जब शिवानी जब पहली-2 बार ससुराल आई तो ऐसी थी, जैसे कि हिसर (एक पहाड़ी मीठा खूबसूरत फल) की डली सी. पानी से भी पतली. धुएं से भी हल्की. जो जमीन पर भी न ठहरती! न ही हाथों से थमती. गोल मटोल. चांदो में से चांद और बांदों में बांद (अतुलनीय स्त्रीत्व). उसका जोड़ीदार भवानी भी ऐसा कि जैसे शिवाले में रखा नंदी व उसका जुझारू कंधा चौड़ी, छाती, ऊंचा माथा, गबरू जवान! भगवान किसी की नज़र न लगे, तभी दिल्ली के सेठ की नज़र चढ गया पट्ठा और बन गया उसकी कोठी का गार्ड.
(Garhwali Story Bhagwati Prsaad Joshi)
भवानी ने कम खाया और ज्यादा बचाया. उसका छोटा भाई जो बचपन में ही अनाथ हो गया था. उसने उसे लिखाया-पढ़ाया, शादी की और छोटी बहन देवकी के भी हाथ पीले किए. अपने बाल बच्चे तो थे नहीं तो और किस के लिए करना था. पर इलाके और पट्टी में उसका नाम हो गया कि भाई बेटा हो तो भवानी जैसा और बहू हो तो शिवानी जैसी!
उस दिन रिमझिम बरखा हो रही थी. चौमासे का झकझोर दिन. पूर्वी पर्वतों के ऊपर सतरंगा इंद्रधनुष चक्कर काट रहा था. तभी ठम दिल्ली से भवानी अपने चौक में आ धमका. लकदक हरी वर्दी, चमचम चांदी के बटन, सिर पर लाल कलंगीदार टोपी और खिले गालों पर फरफराती मूछें. पीठ पर भारी संदूक और हाथ में रंग-बिरंगा हैंडबैग और उसकी निराट काली आंखों से प्रेम की ऐसी रंगीन डोरी, देख शिवानी ठगी सी रह गई और खोली में खड़ी! ऐसा लगता जैसे पहाड़ के ऊपर से इंद्रधनुष गोल गोल चक्कर मारता हुआ चौक में ही प्रकट गया हो ! हे राम! ऐसा रूप स्वरूप! वह बस देखते ही रह गई.
भवानी को देख, शिवानी की आंखों में शिवाले के नंदी बैल कि सूरत नाचने लगी. सूक्ति है कि सत्य ही कल्याणकारी (शिव) है और सत्य ही सुंदर. नंदी भी एक सत्य है. श्रम शक्ति का प्रतीक. नंदी जो जन कल्याणकारी शिव का वाहन है. भवानी भी नंदी की तरह मेहनती था. दिन भर खेती-बाड़ी देखता. बाग-बगीचा लगाता और धूल-धूसर होकर साम को बिल्कुल बैल सा लगता. पर फिर नहा धोकर बस वही चोला और वही कंचन सी काया. अब की छुट्टियों में उसने फलों के वृक्ष लगाकर सारी उसर जमीन को पौधों से भर डाला था. प्रेम की डालियाँ फलने-फूलने लगी ही थी कि छुट्टियां समाप्त हो गई. उस दिन कुहासों से भरी रात में हल्का उजाला दिखाने लगा था. भोर का तारा दूर आकाश में टिमटिमा रहा था. भवानी ड्यूटी में जाने को तैयार हो गया. वही लकदक वर्दी, चांदी से चमचमाते बटन. सिर पर कलंगीदार टोपी. वह शिवानी को बगीचे तक ले गया, “शिवा देख ये पेड़! इन्हें सिर्फ पेड़ न समझना. ये हमारे बच्चे हैं बच्चे! इनकी खूब देखभाल करना. फिर देखना एक दिन ये कर देंगे हम को निहाल! नौकरी-चाकरी का क्या भरोसा, पत्थर की जड़ के समान होती है. आज है तो कल नहीं!” और फिर भवानी हो गया था उसकी आंखों से ओझल जैसे चौक के ऊपर चक्कर मारते हुए सतरंगी इंद्रधनुष के समान, आकाश में हो गया आलोप.
