अब हम सब चले. लोलाम्कू से आगे बढे. अब चढ़ाई थी. पहाड़ के ढाल तीखे होते जा रहे थे. किनारों के रस्ते बड़े संकरे. बकरियों-भेड़ों के कई झुण्ड वहां तीखी पहाड़ियों पर भी आराम से चढ़ जा रहीं थीं. राजू और गोविन्द अब सबसे आगे चल रहे थे. उन्होंने सोम और रोहिणी से कह दिया था कि वह उनके पछिल यानी पीछे ही रहें, हाथ के डंडे का सहारा ले कदम आगे रक्खें. थोडा झुक के चलें. अगर कहीं घुरिने की नौबत आ जाऐ तो खट से वहीँ पर बैठ जाएँ. अब संभल कर चढना. ये ठानी धार की चढ़ाई है. भोत साँस फूलने लगे तो रुक जाना हाँ, ठीक पीछे सोबनदा रहेंगे”.
(Narayan Ashram Article Mrigesh Pande)
सबसे पीछे मैं और दीप थे. हमें फुरसत थी कि जहाँ कहीं फोटो खींचने की मन हो, रुक जाओ. चलो-चलो की पुकार न लगे. दीप के चेहरे पर भी अजब सा निखार लगा. मुझसे बोला, “मैं तो सोच रहा था कि उस दिव्य दाल भात की ओवर डोज़ लेने के बाद कहीं बदन में भात खाया सुरूर न आ जाये पर धन्य हो कुंती दी की, ऐसे मसाले डाले कि बदन और चुस्त हो गया. आज तो रीढ़ की हड्डी सीधी करते चट चट भी नहीं हुई”.
“तू तो यहीं ढामी रचा ले. लौटते कुंती दी से कहता हूँ कि कोई जोरफ़रान कन्या ढूंढ तेरी चमै थोचिम करा दें. नूतूँग और नूथँग तू चुकाते रहना. ठुम चारू का पालन करने को हमारी टीम हुई ही”.
“हौस तो तुझे भी लग रही. तुई आ चखती मिठाई ले”.
“कहाँ यॉर. मुझे तो सोचना भी नहीं है ये सब. अभी पांच बहनों का कन्या दान करना है मुझे”.
चढ़ते-चढ़ते अब आ गया ठाणीधार. ऐसा लगा यहां से तो बस आसमान को छू लूँ. नीचे सब पहाड़ियां ही पहाड़ियां. दूर तक फैली हुई, पसरी हुई. ये सबसे ऊँची जगह पहुंच गए सरजी. अब बस आगे पांगू आएगा. इतनी चढ़ाई भी नहीं है. सोम की ओर नजर गई. वह नीचे ढुलकती पहाड़ियों की ओर कैमरा घुमाता फिर उसका फोकस बस आसमान से चिपकी दिखती इनर लाइन पर करता.
“अपना कैमरा मुझे दीजिए इसमें 200 ऍम ऍम लेंस है ना. मैं देखना चाहता हूँ बस सामने ही तो वह पहाड़ जो आसमान से मिल गया”.
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“दे भई इसे कैमरा. इसे मोक्ष मिल गया है यहां. अब वो कहाँ गई बकबक”.
“सर जी. दिदी न होती तो ऐसी रौनक न होती. लछमी के पांव हैं जहाँ पड़ें वो सपड़ी जाए”. सोबन बोला.
“वो देखो उस पहाड़ी में बैठी हैं. असलम है वहीं”.
हम तीनों उस धार से ऊपर चढ़े जहां रोहिणी बैठी थी, आंखे मूंद. फोटो बड़ी बढ़िया आती. सूरज की धीमी रोशनी उसके आधे चेहरे पर पड़ रही थी. लाइट और शेड बड़ा बैलेंस्ड. पर कैमरा तो सोम के पास था.
सामने पहुंचे तो उसकी पोज न बदली. अब अधखुली आंखे दूर शायद धरती और गगन का मेल देख रही थी. उसके ठीक सामने असलम था. कागज पर तेजी से पेंसिल चलाता.
अच्छा तो स्केच बन रहा है यहां?
देखा, असलम ने सही में उसका पोट्रेट कागज पर साकार कर दिया था.
“तू तो बड़ा काबिल आर्टिस्ट है. अरे देखो”.
सब हतप्रभ.
सर जब एक्सीडेंट के बाद महीनों चारपाई पर पड़ा रहा तो बस जो भी दिखता उसे बनाने की कोशिश करता. छोटा भतीजा था अपनी रंगीन पेंसिल, मोम वाली क्रेयन पेंसिल मुझे देता.
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फिर जाना कि पेंसिल एचबी ही नहीं सिक्स एच और सिक्स बी, चारकोल वाली भी होती हैं, कागज भी कितने किसम का. बस सर मुझे मजा आने लगा”.
“वाह भई. तेरी जगह तो जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट में बनेगी”. दीप ने उसकी पीठ ठोकी.
