कला साहित्य

अद्भुत है शैलेश मटियानी की कहानी ‘दो दुखों का एक सुख’

‘साधो, करमगती किन टारी…’ – मिरदुला कानी, सीढ़ी के पथरौटे पर बैठी, मंजीरा कुटफुटा रही थी – ‘कोस अनेक बिकट बन फैल्यो, भसम करत चिनगारी… साधो…’ और ‘गाड़ी की सड़क’ के तल्ले ढाल की तरफ वाले किनारे पर बैठे करमिया को लग रहा था – मिरदुला कानी अपने गले की मिठास और वचनों की तिखास से उसकी सारी देह को मंजीरे की तरह झनझना दे रही है करमिया ने कोशिश करके आँखों को भरपूरपन में खोला, तो लगा, एकाएक उजाल-सा भर गया है. उसने भी तान छोड़ दी – ‘अंखियन देखा जोबना, दिल में लागी आग…’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

मिरदुला कानी के मधुर भजन की प्रतिक्रिया में उद्दीप्त अपने इस सौंदर्यबोध की तीव्रता से अटपटाकर, करमिया ने अब अपना पूरा कंठ खोल दिया और टीन के मग्गू में ठूँठ उँगलियों के टिकोरे मारने लगा – ‘अंखियन देखा जोबना, दिल में लागी आग, रे रामा! अंखियन…’

मिरदुला कानी से एक सीढ़ी ऊपर बैठे सूरदास के रीते नैन शब्दबेधी बाणों की तरह मिरदुला कानी और करमिया की ओर घूम गए. करमिया के कंठ के भारी स्वर में उसे अपने लिए दुःसह व्यंग्य का अहसास हुआ. उसे लगा, करमिया के गाने की आवाज सचमुच एक जलती चिनगारी कोयले की तरह उसके कानों में प्रविष्ट हो गई है – ‘अंखियन देखा…’

क्रोध और आक्रोश की तपन से सूरदास का कंठ जलने को हो आया. उसने लंबे और तीखे नाखूनों को एक बार अपनी पिंडलियों में जोर-जोर से चुभोया और फिर दोनों हाथों की अँगुलियों को हवा में नचाते हुए, खुद भी गा उठा-बन में लागी आग रे रामा, बन में लागी आग! कोरी अंखियन क्या करे, जाके फूटे भाग! अंग-अंग सब गल गए, ऐसी लगी आग! …ऐसी लागी आग, रे रामा…’

सड़क-पार बैठे करमिया को लगा, सूरदास ने जलती लकड़ी से उसके कलेजे को दाग दिया है. मग्गू के नीचे लगाया पत्थर उठाकर सूरदास का सिर फोड़ देने को मन हुआ उसका, मगर ठूँठ अँगुलियों की पकड़ से पत्थर फिसल पड़ा और पीड़ा के कारण, कुछ देर करमिया अपनी ही जगह थरथराता रह गया. उसे लगा, नसों के सिरे खून के दबाव से फूटने-फूटने को हो आए हैं. हाथ-पाँवों की ठूँठ अँगुलियाँ ऐसे सनसनाने लगी हैं, जैसे कई बेर से अनदुही, हाल की ब्याई भैंस के थन पँगुरा गए हों. उसे लग रहा था, सूरदास का कठोर व्यंग्य उसकी नस-नस में समा गया है और असह्य घृणा के दबाव के कारण हाथ-पाँवों की अँगुलियों को घोर वितृष्णा के साथ देखा – उसे भ्रम हुआ कि शायद थोड़ा-थोड़ा खून-पीव चूने भी लगा है. यों कानी और सूरदास की जुगलबंदी का यह सिलसिला पिछले कई दिनों से चल रहा है, लेकिन करमिया को इतनी तकलीफ इससे पहले कभी नहीं हुई.

करमिया की आँखों में कुछ पानी-सा छलछला आया – हरे, राम जी! इन गलित अंगों को बेर-बेर देखकर कलेजा कोचने को ही दे रखी हैं ये आँखें तूने मुझे? न होती ससुरी चमड़लोथ की जोड़ी, तो अपना कोढ़ अपनी ही आँखों से देखने का संताप तो न भोगना पड़ता.

