वर्ष 2020 में उम्र के पचहत्तरवें पायदान में कदम रखते तीन थोकदारों का यह किस्सा शुरू हुआ जिसके पीछे गाँव के बालक की वह कथा है, जिसमें वह मातृ विहीन हो दस साल की आयु तक अपने गोठ- घर में गुजार फिर अपने पिता की मर्जी से आगे पढ़ाई लिखाई के लिए शहर की ओर प्रस्थान करता है. माथे पर लम्बा केसरिया तिलक लगाए, अक्षत च्याँपे, गाँधी टोपी पहने जिसके नीचे मोटी चुटिया का कोना दिखाई दे रहा होता है.फिर न जाने कहाँ से टपके उसी के हम उम्र हवा में उसकी टोपी उछाल उसे पहाड़ी कव्वा कह हीनता का एहसास दिला देते हैं. ऐसी ही हीनता अंग्रेजी के आतंक में पगे नैनीताल के लड़कों से संवाद में होती है.
(Hum Teen Thokdar Book Review)
अतीत विशाल सुरंगनुमा कोठरी थी जिसका आधा हिस्सा एक सफ़ेद चिड़िया थी और दूसरा हिस्सा काली चिड़िया. काली चिड़िया सफ़ेद को अपनी चौंच से कुतर रही थी मगर इससे उसका उजलापन जरा भी नहीं घाट पा रहा था. जितना उजास काली चिड़िया अपने भीतर भर रही थी, सफ़ेद चिड़िया अपने उजलेपन को हाथों हाथ चूस कर अपने अंदर फिर से भर लेती और दोनों आकार बराबर बने रहते. सफ़ेद चिड़िया अँधेरे -उजाले के इस खेल को देख कर मजे से गाना गा रही थी. मैं अपने चेहरे को पहचान नहीं पाया.’अपने किसी पुरखे का नाम लो ‘चेहरे ने मुझसे कहा. मैंने “थोकदार” नाम लिया.
पहला थोकदार तो लेखक खुद ही है जो गांव में पैदा हुआ और दस बरस का होते कहानीकार बनने शहर चला गया. जब वह बयालिस साल का हुआ तो उसने एक उपन्यास लिखा ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता ‘जिसका नायक हुआ कल्याण सिंह बिष्ट जो ऐसा जिद्दी है कि यह ठान कर चलता है कि अपने गांव को शहर बना कर ही दम लेगा. जहाँ थोकदारी नहीं चलेगी और वह आज़ाद भारत का एक खुशहाल समाज वाला गांव होगा. अब जब वह शहर पहुंचा तो उसे एक सांस्कृतिक झटका लगा यह देख कि यहाँ जो पहाड़ी भाई बंधु बस गए हैं वह एक दूसरे के सुख दुख के भागी नहीं बल्कि अपनी ही चिंताओं में सिमटे लोग बन गए हैं. ऐसे में कहाँ यह मुमकिन होता कि उसका गांव शहर बने. बस इतनी कोशिश कि जा सकती है कि जो उसका थोकदारी समाज है वह शहर बन जाय. कल्याण शहर और गांव के बीच पुल बनाने का जतन करता है. वापस अपनी जड़ों में लौटता है तो पाता है कि उसका गांव खुद ही लपक कर शहर के आगोश में आ चुका था.
अब इस शहर बन चुके गांव में एक युवा अफसर आता है जिसके सपने कल्याण से ही हैं. उस अफसर को अपने आगोश में ले वह खुशी से झूम उठता है जैसे उसकी चाहतें पूरी हो गयीं हों और अब वह यह जानना चाहता है कि अभी तक वह कहाँ था ? अपने बावलेपन में उसे यह पता ही नहीं चलता कि अफसर तो उसकी गोद में दम तोड़ चुका है!
