीशी निकालकर बचा खुचा शहद बालक को चटाया.

भाना ने पुनः जाल डालकर मच्छलियां पकड़ी और चारों ने भात के साथ मच्छली का झोल बनाकर उस बालक का नामकरण संस्कार मनाया. उसके माथे पर रोली लगाते हुए बिणभाट ने कहा- यह नदीपुत्र है. गोरी नदी से मिला है अतः इसका नाम होगा— ‘गोरिया.’

उसी समय काले घाघरे के फेटे में ओसी खोसे भाना की ध्यौरानी चड़कनी-भड़कनी आई और इशारे से भाना को एक ओर बुलाकर बोली- आज बहुत देर कर दी. हमारी बीनी गाय ब्या गई है, अब जल्दी चलो. भाना उसको मंजूषा के पास ले गया और बालक को दिखलाते हुए बोला- कैलास बाबा ने आज हमारी बिनती सुन ली. देखो गोरी नदी से कैसा देवरूप बालक निकला है.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

मंजूषा से बालक को उठाती हुई ध्यौरानी से बिणभाट ने कहा- इसे जल्दी से घर ले जाओ. बहुत भूखा है, इसके लिए दूध का प्रबन्ध करो.

ध्यौरानी की गोद में बालक और भाना की पीठ में मंजूषा ! जाल और मच्छलियाँ ! बड़े उल्लास के साथ तीनों को प्रणाम कर जब वे हँसी-खुशी से घर की ओर चले गये तो धरमदास ने कहा- इस बालक के माता-पिता का पता लगाने में विशेष कठिनाई नहीं होगी. शकल-सूरत से यह किसी राज-परिवार का बच्चा लगता है. बिणभाट ने उत्तेजित होकर कहा- जब से आर्यावर्त पर तुर्कों का आक्रमण हुआ, पहाड़ के हर टीले पर एक राजा छिपा हुआ है. गहन जंगलों में शिकार को आजीविका बनाकर रहने वाले इन राजाओं का पता लगाना हम जैसे निहत्थे लोगों के लिए संभव नहीं है. रैदास ने बर्तनों को अपनी पुन्थरी में बांधते हुए कहा- मंजूषा से भी पता चल सकता है. इस क्षेत्र के लोहारों के पास उस मंजूषा को लेकर जाया जाय और उसके बदले में कोई औजार बनाने के लिए कहा जाय. जिसने उसे बनाया होगा, वह उसको पाने के बारे में बिना पूछे नहीं रह सकेगा.

बिणभाट अपनी पुन्थरी को ठीक कर रहा था, काम समाप्त कर बोला- अब इस विषय में अधिक सोचने की आवश्यकता है. भाना को एक पुत्र की आवश्यकता थी वह उसे मिल गया है. अब हमें जितनी जल्दी बागेश्वर पहुँचकर पाण्डवों के जागर का प्रदर्शन करना है और उससे अपनी आजीविका की व्यवस्था करनी है.

बिणभाट की बातों को सुनी की अनसुनी करते हुए धरमदास ने कहा- अब पाण्डवों का नहीं, गोरिया का जागर लगेगा.

बड़ी तन्मय मुद्रा में उसने अपना ढोल उठाकर जोर से बजाते हुए कहा-

यो बोलो गोरिया !
निरधारी निरकारी !

गोरीतट की शिलाओं, वृक्षों और शिखरों से टकराकर उसका स्वर प्रकृति में लीन हो गया. गोरीफाट की पीपलचौरही में खड़े हो कर धरमदास ने कहा- कई वर्षों से पहाड़ी भाषा में एक काव्य की रचना का विचार दिमाग में आ-जा रहा था लेकिन विषयवस्तु न मिलने से कल्पना साकार नहीं हो पा रही थी आज राह मिल गई है. मेरी रचना का नाम होगा- गोरिया का जागर्.
(Nadi Putr Pithoragarh Folk Story)

-डॉ. मदन चन्द्र भट्ट

डॉ. मदन चन्द्र भट्ट द्वारा लिखित यह लोककथा ‘श्री लक्ष्मी भंडार हुक्का क्लब, अल्मोड़ा’ द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका पुरवासी के 1988 के अंक में छपी थी. काफल ट्री में यह लेख पुरवासी पत्रिका से साभार लिया गया है.

काफल ट्री डेस्क

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