पर हाय क्या बोला था उसने कटु वाक्य. अरे नौकरी क्या? मनुष्य की जिंदगी का क्या भरोसा? एक दिन दे दिया भाग्य ने उसे अचानक धोका! दिल्ली में सेठ की कोठी पर पड़ा डाका. भवानी लड़ता-लड़ता वीरगति को प्राप्त हो गया. यह सुनते ही शिवानी बन गई जैसे पत्थर की मूरत और उसकी आंखों में आए आंसू ऐसे जम गए जैसे पूस में ओस की बूंदें.
बस उस पर जिंदगी भर के लिए लग गया अपूर्णता का ठप्पा. नंदी की आत्मा चली गई कहीं और बस यादों के गारे-पत्थर रह गए मन मंदिर के भीतर. अब कोई आसपास भी नहीं आता था. क्योंकि हीरा तो खो गया अब सिर्फ रह गए कांच के टुकड़े और यादों के कांटे ही कांटे. कभी रही होगी बांन्दों की बांद (भरपूर स्त्रीत्व युक्त) शिवानी! अब तो वह बन कर रह गई मात्र एक सिब्बा बोडी(ताई) इसी को कहते हैं कि भाग्य की चोट. खराब समय आने पर सुंदर नाम भी हो जाते हैं बदसूरत. वैसे ही पहाड़ की अनपढ़ स्त्री जात और वैसी ही विकट जिंदगी का सामना. पढ़ी लिखी होती तो कुछ और करती पर उसने मायके से लेकर ससुराल तक सीखा तो सिर्फ और सिर्फ खोदना, बोना और काटना. फिर संगी न साथी. दुर्दिनों में कहते हैं की नवजात बछिया तक के भी सींग पैने हो जाते हैं. उनका देवर परमा और उसकी पत्नी विमला के भी सिंग जमते-जमते एक दिन पैने हो गए. दुपाये बन गए चौपाये. भवानी का एहसान भूल गए और सरपट जमीन जायदाद हड़पने की जुगत लगाने लगे. परमा के अंतस में ज़रा सी लोक-लाज रही भी होगी. लेकिन अपनी पत्नी के बेसुरे रागों को सुन-२ लालची मन, रंग में आ गया और एक दिन पहुंच गया पटवारी की चौकी पर. हेरा-फेरी करके उसने उपजाऊ खेती-पाती अपने नाम पर लिखा दी और सिर्फ झाड़-झंकार समझ अनुपजाऊ जमीन को शिब्बा के नाम पर छोड़ दिया. परमू की पत्नी विमला ने भी उससे संबंध पूरी तरह से तोड़ दिये. उसी की जोड़ी हुई संपत्ति से सिर्फ एक थाली, एक तसला और एक डिबली (केरोसिन का दीपक) मिली. और खेती के नाम पर सिर्फ और सिर्फ उसर भूमि.
“हे शिब्बा बोडी! मेरी बात सुन!” एक दिन बेचारे बुथाड़ूराम लोहार को आ गई उस पर तरस, “तुझ पर दिन-दोपहर क्या वज्रपात हो गया है. तेरे पाले-पोषे परमा ने भी तेरे साथ कर दिया अन्याय! जब तक ये छोटे व यतीम थे. तब तुमने ने पाला-पोसा, लिखा-पढ़ा कर इनकी शादी ब्याह किया. पर अब ये बन गए, फन उठाए हुए नाग! कि कहावत है कि सोरे का काल सोरा और लोहे का काल लोहा होता है!
“अरे बेटा बुथाड़ू! सभी यही तो करते हैं. हमने अपना फर्ज निभाया और उन्होंने मौके का फायदा!”
“पर तेरी बंज़र भूमि से कैसे होगी गुजर-बसर? अर्जी-पुर्जी कर! चखुलीखाल के तुलसी मुख्तार बोल रहे थे. चूक ना! ठोक दे परवरिश का दावा, पता चल जाएगा परमा को आटे-दाल का भाव”
“नहीं बेटा ऐसा नहीं!” शिब्ब़ा ने साफ शब्दों में कहा – एक ही कुटुंब में कहां ठीक है दावे-मुकदमें? टोटे का टोटा अर ठट्ठे का ठट्ठा. तिमले (पहाड़ी अंजीर) के तिमले गिरे और नंगे के नंगे दिखे! अरे घी भी गिरा तो अपनी बड़ियों ही में! अपनी जायदाद अपने ही परिवार में ही तो है.
