जब कभी पर्वतीय संस्कृति की चर्चा होती है, विशेषकर कुमाउंनी संस्कृति की तो स्वतः ही यहां की बैठकी होली (Kumaon Baithki Holi) गायन का सन्दर्भ मानस पटल पर उभरने लगता है. होली गायन की परम्परा कुमाऊं में बहुत प्राचीन काल से रही है. यह कहना बड़ा कठिन है कि प्रारम्भिक अवस्था में इसका स्वरूप क्या था. वरन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुमाऊं की यह विधा अपने आप में एक लम्बा इतिहास समेटे हुए है. इसकी पहली गूंज हमें चन्द राजाओं के शासन काल से सुनाई देती है.
एक होली धमार गीत की यह अंतिम पंक्ति ‘‘तुम राजा महाराज प्रद्युम्नशाह, मेरी करो प्रतिपाल, लाल होली खेल रहे हैं.’’ इस बात का स्पष्ट आभास देती है कि तत्कालीन राजा महाराजाओं के दरबार में होली गायन की यह विधा विद्यमान थी. चाहे आम जनमानस में इसका इतना प्रचार-प्रसार न हुआ हो. (जिनके पिया परदेस बसत हैं : लखनऊ में कुमाऊनी होली की परम्परा)
एक और धमार-गीत की यह अंतिम पंक्ति ‘‘तुम राजामहाराज प्रद्युम्नशाह, मैं भी तो चेरी उमंग काहे को रिस खाय रही.’’ इसी विश्वास की पुष्टि करती है कि चन्द शासन काल में यह विधा मौजूद थी. राजा प्रद्युम्नशाह का कार्यकाल 1779 से 1786 तक रहा. इसी तरह की कुछ अन्य गीतों की पंक्तियां इसके विकास क्रम की ओर संकेत करती है. जैसे: “केशरबाग लगाया, मजा बादशाह ने पाया.”
फिर इसी गीत की आगे की पंक्ति “इतने में आ गई पूर्वियों की पलटन, गोरे ने बिगुल बजाया.’’ स्पष्ट रूप से मुगल एवं अंग्रेजी शासन काल में भी इसकी उपस्थिति को प्रमाणित करती हैं. इसी तरह इस गीत की बानगी देखिये- ‘‘हो मुबारक मंजरी फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाब अली बारादरी में रंग बनो है, कुंजन बीच मची होरी.’’ इतना ही नहीं सुर सम्राट तानसेन भी होली-गीतों में छाये हुऐ हैं. जैसे: ‘‘मियां तानसेन आज खेलें होली तुम्हरे दरबार. सप्त सुरन को रंग बनो है और अलाप तान की फुहार.’’
कुमाउंनी के आदि कवि गुमानी द्वारा रचित होली-गीत भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कुमाऊं में होली गायन की समृद्ध परम्परा सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी थी. हो सकता है कि चन्द राजाओं के शासन काल से पूर्व भी कुमाऊं में होली गायन की परम्परा रही हो (जिसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है) पर इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारी यह वरदान स्वरूप अनमोल धरोहर आज से 300 वर्ष पूर्व कुमाऊं में अपना स्थान बना चुकी थी. तब चाहे इसका प्रचलन वर्तमान की तरह इतना व्यापक न रहा हो और यह केवल राज दरबारों तक ही सीमित रही हो. इतना अवश्य है कि इसकी जड़ें यहां के जन मानस में अपना स्थान बना चुकी थी. समय के साथ-साथ यह विधा धीरे-धीरे पुष्पित और पल्लवित होती चली गई और इसका वर्तमान स्वरूप कुमाऊनी संस्कृति की एक विषिष्ट पहचान बन चुकी है.
हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि कुमाऊनी रामलीला और होली-गायन की परम्परा का जन्म और प्रचार-प्रसार सारे कुमाऊं में अल्मोड़ा से ही हुआ और इसी कारण इसे इस सम्पूर्ण क्षेत्र की सांस्कृतिक राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ है. पूर्व में अल्मोड़ा ही कुमाऊं का पर्याय था क्योंकि आज के पिथौरागढ, बागेश्वर और चम्पावत जनपद अल्मोड़ा के ही भू-भाग थे और कमोवेश यही स्थिति नैनीताल-उधमसिंह नगर की थी.