“ये दिदी तो बिलकुल चुप्प हो गईं”. सोबन रोहिणी की तरफ बढ़ते बोला.
“उसे शांत रहने दे. ये ध्यान पूर्ण मन शांत होता है. अभी उसका मौन विचार की कल्पना और समझ से परे होगा. चुपके से उसके भीतर किसी खिड़की से कोई बयार आ गई होगी. उसे लग रहा होगा कि उसे कुछ नहीं मालूम वह ज्ञात से मुक्त है. अभी तो उसका मन अपनी जोत खुद जगा रहा होगा. सब कुछ से हट वह उस आनंद का अनुभव कर रही होगी जो आता है अचानक और अनायास”.एक शिलाखंड में बैठा दीप बोला.
“दिदी की आँखों से आँसू बह रहे हैं”. सोबन ने बताया.
“ये खुशी के आँसू हैं. ये खुशी ही दिमाग को, दिल को, आँखों को निर्दोष कर देती है सोबन”.
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अब दीप भी अपनी ऑंखें मूंद बैठ गया.
जो है उसे देखना और उससे पार चले जाना ही ध्यान है. मुझे जे कृष्णमूर्ति याद आए.
आगे पांगू की तरफ का सफर बड़ी आसानी से हो गया. ठानी धार की कठिन व थका देने वाली चढ़ाई और ऊबड़ – खाबड़ रास्ते में तो बदन का लोथ निकल गया था. पांगू में रुके. पिथौरागढ़ में भगवती बाबू ने वहां के पोस्ट ऑफिस के कर्ता धर्ता लाल सिंह बोनाल जी से मिलने को कहा भी था और चिट्ठी भी दी थी. खुशमिजाज बोनाल जी हमें सीधे अपने घर ले गए. हम सब जूता उतार उनकी बैठक में बैठ गए. बोनाल जी की बैठक बड़ी सुरुचि व कल्पना से सजी थी. फूलों से लेकर बाघ, सर्प और शेर की आकृतियाँ,ऊन व रंग बिरंगे धागों से बना जूट के मोटे कपड़े में बना फ्रेम कर लगे थे. कई तरह के गुलदान, चीनी मिट्टी के बर्तन और कई शील्ड और कप करीने से रखे थे.
हम इन्हें देख ही रहे थे कि बोनाल जी की धर्मपत्नी आ गईं, ट्रे में चाय के गिलास लिए, साथ में पकोड़ियाँ. उन्होंने बताया कि ये पकोड़ी खेतों में उग आई उस पत्ती की है जिसे बेसन में लपेट गरम तेल में डालो तो दोनों तरफ से फूल जाती हैं. तुरंत ही हमारे आगे प्लेट आई और हम खाते चले गए. इतनी करारी व साथ में तिमूर की चटनी. जीभ में उसकी झुरझुरी और लालमिर्ची का तीखा पन के साथ चूख की खट मिठ.बताया कि चूख दाडिम का है जिसके कई पेड़ उनके खेत में हैं. जामिर का रस भी पड़ता है इसमें.चार पांच बार वह रसोई में गयीं और गरम पकोड़ी लाती रहीं. हम भी बिना संकोच खाते रहे. बोनाल जी का यह व्यवहार मुझे बहुत ही अच्छा लगा कि उन्होंने राजू और गोविन्द के साथ भी वही व्यवहार किया जो हमारे साथ. वैसे ही गले लिपट मिलना और सबको बैठक में बैठाना. हम लोगों के यहां तो उन्हें अगर चाय भी दो तो कप सबसे घटिया या टूटे हुए भी हो सकते हैं. एक जैसे गिलास में सबके साथ बैठा चाय देना तो दूर की बात हुई.
चाय पकोड़ी की तारीफ की तो बोनाल जी की श्रीमती जी बोलीं कि ये उनकी भतीजी सुमन ने बनाई हैं. उनका बड़ा लड़का सर्जन है छोटी लड़की का डॉक्टरी की पढ़ाई में आखिरी साल है. सुमन यहीं मेरे साथ रहती है और पांगू स्कूल में दर्जा आठ में पढ़ती है. है बड़ी होशियार और काम में चुस्त पर जरा शर्मीली है.
अबकी बार पकोड़ी की प्लेट ले सुमन आई तो रोहिणी ने हाथ पकड़ अपनी गोद में बैठा लिया. “ओ ऐ कितने घनेरे बाल हैं तेरे और सुना बड़ी होशियार है लिखाई पढ़ाई में खेल कूद में”.
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“अभी इसके हाथ का बना खाना खाओ. अरे इतने ध्यान और सीप से बनाती है कि क्या कहूं”.
“अरे. वाह”.सुमन शर्मा गई.
मुझे कुछ याद आया और तुरंत अपने कैमरा बैग को खोल मैंने एक बॉक्स निकाला और तुरंत सुमन के हाथ में थमा दिया. सुमन थोड़ा शर्माई पर क्या जो होगा सोच उसने डब्बा खोला. उसे देखा और उसकी आंखे चमकीं. डब्बे में दो पेन थीं विल्सन की. एक श्याही वाली और दूसरी बॉल पेन.