उधर सड़क-पार की सीढ़ी पर बैठा सूरदास भी मन-ही-मन कुढ़ रहा था कि अंधेपन से तो कोढ़ भला! औरतों के रूप-सरूप की बातें सुन-सुनकर मन-ही-मन एक झलक पाने को अकुला उठता है. लंगड़दीन बाबा कहा करता था – ‘सूरदास, एक कवित्त तुझे सुनाता हूँ. तू बेर-बेर पूछता है कि औरत का रूप-सरूप और तन-बदन कैसा होता है…? तो बेटे कवित्त है कि – ‘इंदरधनु सतरंगिया इस रंग तिरिया मात! चंद्रवदनि मृगलोचनी, अहा चँदीली रात! …अहा चँदीली रात, त्रिया सैंया संग सोवे….’

गन्ने की तनी कितनी भी सूखे, मिठास उसमें बनी रहती है. लंगड़ीदीन बाबा के चित्त का रस-सिंगार भी मरते-मरते तक बदस्तूर कायम रहा. सूरदास को जब-जब राह चलती औरतों का स्पर्श मिलता है, तब-तब उसे लगता है, लंगड़दीन बाबा के कवित्त का एक-एक अक्षर उसके कलेजे पर खुद रहा है – अहा चँदीली रात त्रिया…

सुना हे, चँदीली रात में सारे संसार में उजियाली छा जाती है – सरसों की पियराई मूठ-जैसी सुनहरी उजियाली. …मगर सरसों की पीली मूठ भी तो सिर्फ कानों से ही सुनी है. सुना यह भी है कि रूप-सिंगार वाली तिरिया का अंग-अंग सोनबरन होता है. नाक से ओठों को वृत्ताकार घेर लेने वाली तिरिया का अंग-अंग सोनबरन होता है. नाक से ओठों को वृत्ताकार घेर लेने वाली सोननथुली-जैसा! नकफुओं के बीचोंबीच डाली पर से नीचे झूलते पीतबरन सुग्गे की तरह अर्द्ध-वृत्ताकार लटकी सोनबुलाँकी या अँगुलियों की गाँठों को पियरा देने वाली सोने की अँगूठियों जैसा. मगर सोने के आभूषणों का वर्णन भी तो सूरदास ने कानों से ही सुना है. न जाने सोनबरन तिरिया का रूप-सरूप कैसा होता हो? यह जो जिज्ञासा खोखले कोटरों में प्रश्नचिह्न-जैसी खड़ी कर गया लंगड़दीन बाबा – आज तक सूरदास के रीते नैनों में बंजर-खंडहर के द्वारों पर पड़ी साँकल जैसी झूल रही है.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

इंद्रधनुष के सात रंगों को मात करने वाला तिरिया का एक रंग – सोनरंग! चँदीला रूप! सोने के आभूषणों का स्पर्श – नारी-रूप का कुछ आभास दे सकेगा, इसी ललक से सूरदास अचानक पाँव पसारकर राह चलती औरतों के पाँव छू लेने की चेष्टा करता, मगर बाद में मिरदुला कानी से ही पता चला, औरतें पाँवों में सोने के जेवर नहीं पहनतीं.

खैर, सोने के आभूषणों का न सही, सुनहले पाँवों का स्पर्श कभी-कभी मिल जाता है और इस स्पर्श-सुख को पाने के लिए सूरदास अपनी पूरी चतुराई का उपयोग करता है. कई बार डिब्बे को नहीं खनखनाता है, ताकि सन्नाटा कायम रहे और तब कान साधे, एकाग्रचित, सीढ़ियों से उतरती औरतों के झाँवर छमछमाने की टोह लेता रहता है. जैसे ही पाँवों का जेवर बजने या हाथ की चूड़ियाँ छनछनाने की ध्वनि निकट पहुँचे, ‘हरे, राम जी! एक ठौर पड़े-पड़े टाँगें भी दुखिया गईं, माई-बाप! कहते हुए अपनी दाईं या बाईं टाँग आगे पसार देता है सूरदास. कभी-कभार कोई औरत लड़खड़ा जाती और उसकी अंधी आँखों को कोसती, तो सूरदास को ऐसा लगता – जलते पपोटों पर किसी ने ठंडा केवड़ा छिड़क दिया है. औरतों के स्पर्श-सुख और उनकी आवाज की मिठास से छटपटाकर सूरदास ‘हरे राम जी! रहे राम जी!’ गुनगुनाता रह जाता है और उसके लंबे-लंबे नाखूनों वाली अँगुलियाँ पाँवों की पिंडलियों में धँस जाती हैं – आह चँदीली रात त्रिया… भीख की जिंदगी के दलिद्दर के बीच, कहीं पास में ही मिरदुला कानी की उपस्थिति का अहसास उसे लगातार बना रहता और कभी-कभी मन होता, एक ही सीढ़ी नीचे बैठी मिरदुला कानी की आवाज के सहारे उसके पास तक पहुँच जाए! लंगड़दीन बाबा कभी-कभी मिरदुला कानी का रूप-सरूप भी बखान दिया करता था – ‘शम्मो, दीपक बुझे हैं, मगर मंदिर के कलशों की चमक मौजूद है मिरदुला कानी में. एक आँख वाली देवी ठहरी – चिट्ट गोरी… महासुंदर!’