अब जो तीसरा थोकदार सामने है वह अपने अड़ियल तौर तरीकों से गाँव से निकल गढ़वाल विश्वविद्यालय से बी एस सी करता फिर सब कुछ छोड़ छाड़ गोरखपुर एक बड़े सिद्धयोगी की शरण में जा अपना नाम अजय सिंह से बदल आदित्य नाथ रख लेता है और देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुखिया बन जाता है.
(Hum Teen Thokdar Book Review)
इस कहानी को जल्दी लिख देने के पीछे एक विश्वास कहें या वहम काम करता है. बचपन में कभी एक झोलाछाप पहले थोकदार का भविष्यफल बांच कहता है कि उसकी उम्र सिर्फ पिछत्तर साल ही होगी. तो इसी साल आतंक की तरह आता है कोरोना. यहीं से लेखक के मन में बसी स्मृतियाँ उभर-उछल कर दो -टप्पे का खेल खेलने लगतीं हैं. उसका पहला स्कूल जो उसके गांव द्वौव में था जहाँ थोकदार पुरखों ने वीरस्तम्भ या ‘विरखम’ गाड़े थे. उसके ठीक सामने की पहाड़ी में कुलदेवी घुरका देवी का मंदिर है. वहीँ पनार नदी बहती है जिसके कोटोली नामक गांव में लोकदेवता ऐड़ी अपने तिरसूल के साथ विराजमान हैं.
स्मृतियों को कटोरते जैसे समय का चक्का पिछत्तर साल पहले के गांव में पहुँच गया है अब वह अपने ‘जागमें’ है. हर पहाड़ी गांव में कुलदेवता के थान की तरह पूरे आदर के साथ पुकारा गया जागमें. यह सिर्फ गांव की सीमा का केंद्र ही नहीं बल्कि उस गांव की सांस्कृतिक चेतना का भी केंद्र है. यहाँ के देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं, वायवीय शक्तियों के रूपक हैं. ये देवता आम पहाड़ी आदमी की शक्लो सूरत, पहनावे, चालढाल, सपनों और आकांक्षाओं की बात करते हैं. सबसे बड़ी बात यह सिद्ध करते हैं कि घने जंगलों, बलखाती -गरजती नदियों और ऊँची -ऊँची पहाड़ी श्रृंखलाओं में मुक्त विचरण करते एक पहाड़ी को रोकना आसान नहीं. ऐसा आदेश उसे सिर्फ और सिर्फ यह देवता ही दे सकता है.रुकने ठहरने का आदेश रोकना है. रुकना जरुरी है क्योंकि लेखक अर्थात पहला थोकदार सवालों के अदृश्य षड़यंत्रकारी घेरों के बीच फंस गया है. जानी पहचानी स्थानीय और राष्ट्रीय चेहरों की छवियां और उनकी महत्वकांक्षाऐं आपस में टकराने लगीं हैं. पुराने प्रसंग याद आते हैं. प्रेम तो जुआरी के बेटे और बूचड़ के भतीजे ने भी किया पूरी शिद्दत से एक ब्राह्मण लड़की से जो लेखक बनने की हौस रखता था पर उसे शहर में ताउम्र घुसने भी न दिया और वहीँ अंतर धार्मिक मुद्दा होने के बावजूद दूसरे प्रेमी जोड़े की पहचान विवाह के बाद सांस्कृतिक उपलब्धियों की पहचान के रूप में हुई.
‘तुझे तो शर्म से डूब मरना चाहिए था थोकदार! कैसा खसिया है यार तू, अंग्रेजीपरस्त बामणों की गीदड़ भभकी से डर गया? मुझे देख, कस्तूरी कोट का हूम होते हुए भी हिंदी वालों की राम -मय पतित -पावन देली में चौपड़ मारे बैठा कैसे उन्हीं की छाती में मूंग दल रहा हूं!ऐसी होती है पैकों की संतान!’