ऐसा कहा जाता है कि उन्सीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बैठकी होली गायन का श्रीगणेश अल्मोड़ा में मल्ली बाजार स्थित हनुमान जी के मंदिर से हुआ. इस स्थान ने तत्कालीन कई सुप्रसिद्व कलाकारों और होली रसिकों को जन्म दिया जिनमें प्रमुख थे स्वर्गीय गांगीलाल बर्मा (गांगी थोक), स्व. शिवलाल वर्मा, स्व. मोहन लाल साह, स्व. चन्द्र सिंह दयाल आदि. हनुमान मंदिर के अलावा गांगी थोक जी के आवास में भी होली की बैठकें जमती थीं. जहां गणिका राम प्यारी जैसी विशिष्ट कलाकार, जो कि ठुमरी, टप्पा, गजल गायकी में सिद्वहस्त थीं को भी सुनने और उनसे कुछ सीखने का अवसर जिज्ञासु रसिकों को मिलता रहता था.
इन्हीं दिनों कुछ मुसलमान गायक भी अल्मोड़ा आते रहे. इसमें विशेष रूप से उस्ताद अमानत हुसैन का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, जिन्होंने होली गायकी को एक व्यवस्थित या यह कहें कि एक उप-शास्त्रीय स्वरूप प्रदान किया और उन्हीं के द्वारा चांचर ताल की भी रचना की गई. चांचर ताल का प्रयोग बैठकी होली गायन में किया जाता है.
अल्मोड़ा में उन दिनों ब्रज की रास मण्डलियों और नौटंकी दलों की भी खूब धूम रहा करती थी. उनकी स्वर लहरियों में भी अल्मोड़ा डूबता-उतरता रहाता था. इन सबने मिल कर यहां की बैठकी होली गायन को एक ऐसा स्वरूप प्रदान किया जिसका और कोई सानी नहीं रहा. कुमाउंनी बैठकी होली की गायन शैली इसे एक अलग पहचान देती है. इसने यहां के जन-जन को इस कदर प्रभावित किया कि इसकी नियमित बैठकें घर-घर होने लगीं. उन दिनों विशेष रूप से स्व. शिवदत्त मुखतियार, स्व. वेदप्रकाश बंसल, स्व. जगत सिंह बिष्ट, स्व. मोतीराम सनवाल (बैद्य) के आवासों में होने वाली बैठकें अपनी विषिष्ट छाप छोड़ जाती थी. (रितुरैण या ऋतुरैण: चैत के महीने में गाये जाने वाले लोक गीत)
इसी अवधि में हुक्का क्लब ने भी बैठकी होली गायन की परम्परा को अपनाया, जो पिछले 80-85 वर्षो से आज तक निर्बाध रूप से चली आ रही है. 70 के दशक में अल्प अवधि के लिये इसमें व्यवधान आया पर इसके बाद इसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. आज हुक्का क्लब की बैठकी होली अपनी विषिष्टता, मर्यादा और अनुशासन के लिये सभी क्षेत्रों में जानी जाती है. यहां के होली गायकों द्वारा अन्यत्र भी होली बैठकों में भाग लेकर इसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है. अपने प्रारम्भिक काल में जिन होली गायकों ने हुक्का क्लब की होली बैठकों को जमाया उनमें प्रमुख थे- स्व. शिवलाल बर्मा गांगी थोक, हरदत्त शास्त्री, देवीदत्त उप्रेती, चन्द्रलाल वर्मा (कवि), प्रेमलाल साह (पिरीसाह) जवाहरलाल साह, जगमोहन लाल साह, मोतीराम साह ‘चकुड़ायत’, गोविन्द लाल साह (चड़ी), फणदत्त जी, हीरालाल वर्मा (जीबू सेठ), चन्द्रसिंह नयाल, भवान सिंह, मोहन सिंह (नकटी), रामदत्त तिवारी ,बचीलाल वर्मा (बची बाबू) कृष्णानन्द भट्ट जी आदि (सभी स्वर्गीय). जीबू सेठ ने तो होली गाते-गाते ही अपने प्राण त्याग दिये थे. होली के दिनों में स्व. रामदत्त तिवारी, गफ्फार उस्ताद, रतन मास्टर, रामसिंह, मोहनसिंह, देवीलाल बर्मा (सभी स्वर्गीय ) जैसे तबला वादकों की संगत हुआ करती थी. स्व. ईष्वरीलाल साह जी का सितार, स्व. परसी साह, चिरंजी साह, जुगल रईश, वेदप्रकाष बंसल, गोबिन्द सिंह, जगत सिंह जी का वायलिन और स्व. मोतीराम जोशी और बिज्जी बाबू का मंजीरा वादन चाहे बीते दिनों की स्मृति बनकर रह गया हो पर इन सभी दिवंगत कलाकारों के आशीर्वाद से आज की पीढ़ी एक नये उत्साह से हुक्का क्लब की परम्परा को पूरी निष्ठा के साथ निभाते चली आ रही है.