बस उस मर्द की बच्ची ने कमर बांध कर भवानी के लगाये बगीचे पर मेहनत शुरू कर दी. पेड़-पौधे उसके खून पसीने से पनपने लगे. खाद-पानी, छंटाई-कटाई और निराई-गुड़ाई से पौधे चंद्रमाँ की कलाओं की तरह सरपट बढ़ने लगे. कोई लप-लपे तो कोई छप-छपे और कोई सुड़सुड़े. डालियाँ हवा में सर हिला हिला कर जैसे मंद स्वर में अपनी तोतली बोली में बोलने लगे “हे शिबा माँ! धीरज धर धीरज. जरा जवान तो होने दे मां निहाल कर देंगे निहाल”अरे भई! अंगूर की कोमल सी बेल बहुत ही प्यारी थी कभी शिवा की चदरी खींचती तो कभी छाती पर ही लिपट जाती. फिर क्षितज में चमका एक सतरंगी धनुष!. वही भोर का टिमटिमाता तारा धार में! भवानी की तस्वीर सी आ गई थी सामने! कुछ देर को वह सब कुछ भूल जाती थी अपनी सुध-बुध भी; फिर वही अँधेरी रात, वही उहापोह और आधी-अधूरी यादें. घाट-बाट में जैसे बजने लगे हों दुःख और वियोग के बाजे. और आँखों के सामने सरकने लगती यादों की बरात. फिर पलकों तक लुड़कते आँशु हिम-कणों की तरह जम जाते. और तब कानों में भवानी के शब्द भौरे की तरह गूंजते-“ शिवा देख ये पेड़! इन्हें सिर्फ पेड़ न समझना. ये हमारे बच्चे हैं बच्चे! इनकी खूब देखभाल करना!” और शिवा फिर चेतन हो जाती.
गांव का ग्राम सेवक भी आया – है शिब्बा बोडी, बस फॉर्म भर दे. तुझे भैंस के खातिर कर्ज दिला दूंगा बैंक से!
ना बेटा कर्ज़ लेंगे बड़े लोग! मैं क्यों करूं उनकी नकल. कथन भी है कि कितुल करो गुरौ की सौर ताकणें-2 की मोर (अर्थात कैचवे तू सांप की नकल मत कर, नहीं तो तन तन के मरेगा!)
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पर बोडी! तू समझ नहीं रही है इस पर सरकार गरीबों को दे रही है आधी छूट!
पर बेटा में गरीब कहां हूं? हाथ-पाव है मेरे और कहा भि गया है अपना हाथ जगन्नाथ!” और शिवा ने अपनी कमर के त्रिपट्टे( सफ़ेद कपडे का कमर बंध) में खस से अपनी दरांती खोंस दी जैसे वह दरांती ना हो बल्कि जीवट की तलवार हो. कोई फिर एक दिन रंगे सियार की तरह चिफले बातूनी पटवारी जी भी आ टपके, “ऐ बौजी इस पहाड़ सी जिंदगी को कैसे ठेलेगी – हां फॉर्म भर वृद्धावस्था पेंशन दिला दूंगा तेरे को
“देवर जी सब कृपा है तुम्हारी! कैसी वृद्धावस्था? अरे मैं जब तक जिंदा रहूंगी ना, जवान ही जिंदा रहूंगी” शिवा ने करारा जवाब दिया “तुमको वृद्धावस्था पेंशन दिलानी ही है तो अपने यार परमां को दिलाओ! ज्यादा अच्छा उसकी पत्नी विमला को! जो लालच के नजले से जवानी में ही बूढ़ी हो गई और फागुन के महीने की एक सुबह जब शिवा की नजर बगीचे पर पड़ी तो उसने देखा कि बगीचे के वृक्ष फूलों से लदे हुए थे. बहुरंगी फूलों के झुमके झूम- झूम कर विंडोलित रहे थे. हवा में और एक निम्बूअरी सुगंध फैलने लगी थी, आंगन और पट आंगन में. वह खुशी से दौड़ी दौड़ी और पहुंच गई बगीचे में और उसने अपनी चदरी का पल्ला उनके सामने फैला दिया. हवा की हिलोर के साथ ही कितने ही फूल उसकी गोद में आ बैठे. सब ऐसे लगते हैं कि पुष्प पल्लव न होकर जैसे मां की सुखद गोद में कोई नवजात शिशु बैठे हों. शिवा चुपचाप उनको कलेजे से चिपका के रह गई और फिर ऐसे लगा कि जैसे कि मां के सुखद आंचल में नन्हें-मुन्ने सो रखे हों. ऐसा लगा कि वो वास्तव में मां बन गई. सुंदर फूलें की मां !