(Hum Teen Thokdar Book Review)
सवाल यह उभरता है कि क्या यह उथल- पुथल यह कमजोरी पूरे भारतीय समाज की है जो साहित्य में विमर्श और संघर्ष नहीं केवल यथास्थिति के रुमानी चौंचले देखना चाहता है. सवाल ये भी है कि क्या हिंदी का पाठक इस तरह के आभासी अंत का आदी रहा है जहाँ बौद्धिक शगल और हल्का फुल्का मनोरंजन दोनों मिल कर पाठक को सपनों की मीठी दुनिया की सैर करा दें, बस.
पर, ये जो पहला थोकदार है वह बचपन से ही ऐसा और इतना कुछ झेल गया है अपने घरोंदे के भीतर कि वह अपनी मां को भी आँख भर देख न पाया जो घास काटते तीखे ढलान से सेकड़ों फुट नीचे सेमल के एक पेड़ पर अटक गयी थी और उसके प्राण तब तक अटके रहे जब तक उसने अपने बेटे को देख न लिया. घास काटने वाली एक औरत यह भी कह रही थी कि ऐसे घरवाले को कैसे माफ़ किया जा सकता है जो पेट के बच्चे के साथ उसे हत्यारी शिला पर घास काटने भेजता है.
गांव के स्कूल से दर्जा छह करने के बाद पिता उन्हें अपनी विधवा बहन के पास नैनीताल इस आस से छोड़ देते हैं कि वह घरेलू कामों में हाथ बंटा देगा और खाली समय में पढ़ भी लेगा. वह बरसों बाद पिता की स्मृति में हल्द्वानी के पास फतेहपुर में बनाए घर में संगमरमर की पट्टी लगाता है जिसमें लिखा है बिशन कुटी.मां के गुजर जाने के बाद पिता ने दूसरी शादी नहीं की और न ही उसके द्वारा कभी-कभी भेजी चिट्ठीयों का कोई जवाब ही मिला,पर जब यह पहला थोकदार विदेश में पढ़ाने के बाद वापस लौटा तो उसे याद रहा कि जिम कॉर्बेट ने जो छोटी हल्द्वानी बसाई उसके पास उनके पिता ने कैसे सुल्ताना डाकू की प्रेमिका से जमीन का सौदा किया जिसे लोग पधानी कहते थे. माँ की यादें इस इलाके से जुडी न थीं पर उसकी स्मृति में माँ की छवि बहन के रूप में थी और यह जता देना जरुरी भी कि इस आख्यान के तीनों कथानायकों से जुडी इस कड़ी का सम्बन्ध उनकी बहनों से है जो इस कथन से शुरू होता है कि ‘थोकदारों की जिंदगी में आयीं औरतें चिड़िया बन जाती थी’.
अब जो दूसरा कथा नायक है यानी पौड़ी के पंचुर गांव का राजपूत ठाकुर अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ ‘योगी आदित्य नाथ’ जिस पर अपनी बड़ी बहिन शशि का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ा. बहन साधारण सी जिंदगी गुजारती चाय पकोड़ी और प्रसाद की दुकान ऋषिकेश में चलाती है.वो सत्ताइस साल से उससे मिली नहीं.वह चाहती है कि भाई उसके लिए कुछ करे या न करे पहाड़ की जनता के लिए कुछ भला जरूर करे. ये जो अजय है इसके गांव की कहानी ‘सरग ददा पाणि -पाणि ‘जहाँ पानी के अभाव में गला सूखता है.गांव में लड़की कोई नहीं देना चाहता. ऐसे निरपाणी गांव में औरतों का रुदन है जहाँ प्यासे बैल तक मरते हुए श्राप दे गए. सदमे से ग्रस्त वह लड़की भी दम तोड़ गयी जिसके बैल थे और अगले जन्म में उसे चातक की योनि मिली जो आसमान को देखती बारिश की विनती करती रहती है ‘सरग ददा पाणि-पाणि.
