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छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : तुम पुकार लो तुम्हारा इंतज़ार है

पिछली कड़ी – छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : नैन बिछाए बाहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा

हाथ में थामे कैमरा उस विहंगम दृश्यावली को मैंने खींच लिया जिसमें पंचचूली की पांच चोटियां दमक रहीं थीं. नीले आसमान से चिपकी हुई दुग्ध धवल सम्मोहित करती. कहीं कोई बादल नहीं आसमान बिल्कुल साफ और गाढ़ा नीला. सूर्य की रोशनी उन चोटियों से फिसल-फिसल गुलाबी सिंदूरी रंग दे रहीं थीं जो धीरे-धीरे हल्का होता जा रहा था. देखते-देखते उन पांच चोटियों के पीछे से धीरे-धीरे कुहासे की पर्त उभरने लगी. अचानक ही गोलाई लिए बादल प्रकट हो गये.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

सोबन मेरे बगल में खड़ा मेरा एक कैमरा थामे खड़ा था. रंगीन ट्रांस पेरेंसी लेने में मैं कंजूसी कर रहा था. इसके कुल दो ही रोल थे, सो वह कैमरा सोबन को थमा मैंने ब्लैक एंड व्हाईट रोल वाला निकोन पकड़ा और पंचचूली के शीर्ष से उभरते बादलों को खींचना शुरू कर दिया.

“इन चोटियों को देख कर ऐसा लगता है जैसे चूल्हे से धुंवा निकल रहा हो. मेरी आमा बताती थी कि ये पांच पांडवों के चूल्हे हैं, जिस दिन इन चूल्हों से धुँवा निकलना बंद हो जाएगा उस दिन तो बस दुनिया ही खतम हो जाएगी.” सोबन बोला.

पंचचूली की छाया में बैठे काला मुनि के अनगढ़ सौंदर्य को निहारते हर किसी के चेहरे पर अद्भुत सी विश्रान्ति थी. सबसे पीछे धीरे-धीरे चढ़ाई पार कर अब पदमासान में बैठ गया अगरवाला तो बस अपनी गर्दन घुमाये आश्चर्य और कौतूहल से भरा था.

एक चुप सी लगी है
नहीं उदास नहीं
कहीं पे सांस रुकी है
नहीं उदास नहीं…

दीप अपने प्रिय हेमंत कुमार का गीत गुनगुनाने लगा.

बड़ी हैरत हुई कि हमारे ठाकुर कुण्डल सिंह भी गाना सुनते- सुनते आंखे मूंद पेड़ की टेक लगा लधर गये. दूर कहीं से बजती धीरे-धीरे ऊपर की ओर आती घंटियों की ध्वनि बढ़ने लगी. गिरगांव रातापानी के इस इलाके में खास कर उत्तर-पश्चिम की ओर खूब घास थी. खूब सारे घोड़े-खच्चर भरपूर घास खा ऊपर की ओर चढ़े आ रहे थे. दूर देवदार और सुरई और उनके बीच बुरांश के पेड़. घोड़े, भेड़ बकरी के उस ऊपर की ओर आते झुण्ड ने एकबारगी ही फिर हलचल पैदा कर दी थी.

” कालामुनि से चलते जब सारे कुनबे-परिवार के साथ आवत-जावत होती है तो घर की औरतें न्याजा-बाती करतीं हैं”. सोबन बोला.

न्याजा-बाती? इसका मतलब क्या हुआ

” रंगीन कपड़े के कत्तर या पतले टुकड़े हुए जिन्हें न्याजा बाती कहते हैं. अब आप देखेंगे कि इन रास्तों पर चलते जब पहाड़ की चोटी पर पहुंचेंगे व जहां से खूब चढ़ाई वाला कठिन रास्ता शुरू होगा वहाँ पाथर से बने छोटे देवालय दिखेंगे. ऐसे ही कई जगहों पर में पेड़ों के तने, लकड़ियाँ, डाव-बोट,फाङ खड़ी मिलेंगी. ऐसी हर जगह में रंगीन कत्तर इन पर बांध दिए जाते हैं और धूपदीप दी जाती है. सारे भैम मिट जाने वाले हुए, आराम से सारी यात्रा हो जाने वाली हुई”.

सोबन की बात खतम होते भगवती बाबू ने धूप जला दी. हर काज में उनकी टाइमिंग परफेक्ट थी. सोबन भी हाथ-पाँव में पानी लगा उनके साथ लग लिया. भगवती बाबू देवी कवच के मन्त्र भी पढ़ते जा रहे थे.

“बड़े भरोसे के आदमी हुवे यहां भगवती बाबू. यहां गांव में आए मनी आर्डर घर-घर जा बाँटना, लोगों की चिट्ठी पत्री लिख देना पढ़ देना और पास बुक खुलवा छोटी बचत कराने की अच्छी सार डाल दी है उनने. कोई पर्व त्यौहार पड़े तो पूजा पाठ भी करा देते हैं.” धूपबाती करते भगवती बाबू को देखते, पंचचूली की ओर हाथ जोड़े पांडे जी बोले.

काला मुनि से आगे चलते अब पहाड़ी ढलान थी जिसका पथ एक सिरे से शुरू हो दूसरे सिरे तक सीधा सपाट था न कहीं चढ़ाई और न कहीं उतार. इसे “बेटुली कम्मर ” कहा जाता था. इससे आगे पड़ी “बेटूली धार”. कालामुनि और बेटूलीधार के बीच का जो सारा पथ है वह भांति-भांति की वनस्पतियों से भरा बहुत समृद्ध व सघन वन क्षेत्र है जो पार गोरी नदी के पास हरकोट गांव तक विस्तृत है. यह पूर्व दिशा की ओर खुलती ऐसी घाटी है जिसमें जंगल ही जंगल फैले हैं. यहां पांगड़, अखरोट, खस्सू, तिमसू, देवदार और थूनेर की बहुतायत है. थूनेर को ‘ल्वेँट’ कहा जाता है जो कैंसर जैसी व्याधि के प्राथमिक उपचार में मददगार बताई जाती है.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

इस पूरे रस्ते में जंगल से गुजरते नाना प्रकार के पशु पक्षियों की आवाज रह रह कर सुनाई देरहीं थीं. पांडे जी ऐसी आवाज के सुनाई देने पर बता रहे थे कि वह किसकी आवाज है. कुछ दूरी से ही सरक गये झाड़ी के बीच गुम हो गये जानवर की भी उन्हें खूब पहचान है. उन्होंने बताया की भालू और सुवर भी यहां खूब हैं. कितने हरामी पोचर भालू को मार उसकी पित्ती खूब महंगे भाव बेचते हैं. बाघ भी हैं जिनकी हड्डी दाँत खाल नाखुन सब शिकारियों की सांठ-गांठ और दुर्लभ सम्पदा की मंडी बनाए रखते हैं.

बेटुली कम्मर के सीधे सपाट रस्ते को आराम से पार कर बेकुली धार पहुंचे. मौसम इतना सुहाना था कि न तो कहीं घाम लगे और न ही ठंड का एहसास. आस-पास का सारा नजारा जहां तक नजर पहुँचती घनी वनस्पति व ऊपर आसमान को छूते वृक्ष दिखते. पेड़ों से छन कर आई हवा के झोंके जिनकी सुवास से सांस ताजगी से भर उठती. बेकुली धार पहुँचने का रोमांच यह कि बस ठीक सामने विस्तृत अपने पूरे सौंदर्य को छलकाती पंचचूली की चोटियां सम्मोहित कर दे रहीं थी. इतनी सफेद दुग्धधवल कि आंखे चुँधियाने लगीं. अपना फोटोक्रोम चश्मा उतार कर नंगी आंखों से पंचचूली श्रृंखला को निहारने लगा तो कुछ ही देर में आंखे भर आईं. कैमरे के लेंस पर पोलेराइजिंग फ़िल्टर लगा उसे घुमा पंचचूली को हर एंगिल से खींचा. आसमान और सफेद चोटियों के बीच का कांट्रेस्ट अब बहुत ही स्पष्ट था. यह पोलेराइजिंग फ़िल्टर और इसके साथ पीला फ़िल्टर मुझे कमल जोशी ने दिया था. आज इसका खूब प्रयोग होने का अवसर आया था.

बेकुली धार के दूसरी तरफ पातल थोर का ढाल दिखाई देता है जिसके नीचे डांडाधार की पहाड़ी है. इनके तल में गोरी नदी की विस्तृत घाटी फैली है जिसके पार गोरीफाट के गांव की बसासत. सुन्दर गांव के उत्तर में हसलिंग की चोटी है. बेकुली धार से मल्ला जोहार की सीमा शुरू हो जाती है. इस धार पर चलते मुंशियारी की ओर जाने का पथ प्रकृति ने अपनी सारी विविधताओं से भर दिया लगता है. उकाव हुलार में धीरे सज से जाना पड़ता है.पथ में खूब घनी घास उगी दिखती है तो आमने-सामने घने पेड़. पता ही न चला कि हम पातल थोर पहुँच गये हैं जहां रात्रि विश्राम किया जाना तय हुआ था.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

पातल थोर पहुँच कुण्डल दा और सोबन तुरंत ही एक सपाट जगह पर टेंट जमाने की खुर बुरि में लग गये. भगवती बाबू ने वहीं पहले से जमा चूल्हा देखा तो फौरन आग सुलगा चाय की कितली चढ़ा दी. नीचे गांव से एक बोतल दूध उन्हें मिल गया था. उन्होंने लचकू से और लकड़ी बटोरने को कहा.

चाय पी कर मैं और दीप लचकू के साथ ऊपर जंगल की ओर चढ़े. अगरवाला निढाल सा टेंट स्थल के पास अपने झोले का सिरहाना बना लधर गया. उससे चलने को कहा तो उसने साफ मना कर दिया. आज उसके घुटनों तक नीचे जंगल पार करते जोंके चढ़ गईं थीं. खूब खून चूस जब वह टपकीं और खुजली मची तो उसे पता चला. हम सबने तो पहले से ही कुण्डल दा के बनाए लूँण तेल की मालिश कर डाली थी. उससे कहा तो ऐंठ से बोला हमारा खून ऐसा मीठा नहीं कि कोई चूसे. देखी रहेगी. अब जंगल चलने में फिर जोंक लगेगी से डर रहा है. हमें मालूम था कि हमारे इधर-उधर होते ही वह अपने स्टॉक से गिलास भरेगा. फिर दर्द से निजात पाने को फूटेंगे नग्मे. आज तो उसने पांडे जी से क्लासीकी गाने का वादा किया है.

हाथ में मूंज की रस्सी पकड़े लचकू के साथ हम दोनों चल दिए. उसने चलते ही बता दिया कि यहां घास में उगने व लगने वाला कांटा “कुमर” बहुत है. इसको कुमोरिया भी कहते हैं. ऊपर की तरफ केङ और केङपात हुए यानी कांटेदार झाड़ी और झाड़ झंखाड़. इनसे बच कर चलना होगा.

“आग तापण हैं केङ पात एकबोटयूँण भैss,गों पन”

गांव में आग तापने के लिए इन्हें इकट्ठा किया जाता है. इसे ‘केड़ आग हालण’ कहते हैं. हम तो ‘क्याड़-म्याड़’ ही बटोरेंगे. हां हो ss, ये घास पत्ती पर पैर जमा कर चलना, नंतर रड़ी जाओगे”.

कैमरा मैंने गले में लटका लिया. शाम अभी बाकी थी और फोटो खींचने का बढ़िया अवसर. लचकू चलते-चलते बताता जा रहा था कि ऊपर की ओर तो ज्यादातर रिंगाल या स्वाना के जंगल हैं इनसे लकड़ियों में आग जल्दी पकड़ती है. उधर दरकोट के इलाके में लकड़ी नहीं मिलती इसलिए जलाने-खाना पकाने के लिए ईंधन पातलथोर से ही बोकनी पड़ती जहां बांज, फल्याँट, द्यार, बुरांश, अखोड़, पांगड़, खस्सू, तिमसू के बड़े-बड़े गिंडे बहुतायत से मिल जाते. जिस तरह चीड़ के छिलुके एक बार आग पकड़ लें जिनमें लीसा होने से वह जलते रहते हैं, वैसे ही यहां स्वाना या सूखे रिंगाल से आग सुलगाई जाती है.

नाचनी से आगे की पदयात्रा का यह आखिरी पड़ाव था. मोटर सड़क में काफी मलवा आने से कई जगह रास्ता बंद था हालांकि गेंग काम पर लगी थी. पांडे जी ने बताया ये सारी गेंग कहाँ उड़ीसा-हुडीसा से आती है. डामर भी यही करते हैं. वहीं सड़क किनारे टेंट डाल इनकी सामूहिक रसोई भी बनती है और संध्या काल होते ही आग जला अपने यहां के लोक गीत भी गाते हैं.

अब हम मुंशियारी की ओर रवाना होंगे और वहाँ रुकेंगे भी ज्यादा. वहाँ भराई जाने वाली प्रश्नावलिंया भी ज्यादा थीं और आसपास काफी गांव जहां खेती बाड़ी, मसाले, फल फूल व भेषजों पर जानकारी जुटानी थीं. इनमें ऐसी खास चीजें शामिल थीं जिनका उत्पादन इसी इलाके में होता है और मैदान-शहर में इनकी मांग लगातार बनी रहती है. साथ चलने वालों में भगवती बाबू और पांडेजी पुलिस तो इस इलाके का चप्पा चप्पा छाने थे और अब मिल गया था लचकू जिसकी एक टांग भले ही दुर्घटना ग्रस्त हो कमजोर पड़ गई थी पर साथ देने में वह कहीं पीछे न था.

