लंबे समय में प्रशासनिक एवं राजनैतिक रूप से उपेक्षित पहाड़ के सुदूरवर्ती गांवों में भी विज्ञान एवं तकनीकी का एक समृद्ध स्वरूप विकसित होता रहा है. यहां भी लोक के अपने हरफनमौला शिल्पी रहे हैं जिनके हुनर का उपयोग लोग अपने रोजमर्रा के कामों को आसान बनाने में करते हैं. मगर ये कुशल शिल्पकार गुमनामी का जीवन जीते हुए अंततः उपेक्षा और अभावों के बीच दुनिया से विदा हो जाते हैं.
(Illiterate Engineer Jhim Ram)
ऐसी ही कहानी एक लोक तकनीशियन झीम राम की भी है, जो एक साथ सिविल इंजीनियर, लोहा-तांबा-पीतल के कारीगर, लकड़ी के शिल्पी, मूर्तिकार, संगीतकार किसी भी ताले की चाभी बनाने में माहिर और अच्छी खासी बंदूक बना देने वाले कलाकार थे. मगर उनके सबसे यादगार काम, जो उन्हें अनपढ़ होते हुए भी एक इंजीनियर का दर्जा देते हैं, वे हैं मेहराबदार पुल (आर्क ब्रिज) जो उन्होंने विभिन्न भागों में बनाये. आज आधी सदी बाद भी इन पुलों से लोग पहाड़ी गाड़ गधेरों को पार कर रहे हैं.
पूरे सौ साल के जीवनकाल में उनके काम को प्रदर्शित करता कोई आलेख नहीं छपा. न ही उन्हें वह सम्मान मिला जिसके वह हकदार थे. उत्तराखंड के पिथोरागढ़ जिले की डीडीडाट तहसील के बस्तड़ी गांव में 1910 में रूप राम के घर पैदा हुए झीम राम को किसी किस्म की औपचारिक शिक्षा नसीब नहीं हुई. कारण एक तो जाति के निचले पायदान पर होना, ऊपर से गरीबी और अभाव. मगर प्रतिभाएं अक्सर अभावों के बीच से ही फूटती है.
अपनी सीखने की असीम जिज्ञासा और रचनात्मकता से जो, जिससे जहां भी मिला आत्मसात कर लिया. परिवार का परंपरागत पेशा लोहारी था सो इसमें वे कम उम्र में ही पारंगत हो गये. 18 साल की उम्र में लखती गांव की प्रतिमा से विवाह हुआ तो ससुरालियों ने कुछ जमीन देकर वहीं बसा लिया. आस-पास के गांवों में इनके बनाए दातुली, कुदालें, कुल्हाड़ी, बसूलों के साथ ही लकड़ी के काम की मांग बढ़ने लगी. पूरी आठबीसी पट्टी में मुआनी से लेकर कनालीछीना और दिगतड़ तक वह भली भांति पहचाने जाने लगे.
विभिन्न शिल्पियों के साथ मात्र कुछ दिन बिताकर ही वह उसमें कुशलता अर्जित कर लेते. मानीराम उस्ताद के साथ रहकर वह हारमोनियम में पारंगत हो गये और कई स्थानों पर रामलीलाओं में दशकों तक योगदान देते रहे. 95 साल की उम्र में अंतिम रामलीला करायी. इस तरह पूरे सौ साल की उम्र में 14 दिसंबर 2010 को मृत्यु तक वे सक्रिय बने रहे.
(Illiterate Engineer Jhim Ram)
आवागमन की दृष्टि से अति दुर्गम इस क्षेत्र में इन्होने विभिन्न स्थानीय नदियों में न्यूनतम साधनों और मात्र ढाई तीन सौ रुपये के खर्च से चार मेहराबदार पुल बनाये. जिनके निर्माण में लोहे और सीमेंट का रत्ती भर भी प्रयोग नहीं हुआ. आश्चर्य होता है कि केवल पत्थरों के उपयोग से पुल निर्माण की इस रोमन तकनीक में यह अनपढ़ व्यक्ति कैसे पारंगत हुआ.
झीम राम ने पहला पुल 1954 में मस्मोली गांव में बनाया. दूसरा 1962 में अपने ही गांव में दूयोरिया मंदिर के पास. 1969 में तीसरा रोल गाड़ में बाराधीसी और आठबीसी पट्टियों को जोड़ते हुए और चौथा पाराकोट में 1970 में बनाया. इन पुलों पर आज भी आवागमन होता है. इन पुलों की औसत लंबाई 20 से 30 मीटर तक है और यह पूरी तरह से पत्थर से निर्मित हैं. आर्क ब्रिज प्राचीन रोम में सबसे पहले बनाए जाते थे और फिर यहां से यह तकनीक यूरोप और चीन होते हुए भारत पहुंची. सिविल इंजीनियर इस ढांचे का उपयोग- सड़कों पर कलबर्ट बनाने, दरवाजों पर मेहराब, स्टेडियमों में विशाल छतें लगाने में करते रहते है. जिनके लिए विशेष प्रशिक्षण को आवश्यकता होती है क्योंकि इनके निर्माण में विज्ञान के कुछ बुनियादी सिद्धांतों को जानकारी और डिजाइन में महारत ज़रूरी है.
यह कौशल केवल अकादमिक प्रशिक्षण से ही नहीं आ जाता बल्कि व्यवहार से भी इसे अर्जित किया जा सकता है, इसकी मिसाल झीम राम हैं. उन्होंने हर कौशल-व्यवहार को पाठशाला से अर्जित किया चाहे वह मोम की मूर्तियों को सांचे में डालकर उन्हें धातु का बनाना हो या फिर हारमोनियम पर थिरकती उंगलियों से लोक धुनें निकालना या लकड़ी पर बारीक नक्काशी.
बहुत कम बोलने वाले और नितांत सौम्य झीम राम हमेशा दिखावे से दूर रहे. अपनी कुशलता, मेहनत और ईमानदारी के बल पर उन्होंने क्षेत्र में सम्मानजनक पहचान बनाई, मगर नई पीढ़ी उनके नाम व काम से अनभिज्ञ है. क्षेत्र के बाहर भी उन्हें अधिक पहचान नहीं मिल सकी. आज जब झीम राम हमारे बीच नहीं हैं उनका योगदान किसी भी रूप में भुलाए जाने योग्य नहीं है. लोक के ऐसे शिल्पी को वही सम्मान मिलना चाहिए जैसा हम लिओनार्दो दा विंची को देते है, एक हरफनमौला कलाकार की तरह याद करके.
(Illiterate Engineer Jhim Ram)
पिथौरागढ़ के रहने वाले कमलेश उप्रेती शिक्षक हैं. शिक्षण क्षेत्र की बारीक़ समझ रखने वाले कमेलश को उनके ब्लॉग कलथर में भी पढ़ा जा सकता है.
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Very informative