“थैंक यू”. उसकी खुशी पूरे चेहरे पर फैल गयी.
“सिर्फ थैंक यू से काम नहीं चलेगा. ये हमें बताना होगा कि घर के यहां के खाने में क्या क्या बनता है. और हमें फुरसत में कुछ बना के खिलाना भी पड़ेगा”.
“हाँ, जी. बस में अभी आई. वो चूल्हे में कढ़ाई रखी है. और पकोड़ी लाती हूँ “.
“अरे ना रे. अब नहीं. बहुत बढ़िया बनाई तुमने”.
“वो मैं देख लुंगी तू दिदी को बता”. बोनाल जी की श्रीमती जी उसे बैठा भीतर गईं.
हाँsss. सुमन ने पल भर सोचा और फिर बोली.
“दिन में ‘छाकू -दुम्ति’ मतलब दाल -चावल और रात को ‘कुटो ‘ मतलब रोटी. मड़वे की कुट्टो सबसे सुवाद होती है तो इसका सूप भी जिसको ‘मडवा कलं’ कहते हैं सिले कुट्टो, पलती, लाडू,’ न्हमी ग बारे तो नाश्ते में बनते हैं. ऐसे ही मडुआ पलती, घोघा यानी मक्का दू, शामा लामा, गा यानी धान के नपल और उसके खाजा मतलब छमा पो भी बनते है. दाल के डुबके भी. आटे गुड़ का खजुरा और त्यारों में पूरी, आलू का गुटका, खीर, बड़ा, पूवा. चूक की खटाई भी तीमुरा डाल के. छोका लगाते है काली जीरी से गंधरेनी से लाल खुस्याणी से”.
अरे वाह मजा आ गया.
बोनाल जी की श्रीमती जी ने आज यहीं उनके घर रुकने का आग्रह कई बार किया पर गंगोत्री दी ने ऊपर नारायण आश्रम में हमारे आज आने की खबर भिजवा दी थी. खुद वह धारचूला में नहीं थीं पर हमारा इंतजाम उन्होंने पक्का कर रखा था. वापसी पर आएंगे जरूर कह हम बोनाल जी के साथ पांगू घूमने निकले. वो हमको ठानीधार ले गए जहाँ होंतोती की सुरम्य पहाड़ी पर स्कूल बना था. हाथ में एक मोटी सी किताब पकड़े और एक पेड़ के नीचे बैठे एक अधेड़ से सज्जन को देखा जो बस अपने में मगन था. बोनाल जी की जय श्री राम की धाल लगाते ही वह उठ खड़े हुए और तेजी से हमारी ओर लपके. सबको हाथ जोड़े. अहा पौण पधारे हैं. भाग्यवान हो गुरू जी वह बोले. भाग्यशाली तो हम इसलिए हैं कि ठीक समय आप से पढ़ने लिखने वाले गुरू के दर्शन हुए.. फिर हमारी ओर देख बोले, “ये चक्र सिंह ऐतवाल जी हैं. हमारे विद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं. कभी कोई टीचर अनुपस्थित हो तो उनके वादन में चक्र सिंह जी को भेज दो, उस कक्षा का वह विषय भी चक्र सिंह गुरूजी पढ़ा देते है. पढ़ते भी खूब हैं. बस पांगू छोड़ कहीं आते जाते नहीं”.
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” मुसाफिर जायेगा कहाँ गाना तो सुना होगा आपने, बस अपने चेले यहीं हैं तो और कहीं क्यों जाऊं? हाँ, यहां का चप्पा चप्पा खूब घूमा हूँ”.
अब यहां के बारे में सब को बताइयेगा. बोनाल जी बोले. अरे गुरूजी आपने कह दिया. फिर क्या? अच्छा, अपना स्कूल दिखाने शर्माती अपनी बिटिया भी साथ है. ये लो खूब मटक कर दौड़ गई आगे. सुमन ने खूब कसे घने बालों में दो चुटिया बना रखी थी जिनमें लाल रिबन लगा था.