लचकू बताता है कि उसके तो बों पैर पे छनीचर पड़ा है. खूब भ्यार-भितेर भागम-भाग करता रहा, लमालम चला इन बुग्यालों में. इन धारों में “ग्विर” मल्लब फिसलम- फिसल खेलते,फिर बकरों को हकाते, लरबराट में चौदा-पनरा साल पैले,भूड़ में छटक गया तो पों की कटोरी टूटी. जोड़ ठीक होने में साल दो साल लग गए. फिर दस साल तो हो ही गये होंगे, जबकी बेर मदकोट से रीगू,भेड़ों के रेवड़ के साथ ढलान पर चढ़ते अचानचक ही उसके सामने भालू था. रेवड़ के साथ चल रहे दोनों भोटिये कुत्तों ने सूंघ लिया कि कोई जानवर है. भोंकते गुर्राते वह भालू पे ख्यात भी पड़े. तब तक तो भालू ने उसकी बाईं टांग दाब ली और घिंघोड़ कर घसीट दिया. एक चिलाट तो मारी उसने. आंग में चुड़भुड़ाट हो गई, चय्यास चितूणने लगी फीर तो तो आंख ही बुजी गई. कोई फाम नी रई. होश आया तो पता चला कि लोत निकाल गया. टांग से मांस का एक लोथड़ा उधेड़ गया. जड़ी बूटी लिपण फीर साल भर चला, बांस की खपच्ची लगी. हड़जोड़ बूटी ने सब ओसाण हरा. डोलू घिस घिस चुपड़ी, जो ओसाण और कम कर गई. स्याँली से झाड़ता थे रोज बामन गुरु.पों जमीन पर टिक गया बस.चलते थोड़ी ल्याच्च छोड़ गया.

“गुरूजी ऐसा किया अपने छनीचर ने कि लछम सिंह को लचकू बना गया. बाबू ने क्या नहीं किया? थात्याल-भुम्याल द्याप्त पूजे मिलम जा के. हुनाकरा-रातांग यानी बकरियों का चढ़ावा हुआ. जब पूजा के बाद पानी डालने पर ये एकदम झरी गईं तो नितवाल पुजारी बोला कि देखना अब लछम एकदम ठीक होगा. सब देबता खुश हैं हरदेवल, ल्वारद्यो, थात्याल-भूम्याल. कोंलकफ्फु चढ़ा. हलुआ-पूड़ी-प्रसादी बंटी. दो तीन साल तक भेड़ बकरी के साथ चढ़ाई-उतराई पार करने लायक न हुआ. अब तो नाम भी लचकू पाड़ दिया था लोग-बागों ने. दर्जा नौ भी छूट गया. पर आगे पढूंगा जरूर.भला हो भगवती बाबू का,वो डाक बोकने वाला कोई लौंडा ढूंढ रहे कब से. चटपट हो, वक्त बेवक्त खाना-पीना, चायपानी भी बना ले.ऐसी लुरबूराट में तो आगे ही हुआ मीsss!”.

“अभी पहले डेली वेज तो बाद में मेडिकल करा अपंग कोटे में भी पक्का हो गया. छनीचर ही हुआ. ढइया पूरी कर सरकारी नौकरी दे ग्या”.

“पैले त खूब खेल कूद की थी मी ले. ‘हवली ख्यलन’, मल्लब झूला झूला, खो -खो खेला. ‘खोपती’ में तो भोत ही साफ हुआ मिरा हाथ. गड्डे में पांच-सात हाथ दूर से डालना होता सिक्का. वो ना हो तो भैसकू, रीठे की गोली, कंचा या गोल ढूँग. मिरा तो हाथ ऐसा सेट कि सट्ट से गड्डे में पहुंचा देता. जो गड्डे में घुसा वो माल अपना हुआ. और बड़े होने पे अंठी खेली. गुलेल भी चलाई, चिड़िया भी मार् देने वाले हुए. जमीन में खड़ा खोपती मल्लब गड्डा बना गुल्ली डांड भी खेलते.जोर से चीखते लीssss!”

“जहां बड़े बड़े पाथर होते उनमें फिसलना-रड़ना भी खेल होता. भेल के नीचे बकरे-बकरी की नई खाल रख लेते और ऊपर से नीचे खूब दूर तक फिसलम-फिसलाई मल्लब ‘रयूडन’ होता. फिसलते नीचे आते तो लमलेट हो ई जाते.इसका फैदा ये होता कि खाल ऐसे पत्थरों पर घिसती-रड़ती बिछाने के लिए मुलेम पड़ जाती. एक और औस्या खेल कनु गोल घेरे वाला होता जिस्को “घुन्नी मार्” कहते. ईश्मे होता ये कि गोले के भितेर दो साथी खड़े होते. दोनों अपने एक पांव को घुने माने घुटने से मोड़ देते और पों यानी पैर को हाथ से पकड़ लेते. अब होती टक्कर मल्लब दोनों साथी एक दूसरे को अपने काने या कंधे से तब तलक टक्कर मारते जब तक दोनों में किसी का हाथ उसके पों से हट न जाये. जिसका हाथ पों से छूटा वो हारा. जोड़े-जोड़े में खूब साथी भी गोल घेरे में इसे खेलते. फीर तो जो सामने आये उसका पांव हाथ से हटाना हुआ”.

“जब याँ भैंसखाल आना होता या रांथी जाते तो वाँ ‘बॉलीबाल’ खेलते.गुरूजी, असल ढ़नमनै-ढ़नमनै त खुटबौल में.अहाss ! खुटबौल खेली टूनामेंट में खोर तक जा.”

अपनी रोंध में लचकू बोला कि खेल के मैदान में जा खूब फुटबाल खेली है उसने. खेल का बड़ा मैदान यानी खोर.

“पूरा खोर डबकता गुरूजी मैंस ही मैंस. टूनामेंट के बखत सबै नान ठुल, छ्योराँ-छ्योरिन, मै:हन-स्यैनिन जतरोपे चेंछे मैसे-मैसे डबकताल. मी त फुल बैक. रेफ्रीक सीटी और बौल ढनमनीन बसि, कबे इल्थे-कबे उल्थे, कबे इनि तरोप-कबे उनि तरोप. भौकोर में सब खबर. ले हैगो गोल. रेफ्रीक सीटी. कित्ती जगह खेली खुटबौल. मी तो लंगड़ी खूब हुशियारी से देता. बौल को हेड करना, ड्रिबल करने, टैकल करने, पीठ पीछे से पाँव के तलवे से खुट बाल उछालने की सब ट्रिक आती. कित्ती बार ख्वार में गुम्म चोट, कभी हाथ पाँव सुन्न तो झटकाने पड़ते. दर्जा आठ में स्कूल जाता तो तिकसेन तक गया मुंसियारी में खुट बौल खेलने”.

“आठ पास किया तो टांग भालू कमिन नोच गया. फिर तो कहाँ? साल-दो साल लग गए ठीक होने में, अभि भी ल्याच्च-ल्याच बाकी ही हुई. जहां खेल हुआ अभि भी घुस जाता हूं. गोल मारने में जो मजा है गुरूजी वो और कहाँ? अब ये आज के लौंडे-मोंडे कहाँ खेलें इत्ते खेल? क्या जानें खुटबॉल खेल का ताप. ये तो स्साले ह्तथी घिसने लगे है. बल ही कां रहा बदन में. हमारे दिवेदी माट्साब केते रहे कि सौ-दो सौ खून कि बूंदो से बनता है एक बूंद माल.उसे झड़ा-झड़ा के लुस्तुर सूरत बना रहे ये आज के लौंडे. देखो तो जरा आंख के नीचे गड्ढे. और क्या खेल खेलेंगे ये नालायक मुठ मारने के अलावा.लिबड्ड हुए साले तो कई अतरिये. छुनुरि में लौलीन पड़े.कोई शरमा शर्मी नी हुई,न सऊर”.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

चढ़ाई चढ़ते अब मुंशियारी पहुँच गए की “रोंध” यानी उत्साह से कदम बढ़े जा रहे थे. लचकू भी बोलते-बोलते थक गया था. दीप, कुण्डल और सोबन पहले से काफी आगे बढ़ गए थे. अब वो रास्ते के बगल बने मकान के ओसारे में आराम से बैठे मिले. थोड़ा सुस्ताने मैं और लचकू भी लधर गए. सोबन बोला, “ये जगह तो ऋषि मुनियों की तप भूमि हुई सरजी. इधर गांधीनगर गांव हुआ जिसके ऊपर का पहाड़ होम धूरा कहलाता है. बताते हैं कि वहां ऋषियों ने जो हवन किया उसकी राख अभी भी है”. अपनी बात पर मेरा कोई उत्तर न पा उसने फौरन बात बदल दी. बोला, “यहीं हुआ वो बड़ा व्यापारी सुनपति शौका. वो राजुला मालू वाली प्रेम कथा की जमीन हुई ये.”

“राजुला चिहड़ी न्यारी देखणलैक निहारै छू हुई , जो देखता उसकी धकधकाट बरोबर बढ़ती बल “लचकू बोला. अचानक सुर लगा तो लो लम्बी तान ले, गाने भी लगा :

वी देखी छ वी सुनी छ दूध की ब्याला जसी.
वी देखी छ वी सुनी छ पुण्यो की जोन जसी.
मांगी दे मांगी दे बुबा सुनपति शौका की चेली..

“तेरा दिल क्यूँ चकाल हो रा? बुआरी लानी ही पड़ गई अब”. सोबन ने खिसाई लगाई.

अनसुनी कर लचकू बोला,”किकुनौ छा”?

थोड़े विश्राम यानी पटै बिसूण के बाद एक- एक कर सब उठ गए. चढ़ाई सपड़ मुंशियारी पहुँचते दोपहर हो गई. सोबन साथ साथ चल रहा था. कुण्डल टेंट व अन्य सामान लादे डोट्याल से गप्पें हाँकते कुछ पीछे था. भगवती बाबू और पांडेजी अपने अपने सरकारी काम निबटाने इधर-उधर हो गए थे. दिन में पांडेजू के मित्र बृजवाल जी के यहां भोजन तय था.सोबन ने बताया कि रात भी सापड़ी-भात की दावत है. अभी दिन के लिए सुखौट और रोटी की सामजुगत चल रही. तब तक आपके लिए कल्यो के साथ चाय लाता हूँ. बृजवाल जी बड़ी ल्याकत से मिले. बताया कि बेरीनाग वाली चाय पिलायेंगे अभी. सोबन ने उनके मुखतिर ही उनकी खूब तारीफ कर दी कि ” सारपतार में माहिर सौकार हुए. सास्तर भी खूब पढ़े हैं.कोई हंकार नहीं. सुत्याव में माहिर,स्वांग भी बढ़िया करते हैं. इधर कोआपरेटिव बनाने में लगे हैं. हकाहाक कर सब काज निबटा देते हैं. खूब हाम हुई इस इलाके में इनकी.“

अगरवाला पांडे जी के साथ खिसक लिया था. रात उसने क्लासीकी के जो आलाप निकले उससे मोहित हो पांडे जी ने उससे गला मिलन कर लिया था. यह अद्भुत दृश्य देख दीप बोला, “कहीं ये अगरवाला इनकी भी भुक्की न ले डाले”.

“फिर खायेगा फचेक. पांडेजू सज्जन हैं,पर हुए तो पुलिस वाले ही”. रात अगरवाला ने तान भी गजब छेड़ी.

उड़ जायेगा, उड़ जायेगा उड़ जायेगा
हंस अकेला जग दर्शन का मेला.
जैसे पात गिरे तरुवर पे, मिलन बहुत दुकेला,
ना जाने किधर गिरेगा गगन पवन का रेला
हंस अकेला

बृजवाल जी भी हुए संगीत के बड़े शौकीन. अगरवाला का आलाप थमा तो बृजवाल जी मचल गए और उन्होंने उसके गीत से उपजे वीत राग को पलट सुना डाला- ‘ढुस्का’. जिसके शुरू होते ही ढोलक संभाला पांडे जी ने और मजीरा सोबन ने. लचकू एक सिक्के से पीतल की थाली को टुनटुनाने में लगा था.सुर में सुर मिलाने लगे लचकू और सोबन दोनों. भगवती बाबू की खाप भी हिलती दिखाई दी.

छिला हिट साली मनरयाली, चल कौतीक
छिलाss हिट साली मनरयाली
चल कौतीssक
छिला खुटाक पोलिया नै छ,
क्याक कौतीक.
छिला ss वै दुकान वै मोल ल्यूल, चल कौतीक
छिला ss आङ क अडिँया नै छ, क्याक कौतीक
छिला ss वै दर्जी वै सीलूल, चल कौतीक
छिला ss नाक क नथुली नै छ, क्याक कौतीक
छिला s s वै सुनार वै गढ़ँल, चल कौतीक
छि ला हिट साली मनस्याली, चल कौतीक.