ऐसी कितनी ही अतृप्त आत्माऐं हैँ जो प्रतीक्षा कर रही हैं ऐसे उपादानों का जो उन्हें संतुष्ट कर सके. समय ही ऐसा है जो जरा सी असावधानी से कालकालवित कर गया है. करोना का आतंक है.सरकारी तालाबंदी है.जब यह सिमटती है तो पिछत्तर साल से बुनी मिथक कथा आगे बढ़ती है. थोकदारों का युद्ध कौशल, पैक योद्धाओं का मल्ल युद्ध, भारतीय चीनी सैनिकों की हाथापाई, कालापानी विवाद, सुशांत सिंह राजपूत का आत्मघात, राष्ट्रवाद के बलिदान, भ्रम की टांटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी.
फिर कई सवाल उठ खड़े होते हैं कि जब उज्जयिनी, पाटिलपुत्र, नालंदा जैसी सभ्यता का पूरी दुनिया में डंका बजता था तो क्या हमारा थोकदारी समाज आज की ही तरह मैदानी लोगों को देखते ही भाग कर घने जंगलों में गुफाओं में छिप जाता था ?क्या पहाड़ में सारी सवर्ण जातियाँ मैदानों से यहाँ आयीं और वही सारा ज्ञान विज्ञान अपने साथ यहाँ लाईं.रोचकता पैदा करने के लिए अब पहला थोकदार मधिया पैक और कमला बामणी की त्रासद कथा सुना अतीत के खस या खसियों को थोकदार कहे जाने की प्रतीति करताहै और इस को नाम देता है “जोशी मनोहरआदित्य नाथ जोगी बिष्ट ” जिसमें वह अपने चरित नायक का कायाकल्प करके ऐसा चित्र – विचित्र शीर्षक रचता है और इस बात का अहसास भी उसे है कि अगर जोशी जी आज जीवित होते तो इस शीर्षक को पढ़ कर अपनी सदाबहार भंगिमा में आँखें मूंदे ध्यानमग्न बड़बड़ाते कि “तुझे तो शर्म से डूब मर जाना चाहिए था थोकदार! कैसा खसिया है यार तू, अंग्रेजी परस्त बामणों की गीदड़ भभकी से डर गया? मुझे देख, कस्तूरी कोट का हूम होते हुए भी हिंदी वालों की राम-मय पतित-पावन देली में चौपड़ मारे कैसे उन्हीं की छाती में मूंग दल रहा हूं”. वह बताते हैं कि मनोहर श्याम जोशी जी ने अपने उपन्यास ‘क्याप’ में उत्तराखंड की जो सामाजिक संरचना चित्रित की है, हू-ब-हू वही है जो हम तीन थोकदार की है. वही भौगोलिक स्थिति, वैसी ही जातिगत और आर्थिक संरचना और वैसा ही सामाजिक अंतर्विरोध.
(Hum Teen Thokdar Book Review)
अब यह जान लेना भी जरुरी है कि साल 1956 के जुलाई महीने में लगातार बारिश के बीच दस साल का एक बच्चा जो अपने गाँव की एक एक चीज को व्यक्तिगत रूप से जानता पहचानता था इस रहस्यमय झील के चारों ओर बसे बिजली के असंख्य लट्टुओं से जगमगाते शहर में समायोजन के द्वन्द को महसूस कर रहा जहाँ खुलापन नहीं, दमघोटू घनत्व था. अपनी जड़ों से जुड़ने और उनका विस्तार मिलता है यहीं पलते बढ़ते पढ़ते लिखते.