आज अपनी इस अलौकिक परम्परा की अलख को निरंतर जगाये हुए हैं, शिव चरण पाण्डे, श्याम लाल साह, शंककरलाल साह, प्रभात कुमार साह, कंचन कुमार तिवारी, शिवराज साह, दिनेशचन्द्र पाण्डे, धरणीधार पाण्डे, गोपाल कृष्ण त्रिपाठी, राजन सिंह विष्ट, मनीष पाण्डे, चन्दन आर्या, महन्त त्रिभुवन गिरी महाराज, महेश चन्द्र तिवारी ,अश्विनी कुमार तिवारी, मोहनचन्द्र पाण्डे आदि. इन कलाकारों के अतिरिक्त जिन कलाकारों ने हुक्का क्लब की बैठको को अपने गायन से सजाया संवारा है वे प्रतिभाएं हैं देवकीनन्दन जोशी, निर्मल पंत, अनिल सनवाल, जितेन्द्र मिश्र, अमरनाथ भट्ट, रमेश मिश्रा, कमलेश कर्नाटक आदि. इसी क्रम में हम संस्था के उन दिवंगत कलाकारों को भी नहीं भूल पाएंगे जो असमय ही हमारा साथ छोड़ कर स्वर्ग सिधार गये हैं यथा- लक्ष्मीलाल साह बैंकर्स, एल.डी.पाण्डे, राजेन्द्र लाल साह, पूरन चन्द्र तिवारी, रवीन्द्रलाल साह, जगदीशलाल साह ‘‘भाई’’ और रमेशलाल साह.
हुक्का क्लब, बैठकी होली गायन की सभी मर्यादाओं एवं परम्परागत दिशा निर्देशों का अक्षरशः पालन करते हुए इस अनमोल धरोहर के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार के दायित्व का पूर्ण ईमानदारी एवं लगन के साथ निर्वाह करता चला आ रहा है. प्रतिवर्ष परम्परानुसार बैठकी होली गायन की शुरूआत पौष माह के प्रथम रविवार से होती है, जो निरन्तर छलड़ी तक चलती है. यह अवधि लगभग तीन माह की होती है. पहले दिन से ही गुड़ की भेली तोड़कर सभी उपस्थित कलाकारों व श्रोताओं में इसका वितरण किया जाता है, जो छलड़ी तक चलता रहता है. बीच-बीच में कभी-कभी या विशेष अवसरों पर जैसे बसन्त या शिवरात्रि को या फिर रंगभरी एकादशी से छलड़ी तक विशेष बैठकों का आयोजन किया जाता है जो सुबह तक चलती है. इन बैठकों में स्थानीय कलाकारों के अतिरिक्त बाहर से भी गायकों को आमंत्रित किया जाता है. अन्य दिनों में सायंकालीन बैठकें आयोजित की जाती हैं.