अब तो सोबन भी भर गया जोश में गया तो पूरा गला खोल धाल लगाई, “ओ sss हिरूsssss”

आवाज जैसे पंचचूली परबत छू लौटी तो सोबन और बृजवाल जी के गले खुल गए :

हिरू तितुरी क त्वेs छ!
हिरू मेर नजर तेरि पैतोली, तेरि नजर कै छ.
हिरू तेरि नजर परी वरी, मेरी नजर त्वेs छ.
हिरू तेर आयो भारी जोबन मेरी रीठी ऑंखें.
हिरू बंदूक की बन,
हिरू रुड़ धिनाली की जसी, तू टूटिये झन.
हिरू वी बड़ो भागीवान जै की ज्वान ज्वे छै!

अगली सुबह बूंदाबांदी थी. करीब नौ बजे जब वह थमी तब आगे बढ़े.चलते चढ़ते मिला पानी का धारा जो हमेशा बहता है इसे ‘भोलखोलटा’ कहते हैं. इसे पार करते ही लग जाता है नानासेम जो पांगती लोगों का गांव हुआ. पांगती परिवार पहले दरकोट में ज्यादा रहते थे. जब परिवार बढ़े तो नानासेम आ कर बसने लगे. नानासेम के ऊपर अब ये आ गया तिकसेन का इलाका जिसे अब बुँगा-मुंशियारी बोला जाने लगा है. बड़े बूढ़े बताते हैं कि ये जो सड़क दिख रही है उसके ऊपर पहले दलदल था जिसे ‘सेम’ कहा जाता था. सेम के पार वाले इलाके में रावत लोगों के आवास थे. तिकसेन के पूरब की ओर पहाड़ के जो ढाल दिख रहे हैं वहाँ तल्ला व मल्ला घोरपट्टा गांव हुए जिनमें पंचपाल, बृजवाल और गंधारिया राठ रहती रही.

बृजवाल जी ने बताया कि दकखिन-पूरब की ओर दूर तक डांडाधार फैला है. बुँगा से ऊपर पहाड़ की ढलान में जो गांव है वह शंखधूरा या सौंधूरा हुआ. मरतोलिया परिवारों का वास आगे बलौंटा ग्राम के ऊपर के पहाड़ की चोटी में स्थित सुरिंग गांव व दकखिन की ओर गर घनिया गांव है. इसके नीचे खुला विस्तृत मैदान है जिसमें रांथी गांव बसा है. रांथी में जंगपागी निवास करते हैं. पास ही गांव दराती जिसमें बुरफाल रहते आए हैं. यहीं कमिनकूरा गांव है जिसमें शिल्पकारों की बस्ती है. घाटी को पार करते हुए गोरी नदी के वार के गांव उछयेति, घूरा और ढीलम के साथ ही कुछ दूरी पर बोथी दिखाई देते हैं.ठीक सामने सुरिंग से हो कर मल्ला दुमर की पहाड़ी है जहां जलथ और दरकोट गांव स्थित हैं. दरकोट में पांगती, सयाना और धर्मसत्तू परिवार बसे हैं तो जलथ में रावत परिवार.

मुझे याद आया कि मिलम यात्रा में चलने से पहले देवराज पांगती ने जलथ में रावत परिवारों के बसने का सिलसिला बताया था. देवराज पोलिटिकल साइंस से अपने दिनेश दा यानी डॉ. डी. सी. पांडे के अधीन रिसर्च कर रहा था और कुछ क्लास भी पढ़ाता था. फिर उसकी तदर्थ प्रवक्ता में नियुक्ति हो गई. देवराज बहुत सरल विनम्र हुआ, मुंशियारी व धारचूला के इलाके में उसकी खूब पहचान भी हुई. यहां आते उसने इतने संपर्क और ठिकाने हमें बता दिये कि रहने टिकने खाने की कोई समस्या ही नहीं आई. ऊपर से साथ में पांडे जी पुलिस और भगवती बाबू.

देवराज ने बताया था कि मिलम के निचले भू-भाग में पांगती परिवारों का वास था तो मिलम के बीच वाले हिस्से में येरती और उत्तरी भाग में सांगती रहते रहे. मिलम इलाके में रहने वालों को मिलमवाल कहा जाता था जिनमें धर्मसत्तू, सयाना, रावत व पांगती शामिल हुए. फिर रावत राठ जलथ में बस गई. सांगती परिवार दरकोट के ऊपरी भाग में निवास करते थे. समय के साथ जब उनकी आबादी बढ़ी तो दरकोट में भी आवास हेतु जगह कम पड़ने लगी. तब दरकोट में रहने वाली एक महिला ने जो सांगती थी जलथ गई और वहां रहने वाले अपने भाइयों से उसने अपने रहने के लिए कुछ जमीन मांगी. उसके भाइयों ने उसे जमीन देने का वचन दिया और कहा कि जोहार जाने से पहले तुम एक पौँधा लगाती जाओ. फिर जब तुम मिलम से फरकोगी यानी वापस लौटोगी तो जहां तक वह पौधा फैलेगा वह सारी जमीन तुम्हारी होगी. सांगती महिला होशियार थी. उसने भाइयों की बात मान गदुऐ की बेल रोप दी व मिलम को चली गई. संक्रमण पूरा होते जब वह वापस लौटी तो गदुऐ की बेल पूरे गांव में फैली दिखीं. जलथ में इस तरह सांगती परिवार बसे. यही सांगती बाद में रावत कहलाये.

मुंशियारी से मिलम की ओर चलते, प्रश्नावली में इस इलाके में हो रही उपज व खेती पाती के तौर तरीकों को नोट करते हम चल निकले. पांडे जी और भगवती बाबू को अपने अपने सरकारी काम काज भी निबटाने थे इसलिए वह आगे पीछे होते रहे. शाम का खाना सब साथ ही खाते. अगरवाला को भी अब हमारी सोहबत से ज्यादा पांडे जी पुलिस का साथ पसंद आ रहा था. जहां आवभगत ज्यादा होती और उसका टैंकर भी फुल चलता. यहां से आगे हमने रुपसियाबगड़ पहुंचना था.

दरकोट से आगे मल्ला दुम्मर चलते ढलान व उतार है तब जा कर सुरिंगघाट आता है. यहां गोरी नदी बहुत सुसाट-भुभाट करते गरजती -बहती है. गोरी नदी के किनारे चलते नदी का इतना शोर है कि आपस की बात न सुनाई दे. लगातार चलते ऐसा लगने लगा कि गोरी के तीव्र बहाव और पत्थरों से टकरा कर हो रहे निनाद में कुछ अद्भुत सी लय है. कहीं विलंबित तो कभी द्रुत. दीप ने इस लयकारी का मुझे एहसास कराया.उसे संगीत की बड़ी बेहतर सूझ थी. इस रस्ते पर चलते आगे एक स्थल पर शमशान पड़ता है. वहीं एक बड़े पत्थर पर कुण्डल दा और दीप बैठ गये. पनामा सिगरेट का तम्बाकू निकाल उसमें कुण्डल दा काला मसाला मिला रहे थे. इस फुकान के बाद दोनों की मुख मुद्रा मुझे अवधूतों जैसी लगी.

सोबन और लछम के साथ अब हम सबसे आगे जमींघाट पुल तक आ पहुंचे. पुल के बराबर चार लोग बैठे दिखाई दिए और कुछ जानवर चरते दिखे. वहीं पत्थर के चूल्हे में जली आग पर कितली चढ़ी थी. लछम की उनसे कुछ बातें हुई, भेटघाट. कितली में लोटे से पानी और डाला गया. सोबन ने अपने पिट्ठू से कांच की बोतल निकाली जिसमें दूध था. मैं फोटो खींचते गौर से सोबन को देख रहा था तो वह बोला बकरी का दूध है ऊपर गों में दे दिया था आमा ने. खूब गाढ़ी गड़-बड़ चाई पिएंगे अब. ये चाई उर्फ़ चाय वाकई इतनी गड़बड़ और मीठी थी कि जीभ ऊपर नीचे चिपकने लगी. थी भी गिलास भर के.

आगे गर्जन करती तो कभी शांत भाव से बहती गोरी के किनारे किनारे चलते हरियाली से भरा गांव लीलम पड़ा और आगे लीलम कम्मर होते हुए रुपसीबगड़ आया. यह संगम स्थल है जिसमें गोरी नदी पश्चिम दिशा की तरफ वाली पहाड़ी साईं पोलो से आती है जिसका मिलन रालम गाड़ से होता है जो पूर्वी तट से आती है. रालम पहाड़ से निकल कर आती है रालम गाड़.उत्तर दिशा में हंसलिंग की चोटी है.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

आज रुपसीबगड़ ही रुकना है, सोबन ने बताया कि यहां टिकने का इंतज़ाम पांडेजी की पछान वालों के यहां है.खाना पीना भी उनके ही साथ. रात के खाने में तो बिल्कुल नई डिश खाने को मिली. जिसका नाम था ‘भुमला’. पांडे जी और भगवती बाबू भी अपने मित्र जंगपागी जी व उनके साथ दो अन्य के साथ पहुँच गए थे. आते ही चूल्हा सुलगा वह भांति- भांति की खुश्बू बिखेरने में लग गये. खाने खिलाने के शौकीन. भुमला बना जिसमें चावल को कडुवे तेल में फ्राई कर ‘थ्वाया’ मिलाते हैं जो जीरे जैसा दिखता है. साथ में फाफर के आटे से चीला बना जिसे कहते हैं ‘पुली’. साथ में हुआ हुनकरे का मीट. भगवती बाबू के लिए अलग चूल्हे में उड़द की दाल और आलू के गुटके बने.पहाड़ की चढ़ाई चढ़ उतर ऐसा स्वाद भोजन मिल जाये और फिर आ जाये गहरी नींद. और क्या चाहिए फिर?

यहां जिस मकान या कुरा में हम टिके थे उसमें दो तल थे – भूतल और पहला तल जिनमें दो-दो कमरे थे. सोबन ने बताया कि पहले तल के सामने के कमरे को ‘भोनी’ कहा जाता है और पीछे वाले कमरे को ‘भितरखन’. दूसरी तरफ भूमि तल के आगे वाला कक्ष ‘गोठ’ व पीछे की और वाला ‘भितर गोठ’ कहा जाता है. यहां दो मकान या कुर आपस में जुड़े थे इसलिए इसे ‘बखाली’ कहते हैं. कई कुर जुड़े हों तो वह भी बखाली हुई. इस मकान में दरवाजे तो बहुत ही छोटे थे पांच फिट से भी कम. पूरी कमर को झुका के घुसना पड़ता था.

अगरवाला तो बड़ी कश्मकश में पड़ा था, उसने भीतर इतने कपड़े लदोड़े थे कि झुक न पाया.ऊपर से मोटी चमड़े की जैकेट भी हुई,उस पर लालाओं वाली तोंद. “अब करते हैं इसका चीर हरण कह दीप ने मस्ती ली. आखिर किसी तरह अगरवाला कमरे में घुसा. अरे भई, बाहर तो बड़ी ठंडी है यहां तो गर्मी लग रही? वह आश्चर्य से बोला. ‘पहाड़ हुआ महराज! सब चीज नापतोल से अपनी सज से बनायीं जातीं हैं. अब ये देखिये इस बाखली में सीढ़ियां इस दो कमरे के मकान में आधी बाहर हैं तो आधी मकान के भीतर. इसे ‘ख्वलि’ कहते हैं.’ सोबन ने समझाया.’अब रात भर तुम्हारे मटके पेट से जिसमें हर बखत कुछ न कुछ ठूंसते रहते हो, जहां से फूटी हवा बाहर निकल जाए,इसके लिए रोशन दान भी बनाया है. क्या कहते हैं वेंटीलेटर को सोबन?’ दीप ने पूछा.

‘अरे ये. रोशनदान ऐसे ही भितर खन में बनता है, इसे ‘धुरी जौल’ कहते हैं. सोबन ने बताया.

सब लोग अपना अपना कोना छांट कायदे से रखे दन बिछा कर लेट गये. कमरे में ठंड न थी इसलिए भारी स्वेटर जैकेट भी उतर गये. कुण्डल दा भी बाहर को सरके तो दीप भी निकला, दोनों को सिगरेट का अमल लगा होगा.मैं भी कैमरा ले खुले में निकल आया. बाहर खूब बढ़िया चांदनी थी ऊपर पहाड़-पेड़ के बढ़िया सिलौट दिखने लगे. मैंने तुरंत खींच भी लिये.

‘देखो जब हम यहां आ रहे थे तो गोरी नदी कितनी शांत थी पर अब इसकी आवाज इसका शोर बढ़ रहा है.’ दीप बोला.

‘हाँ, रात को तो और ज्यादा सुसाट करती है’ कुण्डल ने बताया. बड़ी देर तक नदी के किनारे बैठे रहे. नदी का स्वर इतना एकसार था कि उसे सुनते सुनते झपकी सी आने लगी. वापस लौट बिछे दन और ऊपर मोटे चुटके ओढ़ नींद भी गहरी आई और कई बार उचट गई. नदी का स्वर कमरे के भीतर भी लगातार बढ़ता प्रतीत हो रहा था और साथ साथ उफन भी चटका रहे थे.