मिरदुला अब भी मँजीरे बजा रही थी – ‘साधो, करमगति किन टारी! …कोस अनेक बिकट बन फैल्यो…’

सूरदास के लिए यों ही सारा संसार एकरंग है. हालाँकि उसे लंगड़दीन की उपमा ‘महासुंदर’ बिलकुल याद है, लेकिन इस समय तो उसे मिरदुला कानी की सीढ़ी और अपनी सीढ़ी के बीच का फासला और भी ज्यादा अप्रीतिकर प्रतीत हो रहा है. पास का सारा परिवेश सिर्फ एक ही आवाज से गूँजता जान पड़ता है – साधो, करमगति किन टारी…

शहर की बाजार वाली सड़क और गाड़ी की सड़क के बीच लगभग तीस-पैंतीस सीढ़ियाँ हैं. ज्यादा चौड़ी नहीं. एक तरह से बीच का रास्ता है. इन सीढ़ियों पर बैठिए तो सामने उत्तर की तरफ हिमालय है. सनातन हिमावृत्त. यहाँ से वहाँ तक प्रकृति का विस्तृत वितान है. पक्षियों के झुंड उड़ते आते हैं. दूर-दूर से, तो समुद्र लाँघते-से भासित होते हैं. इस छोटे-से पहाड़ी कस्बे में हवा अदृश्य सागर की सी हिलोरें लेती है, लेकिन करमिया का ध्यान, जब तक सड़क-किनारे बैठा रहे – सिर्फ एक बात पर रहता है – कहीं किसी दाता में दयाभाव उमड़ा कि नहीं! उसके ‘माई-बाप’ की पुकार ने किसी में कुछ हलचल उत्पन्न की, या नहीं. अलबत्ता जब मिरदुला कानी गाती है और उसके गाने को ताल देता सूरदास अपनी घुँघरुओ वाली लाठी को सीढ़ी पर ठकठकाता है, तो कुछ जरूर ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है कि इनका संगीत, शायद, आस-पास का परिवेश भी सुन रहा है. उधर हीराडुंगरी के गिरजे से, इधर बद्रेश्वर मंदिर के मोड़ तक वातावरण में एक झनकार-सी भर जाती है.

निहायत छोटे से इस पहाड़ी शहर में चूँकि आबादी कम, इसी से भिखारियों की सख्या भी कम ही रहती है. फिर जब से मिशन वालों का करबला शुरू हुआ है, कोढ़ियों का सड़क पर बैठना और मुश्किल कर दिया है.

करमिया सड़क-पार गिद्ध की तरह बैठा घूर रहा था. सूरदास को घिसटते-घिसटते मिरदुला कानी के पास जाते और काँपती हुई अँगुलियों से उसकी देह को टटोलते देखा, तो लक्ष्मी-पात्र को एक ओर पटकते हुए, सामने को दौड़ा. चिथड़े-पट्टियों से बँधे होने के बावजूद, सड़क के तीखे कंकर पाँवों में चुभते रहे, और ठोकर लगने से अँगूठा फूट पड़ा, तो खून-मवाद चूने लगा. …मगर करमिया गुस्से में बेसुध था. मिरदुला के संग लाड़ लड़ाते सूरदास तक करमिया पहुँचा तब तक में दस-बीस तमाशबीन और जुट गए.

