नेपाल के डोटी गाँव से आया एक प्यारा-सा तगड़ा शरमीला किशोर ग्रामीण सोर घाटी में मजदूरी करता था. बोझा वह तब से ढोता था जबसे उसके मूंछों का क्या, उसको अपने शरीर का भी पता न था. उसे सिखाया गया कि जब चढाई में बोझ साँसों को, शरीर को तोड़ने लगे, माथा भभककर लोहे की भट्टी बन जाए तब फिर एक पत्थर अपने बोझे पर और डाल ले. फिर कुछ देर बाद उसे फेंक दे तो उसे एहसास होगा कि बोझ कम हो गया है. यह मनोवैज्ञानिक सुकून उसके पुट्ठों को रास आ गया था. उसे याद आता है जब उसका छोटा भाई पैदा हुआ तो उसके दादा ने उसके माथे पर एक रस्सी का पट्टा लगाकर आशीर्वाद दिया ‘दुला-ठुला बोझा बोकन्यो हो’.
(Folk Stories of Uttarakhand)
वह और उसके आदमी ठगे जाते थे. झूलाघाट के दुकानदार उसे हिसाब देते समय कठिन सवाल देते थे, जिसे वह समझता नहीं था. जैसे चार-चार आठ हासिल लाग्यो बारह आठै वीस… बस हिसाब बराबर.
एक बार किसी ने पूछ बोझा ले जाने के हम डेढ़ रुपया देंगे. इस पर उसने कहा- डेढ़. जान्दाई ना… त्यांग…एक अठनी एक चवनी दिन्या हो… इस पर बोझ का मालिक दिलदार बनने का नाटक करता बोझा देनेवाला कहता- अब तू नहीं मानेगा यार चल यही सही…
उसके साथियों का शोषण युगीन परम्परा थी. उत्तराखंड में इन गरीब परिश्रमी जाति पर ही सारा निर्माण कार्य आधारित था. गरीबी की पीड़ा! वे रात गए यह सब कहीं सुनसान सड़कों पर गोल घेरे में हाथ पकड़कर गीत भी गाते तो ठगे जाने के ही गीत होते. अल्मोड़े की लाल बजारा तीन पव्वा को शेर… अज्ञान ही शोषण है. डयोटी में रहने के कारण इन्हें डोटियाल कहते. यह शब्द पिछड़ेपन का अपमानजनक शब्द बन गया.
(Folk Stories of Uttarakhand)
एक दिन वह जंगल में काम करते थोड़ा आराम करने लगा, तभी अचानक से उसे एक अंग्रेज दिखाई दिया. हैट और लम्बे बूट पहने वह अंग्रेज उसे देवदूत दूसरे लोक का सा लगा. वह उसे देखकर हकबक रह गया. गोरा, लम्बा चौड़ा, तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए. अंग्रेज उसके पास आया और हैट निकालकर बोला- हलो. उसके हावभाव देखकर उसे लगा वह उसकी इज्जत कर रहा है.
इज्जत बेइज्जती तो सब ही जानते हैं. इतनी इज्जत जैसी देवदूत कर रहा है, सोर में तो कभी किसी ने ऐसी इज्जत न करी. वह तो बिल्कुल जादुई मंत्र में कीलित-सा हो गया. अंग्रेज ने अपनी गिटपिट में उससे कुछ पूछा, पर वह समझ नहीं पाया. अंग्रेज फिर उसकी बगल में बैठ गया उसे आश्वासन देने के लिए वह मुस्कुराया.
अंग्रेज ने अपनी बोतल से पानी भी पिया. उसके कन्धे भी थपथपाए. तब उसे थोड़ा होश आया. उसने अपनी छठी इन्द्रिय से जाना कि साहब रास्ता पूछ रहे हैं. उसने कुछ टूटी-फूटी हिन्दी में भी पूछा- ये रास्टा किधर जाता हैय. उसने फिर अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में रास्ता बतलाया. अंग्रेज रास्ता समझकर, सर हिलाकर और हाथ हिलाकर अपने रास्ते लग गया, पर वह तो बिल्कुल अजीब सा हो गया.
वापस घर गया पर किसी साथी से न बोला, न कुछ खाया. दो दिन हो गए. वह साथियों से न बोला. साथियों को हुआ उसे परक जंगल का भूत लग गया. आखिर भूत भगाने वाले बुलाए गए. वह खूब नाचकर उसे मार-मारकर उस पर चावल फेंकें, पर तीसरे दिन ही उसे बुलवाने में सफल हुए. उससे पूछा गया कि आखिर क्या हुआ था? इस पर उसने जवाब दिया-
साब से बोलन्यों को मुख तुमि से क्या बोलन्या हो…
(साहब से बोलनेवाला मुँह तुम से क्या बोले?)
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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(Folk Stories of Uttarakhand)
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