“पांगू के इस केंद्र की परिधि में रिमझिम है, बैकू है, ताँता गांव है. हर जगह छोटी बड़ी चट्टान, शिला खंड हैं, बौल्डर्स हैं. इन्हीं के बीच खेत भी पसर गए हैं कहीं सीढ़ी दार तो कहीं सेरे वाले काफी लम्बे चौड़े. धारों के किनारे उनके बीच किसम किसम के पेड़, भांति भांति की झाड़ियाँ. जहां कहीं नजर पड़े फैल गयी लताऐं, झुरमुट, कुंज और बीच से रिस्ता टप टप पानी तो कहीं कितनी जगह सोते गगरी भर जल मिनट में भर दे.इतनी घास है इतनी वनस्पति है इतना चारा है कि भेड़ बकरी खूब पालें तो ऊन के काम में हाथ भी सिद्ध हो जाएं. खाली कोई नहीं बैठा दिखेगा. बातें करते करते ही डाले में रखे ऊन से तकली पकड़ ऊन कातती रहें धागा बनाती रहें उसको धोना, रंगना चलता रहे. कताई, बुनाई, रंगाई का काम औरतों के जिम्मे हुआ. भेड़ से ऊन निकाल उसका कूड़ा करकट निकाल गुनगुने पानी में भिगा लकड़ी के टुकड़े से बार बार पानी डाल पीट साफ कर लिया जाता फिर सूखने के लिए धूप दिखाई जाती. फिर तकुआ हुआ, चरखी हुई करघा हुआ ऊन को बारीक-मोटा कातने को. ऊन का काम कर रहे हर घर में छोटी रांच हुई जिनसे पट्टी-मफलर बनता, बड़ी रांच से शाल, पँखी तो पिठिया रांच से चुटका व और गरम कपड़े. दन, कालीन व आसन खड़े रांच से बनते. जौलजीबी मेले में बिकने के लिए माल की तैयारी होती”.
“यहां की जमीन के लिए आलू सबसे ज्यादा व बढ़िया पैदावार है. यहां के आलू की कई किस्में है जो खूब स्वाद हैं तो सड़न गलन से भी बहुत बची रहती हैं. धान तो बस तलाऊं वाली जगहों में होता है. अब यहां ऊसर भूमि ज्यादा हुई. फाफर, कुटू, गेहूं और मोटा अनाज ज्यादा होता है. दालों में भट्ट, उर्द व मसूर उगतीं हैं. घोघा, जुनला यानी भुट्टा- मक्का खूब दानेदार और स्वाद हुआ. दशहरे से होली के बीच तो बरफ से ढके रहो”.
“ज्ञान विज्ञान की लीला से भरी ये स्थली तो बड़ी सम्मोहक है. सबको आपने नैसर्गिक सौंदर्य से बांध लेती है. वैसे ही यहां लोग भी हुए गुरूजी सरल मेहनती कर्मठ.पांगू तो इन घाटियों की ह्रदयस्थली है. आजादी के बाद चौदास घाटी में बना ये ज्ञान केंद्र पहला राजकीय बहुधंधी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बन गया.गुरू, अध्यापक यहां पूजनीय है. कोई भी पर्व त्यौहार हो गुरूजी की पूछ वहाँ सबसे ज्यादा होगी. पंद्रह अगस्त और छब्बिस जनवरी को गाँव के स्थानीय लोग गुरूजी को सम्मानित करेंगे. जब से यह विद्यालय इस सुरम्य स्थली होंतौती धार में खुला इसकी देखरेख ग्रामीणों ने बराबर की तो शहर से अधिकारी भी आते रहे.डी ऍम साहिब पांडे जी तो बहुत पहले आए और इस विद्यालय के साथ इस स्थान को देख बहुत ही खुश हो गए. स्कूल का परीक्षा फल सौ प्रतिशत रहता रहा.आरम्भ में यहां के हाई स्कूल के बच्चे मार्च के महिने में परीक्षा देने असकोट जाते थे. जून से नई कक्षा शुरू हो जाती थी. हाई स्कूल के परीक्षार्थियों का पाठ्यक्रम तो दशहरे -दिवाली तक पूरा कर देते थे. जाड़े की छुट्टी के बाद फरवरी में जब स्कूल खुलता तो दोहराव शुरू कर दिया जाता.पढ़ाई के अलावा खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम व प्रदर्शिनी लगातार आयोजित होते. जिला विद्यालय निरीक्षक का दौरा चलते रहता जिससे विद्यालय की प्रशासनिक कुशलता बढ़ती.भारत चीन युद्ध के बाद इन सीमांत के गाँवो में एसएसबी ने अपने प्रशिक्षण दिए. यहीं ज्योति गाड़ में हथियार चलाने का प्रशिक्षण मिला. गुरिल्ला लड़ाई के भेद-सूत्र भी बताये गए”.
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बांज और बुरांश के जंगल से गुजर कर खूब हरियाली के बीच बना राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय.स्कूल में तो छुट्टी थी पर दो कर्मचारी वहां पौध लगाते मिले. एक बाउंडरी के भीतर झाड़ू से तिनके पत्ते समेट रहा था. झाड़ू भी स्थानीय बारीक टहनियों को लम्बे डंडे में बांध बनी थी. आगे भी खुरपी लिए दो लोग फालतू घास उखाड़ने में लगे थे.