अगले दिन रुपसीबगड़ से आगे की यात्रा शुरू हुई. यहां से आगे हमें मालछयु तक चढ़ाई मिली. अभी पहाड़ी के उत्तर पश्चिमी सिरे से इसके पूर्व की और जाते रहे जिधर सूरज चमक रहा था. चट्टान कुछ ऐसे ढाल वाली है कि एक जगह बहते हुए झरने का जल उसी रास्ते पर गिरता है जिस पर चल हम आगे गुजर रहे थे. सब कुछ भीग गया पर बदन में ताजगी सी महसूस हुई. कई दिन से नहाए भी न थे. इस रास्ते पर चल जब आखिरी सिरे पर पहुंचे तो देखा कि दो नदियों के संगम स्थल तक पहुँच गये हैं. इनमें एक नदी तो रालम गाड़ ही थी और दूसरी गोरी गंगा.

सोबन के दिशा निर्देश पर पहाड़ी के उस और मुड़े जहां से गोरी नदी आ रही थी. यहां से एक लम्बा कम्मर लगता है जिसके पथ का रख रखाव जोहार के निवासी मिल जुल कर करते रहे थे बल. भगवती बाबू ने बताया कि रुपसीबगड़ से बिलज्वालगोन तक का जो रास्ता है उसकी देखरेख बिलज्वाल राठ करती है. अब यह रास्ता धीरे-धीरे कठिन व चढ़ने में कठिन हो रहा था. अच्छा हुआ कि पांडे जी ने अगरवाला को अपने साथ मुंशियारी चलने को कह दिया. वह भाँप गये होंगे कि चल नहीं पायेगा तो और लोगों को भी उसके लिए रुकना पड़ेगा. भगवती बाबू अपने पोस्ट ऑफिस के काज मातहतों को सौंप हमारे साथ थे. यहां के गावों के बारे में उन्हें खूब जानकारी और समझ थी.

यहां चढ़ते काफी दुर्गम पहाड़ी आई जो चढ़ने में बड़ी असजीली थी जिसका नाम हनिया भेल था. यहां भेल का मतलब पहाड़ी से होता है.पार करने के लिए हनिया में लकड़ी का पुल था जिसके ऊपर का पुल जंगपागी व बुरफाल लोग बनाते थे और नीचे का हिस्सा मिलमवाल व मरतोलिया. इस नीचे के हिस्से से ऊपर के पुल तक के बीच के रास्ते की देखरेख मरतोलिया लोगों द्वारा की जाती थी. आगे इसी रास्ते में एक दूसरी पहाड़ी और गुफा आती है जिसे ‘पछपवाल उडयार’ कहते हैं.आगे चलते चलते आता है वह स्थल जिसका नाम ररगारी है. यहां ररगारी गाड़ का संगम गोरी नदी से होता है. भगवती बाबू ने बताया की ररगारी पर जो पुल है उसे टोलिया राठ द्वारा बनाया गया. इस पूरे इलाके में रास्तों पुलों को बनाए बचाये रखने की हर जिम्मेदारी स्थानीय निवासियों ने ली है. यह एक अनुकरणीय उदाहरण पाया.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

लकड़ियों से बने पुल पर हर अगला कदम आगे बढ़ाते ही ररगारी नदी पर बना पुल हिलता-डोलता है. डरते-झिझकते पार किया इसे.अब इस सामने वाली कठिन चढ़ाई पर कदम आगे बढ़ाने थे. चढ़ाई ऐसी विकट कि कितनी ही जगह पाँव उठते ही नहीं. मेरे आगे काफी सामान के थैले, पुटके पाटके कंधो पर चढ़ाए पीठ में लटकाए लचकू चला जा रहा था. उसने हाथ में एक लम्बा डंडा पकड़ा था जिससे वह संतुलन बना लमालम बढ़े जा रहा था. मेरे पास तो बस कैमरा बैग था जो इस चढ़ाई में बड़ा भारी लग रहा था. उसे देख कुछ जोश जगा और कदम आगे बढ़े. आगे स्युनी आया और बहुत थका देने वाली चढ़ाई पार कर पहुंचे बोगडयार.

बोगडयार में पुल था. भगवती बाबू ने बताया कि इस पुल का रखरखाव रिल्कोटी और खिंचयाल परिवार की जिम्मेदारी में रही. बोगडयार जगह बड़ी खास मानी जाती है. यहां से आगे मौसम के बदलाव का कोई अनुमान लगाना मुमकिन नहीं. आगे रास्ता भी विकट है तो साथ में हवा के थपेड़े, आंधी, एकदम बर्षा, बादलों का गर्जन, बज्र पड़ना-कुछ भी हो सकता है. इसलिए विश्राम के लिए बोगडियार रुकना ही पड़ता है. ऐसे रुकने को ‘बेठ करना’ कहा जाता रहा.

आगे यहां पश्चिम की ओर की पहाड़ी के पीछे पोटिंग गांव पड़ता है जिसमें पांगती राठ रहती रही. उधर से ही एक छोटी सरिता आ कर गोरी नदी में मिलती है. पोटिंग में खूब हरियाली है. इसलिए जानवरों के लिए ये ग्वार या चुगान के लिए श्रेष्ठ स्थल है. पोटिंग में आलू और फाफर की खेती होती है.

पोटिंग में भी रुकने खाने पीने का प्रबंध भगवती बाबू ने जमा रखा था. आज तो इतनी थकान थी कि बात करने के लिए भी मुँह नहीं खुल रहा था. ज्या पीने के बाद जो कुछ जान आई. रात को मिली फाफर के आटे की पुली या चीला व भट्ट के डुबका जिसमें छीपी पड़ी थी और घुँड़ार का छोंका लगा था. ऐसी नींद आई कि बस सुबह ही उठे.

“आज फिर कठिन यात्रा होगी इसलिए जल्दी ही निकल चलेंगे”, भगवती बाबू के आदेश पर अमल हुआ. बोगडियार पुल पार कर अब खड़ा रास्ता ऊपर की पहाड़ी की ओर था. यह चढ़ाई जंगधारी के पथ की ओर थी जिसमें सांस भी धोंकनी सी फूलने लगी. हर कदम चढ़ते पैर के तलवे ऊबड़-खाबड़ पत्थरो पर चलते टीस देने लगे. चढ़ाई का यह कंटकाकीर्ण पथ संकरा तो था ही उससे बढ़ कर इस हद तक भयावह कि जरा सा भी कदम बहका तो सीधे गोरी नदी में ही निर्वाण होगा जो हज़ारो फिट नीचे गर्जना करते पूरे वेग से बह रही थी. यह है नदी का सुसाट-भुभाट जिसके अर्थ आज पता चले.
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बोगडियार से नहरदेवी तक के विकट रास्ते को पार कर अब सामने है नहरदेवी का मंदिर. यहां एक विशाल शिला है जिसमें कोई वनस्पति नहीं बस हर ओर से पथरीली. भगवती बाबू ने यहां लाल-सफेद वस्त्र चढ़ाया और धूप दीप जगाया. नहर देवी का यह इलाका बहुत महत्व का है. यहां काली आग्नेय चट्टान है इतनी सघन व ठोस कि उसे काट रास्ता निकालना बहुत ही मुश्किल. इसलिए जोहारियों ने अलग अलग मौसम के लिहाज से इसे पार करने के कई रास्ते निकाले. यहां वेगवती नदी चट्टान की ठोस पहाड़ी से सट कर चलती है. ग्रीष्म ऋतु आने पर भी अप्रैल-मई के महिने में गोरी नदी बर्फ से ढकी होती तब नदी पर लकड़ी के गिंडों से पुल बनाया जाता. इससे आगे छिरकानी के पास दूसरा पुल बनाया जाता. जब-जब बर्फ पिघलती तो ये पुल धंस जाते, बह जाते. ऐसे में नदी से पांच-सात गज ऊपर जहां ठोस चट्टान थी उसमें एक एक गज की दूरी पर छेद किये जाते तथा उनमें लोहे की छड़ें डाल दी जातीं. लोहे के इस आधार के ऊपर लकड़ी के तखते बिछाये जाते व इन पर मिट्टी व घास डाल चलने लायक मार्ग बनाया जाता. रास्ता तो बनता पर इसमें चलना बहुत जोखिम भरा होता. आदमी भी चलने हैं जानवर भी और उन पर लदा सामान भी. आवागमन बाधित होते रहता. ऐसी परिस्थिति में कुछ अजूबा कर डालने का काम ‘मानी बूढ़ा’ ने कर दिखाया जो नदी का रुख बदलने की योजना में जुट गया. यह काम दुस्साहस भरा था पर मानी बूढ़ा लगा रहा.

चट्टान के बड़े पत्थर मजदूर लगा तोड़े गये. नदी के पश्चिम की ओर नदी के बहाव को नियंत्रित करने के लिए उसमें चट्टान से तोड़े गये शिला खंड तब तक डाले गये जब तक एकसार सा रास्ता न बन जाये. मानी बूढ़ा ने बुर्फू व बिलजू होते मिलम आने के लिए गोरी नदी पर पुल बना डाला जिससे मापा, गनघर व पाछू होते मिलम आने का रास्ता सहज हो गया.जंगधारी में मानी बूढ़ा ने चट्टानों में सुराख़ कर यात्रा पथ बनाए, सुरंग निकाल दी. साथ ही नहरदेवी से आगे लाखुड़ी भेल के रास्ते और आगे सैलोंग पुल से स्यूँतीपानी के रास्ते का सुधार एवम जंगधारी पुल का निर्माण भी कराया.

मानी बूढ़ा ने अपने पुत्र दौलत सिंह को अपनी अंतिम यात्रा से पहले आदेश दिया कि वह रारगारी के पथ का निरन्तर सुधार करेगा. इसी तरह यहां दोलू पांगती ने गोरी नदी की अनगिनत धाराओं को एक में मिला मिलम पुल का निर्माण करवाया. विजय सिंह पांगती ने छिरकनी, हापुली व दूंगा के पथों में सुधार जारी रखे तथा जंगधारी रास्ते का निर्माण करवाया. ऐसे ही राय बहादुर किशन सिंह ने लीलम के समीप के रास्ते में सुधार करवाया तो नर सिंह जंगपागी ने मापांभेल के नीचे नहर बनवाई.

यहां ऐसे इलाके हैं जहां नदी के ऊपर बर्फ के पुल बन जाते हैं. बर्फ टिकी भी रहती है ऐसा स्थल छिरकानी था जहां तक हम गिरते-पड़ते पहुँच चुके थे.

छिरकानी से आगे का रास्ता भी विकट चढ़ाई, तंग मोड़ और आड़ी तिरछी पग डंडियो से भरा था. सबसे बड़ा कौतूहल तो गोरी नदी का वह स्वरूप था जिसमें वह हज़ारों फिट की ऊंचाई से गिरती है और किनारे अगल-बगल की शिलाओं से टकराते हुए बहुत शोर मचाती है. अब जैसे-जैसे हम ऊंचाई की ओर चले जा रहे थे वैसे-वैसे नदी का शोर भी कम होते जा रहा था. ऊंचाई की ओर जाते और नदी के गर्जन ने कान में बूजा सा लगा दिया था. कुण्डल दा ने कहा कि दो उंगलियों से नाक बंद कर हवा भरो, कान का बूजा हट जाएगा. ऐसा ही किया तो कुछ देर में कान खुल गये और आवाजें साफ हो गईं. प्रकृति की लीला ऐसी कि नदी का इतना शोर न सुनाई दे जिसके लिए उसने बूजा लगा दिया. आज की अभी तक की यात्रा बहुत थका देने वाली थी आखिर गिरते-पड़ते मापांग पहुंचे जहां रात्रि विश्राम की व्यवस्था थी.भगवती बाबू ने बताया कि यहां इतनी चढ़ाई चढ़ते हाई अलटिटूड में प्रवेश करते सर दर्द, आंग पीड़ और उलटी की शिकायत होने लगती है इसे ‘घूरा’ लगना कहते हैं. अपने रात्रि विश्राम के इस स्थल पर पहुँचते ही बड़े गिलास में चहा मिली जिसे घुटक बदन सही हो गया.

जिस घर में हमारे टिकने की व्यवस्था भगवती बाबू ने की थी वहाँ सिर्फ बुबू जी थे. बाकी कुनबा उनके मित्र के घर विवाह में शामिल होने जौलजीवी गया था. बुबू कुछ महीनों से पीठ के दर्द से परेशान थे. थोड़ा चलने पर ही दर्द और बढ़ जाता. साथ में थे दो काले कुत्ते जो पहले घंटे भर तो भोंक कर, गुर्रा कर हमें डराते रहे. नाराज भी होंगे कि हमारे आते ही लोहे की मोटी चेन से बांध दिए गये. कैमरा लिए जब मैंने मापांग की कई तस्वीरें ली और फिर फ़्लैश चमका उन दोनों गुलशेरों की फोटो ली तो फिर उनकी दुम लगातार हिलने लगीं. फौरन ही बैग से पार्ले ग्लूकोस बिस्कुट का पैकेट निकाल उन्हें दिया तो दोस्ती प्रगाढ़ हो गई. फिर तो बाहर भीतर कहीं जाओ उनकी सर-फर साथ साथ होती रही.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

बुबू ने दुबारा चाय पिलाई. भगवती बाबू गट्टा मिश्री लाए थे जो बुबू को खूब पसंद थे. अबकी चाय के साथ मिश्री-गट्टे की कटकी मिली.फिर बुबू ने यहां के रास्तों के बारे में बताया और बार बार नमस्कार कर दादा धरम राय के बारे में बताया. इसी मापांग में दादा धरम राय ने अजूबा काम किया. उन्होंने विशाल चट्टान से सटा कर सीढ़ी लगाई और इसके उत्तरी भाग को काट रास्ता ही बनवा डाला जिससे मापांग की पहाड़ी चढ़ने उतरने का झंझट ही खतम हो गया. मापांग की घाटी ऐसी संकरी हैं कि नदी के किनारे पर खड़ी पहाड़ियां एक दूसरे से मिली हुई लगतीं हैं.