वैशाख के दिन क्या आये कि डालियों पर उतने पत्ते नहीं थे कितने फल थे. शिवा उनको उनकी रक्षा में एक डाल की ठूंठ में बैठ गई. आज तक कोई भी उधर आता न था. अब तो बटोही उचक-२ करके उधर देखने लगे थे. जलन खोरो की छाती में जैसे सर्प लोटने लगा इसी को कहते हैं कि रूप सिंह का खाएं और भूप सिंह के पगलाए!
परमा और विमला दिन में चार-2 वक्त अपने छज्जे के कोने से ऐसे देखते जैसे उसे कच्चे ही खा जाये. फलों की बहार की हाम फलों के व्यापारियों तक जा पहुंची. वे फटाफट आए सिवा बॉडी के घर. ठेका हो गया और पांच सौ रुपये दे गए शिवबा बॉडी को एडवांस! यह सुनकर के परमा को की छाती पर चढ़ा सर्प गले तक सरकने लगा और फिर कानाफूसी हुई. जो मिला सो मिला. अब आगे आग लगा दिया जाए इसके बगीचे पर. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. लेकिन शाम तक फलों के व्यापारियों के चौकीदार आ गए जलते अंगारे सी आंखों वाले जबरदस्त कुत्ते भी घूमने लगे बगीचे में और परमा की योजना धरी की धरी रह गई.
(Garhwali Story Bhagwati Prsaad Joshi)
शिवा कभी डालियों को देखती तो कभी अपने हाथ में रखे हुए रुपयों को कि उसके कमाऊ बच्चों ने दी हो पहली तनखा मां के हाथ में, ”ले संभाल मां! इस समय इतने ही हैं.”
सारे इलाके में आग की तरह बात फैल गई कि शिब्बा को एडवांस में मिल गए हैं पूरे ₹पांच सौ. धार गाँव का गब्बर सिंह कसम खा कर बोल रहा था “अरे अभी तो एडवांस ही हैं अभी तो और भी मिलेंगे! अरे जिसे दे ईश उससे कहे की रीस (जलन) अरे झंगोरा बोओगे तो झंगोरा ही खाओगे. बगीचा लगाओगे तो रुपया पाओगे. मेहनत के फल है सब. अभी और मिलेंगे एक बेसहारे को सहारा भी मिलेगा.
परमा को रोज विमला की झाड पड़ती “अरे मूढ़ मनुष्य! तूने अनुपजाऊ जमीन तो अपने नाम लिखा दी और बगीचा छोड़ दिया इस फुल मुंडी को! अरे! मैं इस मर्द होती तो इस समय सबको नचा देती नचा! पर अब वह और कर वह भी क्या सकता था. पटवारी ने साफ इंकार कर दिया था. सो वह भीतर ही भीतर मायूस सा रह गया था.
ठीक ही बोलता था रतनगढ़ रतनू रौत – अरे भाई भाग की दाणी (दाना) कहीं नि जाणि. और फिर भवानी की मेहनत काम आ गई शिवानी को!
और एक दिन पोस्टमैन ससुर जी शिब्बा बोडी के हाथ में एक लिफाफा पकड़ा गए.
ले शिब्बा, अब आ सकी दिल्ली वाले सेठ को भी तेरी याद. पूरे दस हज़ार का बैंक ड्राफ्ट भेजा हुआ है और तेरे नाम! लिखा हुआ है यह चिट्ठी वीर भवानी की विधवा शिवानी को मिले.