इसकी छत पर पाथर की थी. इसमें दो भवन थे. एक जो समतल जगह में था वह पहले बना जिसे स्थानीय लोगों ने खुद बनाया. इसमें बड़े दो कक्ष थे जिनका फर्श लकड़ी के तख़्तों का था और बाहर बरामदा था. बरामदे के बाहर दो कमरे थे जिनमें एक प्रधानाध्यापक कक्ष व कार्यालय था तो दूसरा स्टॉफ रूम जिसमे लाइब्रेरी के साथ स्टोर भी था. उसमें कई अलमारियां व्यवस्थित रूप से लगीं थीं.इस इमारत के दाएं प्रधानाध्यापक आवास था. उसके नीचे कई किस्म के पेड़ लगे थे जिनसे गुजर फिर पत्थर की सीढ़ियां उतर खेल का मैदान था. इस मैदान से ऊपर फिर पत्थर की सीढ़ियां चढ़ विद्यालय का नया भवन था इसमें टिन की छत थी. यहां चार बड़े कमरे थे जिनके फर्श पर लकड़ी के तखते बिछे थे.
अपने विद्यालय के बारे में सुमन ने बताया कि उसे साइंन्स पढ़ना बड़ा अच्छा लगता है. अंकगणित और बीजगणित तो वह बहुत जल्दी समझ जाती है. आर्ट के सब विषय हैं और कृषि भी जिसमें स्कूल को मिले खेत तो हैं ही बैल भी और गौशाला भी बनी है.खेती के साथ मौनपालन, उद्यान, क्राफ्ट और कताई बुनाई भी है. खेल कूद भी होती है. स्कूल के खेलों के अलावा वह अपनी सहेलियों के साथ ‘उड़कू -मूड़कू’, ‘टॉन्गका’ जिसे गुट्टी भी कहते हैं खेलती है. ऐसे ही ‘अड्डू’ या ‘इक्का -दुक्का’, बाघ -बकरी या ‘वा -माला’ और ‘वा ज्याली’ भी खेलते हैं. छोटी क्लास के लड़के ‘यौकना -दोकना’ या गुल्ली डंडा खेलते हैं. तो बड़ी कक्षा वाले खुटबाल यानी फुटबाल और किरकिट भी खेलते हैं.
बोनाल जी ने बताया कि इस खेल के मैदान के किनारे जो खेत दिख रहे हैं वो रिमझिम वालों के खेत हैं जिसके पास एक नौला है जिसे सौंतोती कहते थे. पुराने सयाने बताते हैं कि यहां होतियालों ने अपनी बसासात बसाई तब ये पूरा इलाका होंतोती कहलाया. विद्यालय के सामने जो नर्सरी दिख रही है वह उद्यान विभाग का कारबार है जो भटका फार्म के नाम से प्रसिद्ध रहा. इसे सोसा की नरसरी के नाम से भी जाना जाता है.विद्यालय के पीछे रिमझिम की उपत्यका दिख रही जिसके एक तरफ बल्मी शिला है सुनढूंगो तक तो दूसरी ओर बेंकू गांव, तंता गांव रौँतो व हिमखोला के घने जंगलों की पर्वत श्रेणी है.हिमखोला से बर्फ पिघल नीचे ज्योति गाड़ बहती है.
“हिमखोला से ले कर सोसा की विस्तृत श्रृंखला आसमान छूती दिखती हैं, बहुत ऊँची हैं ये और यहां बड़ी बहुमूल्य व दुर्लभ जड़ी बूटियां पाईं जाती हैं. वन्य पशु भी काफी तादाद में हैं. अपने इस विद्यालय से दायीं ओर यह जो रास्ता देख रहे हैं वह जाता है ठानी धार को जहाँ सीप ब्रीडिंग फार्म रहा. अब पांडे जी सुबह और शाम सूरज इन यहां से वहां तक की पहाड़ियों पर अपनी किरणों का जो जादू करता है उसे तो आप जरूर खींचियेगा. ऊपर की पहाड़ियों का दृश्य और नीचे काली नदी का बहाव तो आप कभी न भूल पाएंगे”.
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अब आज ही नारायण आश्रम चलना है तो निकल पड़ते हैं. घर में बैठ जब आपने बताया कि आश्रम चलना है तो सुमन ने कह दिया बस कि उसे भी जाना है. बड़ी शांत रहती है फालतू की बात भी नहीं करती. खूब कहना मानती है.अभी से घर के काम काज में हमारी आमा हो गयी पर है जिद्दी जो सोच लिया वो तो कर के रहेगी. पकोड़ी बनाते बनाते अपनी घरवाली और इसने तय कर लिया कि हम भी चलेंगे. अब कल वैसे भी इत्तुवार हुआ. मेरी भी छुट्टी हुई.
अरे ये तो मजा आ गया.मैं तो रात सोऊंगी भी अपनी गुड़िया सुम्मू के साथ. मुझे यहां की कहानियाँ सुनाएगी ना. मैं सुनाऊँगी अपने पिंड की कथा यानी फोक टेल, लॅच्छो की बहादुरी, बहादुर जट्टी, लोहड़ी की कहानी -दुल्ला भट्टी.
“बस सिर्फ रात काटने का सामान ले चलना है. वापसी तो यही से होनी है”. बोनाल जी ने कहा.