यहां के बारे में ही वह पौराणिक कथा प्रचलित है जो हल्दुआ-पिंगलुआ से जुड़ी है. जब परिवार के एक एक व्यक्ति को बारी लगा कर खाने के लिए भयावह चौखम्बा पक्षी अपने विशाल डैने फैलाये जोहार की ओर उड़ता तो उसके पँख यहीं की चट्टानों वाली पहाड़ी में फँसते. हालांकि तब टोला से रालम हो कर मुंशियारी जाया जाता था.

आगे की यात्रा में नदी के बगल से ही रास्ता जाता था. अब पहुंचे छल्ल बगड़ जो नदी और सड़क के बीच फैला मैदान था. इसके आगे लास्पा गाड़ पड़ती है जिसका संगम गोरी नदी से होता है. यहां भी दोनों नदियों का शोर अधिक है और चलने वाली हवाओं का वेग बहुत अधिक है. लास्पा गाड़ में भी पुल था जिसे बनाने और ठीक ठाक रखने की जिम्मेदारी लसपाल राठ द्वारा की जाती थी.

पूरे रास्ते जहां भी मकान व खेत दिखे वहाँ परिवार के लोगों से मिल भेंट कर प्रश्नावली भरते व जानकारियां एकत्रित करते चलते चले. फसल के भंडारण के लिए टोपरी या डोका दिखे. टोपरी बांस की बनी हुई गोल टोकरी हुई जिसमें ऊपर से बांस का ही बना ढक्कन होता है. इसे बाहर भीतर सब तरफ से गोबर से लीप देते हैं. अनाज भर ढक्कन लगा बंद कर बाहर से भी लीप दिया जाता है. अब इसे रसोई के कमरे में व छोटी टोपरी को कहीं भी लटका देते हैं. रसोई के कमरे में चूल्हे से उठने वाला धुँवा टोपरी के इर्द-गिर्द एक पर्त सी बना देते हैं जिससे इसके भीतर कीड़े मकोड़े आसानी से घुस नहीं पाते. कई जगह अनाज भरने के बाद इनके ऊपर तिमूर, अखरोट के साथ और भी कई पौधों की सूखी पत्ती भी बिछा देते हैं. यह भी पता चला कि फसल का भंडारण भकार के साथ ‘कुंग’ में भी किया जाता रहा है जो मल्ला दारमा वाले इलाके में ज्यादा प्रचलित है.

भकार तो लकड़ी से बना कुछ ऊंचाई वाला बड़ा बक्सा हुआ जिसमें दो तीन खाने भी बना उनमें अलग अलग किसम का अनाज रख देते हैं. इसे भर का लकड़ी के कब्जे वाले ढक्क्न से ढक देते हैं. कई जगह इनमें गोबर की राख भी मिला देते हैं. जिनसे कई तरह के कीड़ों से बचाव हो जाता है.

दारमा घाटी में भी उगल, फाफर, आलू मूली खूब होती है. फसल तो इन ठंडे इलाकों में एक ही बार गर्मी में ली जाती है. फसल को साल भर टिकाये रखने के लिए “कुंग” में जमा कर रख दी जाती है.कई दो मंजिले मकानों में पत्थर की बनी सीढ़ियों में सबसे ऊपर बनी सीढ़ी से नीचे फर्श तक बना गड्ढा या खोखल होता है. ज्यादातर यह गड्ढा गोल बनाया जाता है जिसकी दीवार पत्थर से चिनी होती हैं. इस गड्डे के तले में “छछै” झाड़ी की टहनी रखते हैं. छछै मोरपँखी जैसा पौधा होता है जिसकी पत्तियों में कांटे होते हैं. यह चूहों से बचाव कर देता है.इन टहनियों की भीतरी सतह पर भोजपत्र की तह लगा देते हैं. अब इस गड्ढे नुमा स्थान में उगल, फाफर जैसे अनाज को जमा कर देते हैं और पूरा भर जाने पर इस कुंग को लकड़ी के ढक्क्न से ढक देते हैं. ढक्क्न के ऊपर मिट्टी का पलस्तर भी लगा देते हैं और चूहा न घुसे इसके लिए कुंग को ऊपर से भी “छछै” से ढक देते हैं. कुंग में छछै के बाहर भोजपत्र की तह लगाने से दाने न तो नीचे गिरते हैं और उनमें नमी भी नहीं पहुँचती. कुंग के नीचे की जमीन व हर तरफ की दीवाल से पानी व नमी न घुसे इसका ध्यान रखते हुए फर्श पर पहले से ही पटाल बिछा दिए जाते हैं तथा दीवार पत्थर की चिनाई वाली बनाई जातीं हैं.

सब्जी में आलू मूली का भंडारण खेतों में बनाए गड्ढों में भी किया जाता है. इसके लिए खेतों में कुछ अधिक ऊंचाई वाली जगह चुन कर उसमें गड्ढा बना उसकी पत्थर से चिनाई कर देते है. इसमें आलू मूली भर गड्डे के ऊपर पत्थर रख देते हैं. फिर इसके ऊपर मिट्टी डाल सतह को उभार देते हैं. ऊपर फिर पत्थर रख देते हैं. बाहर बारिश वगैरह के पानी का निकास किनारों से हो जाता है. इस तरह आलू मूली सुरक्षित रहते हैं.

मसालों को तरोताजा रखने के लिए ऊन के थैले काम में लाए जाते हैं. इनमें जम्बू और गंदरेंण के साथ कई तरह की जड़ी व बीज भर ऊपर से गांठ मार बन्द कर कमरे की छतों पर लटका देते हैं. ऐसे थैले भाँग और भेकुले के रेशे से भी बनते हैं जिनको ‘कुथला’ कहा जाता है.

ऊन के बड़े थैलों में जम्बू गंधरेंणी का स्टॉक भर दीप बहुत खुश कि घर लौटने पर इतना चोखा माल देख ईजा तो खूब ही खुस हो जाएगी. ‘जी रै पोथिssया’ की असीस मिलेगी. बाबू सारे पुंतुरे खोल उन्हें थालियों में डाल सफाई और धूप दिखाने में जुट जायेंगे. फिर शीशियों में रख उनमें नाम का लेबल भी लगाएंगे. बस उन्हें कहीं रोकना-टोकना नहीं हुआ.

यहां गांव-घर में पहुँचने पर कुछ न कुछ खाने पीने को मिलता सत्कार होता सो तरावट बनी रहती. यहां का पानी भी ऐसा शीतल व स्वाद भरा कि तीस तो बुझाए ही पेट भी सही रखे. कुण्डल दा सबसे ज्यादा खुश कि यहां यात्रा पर चलने से पेट में गोले की उनकी शिकायत बिल्कुल खतम थी, जड़ से साफ. यहां मिलने वाली पेट व जिगर की अनमोल बूटी कूट और कुटकी का भी खूब स्टॉक जमा कर लिया गया था.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

अब रिलकोट से मरतोली का रास्ता पार कर रहे थे जिसके रखरखाव का जिम्मा टोलियों द्वारा किया जाता रहा था.रास्ते में कहीं झाड़ झँकाड,पत्थर मिट्टी के ढेर, बोल्डर न थे. चढ़ाई उतार दोनों ही कई जगहों पर तो बड़े विकट थे. इसके साथ ही ऐसी नयनाभिराम दृश्यवालियां, घास के मैदान, छोटे-बड़े पेड़, उन पर लदी लताएं, उनसे निकलती खुशबू थी कि कदम आगे बढ़ते जाते. घास का मैदान जहां पशु इत्मीनान से चर रहे होते, हवा के मंद झोंके और उनके साथ ही धीमी चढ़ाई चढ़ते पहाड़ी पार कर जाना. अभी तक दुर्गम-काली चट्टानें थीं तो रिलकोट पहुँचते बिल्कुल ही अलग नजारा सामने आ गया.यहां शांत शीतल हवा थी.बहती नदी के स्वर में अनोखा ही निनाद था. भगवती बाबू ने बताया कि नदी के दक्षिणी ओर जो छोटी पहाड़ियां हैं उनमें दो गांव हैं, सुमदू और खेलांच जिनमें सुमत्याल और खिंच्याल परिवार रहते हैं. ऐसे ही उत्तर की ओर जो खूब बड़ी पहाड़ी है उसमें टोला गांव है. टोला गांव से ऊपर भोजपत्र के घने जंगल तो हैं ही पहाड़ी के ढलान में बिल्ल की हरी झाड़ियाँ भी. बिल्ल की झाड़ियाँ और भोज पत्र के वन टोला और मरतोली की तरह पाछू व गनघरगाँव के पश्चिम की तरफ खूब थे. इनकी खूब सुरक्षा की जाती और देखरेख के लिए चौकीदार नियुक्त होते जिनको ‘रिंङाल’ कहा जाता.

आगे खूब खुली पहाड़ी थी जिस पर काफी बड़े मैदान के बीच टोलिया राठ की बसासात थी. एक तरफ रिलकोट और सतत बहती गोरी नदी ऊपर नंदादेवी की चोटी दूसरी ओर मरतोली कम्मर,मरतोली से ऊपर पवित्र भोजपत्र के वन व पूरे इलाके में फैले स्वाभाविक रूप से उगे फूल और नाना प्रकार के जंगली फल, दूर तक जाती लताऐं व कितने पेड़ों को अपने आलिंगन पाश में बांधती बेलें और यहां वहां दिखते फल एक ऐसे माहौल की रचना कर गए कि जी खुशी से भर गया. 

देवराज ने बताया था कि मरतोली जब आप पहुंचेंगे तो कई खास चीजें आपको दिखाई देंगी.मरतोली में भोज पत्र के जंगल तो हुए ही रंग-बिरंगे फूलों की भी बहार हुई. अब इसमें जो और कहीं नहीं दिखता, सिर्फ जोहार के इसी इलाके में होता है वह है ‘वनतिमाला’ का मटर के दाने के बराबर का फल जिसका रंग नीला होता है. जमीन से चिपके पौधों में यह उगा पाया जाता. इसका स्वाद खटमिठ होता और जब यह पक जाता तो इसकी खुशबू फैल जाती. सिर्फ इसी जगह उगने वाला दूसरा फल ‘भविँल’ कहलाता. टोला में ही अंगूर के गुच्छे की तरह दिखने वाला खट्टा मीठा फल ध्यनु भी होता. जिसकी ढूंढ खोज में लचकू जी जान से लगा था.

अब मरतोली कम्मर से होते हुए इस चोटी के किनारे से पश्चिम की ओर चलना हुआ जहां मरतोली गाड़ बह रही थी. इस पर मरतोलिया राठ ने पुल बनाया था. मरतोली गाड़ आगे गोरी गंगा में मिल जाती है. नदी के पार बुर्फू गांव दिखाई देने लगता है. बुर्फू में बुरफाल और जंगपागी रहते आए. पहले के युग ‘पंचज्वारी युग’ में,यह गांव जोहार का केंद्रीय स्थल रहा. सोबन ने बताया कि उस जमाने की यह बात है जब मिलम का विकास नहीं हुआ था और तब वहाँ निरखुपा लोग रहते थे. तब बुर्फू होते ही मिलम की ओर जाने का पथ था. गोरी नदी पर पुल बनाने व उसके रखरखाव की जिम्मेदारी बुरफाल और जंगपाँगियों की थी. यहां से होने वाले आवागमन को ले कर समगों में मिलमवाल लोगों ने बुरफालों पर आक्रमण किया. बुरफाल चाहते थे कि मिलमवाल इस रास्ते न जाएं इसलिए मिलमवालों ने बुरफालों पर आक्रमण कर दिया जिसमें लोग मारे गये.

गोरी नदी के पश्चिमी सिरे से हम आगे बढ़ते रहे. अब सामने मापा का खूब बड़ा मैदान था. सामने की पहाड़ी पर सुदूर ऊंचाई से झरना बह रहा था. नीचे बस्ती थी जिसमें मपवाल परिवारों के तरतीब से बने घर दिखाई दे रहे थे.सोबन ने बताया कि मिलम से आ कर मापा के निवासी यहां आए इसलिए वह मपकारा रावत भी कहे गये.

अब भगवती बाबू ने नई बात यह बतलाई कि जब शँकराचार्य ने गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर को कीलित किया और पाताल भुवनेश्वर की गुफाओं की खोजबीन की तब उसके बाद वह जोहार के इस इलाके में पधारे. कहते हैं कि शँकराचार्य यहां बद्रीनाथ सा स्वरूप स्थापित करना चाहते थे. पर यहां की विकट चढ़ाई व स्थानीय लोगों के मांसाहारी होने से यह विचार फलीभूत न हो सका.
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चलते चलते पाछू पंहुच गये. यहां पाछू हिमनद से आई पाछू नदी है जिस पर पंचपाल व गंघरियों द्वारा बना पुल है. यहां रास्ते के ऊपर दक्षिण की ओर बुग्याल के किनारे की पहाड़ी पर बसा है गनघर,जिसे पार कर पाछू आता है. भगवती बाबू ने बताया कि गनघर की बसासत पहले पाछू नदी के दक्षिणी किनारे बसी थी. इस जगह पर बसाव सन 1830 में कुमाऊँ कमिश्नर विलियम ट्रेल ने आर्थिक सहायता दे कर करवाया.