प्रेमचंद के उपन्यास, शैलेश मटियानी की कहानियां और मुक्तिबोध की किताब ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘अब अलग तरह की फंतासी को अपनी आजादी के साथ जीने और उलझन के भंवर में फंस फिर शोध करने वाराणसी के लिए निकल पड़ना, प्रयाग में मटियानी जी के पास ठहरना, बालकृष्ण राव, डॉ राम कुमार वर्मा, रघुवंश से मिलना और संयोग से रामस्वरूप चतुर्वेदी के निर्देशन में शोध कार्य की अनुमति मिल जाना. फिर आकाशवाणी में इलाचंद्र जोशी, मनोरमा में अमरकांत, नई कहानियाँ में अमृत राय के साहचार्य से भाग्य का खुलना.’मैंने प्रेमचंद को नहीं देखा मगर उनकी पत्नी शिवरानी देवी के वात्सल्य की छाँव को महसूस किया ‘. शोध कार्य के लिए अमृत राय द्वारा वाराणसी के गोदौलिया मोहल्ले में पांडे धर्मशाला के सामने प्रेमचंद्र के घर में रहना और उनकी उस कुर्सी का स्पर्श करने में झुरझुरी होना जिसमें वह बैठते थे. उनकी तस्वीर को एकटक देखते रोमांच हो जाना और फिर खुद ही उनकी धूल साफ करना.
अचानक ही 23 जुलाई 2020 को रवीश कुमार के प्राइम टाइम में नदियों में आयी बाढ़ और तबाही और इस सच को उजागर करना कि भाषा और अस्तित्व का अंकुरण सबसे पहले जल में ही होता है. इस प्रकार जिसे हम साहित्य कहते हैं उसका मूल भी नदियाँ हीं हैं क्योंकि नदी और भाषा के बिना संस्कृति जन्म ले ही नहीं सकती. वह रवीश कुमार को साधुवाद देते उनकी रिपोर्टिंग को आम लोगों के लिए जिन्दा रहने का बहुत बड़ा सम्बल बताता है. खास तौर पर उस थोकदारी समाज के लिए जो अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है.
अब आतीं हैं शिवानी जिनके लिए कहा गया कि जिस समाज मैं उनकी पैतृक जड़ें थीं, उनके संस्कार उस समाज में नहीं विकसित हुए. थोकदारी समाज का हिस्सा न होते हुए भी शिवानी के पात्रों का बड़ा हिस्सा इसी समाज के बीच से है. कठिन पहाड़ी ढलानों में खेती- बाड़ी के द्वारा गुजर -बसर करने वाला स्त्री समाज.उनकी हर कहानी और उपन्यास में स्त्री के दो रूप दिखाई देते हैं :उसका उपेक्षित, ग्रामीण या थोकदार रूप और दूसरा चमकदार, शहरी या आधुनिक रूप. इन दोनों में वह हमेशा थोकदार -स्त्री का ही पक्ष लेती दिखाई देतीं हैं. उनकी कहानियों का चरित्र चित्रण वैचारिक स्तर पर जूझने वाला अवसादग्रस्त नहीं है वह सीधे समस्या से संवाद करता है और दोषी को तत्काल दण्डित करने की वकालत करता है. स्त्री वहां प्रेमिका नहीं, विशुद्ध मानवी है. थोकदारी समाज के परिप्रेक्ष्य में शिवानी की कहानियों के पुनर्पाठ की जरुरत है और इस बात की भी कि हिंदी कथालेखन से वह जीवंतता कहाँ गायब हो गयी जिसकी वह बेहतर शुरुवात कर गयीं थीं.