पांच मिनट भी न लगे अपना झोला उठा चल पड़ने में.देखा कि उनका काला भूरा जब्बर शेर भी खूब उछलता कूदता सबसे आगे बढ़ रहा है. सुमन बता रही थी झाँकरू को ये सब रस्ते पता हैं. अभी देखना दूर तक आगे बढ़ फिर पास आ हमारे कपड़े खींचेगा. कहता है जल्दी चलो.
अब देखिये वह इलाका जहां अपने जाना है वह उस दूर तक फैली पहाड़ी की ओर वहां पूरब की ओर नमज्यू है. इन अलग-अलग पहाड़ियों पर जो यहां से एक ही लगती हैं उन में कई गांव बसे है.इनके बीच में दूरियां भी बहुत हैं. मीलों तक कोई आबादी भी नहीं बस है प्रकृति की वह सुंदरता जिससे नारायण स्वामी आकर्षित हुए. इसी पूरब दिशा में नेपाल की पहाड़ियां हैं और इधर वल्ली तरफ हुआ नारायण आश्रम. इन पहाड़ियों का ढाल आखिर में मिलता है काली नदी के किनारे जिसके ठीक ऊपर की चोटियां हिमसे ढकी दिख रहीं हैं.दक्षिण की दिशा में चूल्हे सी बनी दिख रही जो पहाड़ियां हैं आप लोग देख सकते है कि वह अंग्रेजी के वी आकार सी दिख रही हैं वह हुआ धारचूला. इसके बीच में काली नदी है हमेशा मदमस्त. यहां पांगू स्कूल से दाईं तरफ ठानीधार के सामने से उस पार तक खेला के सारे गांव हैं,पुराने पथ हैं,घने जंगल हैं, पशु पक्षी हैं, बुग्याल हैं. इसी के पीछे है छिपला केदार, साक्षात हैं जहाँ भगवान शिव. अपने भक्तों को बुलावा भेजते हैं वह छिपलाकोट आने का.
अब यहां से चढ़ हम पस्ती, जैकोट और पांगला गाँवो के ऊपरी इलाके से गुजरते बढ़ चले हैं.इनमें नीचे बहती दिख रही काली नदी से सटा व ऊपर का इलाका पांगला गांव का है. बस साढ़े चार किलोमीटर के मोड़ और कुछ चढ़ाई है.रोहिणी ने चलते अपने हाथ का डंडा पकड़ा तो सुमन ने उसके हाथ से ले वही कोने मैं रख दिया बोली, “छि दिदी, कोई बुड्ढी हुई हो तुम. ये तो भौत चढ़ाई में टिकाते है कमजोर लोग. यहां कुछ सयाने छोड़ कोई नहीं चलता दिखता इसके सहारे. जहां चाहोगी मेरा हाथ पकड़ लेना”.
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“अच्छा मेरी बेबे. मेरी माई जो तेरा हुकम”. रोहिणी ने उसका नन्हा हाथ थामा और चल दी.
इलाके की हर छोटी बड़ी बात बोनाल जी चलते चलते बता रहे थे. “इस अक्टूबर के महिने चौदास में खूब उमंग खूब तरंग से धूमधाम कर सबसे बड़ा त्यार साल में एक बार मनाया जाता है जिसे कहते हैं ‘स्यँठ’. यहां ‘स्यँग’ का मतलब हुआ बड़ा और ‘ठंग’हुआ महापूजन जिसे ‘ठूमो -ठामो’ भी कहते हैं. खूब पकवान बनते हैं और खास बात यह कि सबसे पहले काग यानी कौवे के लिए रखे जाते हैं. एक कौवा आ जाय तो कांव -कांव कर वह औरों को भी बुला लेता. इस त्यौहार में चावल के आटे की बनी मीठी रोटी या पल्ती कुटो , घी की पूड़ी, सरसों के तेल में बनी मास यानी उर्द की पकोड़ी, आलू के गुटके बनते हैं. दूध -दही तो इफरात से हुआ ही. मेहमानों को ‘लिंच’ यांनी चांदी के गिलास में ‘ज्या’ यानी चाय मिलती है. नमकीन चाय ‘दोंग्ग्बू’ में बनती है जो लकड़ी का बना होता है. चाय लकड़ी से बनी ‘तिबरी’में रखी जाती है. वैसे तो हर मास कोई न कोई त्यार हुआ पर स्यँठ पूजा और कंडाली उत्सव चौदास की धूम हुए.