(Garhwali Story Bhagwati Prsaad Joshi)
हे माँ दस हज़ार शिब्बा दहाड़ मार कर रोने लगी. क्या करूं मैं अभागी इतने रुपयों का? हे ससुर जी उस सेठ को मेरी तरफ से तार लिखो कि मेरा कंचन सुहाग मुझे लौटा दे और अपने रुपए वापस ले ले! और भी सोना-चांदी ले ले पर मेरा कंचन सुहाग मुझे लौटा दे! लेकिन असंभव को सेठ भी संभव नहीं कर सकता था. तब भवानी की सुनाई हुई रामायण की चौपाई उसे याद आने लगी. जिसका मतलब था कि परोपकार से बढ़कर दुनिया में कोई धर्म नहीं है तब शिब्बा रुपयों को बीज सा बोना शुरू कर दिया गरीब निर्देव बामण को बेटी के ब्याह में पैसों की कमी थी. उसने पूरी कर दी. गांव के गरीब गब्बर सिंह का एक ही लड़का था और उसको टीबी हो गई थी. शिब्बा बोडी ने करवा दिया उसका इलाज. बसंतू औजी की अचानक मौत के बाद उसके बाल बच्चों के भूखे मरने की परिस्थिति पैदा हो गई तो शिबा ने बांधी दुधारू भैस उसके घर. बच्चों के स्कूल खुलने लगे तो शिबा बॉडी ने बनवा दिया भवानी के नाम पर विद्यालय का एक कमरा. फिर तो गाँव पट्टी में चर्चा शुरू हो गई. अरे भाई शिब्बा मत बोलो! वह तो साक्षात शिवानी है.
सेठ के भेजे हुए सारे रुपए ने दान कर दिए और फलों की आमदनी के पैसे से उसने नंदी की एक सुंदर मूर्ति बनवाई और गांव के शिवालय में स्थापित करवा दी. जब जब सूरत को देखती तो उसे पर्वतों से घूमता घूमता एक सतरंगी धनुष उसके चौक में प्रकट हो जाता धड़ाम से!
जैसे ही फागुन का कफ्फु (पक्षी) बगीचे में बोलने लगता और मिट्टी की सोंधी बास के साथ ही साथ फूलों की सुगंध फैलने लगती. डालि-बूटियां फूलों के झुमके और फूलों की पंखुड़ियों के शीशफूल पहनकर खिलखिला कर हंसने लगते. फिर जैसे कह रहे हों कि शिब्बा मां हम पर वाक् जरूर नहीं है तो क्या! फिर भी हम तेरे हैं गूंगे पर कमाऊ नौनिहाल!
अब हर साल शिब्बा बोडी की गोद भर जाती थी रंगबिरंगे फूलों की पंखुड़ियों से और बन जाती थी माँ, कमाऊ गूंगे नौनिहालों की मां! शिब्बा कल रहे ना रहे दुनिया में पर उसके पाले-पोषे बच्चे वर्षों-वर्षों दिलाते रहेंगे उसकी याद शिवा बोडी और उसके गूंगे नौनिहाल.
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भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’
(अनुवाद-जागेश्वर जोशी)
सन 1988 के में प्रकाशित कथा संग्रह (सात कहानियां) ‘एक ढंगा की आत्मकथा’ से
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वाह वाह !
बहुत सुंदर, रोचक और समृद्ध कहानी !
मजा आ गया।
कहानी में औखाणों-पखाणों (कहावतों- मुहावरों) के रूप में टांके हुए सलमे-सितारों ने तो चार चांद लगा दिए !
प्रेमचंद जी की किसी कृति से कम नहीं।
साधुवाद ! धन्यवाद !
काफल ट्री की इस कहानी को भेजने के लिए साधुवाद, मैं भी पौडी गढ़वाल के नैनीडाना ब्लाक के परसोली गांव का निवासी हु,यह गांव तीलू रौतेली के एक भाई पत्वा के वंशजों का है,मै भी उसी परिवार का गोरला रावत हुं जो पंवार राजपूतों की एक शाखा है। आपकी कहानी मार्मिक दिल को छू लेने वाली होती है जिसमें छुपी वेदना को एक पर्वतीय ही महसूस कर सकता है