पाछू से आगे नदी के दूसरी तरफ की उपत्यका में ढलान पर बसा गांव बिल्जू दिखाई देताहै जिसमें बिलज्वाल और दास्पा निवास करते हैं. आगे चलते गोरी नदी पर मानी बूढ़ा के द्वारा बनाया पुल है.सयाने बताते हैं कि जब से यह पुल बना तब से बुर्फू से मिलम तक का सफर बहुत मनोहारी हो गया. गोरी नदी को पार करते अब रास्ता चढ़ाई भरा था. यह छों धार की चढाई थी. छों धार से आगे गोंखाधार तक जाने वाले रास्ते पर मकान दिखाई देने लगे थे.

मुंशियारी में शेरसिंह पांगती जी ने मिलम के बारे में वहाँ के सामाजिक आर्थिक इतिहास के बारे में तो विस्तार से बताया ही था इसके मिलम नामकरण की कथा भी सुनाई थी. इस कथा के नायक थे श्री धाम सिंह रावत जो पश्चिमी तिब्बत के क्षत्रप बोदछोगेल की सेना में नियुक्त थे. एक बार धाम सिंह रावत हिरन के शिकार में उसका पीछा करते ऊँटा धूरा से आगे जोहार में गोरी और गोंखा नदी के संगम तक आ पहुंचे. अचानक ही हिरन अलोप हो गया. पीछा करते धाम सिंह निढाल हो गये थे. इसी घटना से इस स्थान का नाम ” मीडुम” पड़ गया जिसमें ‘मी’ का मतलब मनुष्य और ‘डुम’ से आशय थकना व हाथ पाँव ढीले पड़ना है. बाद में यही ‘मीडुम’ मिलम कहा जाने लगा.

धाम सिंह जब वापस तिब्बत आया तो उसने राजा बोदछोगेल को सारा किस्सा सुनाया और बातों बातों में जोहार घाटी व मिलम की खूबसूरती का बखान किया. राजा उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ. उसने धाम सिंह को तिब्बत व्यापार का अधिकार सौंपा. साथ ही यह आदेश दिया कि तिब्बत व्यापार के लिए वह तीन घूरा दर्रो को खोले व जोहार को आबाद करे.

पंद्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के धाम सिंह रावत के प्रयासों से मिलम भारत तिब्बत व्यापार का मुख्य केंद्र बना. बोदछोगेल ने जब धाम सिंह को मिलम भेजा तब लद्दाख वालों ने पश्चिमी तिब्बत पर नारी खुरसुम में आक्रमण कर दिया. तब धाम सिंह ने तिब्बतियों की मदद की. राजा उसके समर्थन व योगदान से खूब प्रसन्न हुआ. उसने धाम सिंह को तिब्बत में लगने वाले व्यापार कर “छोंगल” में छूट प्रदान की और जोहार आने वाले तिब्बतियों से छोंगल वसूल करने का अधिकार भी प्रदान किया. इसके साथ ही धाम सिंह को कई मौजों या जगहों जिनमें दोंग्पु, दावा, खिंग्लूँग, डोकठोल मुख्य थे से भोजन या ‘थोपतांग’ तथा डाक एवम सवारी के लिए घोड़ों की निःशुल्क सेवा प्राप्ति का शासनादेश जारी किया.इसके बाद चंद शासन व गोरखा राज में भी रावतों के वंशजों को मालगुजारी वसूलने के साथ कई कानूनी अधिकार प्रदान किये. रावत पहले मिलमवाल कहे जाते थे जो बाद में पांगती, धर्मसत्तू, रावत व सयाना नाम से जाने गये. यहां पसरे खूब बड़े मैदान में निरखुपा, सयाना, रावत, धर्मसत्तू व पांगती राठ बसी.

तिब्बत व्यापार ठप हुआ तो जीवन यापन के लिए ऊन का परंपरागत काम व्यवसाय की मुख्य गतिविधि के रूप में उभरा. ऊन के कार्य से जुड़ी हर क्रिया से अधिकांश परिवार परिचित थे. किसी न किसी स्तर पर परिवार के सदस्य इससे जुड़ाव रखते थे. घर में लगातार यह देखा जा रहा कि भेड़ के ऊन को काट कर किस तरह धोया जा रहा और धूप में डाल सुखाया जा रहा. बचपन से ही यह सीप मन में बैठ गया कि सफेद काला व भन्यान ऊन अलग अलग कैसे करते हैं.ऊन में जानवरों के बदन में लगे कुरे -कांटे निकालने के लिए भी सऊर चाहिए. घर की औरतें जब ठंड से बचने के लिए आयताकार अंगेठी जो सग्गड़ जैसी होती व जिसे ‘रोन’ कहते जला देतीं और हाथ से ऊन को फीँचना शुरू करतीं. फिर रिंगाल के डंडे में धागे को छल्ला बना डालते. ऐसे ही देखादेखी तकली से ऊन कतता, बट देने की उलटी तकली को ‘किपांग’ कहते. यह तो हुआ सबकी समझ में आने वाला काम जिसके बाद शुरू होती मेहनत भरी क्रिया जब ऊन क्वटरनी ‘कायूँ ‘ जिसे फिंचाई करने की कंघी कहते से धुले, सूखे, छाँटे ऊन की कार्डिंग की जाती.कई किसम का धागा कतता जैसे दन और थुलमे के लिए मोटा ऊन तैयार होता. सफेद और काले को मिला कर भन्यान या भूरा.

जोहार में बुनाई की एक खासियत यह रही कि स्वेटर बुन्ने का काम ज्यादातर लड़के करते. तिब्बत व्यापार जब तक होता तब उनको व्यापार की खासियत समझाने पर जोर होता. स्वेटर बुन्ना वह देख देख सीख जाते. लड़कियों को खेल खेल में कैसे ऊन का काम करने की हौस लगे के लिए सीखने की जो परिपाटी चलन में थी उसे “छितकू” जाना कहते जो जोहार में प्रचलित था मुंशियारी व तल्ला जोहार में नहीं. लड़कियां अपनी खड़ी टोकरी जिसे ‘ फुङटु’ या गोल टोकरी जिसे ‘डौल’ कहते में सब सामान टांजती जिसमें ऊन व तकली तो होती ही चना, मूंगफली, गट्टा, मिश्री, छिर्पी रखतीं. इसमें कपड़े की कतरनें भी होती जो भैंसखाल के दर्जियों की दुकान से इकट्ठा की जाती.सब पहुँचते सिंगुला और गोंखाधार के उत्तरी सिरे में नियत स्थान पर बैठ जातीं. जो लड़कियां बड़ी होतीं व काम की बारीकी समझतीं वह नानतिनों को कताई के गुर सिखातीं खेल खेल में. कपड़े के टुकड़ों से गुड़िया और गुड्डा बनता जिसे ‘कुश्यानी’ कहा जाता. इनकी ‘मांगीजांगी’ यानी मंगनी की जाती और फिर ‘बरयात’ निकलती. फेरे लगते, विदाई होती, आँसू भी बहाये जाते.घर से जो खानपिन का माल आया रहता उससे भोज होता.सयाने बताते कि बातों बातों में ऊन के धागे तो बटते ही जाते जल्दी काम निबटे इसके लिए एक खेल खेला जाता जिसे ‘ल्हमसेल’ कहते. दिन ढलते जब कताई को थोड़ी ही ऊन बच जाती तो उसकी लम्बी पट्टी बना कर स्यापाल की झाड़ियों में डाल देते और अपना काम खतम कर लौटते हुए इसे कातते. अब सब काम निबटा एक जरुरी काम रह जाता और वह होता आसपास की झाड़ियों में उगे फल ‘स्याकुती’ और ‘सिकुरति’ टीपना.

बालपन से ही ऊन के काम में उंगलियां सध जातीं तब जाकर बहुत बारीक़ धागा कातने का जतन होता जिसका उपयोग पट्टू बनाने में किया जाता. कताई-बिनाई का काम ज्यादातर औरतों के द्वारा होता, इसमें कुछ विशेष काज पुरुष करते जैसे पट्टू के लिए बारीकी से ऊन कातना. बिक्री का माल तय करना, कच्चे माल का प्रबंध, मेले उत्सव में हर आइटम की कीमत तय करने की जिम्मेदारी पुरुषों की ही होती. सबसे बड़ी बात तो यह थी कि शौकाओं को ऊन के कारबार में जो दक्षता हासिल हुई वह मात्र इसे एक धंधे की तरह नहीं बल्कि जीवन शैली में आत्मसात कर लेने से सुधरती रही जिसमें उनके समूचे वातावरण की भागीदारी थी. समय व जरुरत के हिसाब से यंत्र – उपकरणों में सुधार किये गए जिन्हें नवप्रवर्तन की लहर में शामिल किया जाना संभव है.
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आर्थिक वृद्धि व विकास के सिद्धांत, नीति एवं व्यवहारिक प्रयोग में नवप्रवर्तन का विचार प्रोफेसर जोसफ एलॉइस शुम्पीटर द्वारा प्रस्तुत किया गया था जो विकास के मात्रात्मक चरों की ही बात नहीं करता था बल्कि गुणात्मक घटकों को कहीं अधिक जरुरी समझता था. इसे पढ़ाने वाले मेरे गुरु डॉ गिरीश चंद्र पांडे इसकी व्यावहारिक खूबियों को ध्यान में रख सीमांत में रहने वाली शौका जनजाति को ‘ नवप्रवर्तक’ की संज्ञा देते. तभी शूमाखर की किताब “स्मॉल इस ब्यूटीफुल” भी पढ़ने को मिली जिसे आर नारायण के यहां से मैं खरीद कर लाया. इससे मध्यवर्ती तकनीक को समझने में मुझे बड़ी मदद मिली. चंद्रेश शास्त्री, अतुल दा व महेश दा ने और भी कई गरीब देशों में इसे अपना कर दिखने वाले प्रतिफल के ढेरों उदाहरण मेरे सामने रखे तो बाद में अल्मोड़ा कॉलेज में पढ़ाते मिरतोला आश्रम में स्वामी माधवाशीष को देख कर तो मुझे इसके बारे में कोई शंका व संदेह ही न रहा. इसी दौर में गुन्नर मिर्डल की एशियन ड्रामा के तीनों वॉल्यूम व अगेंस्ट द स्ट्रीम पलट डाली और ये मोटी सी बात मेरी समझ में आती गई कि पहाड़ के विकास के लिए मध्यवर्ती तकनीक को अपनाना ही सर्वश्रेष्ट विकल्प है. हिमाचल में वहाँ के मुख्यमंत्री परमार की कार्य योजनाएँ इसके अनुभव सिद्ध अवलोकन पर खरी उतरतीं थीं. सबसे बढ़ कर सीमांत का शौका समाज था जिसने इसी बेहतर व कारगर तकनीक को अपना संकट के समय में अपने को सुव्यवस्थित बनाए रखा.