पहाड़ के थोकदारी -ग्रामीण समाज को आकार देने में अब जिस व्यक्तित्व ने जिंदगी भर जोखिम उठा के जो काम किया, यह अगर न किया होता तो सारा पहाड़ आज वैसे ही मध्यवर्गीय खोखलेपन के भीतर कैद होता जैसा की यहाँ का सवर्ण-अंग्रेजीपरस्त समाज आज के दिन भी कैद है.यह व्यक्तित्व अनूठा है उसकी लिखी संस्मरणात्मक यात्रा विवरण ग्रामीण पहाड़ी संस्कृति को उस जीवंतता और सहजता से पेश कर गए जो बड़बोले इतिहासकार भी न कर पाए. उनकी रचनाएँ विश्व साहित्य की क्लासिकल रचनाएँ तो हैं हीं भारतीय मनीषा की अपूर्व धरोहर भी हैं. थोकदारी जिंदगी के अपूर्व जीवट से जुड़े इस व्यक्तित्व का परिचय और उसकी संघर्ष यात्रा का चितेरा है जिम कॉर्बेट जिसका कहना है कि वह नैनीताल के पक्के बासिंदों में एक है और वह यहाँ के इतिहास-भूगोल के साथ यहाँ के निवासियों की सोच और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के साथ यहाँ फैले मनोविकार और अंधविस्वास की भी पड़ताल करता रहा है. ‘बाला सिंह के पेट में घुसा दैत्य और मौत का बुलावा की कथा’ सुना कई हलचलों के साथ सनसनी फ़ैलाने वाला यह जिम कॉर्बेट है. आदमखोर को मारने की उसकी साहसिक गाथाएं हैं.
अब आगे 1976 का वह ऐतिहासिक अवसर है जब कुमाऊं विश्वविद्यालय का पहला दीक्षांत समारोह आयोजित होना है जिसमें इस कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए सुमित्रानंदन पंत को निमंत्रित करने कुलपति डॉ डी डी पंत लेखक को अतुल पांडे के साथ इलाहाबाद भेजते हैं. भौतिकी के जीनियस अतुल पाण्डे साहित्य ,विज्ञान और संस्कृति की पक्की जमीन पर पले बढ़े हैं. यात्रा के बीच अतुल बताते हैं कि उन्हें लगता है कि उनके व्यक्तित्व में थोकदार का चरित्र हावी है. राज की बात तो यह है कि थोकदारनी का दूध पी कर ही वह पले बढे हैं.जब वह पैदा हुए तो मां की छाती में दूध सूख गया था तभी सटे हुए पड़ोस के कमरे में खाती जी के यहाँ भी शिशु जन्मा. अतुल के भूख से बिलबिलाते क्रंदन को श्रीमती खाती सहन न कर पायीं और उस दिन से उनका एक दूध अपने बेटे के लिए तो दूसरा अतुल के लिए सुरक्षित कर दिया गया. ऐसी हो घटना सुमित्रानंदन पंत के साथ हुई जब शिशु को जन्म देने के बाद उनकी माँ न रहीं तो धरम सिंह की पत्नी खिमुली ने उसे अपना दूध दिया. पंडित का खून और थोकदारिन का दूध. खून और दूध का यह मिश्रण एक तरफ अद्भुत प्रतिभाशाली अतुल पांडे को रेखांकित करता है तो दूसरी और कविवर पंत को जिनकी रचनाओं के साथ ही कौसानी को भी सब जानने लगे.
(Hum Teen Thokdar Book Review)
इसी कौसानी में अब भागुली नाम की बच्ची की कथा है जो टोकरे भर काफल लाती है. वो काफल धूप में सुख जाते हैं. आमा यह मान कि आधे काफल भागुली ने खा लिए उसे खूब पीटती आँगन में अकेला छोड़ देती है. शाम होने वाली है.अपनी कमजोर आवाज में भागुली एक ही बात कह रही है ‘काफल पाक्को, मेंल नि चाक्खो’, और प्राण त्याग देती है.
भागुली का भाई गुसाईं सिंह और महाकवि का बचपन गुसाईं दत्त सगे भाई ही तो थे,मगर भाग्य दोनों के अलग -अलग लिख दिए गए थोकदार पुत्री भागुली को काफल भी नसीब न हुए ,वहीँ चाय बागानों के स्वामी गंगादत्त के कवि बन गए पुत्र को बुरुंश इसलिए सबसे अच्छा पुष्प लगा क्योंकि वह प्रेयसी के माध्यम से उसे सहज ही उपलब्ध है.भले ही वह काफल को आस पास फैले जंगली फलों वाले पेड़ों की तरह याद करता है:
काफल कुसम्यारू छ, आरु छ आखोड़ छ,
हिसालु, किल्मोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ,
पै त्वी में जोवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
फुली बुरुंश, त्योर जंगल में कोई जोड़ छ?