स्यँठ पूजा जहाँ साल में एक बार हुई वहीं कंडाली बारह साल बाद मनती है कंडाली सन छियत्तर में हुई थी. अभी तो इसके होने में कई साल हैं. इसकी तैयारी हर गांव में बड़े जोर-शोर से होती रही है. पिछली बार तो पांगू, रिमझिम, रौँतो और बैकू गाँवो में आपस में मिल कंडाली मनी थी.ये अपने पांगू से ले के वो ठानीधार तक सजधज पूरे गांव के लोग चले. सब चौदास की अपनी परंपरागत वेश भूषा में चले. औरतों ने गहने पहने. किसी के हाथ में तलवार किसी के हाथ में ‘रिल’. रिल हुआ , चुटका शौल बुनने में काम आने वाला लकड़ी का डंडा. किंवदंती है कि पहले कभी एक विधवा का एकलौता पुत्र कंडाली की विष युक्त जड़ के चुभने से काल कलवित हो गया. दुख की इस करुण होनी में तलवार और रिल जो हाथ पड़ा से इसे काटने इसका मर्दन करने की रीत बनी. फिर उत्साह से भर नाचते -गाते चलने की परम्परा बनी. सयाने बताते हैं कि चौदास पट्टी की खेतिहर प्रणाली में हर बारह साल में तैयार होने वाले कंडाली के बीजों व खर पतवार को समूल नष्ट करने के लिए यह तरीका विकसित हुआ.जहाँ कहीं भी ये दिखे तो इसका उजाड़ कर तब फसल के बीज बोये जाने की रीत बनी. इस तरह यह फसल का उत्सव बना. फसल में लगने वाले कीड़े भी नष्ट हो जाते.
इसी तरह आगे व्यास घाटी में भी हर बारह साल के बाद “किर्जी-भामो” उत्सव मनाया जाता है.आगे सिरदांग में खेती पाती से जुड़ा पर्व,’ढुढूंग’ मनाते हैं.जब से नारायण स्वामी महाराज के चरण इस धरती पर पड़े सेवा और सहयोग के आदान -प्रदान की नई परिपाटी साकार हो गई. ये सब जो भूमि अब हम देख रहे महाराज के हाथों का स्पर्श पा लता कुंजो के पुष्पों की सुवास देतीं हैं. हमारे धर्म में सबसे उच्च प्रतिमान दिया गया सहकारिता को मिल जुल कर कार्य करने को, “लन-सब “को. महाराज ने सब साकार कर दिया. कितनी हजार नाली जमीन पर तो सेव के पेड़ लगे. फल फूलों से भर गया पूरा परिसर. गौशाला बनी कितने सेवक भक्ति भाव से मजदूरी पा अपने परिवार की आर्थिक उन्नति का प्रसाद पाए.
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नारायण आश्रम की ओर चढ़ने का तो पता ही न चला. जब बोनाल जी ने बताया की वो नीचे रह गया है खेला और पांगू. सूरज भी बस ढलने ही वाला है और पूरब की ओर फैली पहाड़ियां धीरे धीरे धुंधलाने लगीं हैं. घनी वनस्पतियों से घिरी यह सुरम्य स्थली जिस पठार पर है उसी में दिखाई देने लगा अपूर्व सुंदरता से परिपूर्ण नारायण आश्रम. भव्य और कलात्मक. कितनी भाव भरी सोच से उस असीम सत्ता की शक्ति को साकार कर दिया गया इस सुदूर सीमांत प्रदेश में नारायण स्वामी ने. साकार-निराकार भाव भरी उस शक्ति को प्रतिष्ठित कर दिया जिसे सिद्धपीठ की संज्ञा मिली. अब हम मुख्य मंदिर के ठीक सामने थे उसकी अद्भुत वास्तु कला से सम्मोहित. हमें मंदिर की सीमा में देख वहाँ के कार्यकर्त्ता तुरंत ही पास आए व हमें कक्षोँ में व्यवस्थित कर दिया. सब प्रबंधित. हाथ पांव गरम पानी से धो अपने अपने कमरों में आए ही थे कि चाय का बुलावा आ गया. तुलसी पड़ी चाय और साथ में गट्टा मिश्री.
बोनाल जी भाव विह्वल थे, बोले,”प्रातः मन्त्रों के स्वर से यह धरा प्राणों में परमात्मा की शक्ति का सम्बल भर देती है. शाम के भजन कीर्तन की लयकारी, बोल, भाव -संगीत से लगता है कि ईश्वर साक्षात प्रकट हो वत्सल भाव से आशीष दे रहा. रोग कटे, आपदा हरी, मन में भर दिया संतोष,नारायण ने.
नारायण आश्रम में सेवारत बुजुर्ग पांडे जी से स्वामी जी के बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता प्रकट की तो मेरा हाथ पकड़ वह एक तखत पर ले गए और वत्सल भाव से बोले,”पहले आराम से बैठ जाइये. मेरे भी पांव में दर्द रहता है पीठ की चसक भी शाम के बाद बढ़ जाती है.वो क्या कहूं बैटरी डाउन हो जाती है. इसलिए बैठता –उठता रहता हूँ.बस गुरुदेव की कृपा है की पछत्तर पार कर भी चलता फिरता हूँ. नारायण की कृपा से जीवन का मोल मिल गया. सब उसी विराट की देन है.