कुमांउनी बैठकी होली गायन की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें उपस्थित कोई भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गई होली को स्वच्छन्द रूप से गा सकता है और अनुभव कर सकता है कि वही बैठक का एक अभिन्न अंग है. यह इसलिए सम्भव हो पाता है कि होली-गीत शास्त्रीय-रागों पर आधारित होते हुए भी शासत्रीय बन्धनों से मुक्त होते हैं. कुमाउंनी होलियां लगभग सभी शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं. हर बैठक की शुरूआत राग श्याम कल्याण या काफी से की जाती है और क्रमवार जंगला-काफी, खमाच, सहाना, झिझोटी, विहाग, देश, जैजैवन्ती ,परज और भैरव तक पहुंचते-पहुचंते सुबह कब हुई पता ही नहीं चलता. दिन को आयोजित होने वाली बैठकों में मुख्य रूप से राग पीलू, सारंग, भीमपलासी, मारवा, मुल्तानी, भूपाली आदि रागों पर आधारित होलियों का गायन किया जाता है. तबले पर सभी होली गीतों में चांचर ताल को ही बजाया जाता है. गाने की बढ़त सितारखानी और तीन-ताल से की जाती है और कहरूवे तक पहुंचती है. गायक जब गीत की अन्तरा से स्थाई पर आता है तो फिर ताल विलम्बित होकर चांचर में आ जाती है. कुछ होली गीत रूपक, तीन-ताल और झपताल में भी गाए जाते हैं.
होली गायन की यह चर्चा तब तक अधूरी ही रहेगी यदि हम सुविख्यात होली-गायक स्व. ताराप्रसाद पाण्डे जी का सादर स्मरण नहीं कर लेते, जिनकी ख्याति होली-गायकी के क्षेत्र में एक नक्षत्र की भांति सदैव चमकती रहेगी. इस विधा को संरक्षित रखने में स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह, स्व. मोहन उप्रेती और स्व. बसन्त लाल वर्मा का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
पौष माह के प्रथम रविवार से बसंत तक निर्वाण और भक्ति प्रधान होलियों का ही गायन किया जाता है. बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक रंग भरी हांलियां गाई जाती हैं और शिवरात्रि से छलड़ी तक श्रृंगार रस से ओत-प्रोत रंगीन गीतों का ही बोलबाला रहता है. टीके के दिन होली के विदाई-गीतों का गायन किया जाता है और भजनों के माध्यम से भी होली को विदाई दी जाती है.
वर्तमान में कुमाउनी बैठकी होली के भविष्य के सम्बन्ध में कोई चिन्ता करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. जब तक इस भूमण्डल में संगीत का अस्तित्व रहेगा यह विधा भी अक्षुण्ण रहेगी. वैसी उतार-चढ़ाव तो जीवन के हर क्षेत्र में आते रहते हैं और इससे होली गायन भी अछूता नहीं है. होली का त्योहार तो हम सब में इस कदर रचा बसा हुआ है कि हम स्वंय को इससे न तो अलग कर पाएंगे और न ही अलग होना चाहेगें. आवश्यकता है इसके प्रति सकारात्मक सोच को बनाये रखने की तभी हम कह सकते हैं कि बैठकी होली गायन का भविष्य सुरक्षित है. जैसे-जैसे होली पर्व की तिथियां निकट आने लगती है उसी गति से कुमाऊं में स्थान-स्थान पर आयोजित की जाने वाली बैठके इस बात का प्रमाण हैं कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर अपनी पहचान सदैव बनाये रखेगी और जब तक जीवन है यह भी जीवित रहेगी.
यह लेख उत्तराखंड वरिष्ठ रंगकर्मी शिवचरण पाण्डे द्वारा लिखा गया है. अल्मोड़ा के रहने वाले शिवचरण पाण्डे ने उत्तराखंड लोक से संबंधित पत्रिका पुरवासी का संपादन भी किया है.
‘उत्तराखण्ड होली के लोक रंग’ शेखर तिवारी द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. चंद्रशेखर तिवारी काफल ट्री के नियमित सहयोगकर्ता हैं. उत्तराखण्ड की होली परम्परा (Traditional Holi) पर आधारित और समय साक्ष्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की रूपरेखा दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून द्वारा तैयार की गयी है. होली के इस मौसम में इस जरूरी किताब में से कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं. अनुमति देने के लिए हमारी टीम लेखक, सम्पादक, प्रकाशक व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की आभारी है.
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