क्या यही विडंबना है पहाड़ की. अपनी गोद में पाल-पोस ये जंगल अपनी संतानों को देश संसार में नेतृत्व करने के लिए भेजते हैं जहाँ पहुँच वे अपनी धरती को कभी-कभार नेस्टोलॉजिया के रूप में याद तो करते हैं मगर उसे अपनी प्रेयसी की दासी से अधिक महत्व नहीं देते. तभी सामने आ जाता है अपनी क्षेत्रीय चेतना के साथ काफल के जंगल को अपनी अस्मिता के रूप में अंतरंगता से याद करता रचनात्मक प्रयास “काफल ट्री “. इसका युवा “ठोकदार” पहाड़ के सांस्कृतिक उहापोह को उसी की स्लैंग भाषा और शर्तों पर उजागर करता है. पढने-लिखने के कुंठाग्रस्त गुटबाज माहौल में अपनी बहुरंगी-बदरंगी हरकतों से कहीं खोई सुप्त पहचान, भाषा और अपने पर किये कटाक्ष के घालमेल से कहीं गुम हो गए स्मित और फोटो खींचने में आयी जबरन मुस्की-मुस्कान को कहकहे में बदल अनगिनत थोकदारों के दिमाग कुतर अपनी थात की पहचान काफल के तीन रूपों तीन रंगों में परोस देता है जो हरा है पहाड़ जैसा, लाल गुलाबी है ऊर्जा जैसा और काला है खूब पका, जिसके आगे कोई रंग नहीं चढ़ता. अब कहते कहते काफल की गुठली भी निगली जाती हो तो उसके गुण-अवगुण भी यहाँ साफ़ महसूस होजाने की गुंजाइश है और वह यह कि जैसे अतीत का हर टुकड़ा अनुकरणीय नहीं होता वैसे ही हर नया आधुनिक नहीं हो सकता.
परंपरा में अंधविश्वास और नैस्टोलॉजिया की बारीक़ परत को छांट कर बीन कर उनमें से अपने लिए जीवंत तत्वों को चीन्हना आसान नहीं होता. ऐसा कर पाने में समर्थ अपनी पीढ़ी में एक जीनियस की मेघा को समेटे इस युवा कबाड़ी अशोक पांडे के पास अपनी परंपरा से जुड़ा विवेक है इसलिए इस आलेख के उपसंहार के साथ -साथ अपनी संस्कृति को ले कर में उसके मंथन के बारे में आशावान रहना भी थोकदार की नियति है.
भविष्य में महसूस किये जाने वाले झटकों को झेलने वाली फ्यूचर शॉक, द्वन्द का समायोजन करती तीसरी लहर अर्थात द थर्ड वेव और सृजन की शक्ति को अनुकूलता के साथ संयोजित करती पावरशिफ्ट में प्रसिद्ध लेखक अलविन टोफ्लर की कृतियाँ भी ऐसी ही उथल पुथल को वैश्विक धरातल पर सामने रख गयीं जिसके कई प्रतिरूपों को अपनी आंचलिक साहित्यिक कृति ‘हम तीन थोकदार‘ में बड़ी सजीव प्रयोगात्मक शैली से सामने रखने में बटरोही सफल रहे हैं जिसका प्रकाशन समय साक्ष्य देहरादून ने किया है.
(Hum Teen Thokdar Book Review)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें: बेजान लकड़ियों में प्राण फूंकते जीवन चंद्र जोशी ‘चाचू’
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
View Comments
समीक्षा विस्तार पाई हुई है. सुधी पाठकों को निश्चित रूप से रचना का कलेवर समझने में इससे मदद मिलेगी.