स्वामी जी के व्यक्तित्व के तो कितने आयाम हुए. खूब लम्बे चौड़े, आकर्षक डील डौल के, हृष्ट-पुष्ट बदन वाले हुए. गोरा तेजोमय मुख मंडल, उन्नत ललाट. सिर में पीछे की ओर लटके बाल, दाढ़ी मूछ के बीच मुस्कुराहट से भरा मुख. रेशमी गेरूए रंग की चादर लपेटे और दक्षिण वासियों की भांति धोती धारण किये तेजोमय दिव्य थे स्वामी जी. ज्ञान रस बरसाते त्याग तप के तेज से विभूषित.
(Narayan Ashram Article Mrigesh Pande)
अहमदाबाद गुजरात में इंजीनियर व इससे जुड़े प्रबंधकीय पदों पर कार्यरत रहे श्री नारायण स्वामी जिनका जन्म कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित परिवार में 2 जनवरी 1914 को हुआ. उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की पर मन रमा नहीं वैरागी बन गए. आ पहुंचे हिमालय व गंगोत्री धाम में तपस्या लीन हो गए. कैलास मानसरोवर की कई यात्राएं कीं और फिर पिथौरागढ़ जिले में पांगू ग्राम के पास सोसा नामक इस स्थान में नारायण आश्रम की स्थापना कर डाली. इस दुर्गम प्रदेश में आश्रम के आरामदायक आवास बनाए, गौशाला बनाई व उद्यान विकसित किये. स्थानीय लोगों को आत्मनिर्भरता का प्रारूप दिया. प्रकृति ने जो संसाधन बिखेरे उनका सम्यक प्रयोग कैसे करें की सीख दी. मानव संसाधन विकास में शिक्षा को सर्वोपरि माना जिसे ध्यान में रखते हुए अनेक विद्यालयों की स्थापना की. अस्कोट के स्थानीय निवासियों के अनुरोध पर जूनियर हाई स्कूल खोला जो उच्चीकृत हो हाईस्कूल व फिर 1951 में नारायण इंटर कॉलेज के रूप में विकसित हुआ. नारायण नगर अस्कोट में बापू महाविद्यालय बना. स्वामी जी के आवास के लिए वहां कुटीर था. स्वामी जी वहाँ रहते और जब नारायण आश्रम की ओर प्रस्थान करते तो उनके छात्र उनके पीछे ‘नारायण ॐ’ की जयकार करते भजन गाते उन्हें विदा करते.
गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मद्रास, संयुक्त प्रान्त, दिल्ली से उनके भक्तो की संख्या बढ़ती जाती. भक्त जन उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं के लिए उदारमन से वित्तीय सहायता प्रदान करते. नारायण स्वामी के दर्शन हेतु नारायण आश्रम आने पर भक्तों के निवास हेतु भव्य कुटीर की व्यवस्था थी जिसमे शयन कक्ष,ओढ़ने बिछाने को थुलमा, चुटका, रजाई, कम्बल पर्याप्त रहते. बढ़िया कालीन बिछे रहते. नहाने धोने के लिए वहां की ठंड को ध्यान में रख गरम पानी स्नानघर में रहता. सुबह शाम चाय नाश्ते की समुचित व्यवस्था रहती व भोजनालय में चौकी में बैठा कर सुस्वादु भोजन नियत समय पर परोसा जाता. सुबह शाम आरती होती व भजन गाये जाते, प्रसाद वितरित होता. खेल कूद की व्यवस्था के लिए कोर्ट बनाए गए तो अध्ययन मनन हेतु अलग कक्ष.
साधना कक्ष में बैठे. सुसज्जित मूर्तियों व महापुरुषों, सिद्ध योगियों के छायाचित्रों की छाँव में, ढोलक- मजीरे हारमोनियम के साथ भक्तों के मुखार बिंद से निकले भजनों की सुमधुर ध्वनि के मध्य मन रम गया. लगा कुछ ऐसी तरंग है जिसे महसूस किया जा रहा है. इतने ऊँचे प्रदेश के इस उच्च स्थान में बैठ मन धीरे धीरे खुलता जा रहा है. तेज हवा का एक झोंका महसूस होता है और सब कुछ भुला देता है, बदन के आरपार हो जमीन के ऊपर से गुजर जाता है और सब कुछ खाली कर जा रहा है पूरी तरह अपने को खोल दे रहा है.
नारायण आश्रम में बीती वह रात्रि. प्रार्थना व कीर्तन के बाद प्रसाद मिला. बड़ी थालियों में परोसा बहुत सुस्वाद भोजन. पीने को गुनगुना पानी. फिर सोते समय गुनगुना दूध. मुलायम बिस्तर.
(Narayan Ashram Article Mrigesh Pande)
अब अपूर्व शांति. सब तरफ चुप्पी. मौन रच रहा सौंदर्य. ऐसा लग रहा कि मौन ही वह खालीपन है जिससे सब चीजें निकलतीं हैं और उसी में समा जातीं हैं.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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