द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर गढ़वाल राइफल्स की 2/18 और 5/18 बटालियन पहले से ही मौजूद थी. 15 फरवरी, 1942 को सिंगापुर पर जापानियों का आधिपत्य हो जाने पर लगभग 1800 गढ़वाली सैनिकों और कुछ अन्य अफसरों को विभिन्न स्थानों पर बंदी बनाया गया. जिनमें से अधिकांश आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये. 23,266 भारतीयों की संख्या वाली आजाद हिन्द फौज में कुल 2,500 सैनिक गढवाली थे.
अपने साहसिक कार्यों एवं विश्वसनीय पदों पर कार्य करके गढ़वाली सैनिकों तथा अफसरों ने आजाद हिन्द फौज में अपने लिए विशिष्ट स्थान बना लिया था. गढ़वालियों के साहस और शौर्य को देखकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया. 2/8 बटालियन के सूबेदार कैप्टन चन्द्रसिंह नेगी को लेफ्टिनेंट का पद प्राप्त हुआ. बाद में उन्हें सिंगापुर में आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में कमाडेंट के पडी पर नियुक्त किया गया.
उसी बटालियन के सूबेदार देवसिंह दानू को मेजर पद पर पदोन्नति देकर नेताजी नें उन्हें अपना अंगरक्षक गढ़वाली बटालियन का कमांडर नियुक्त किया. कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को नेताजी ने अपना निजी सहायक नियुक्त किया. 5/18 गढ़वाल राइफल्स के पितृशरण रतूड़ी को कर्नल पद पर नियुक्त किया गया. तत्पश्चात सुभाष की प्रथम बटालियन का कमांडर नियुक्त किया गया.
कमांडर बुद्धिसिंह रावत ने अराकान के युद्ध में अदभुत शौर्य का परिचय दिया. उनके रणकौशल से नेताजी बहुत प्रभावित हुये. ले. कर्नल रतूड़ी ने भी मैडोक अभियान में अपनी युद्ध कुशलता का परिचय दिया. मैडोक अभियान की सफलता के लिये आजाद हिन्द फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खां ने ले. कर्नल की बहुत प्रशंसा की. ले. कर्नल रतूड़ी की योग्यता से प्रभावित होकर नेताजी ने उन्हें अपने व्यक्तिगत स्टाफ में ले लिया.
एक अन्य गढ़वाली सेनानायक सूबेदार मेजर पदमसिंह गुंसाई को भी मेजर पद प्राप्त हुआ. उन्हें सुभाष रेजिमेंट की तीसरी बटालियन में कमांडर नियुक्त किया. कमांडर पदमसिंह गुंसाई के नेतृत्व में यह बटालियन असम तक आ गयी थी लेकिन युद्ध साम्रग्री न होने के कारण दिल्ली की ओर न बढ़ सकी. 27 मई 1945 को कमांडर पदमसिंह गुंसाई शहीद ही गये.
आजाद हिन्द फौज में गढ़वाली वीरों के शौर्य का विवरण सेकिंड लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट के बिना अधूरा ही रहेगा. मलाया में आजाद हिन्द फौज की स्थापना के समय उन्हें सेकिंड लेफ्टिनेंट का पद प्राप्त हुआ. बाद में उन्हें नेहरू ब्रिगेड की ‘बी’ कंपनी का कमांडर नियुक्त किया गया. नेहरू ब्रिगेड को इरावदी नदी के पास अंग्रेजों से युद्ध करना था. उस क्षेत्र में रौगजींन नामक स्थान पर 17 मार्च, 1945 को ज्ञानसिंह बिष्ट अपने 14 सैनिकों के साथ ही शक्तिशाली ब्रिटिश सेना से युद्ध करने के लिये रणभूमि में कूद पड़े. उन्होंने अद्वितीय साहस का परिचय देते वीरगति को प्राप्त हुए.
आजाद हिन्द के सपने को साकार करने के लिये 2,500 गढ़वाली सैनिक में से 800 गढ़वाली वीर अपने देश की आजादी के लिये शहीद हुए.
गढ़वाल और गढ़वाल पुस्तक में डॉ एस.ए.एच. जैदी और सुरेश चंदोला के लेख के आधार पर.
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