ऊन के परंपरागत व्यवसाय में शौका आरम्भ में तकली,छिच्यु व कपांग, रांच,किपांग, पिट्ठी चान जैसे उपकरणों का प्रयोग करते थे जिनसे पँखी, दन, चुटका, पट्टू इत्यादि बनाए जाते. एक स्थान से दूसरे स्थान को होने वाले उत्क्रमण के कारण पावर लूम जैसे बड़े व एक ही स्थान में स्थिर यन्त्र का प्रयोग नहीं हो सकता था. ऐसे में जोहार के उद्यमी विजय सिंह पांगती ने खड्ड रांच व उसके सहायक यंत्र बे, कंघी, कौङ व बिरङ बना डाले जिनमें आस पास उपलब्ध लकड़ी, बांस, रिंगाल का प्रयोग होता.ऐसे ही बागेश्वर के बोरगांव के बढ़ई पाँव से चलने वाला चरखा बनाने में सफल रहे जिससे कताई की रफ़्तार कई गुना बढ़ गई. स्थानीय पेड़ पौधों से लिए किसम-किसम के बीजों, फलों, पत्ती, छाल व जड़ों से ऊन धोया जाता, बनता मुलायम व रंगा जाता. अलग-अलग किस्म के ऊन के धागे कात स्वेटर, मफलर, पशम, पँखी बनती. घटिया किस्म के ऊन और पुराने कपड़ों के धागे से कम्बल और पँखी सा मिलता-जुलता छयूंट बनता. कम्बल जो पँखी के लिए कते ऊन से मोटा और थुलमे के धागे से मोटे ऊन से बनाया जाता वहीं दो पाटों और कई रंग की पट्टी वाला ‘राम सरन’ भी बनता. कम्बल और राम सरन ज्यादातर घरेलू उपयोग के लिए ही बनाए जाते. फैक्ट्री के बने कम्बल से इनकी प्रतियोगिता में इनका बाजार के लिए उत्पादन कम होता गया. पँखी की खूब मांग रहती जो सफेद, भूरी व काली सफेद मिली प्राकृतिक भन्यान रंग की होती. पट्टू तो सामान्यत: कई परिधानों के लिए बनता जिसमें खूब अच्छी ऊन लगती. इसके काले रंग की ऊन काफी मंहगी होती जिससे औरतों के लिए चट्ट काला ‘कमला’ बनता. सुफेद ऊन से कोट और अङ्गरखा या ‘बोखल’ बनता. इसके लिए धागा भी खूब पतला काता जाता. सयाने बताते कि पट्टू का यह बारीक़ ऊन पुरुषों द्वारा ही काता जाता. ऐसा ही मुश्किल काम पश्मीने का ऊन कातना होता.
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परंपरागत कुशलता व खासियत वाले ऊनी उत्पादों में दन और आसन मुख्य रहे. जोहार में दन बनाने के लिए गांठ विधि अपनायी जाती रही जैसी कि अरब देशों में प्रचलित थी जबकि कार्डिंग व पिट्ठीचान के खड़े फ्रेम में इसे धागे की लूप विधि से बनाया जाता था. बढ़िया दन बनाने के तरीके को जानने व इस्तेमाल करने जोहार के उद्यमी कलिंगपोंग गए व दन बनाने की नई विधियों को सीख कर आए. पहले दन छह गुणा तीन फिट व आसन दो गुणा दो फिट का बनता था फिर बैठक व सोफे के लिए इनकी मांग बढ़ी तो आकार भी बदला. ओढ़ने के लिए चुटका व थुलमा बनाए जाते रहे. इसकी बुनाई में काफी समय लगता. इसके साधारण श्रेणी के ऊन को पहले रिंगाल के डंडे में लपेट एक विशेष चाकू ‘खुग्योर’जो अर्ध चंद्राकार आकृति का होता से काटा जाता. ज्यादातर यह गहरे भन्यान व सफेद ऊन से बनते. चुटके से कम ऊन की खपत थुलमे में होती जिसमें लम्बे रेशे की मुलायम ऊन का प्रयोग किया जाता. जोहार के बने थुलमे खास होते. इनकी मांग भी अधिक होती व बागेश्वर व जौलजीबी के मेलों में ये खूब बिकते. इसे बनाना काफी श्रम साध्य होता. इसके लिए अच्छी नस्ल की तिब्बती भेड़ों के लम्बे रेशे की ऊन छांटी जाती. रीठे से इसे धो फिर छाँटा जाता, एक समान मोटाई का ऊन लिया जाता जिसकी खड्ड वाले रांच में बुनाई होती. अब इसकी एक पाठ या भाग को डंडे से आग के ऊपर लटका देते और ‘कायूँ’ से बुने ऊन की सतह को बराबर उभारा जाता इतनी सफाई से कि न तो कहीं झोल पड़े या छेद दिखे. अब इस पाठ को बड़े लकड़ी के तसले जिसे ‘दोनी’ कहा जाता में गुनगुना पानी भर भिगा दिया जाता और इस भाग को पैर से धीरे धीरे मलासते हुए मथा जाता. ऐसा करने से रेशे फूलने लगते. इसे अब सुखाते, सूखने के बाद पलट कर दूसरे हिस्से में भी रेशे फुलाए जाते. दोनों तरफ के ऊन के रेशे खुल जाने के बाद इन पाठों को सोत में ले जा ठंडे पानी में डूबा भिगा देते, इससे ऊन के रेशे आपस में जुड़ जायेँ. अब होता बड़ा कठिन काम, ठंडे पानी में डूबे खूब छपकाये पाठों को दोनों हाथों से पकड़ छटकाना जिससे रेशे पाठ से चिपकें नहीं बल्कि लम्बे लम्बे गुच्छोँ में लटक जाएं. अच्छी तरह छटका फटका के अब इन्हें सुखाया जाता. धूप में कुछ कसर रह जाय तो कमरे के भीतर ही आग में खूब सावधानी से इन्हें तात दी जाती.

 तिब्बत व्यापार के बंद होने के बाद सालाना वापसी जब हुई तो मिलम गांव के फिर से आबाद होने का सिलसिला शुरू हुआ. पहाड़ी इलाकों में सबसे बड़े गांव की हैसियत पाए मिलम गांव में पसरी नीरवता मिटने लगी. यहां के मवासे जो व्यापार के सिलसिले में सुदूर जाते अब अपने महीनों छूटे घरों की सार संभार उनकी मरम्मत लिपाई पुताई में जुट गए. आरम्भ में पांगती लोगों की राठ ने पहल की. मिलम में पसरे अपने खेतों की जुताई-गुड़ाई आरम्भ हुई.आलू बोये गये. छोटे सीढ़ीदार खेतों में कहीं सरसों के बीज छिटके तो कहीं फाफर और जौ.मटर भी डाली गई बीच-बीच में. इतनी ऊंचाई वाली जगहों में गेहूं की एक खास किस्म होती है जिसे ‘नप्पल’ कहते हैं की बुवाई भी मौसम के हिसाब से शुरू की गई. दूर नीचे गोरीगंगा नदी में घराट चलने शुरू हुए. उन तक पानी ले जाने के लिए छोटी गूल बनीं जितने भी परिवार वहाँ बसने शुरू हुए उनके हाथों की मेहनत धीरे धीरे सपड़ने लगी. रस्ते सुधरे, कांटेदार झाड़ियों को काट पगडंडियां बनीं. हिमनद के किनारों से बरफ जिसे गल्ल कहते थे घड़ों में रख लाई जाने लगी.
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तिब्बत व्यापार की रोक के बाद जोहार के इस ऊँचे इलाके में जो बड़ा परिवर्तन आया वह नए सिरे से सब्जी और अनाज-फल फूल के उत्पादन में जुट जाना था. व्यापार से पहले ज्यादातर आलू बोया जाता. फाफर और बेथुवा हर जुताई के बाद उवा व जौ के खेतों में उग जाता था. अब मटर व धनिया भी बोये गये. मिर्ची, ककड़ी, बैगन, गद्दू या कद्दू के साथ छुम करेली जिसे मीठा करेला कहा जाता लगाया गया और साथ में यहां उगने वाली राजमा जिसे ‘स्वाटा’ कहते बोई गई. जिसका अलग ही स्वाद होता जहां कहीं सही लगा वहाँ फल फूल के बोट लगे. नए सिरे से शुरू की गई खेती अब परिवार की जरुरत में शामिल थी. मिलम में बसने वाले परिवारों के पास बड़े खेत तो थे नहीं बस कुछ मवासों के पास जानवर, भेड़-बकरी को टिकाने के खोड़ जरूर थे. साग सब्जी उगाने के लिए ये खोड़ समतल-बराबर किये गये बाल बच्चों और किशोर वय को साग-पात, फल-फूल, मसाले के बोटों की सिंचाई कौतुक लगी. दूर गूल से कनस्तरों में भर भर पानी लाते. पौध बढ़ जाती तो क्यारी की घास-फूस उखाड़ी जाती, निराई -गुड़ाई की जाती. बेल वाली जिंसो में ठंगरे लगाए जाते और बड़ी बेलों व उनके झुमकों में जंगल से काट कर लाया रिंगाल और बांस लगाया जाता. खूब बड़ी टहनी काट कर सब्जी बाड़े में लगाते जिसमें काकोड़ या पहाड़ी ककड़ी की बेल चढ़ा दी जाती, वहीं छुमकरेली और गदुवे की बेल झाड़ी पर चढ़ाई जाती. जितनी भी जगह में साग-पात उगाने की गुंजाईश होती उसमें बकरी-भेड़ की मैंगनी वाली खाद डाली जाती. गाय के गोबर से उपले थाप दिए जाते.

पांगती जी बताते हैं कि इस मिलम वाले इलाके में हूँण देश से होने वाली खरीद फरोख्त के बिलकुल ठप पड़ जाने से अब सब्जी, फल आदि को अपने परिवार की जरुरत के हिसाब से उगाना शुरू कर दिया गया. अभी तक बस आलू उगाने पर जोर था व इन्हीं खेतों में जुताई के बाद बेथुवा और फाफर उग जाता था. व्यापार जब होता था तो फल फूल के बोटों की समुचित देखरेख हो नहीं पाती थी.इसी तरह व्यापार के बन्द होने से पहले खेती जोहार में की जाती रही. मुंशियारी में शौका साल में दो बार दो-दो महीनों की अवधि में प्रवास करते थे तो खेती पाती के लिए उपयुक्त समय नहीं होता था.खेती पाती तिब्बत व्यापार की समाप्ति के बाद ही तब आरम्भ हुई जब शौका तल्लाजोहार व मुंशियारी में स्थायी आवास बना रहने लगे. शौकाओं के पास जो काफी भूमि थी वह दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में छितरी -बितरी थी और कास्तकारों को दी गई थी. जोहार में स्थिति भिन्न थी जहां मवासे चार महीनों तक यहां टिकते थे. यहां कास्तकार भी नहीं थे जो उनकी खेती कर सकें. इसलिए सभी मवासे बुवाई के लिए खेत तैयार करते, कुदाल से खेत की जुताई करते. बैल न होने के कारण प्रायः ‘जब्बू ‘से हल खींचा जाता तो कभी आदमी भी लग जाते. कुदाल से खुदाई में औरतें भी हाथ बटाती तो वहीं खेत में खाद डालना, खेतों की गुड़ाई, निराई, व फसल की कटाई जैसे सभी काम औरतों के द्वारा किये जाते. जोहार के इलाके में बकरी की खाद खेतों में पड़ती और गाय के गोबर से उपले थापे जाते. जलोनी लकड़ी सीमित होने से ईंधन के लिए इन उपलों का प्रयोग किया जाता व साथ में कंटीले झाड़ का भी जिसे ‘डामा’ कहा जाता. तल्ला जोहार में लकड़ी की कमी न थी इसलिए वहाँ के खेतों में गोबर की खाद सब्जी वाली क्यारियों में पड़ती.

पांगती जी ने बताया कि जोहार में लिखने पढ़ने और कुछ नए अलग काम करने की अलख जगाने वालों में बाबू राम सिंह जी की सलाह और दिशा निर्देशन स्तुत्य रहा. उन्होंने खूब लिखा भी पर वह सब छप न पाया. जोहार में काश्त कार 118 किस्म की उपज बोते थे. रवि की फसल में उन्नीस तरह की जिंस उगाई जाती थी जिसमें गेंहूँ की दो किस्म जौ की तीन किस्म,तीन तरह के उवा,तीन ही तरह की सरसों मुख्य थी तो खरीफ की फसल में सोलह तरह के धान,पांच किस्म का मडुआ,चार प्रकार की कौणी व दो तरह का उवा मुख्य था. साग सब्जी की कई किस्में अपने मौसम में पानी व सिमार वाली जगहों व गधेरों में खूब उगतीं थी जिनमें तल्ला जोहार में ओगल या ‘झंगारा’, मिलम में उगने वाला फाफर और बेथुआ, समतल जगहों में उगने वाला ‘फुँगा’या जंगली गाजर, बगुडियार में होने वाली ‘रयाँस’ मुख्य था. यहीं ‘बांख’ के कंद भी खोदे जाते जिसका अचार भी बनता. ऐसे ही ल्यड़गूरा व सिसूण की सब्जी भी बनती. पहले सिसूण या स्यून या सिसूना का उपयोग हेय दृष्टि से देखा जाता पर धीरे धीरे इसकी सब्जी के साथ साथ सूप और चाय भी पसंद की जाने लगी.दाल, भात सब्जी और शिकार आम भोजन रहता. मीट भी सूखा और गीला दोनों ही पसंद किया जाता. स्थानीय उपज और मसालों से खाना बनता और इन्हें संरक्षित करने के नए नए तरीके जैसे कि रात को दाल भात बच जाये तो लकड़ी के चूल्हे के पास बैठ घर की औरतें उसके गोले बना देतीं जिन्हें चूल्हे की राख में दबा कर पका लिया जाता. राख में साबुत आलू, गडेरी , पिनालू प्याज़, गेठी, शकरकंदी को भून खाना तो हमारे गाँव में खूब होता, भात के गोले सिकना पहली बार देखा.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

भगवती बाबू पिछले बीस साल से इस इलाके में आ-जा रहे थे. यहां के रहन सहन खान-पान के जानकार. खुद शाकाहारी और बीड़ी सिगरेट तमाखू से दूर. बस कभी सर्दी जुकाम से नाक भर जाये या कितने ही दिन कालामुनि वाला रास्ता बंद हो और मुंशियारी तक पैदली ही करनी पड़े तो बड़े गिलास में मिली दारू के कुछ छीटे अपनी उंगलियों से ऊपर परमात्मा की ओर छटका दोनों हाथों से कान टच कर बदन गरम कर लेते. मुझे भी उन्होंने बताया कि जोहार में हर पूजा-आयोजन-जनम-मरण में दारू चढ़ती है. पहले रोली अक्षत मंदिर में देवताओं को लगाया जाता है फिर दारू के छीँटे मारे जाते हैं जिसे ‘छय्त-छय्त’ कहा जाता है.

भारत-तिब्बत व्यापार के चलते शौका खेती व सब्जो उत्पादन को कम प्राथमिकता देते थे बस अपनी जरुरत भर का उगा कमा लिया जाता था. उनके पास भूमि की कमी न थी पर वह एक स्थान में न हो कर अलग अलग गावों में छितरी थी. अधिकांश काश्तकारों को गल्ले में दी गई थी. फिर आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन के प्राविधान लागू हुए तो उनके पास खोड़ व घर के समीप की ही जमीन रह गई. जो जमीन कास्तकारों के कब्जे में थी जो उस भूमि में हिस्सेदारी रखते थे.

शौकाओं से काश्तकार अक्सर ऋण लेते. अक्सर समय पर ब्याज व मूल लौटा न पाने की असमर्थ दशाएं उन्हें भूमि बेचने के सिवाय और कोई विकल्प न देतीं इसलिए तल्ला जोहार में शौकाओं के पास काफी जमीन हो गईं पर मल्ला जोहार में सिर्फ घर के पास की कुछ जमीन और खोड़ की जमीन ही रही. ऐसे में कई परिवारों ने अपने समीप की बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने का जतन किया जिसे “इज्जर” निकालना कहा जाता. अब आलू के साथ घर के आँगन के पास की भूमि, खोड़ व इज्जर में धुआँर या धूना जिसे सामान्यत: जम्बू के नाम से जाना जाता है बोई जाने लगी. मिलम के ऊँचे इलाके से भी डोके में भर भर कर घूने का पंचांग उखाड़ कर लाया जाता. जिसकी कटाई -छंटाई कर धूप में सुखाया जाता. ऐसे ही ऊँचे हिम इलाकों में जीरा मिलता जिसे ‘थोया’ कहते. इनकी पौध को सुखा कर सुगंध से भरे बीज अलग किये जाते. आलू के गुटके व भुने चावल या ‘भुमला’ में इनका प्रयोग होता. ऐसे ही मुंशियारी के इलाके में ‘तिमूर’ मिलता जिसका अनोखा चरपरा स्वाद जीभ की लाला ग्रंथियों को उत्तेजित कर अनोखा स्वाद देता. इसका छोंक तरी, रसदार व्यंजन व दोंगचा में होता. तिमूर की तासीर खूब गरम होती सो यह सर्दी-जुकाम-बुखार के साथ मुँह की बदबू व दाँतदर्द व घुनते की दवा के रूप में प्रयोग होता. इसकी कांटे दार लकड़ी पूजा गृह व ठ्या में रखी जाती व बद्री-केदार की यात्रा में इसके सहारे चलना शुभ माना जाता.

मिलम से ऊपर के ऊँचे जंगलों से नाना प्रकार की जड़ी-बूटी एकबट्याई जातीं. भेड़ बकरी चराने को मिलम से ऊँचे इलाकों को गये अणवाल काफी बेशकीमती जड़ी बूटी वहाँ के बुग्यालों से खोद कर लाते जिनमें सालम मिश्री, सालम पंजा, हत्था जड़ी, उतीस, कूटकी, जटामासी,लाल जड़ी यारसा गम्बू मुख्य होते. अणवाल जानते कि कौन से मौसम में कौन सी भेषज कितनी मात्रा में खोदनी है ताकि वह लगातार पैदा होती रहे.जड़ी बूटियों के साथ अणवाल जंगलों से ‘टांटुरी’ नाम की खाद्य उपज भी तोड़ लाते.

तल्ला जोहार और मुंशियारी में कई जंगली फल होते जिनमें किरमोरा या किल्मोड़ा और हिसालू मुख्य थे. यहीं दरकोट के पास की पथरीली भूमि किल्मोड़े की झाड़ियों से भरी होती. इस जगह को ‘दल्लान का घंगलान’ कहते. पके किल्मोड़े का रंग नीला काला कुछ लाली लिए होता जिसे थेच -पीस कर नीला सा रस निकलता. इसे पका कर चटनी बनती जो बड़ी स्वाद और पाचक होती. इनके अलावा जोहार में तुर्रु चूख -बड़े निम्बू सा, सिकुर्ती और संपला झाडियों में उगते तो कुछ ऐसे फल भी होते जिनकी पौध व बेल जमीन से चिपकी होतीं, इनमें वनतिमाला व न्यहापला खास होते.

जोहार में पंद्रह हजार फिट की ऊंचाई पर ‘कोलकफ्फु’ या ब्रह्म कमल उगता जो नंदादेवी को अर्पित करने के लिए पूरे विधि विधान से तोड़ा जाता. मिलम गांव में नंदाष्टमी की धूम होती. दो हफ्ते मतलब एक पक्ष पहले से ही गावों की हर बखाली के बड़े आंगनों में सभी जन रात को खाना खाने के बाद इकट्ठा हो जाते और ढुस्का शुरू होता. मर्द और सैणियाँ दो आधे वृतों में एक दूसरे के कंधे व कमर में हाथ रख गोलाकार घूमते ढुस्का गाते:

जालिमा रोटी टूटो भात ख़ौला,
जालिमा त्वीं टूटो काँ जौल साली.
बॉटा तली घोड़ी क्या हकौछे भिना छैमला,
ढलकै चेंछू तू ओँन दीखी छे साली सिंदुरा .

ढोलक, मजीरा हुड़का बजता, बारी बारी ढुस्के का एक -एक पद गाया जाता, दोहराया जाता. सब लय और ताल मिलाते गोले में घूमते.गाँव के सारे मौ यहीं सरफर करते दिखते. सयाने रंगिल बड़े बुजुर्ग ‘स्याबास नानतिनो’ कह दुस्कारियों की लय-ताल,गाजे-बाजे को और जगा देते. उनसे राय-मसौर होते रहता. बड़ी-बूढियाँ हाथ में तकली चलाते ऊन कातते सब देखते भालते नानतिनों की पीठ ठोकती.भुन्योल करने वालों को मतक्या देतीं. बुतघाणी चलाए रखतीं.आपस में दिनमान भर की खबर बात चलती. दुखसुख होते. सयाने पूरी तरह सारे कौतुक पर नजर रखते. हुक्का गुड़गुड़ाते. हुक्का लगता, चिलम सुलगती. हल्द्वानी भाबर के लालमणि खिमदेव का तमाखू-खमीरे की महक सुवासित होती. नानतिन खूब उत्साह से नाच देखते फिर उनके अपने खेल शुरू हो जाते जिसमें कबड्डी-कबड्डी होती जिसे ‘डुडुमार’ कहते. ‘इधर एक तरफ खेल में नानतिन, लड़के-लड़कियां, किशोर-युवा रमे होते तो दूसरी ओर पूजा की तैयारी पूरे जोर शोर से होतीं. प्रसादी बनती, भेंट चढ़ावा रखा जाता, खानपिन की सब व्यवस्था होती. नाच-गीत-ढुस्के में आंग थिरकता.
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

नंदादेवी माता के पुजारी नंदाष्टमी से दो दिन पहले बर्त कर इसे तोड़ने जाते. इन्हें तोड़ कर डोके में रखा जाता और जब वह गांव की सीमा पर पहुँचते तो ढोल बाजे के साथ गांव के मवासे उनका स्वागत करते. कोंल कफ्फु के बड़े बड़े सफेद पुष्प अष्ट्मी के दिन देवी नन्दा को अर्पित किये जाते और गांव के हर परिवार को दिए जाते जिन्हें वह अपनी ठ्या या पूजा स्थल पर शुद्धता के साथ रखते. ब्रह्म कमल वाले उच्च स्थानों से भी आगे मासी गूगल मिलता जिसका पूरा पंचांग अर्थात फूल-पत्ती,जड़-तना,बीज काम आता. इसकी धुँगार से वातावरण सुगंध से भर जाता. मासी के फूल तो सबको भाते. नंदादेवी के मेले में इसका ढुस्का गाया जाता :

स्यारा मुन्याल पानी का गूल,
कै जागा हुनेला मासी का फूल.
ऊंचो हिमाल मासी क फूल,
ढानी बुग्याल मासी का फूल.
जै जागा झुम झुम्या पानी,
वी जागा हुनेला मासी का फूल.
को देबी चढोलो मासी क फूल,
नन्दा देवी चढोलो, मासी क फूल.

नन्दा देवी पूजा की शोभा यात्रा में ग्राम के सभी जन उस स्थान पर इकठ्ठा होने लगते जहां एक बड़ा “ल्हाँग” खड़ा किया होता. इस ल्हाँग के ऊपरी सिरे या टुक में चंवर गाय की पूँछ व उसके नीचे लाल वस्त्र की तिकोनी पताका फहराती. शोभा यात्रा में सबसे आगे यही ल्हाँग होता और इसके पीछे दमाऊ व नगाड़ा दनदनाते शिल्पकार. लोगों के हाथ खूब बड़े झाँझर होते जिनकी झन्न झन्न से पूरा माहौल रोमांच से भर उठता. ताँबे की बनी बड़ी तुरही जिसे “भोंकोर” कहते बीच बीच में सांस रोक मुख से खूब देर हवा दे बज उठता. बाजा बजाते छिला : की लम्बी तान दे गीत गाते मंदिर की परिक्रमा होती. इस पूजा में बकरों के साथ भेंसे की बलि भी होती जिसके गले में फूलमाला पड़ी होतीं व पहले मंदिर में उसकी परिक्रमा कराई जाती. पशु बलि देवी नन्दा के आण-बाणोँ या उसके गणों को दी जाती है जब बलि होती तो मंदिर का द्वार बड़े वस्त्र से ढाँप दिया जाता. सयाने बताते हैं कि पशु बलि के समय अगर द्वार को ढका न जाए व साथ ही सामने दिखती हिमाच्छादित नन्दा देवी की श्रृंखला बादलों से घिरी न हो तो समझो अनिष्ट होने वाला है.

मिलम में नंदा पूजा अर्थात नंदाष्टमी से तीन रात पहले से ही नंदापौर यानी नन्दा के मंदिर में बाजे या “नौर्त” बजने की धूम मचती जिसमें दामामा, झांझर, भोंकर, तुरही व नगाड़ा बजता. नंदाष्टमी के दिन तो सुबह ही हर घर में प्रसाद बनता व साथ में बागिची, कुकाला व आलू के गुटके के साथ अन्य कई भोग. नन्दा देवी को चढ़ाया जाने वाला बकरा फूलमाला से सजा टीका पिठ्या लगा सुबह ही नंदापौर में पहुंचा देते. बलि घर घर से होती या कुछ परिवार मिल कर भी अर्पित करते. प्रधान पूजा के समय मिलम के पंचायत घर में एक खूब लम्बे मोटे बांस के डंडे पर झंडा या “ल्हाङ” लगाया जाता. इसके आखिरी पतले सिरे पर पीतल की मूर्ति का मुख होता जिस पर अक्षत-पिठ्या व तेल भी लगाते तो ठीक नीचे होती खूब बड़े वस्त्र की तिकोनी पताका. नौर्त के बाजे बजते. धूप बत्ती जलतीं.इस सजधज श्रद्धा भक्ति की धूम के साथ तब रोमांच का माहौल बनता जब किसी के आँग में द्यापता अवतरित होता जो बलि के लिए लाए किसी बकरे को हाथ से पकड़ “ल्हाङ” पर चढ़ जाता और उसके गले पर दाँत गढ़ा खून निकाल देता. स्वयं का चेहरा रक्त रंजित करने के साथ ल्हाङ में थापी धुर्मा की मूर्ति को भी खून से लाल कर देता. ल्हाङ को कई हाथ मजबूती से पकड़े रहते.ल्हाङ दो होते,पहले में लाल पताका होती जो धुर्मा या आदमी का प्रतीक व दूसरी सफेद पताका जो नारी या नन्दा की प्रतीक होती. द्यापता का औतार जब ल्हाङ से नीचे उतरता तो गाजे बाजे की तीव्र ध्वनि व “छैs:छैs:छैs:छैs:छुमाss छै” के समवेत उदघोष के साथ नंदपौर ले जाया जाता जिसमें नन्दा का ल्हाङ आगे होता. ल्हाङ के पीछे मिलम वासी चलते.नन्दा देवी की एक पक्ष से चल रही पूजा के समापन पर सभी के मन में उल्लास और उमंग से भरे इस पर्व को खुशी -खुशी मना लेने का संतोष होता. उत्साह के साथ मनाई पूजा में अपनी मनोकामना पूरी होने का विश्वास बनता.

छिला! कारी कुरी कुटैली क हाली छ बिन
छिला! नन्दा क कौतिक हुँन छ बरस दिन
छिला! पारी कोट बुड़ा माज हुड़की क्या बाज
छिला! नन्दा को अष्टमी भै छ बरस दिन
छिला !रूपस्या गठयूरी माज नेवर क्या छाज
छिला !रूपस्या जडिया माज घघिया क्या छाज
छिला सपूर कमर माज पटुक क्या छाज
छिला!रूपस्या अंगिया मा मखिया क्या छाज
छिला!रूपस्या गलुरी मा हंसुली क्या छाज
छिला! नन्दा क कौतिक हुंन छ बरस दिन

नंदाष्टमी पर्व को मनाते सारी रस्म व रिवाज को पूरा करते जो परिश्रम किया जाता उससे सामान्य चली आ रही दिनचर्या में बदलाव होता, मनोरंजन के नए आयाम जुड़ते और अगली पूजा की प्रतीक्षा बनी रहती. बड़े बूढ़े, सयाने चाहते कि उनके चले आ रहे तौर तरीके, रीति -रिवाज, परंपरा और सामाजिक मान्यताएं ऐसे धार्मिक आयोजन में पूरी तरह बनी रहें तो उन्हें इस बात की चिंता भी होती कि रोजी रोटी के फेर में जिन मवासों की जड़ें गांव से हट रहीं हैं वह किस प्रकार से अपनी धरोहर को बनाए बचाये रखेंगी?
(Munsiyari Trek Mrigesh Pande)

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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