मिरदुला कानी ‘हे राम जी, यह सूरदास क्यों पगला गया?’ चीखती, सीढ़ियों से उतरकर, सड़क पर पहुँच गई. करमिया ने ठूँठ हाथों से ही सूरदास के मुँह पर तड़ातड़ थप्पड़-घूँसे पड़ने शुरू कर दिए और पिच्च-पिच्च थूकता, गालियाँ देता चला गया – ‘क्यों रे स्साले, अंधे! अपनी महतारी के खसम… लुच्चे-लफंगे. स्साले, तेरे लिए सारी दुनिया में अंधकार हो गया क्या? आम सड़क और भरी दुपहरी का वक्त है. महतारियाँ-बहनें आर-पार जा रही हैं. भाई-बंद लोग चल-फिर रहे हैं. …और स्साला लालपोकिया बंदर की तरह बेचारी लावारिस कानी पर चढ़ा जा रहा है? पेशाब कर दूँगा स्साले की आँखों के खड्डों में…!’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

अब करमिया इकट्ठा हुए लोगों की तरफ मुड़ गया. हाथ जोड़ता बोला – ‘महाराज लोग, यह स्साला बना हुआ अंधा है! ऊपर वाली सीढ़ी से उतरकर, स्साले ने ठीक कानी की छाती में ही कैसे हाथ डाल दिया, नहीं तो? पूरब जनम के पापों से तो स्साला इस जनम में आँखों का अंधा पैदा हुआ है. इस जनम में फिर ऐसे-ऐसे कुकरम कर रहा है! बीच बाजार में कानी की आबरू लूट रहा है – अगले जनम में स्साला कोढ़ी हो जाएगा, कोढ़ी!’

‘कोढ़ी’ कहते कहते कुछ अचकचा गया करमिया. इसमें उसे खुद की तौहीन महसूस हुई. कुछ नहीं सूझा तो फिर थूकने और घूँसे मारने लगा – ‘सूरदास बनता है, स्साला! साँड़ों की तरह औरतों के पीछे भागता है. जिन बहनों-महतारियों के दान-पुण्य से हम गरीबों की परवरिश होती है, उन्हीं को टाँग लगाता है. इस स्साले के लिए तो सारा जगत अंधियारा ठहरा. भरी दोपहरी में आम सड़क की सीढ़ियों पर बैठा बंदरों की तरह टाँगे खुजाता रहता है. यह साला सोचता हो, करमिया कहाँ देखता है – अरे हरामजादे, देखने वाले सब देखते हैं. जब करमिया भी नहीं देखेगा, तो करतार देखेगा.’

सूरदास करमिया कोढ़ी के वार नहीं बचा पा रहा था. आस-पास लोगों के जुट आए के अहसास ने उसे और भी भयभीत कर दिया था. कहीं दूसरे लोग भी न जुतियाने लगें, इस दहशत से उसका वह सारा उल्लास जाने कहाँ उड़ गया था, जो समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ा, तो मिरदुला कानी तक बहा ले गया. कुछ ही क्षण पहले उसे लिए मिरदुला कानी के सिवा और किसी का कोई वजूद नहीं रह गया था. अब लोगों के शोर और करमिया की चीख-चिल्लाहट के बीच जैसे मिरदुला कहीं अंतर्धान हो गई है. दिखाई कुछ नहीं दे रहा. अँधेरे में घेर लिए गए होने की दहशत हावी होती जाती है. करमिया की मार आसमान से बरसती मालूम पड़ती है.

करमिया की ‘ठूँठ अँगुलियों से खून-पीब फूटने लगा मारते-मारते, और सूरदास का चेहरा भय में विकृत होता गया. वह, सिर को लट्टू की तरह चारों ओर घुमाता, करमिया की चोटें बचाने की चेष्टा कर रहा था. करमिया को तसल्ली थी कि आज आँखों की जोत का भरपूर सुख मिल रहा है. हाथों की अँगुलियाँ जरूर दुखने लगी थीं, मगर कानी के लिए अश्लील शब्दों का उच्चारण करने और सूरदास को मारने में उसे इतना सुख मिलता रहा कि पीड़ा की अनुभूति नहीं हो रही.

तभी मिरदुला कानी आगे बढ़ी. दाईं आँख के सिर्फ एक कोने में ही ज्योतिबिंदु उधड़ा है और मिरदुला पूरा जोर देकर देखना चाहे, तो दाईं आँख का वही कोना चिड़िया की चोंच-सा खुलता है. सूरदास की दुर्दशा देख-देखकर उसका आपा पसीज रहा था. पहले कुछ देर वह इस प्रतीक्षा में रही थी कि शायद बाहर के लोग कुछ बीच-बचाव कर दें, मगर इकट्ठा हुए लोग स्थितप्रज्ञों की सी मुद्रा में तमाशा देखते जा रहे थे. कई तमाशबीन, मौका मिल जाने से मिरदुला कानी को लेकर करमिया कोढ़ी से भी ज्यादा अश्लील बातें कर रहे थे. आखिर नहीं रह गया, तो मिरदुला उठी और करमिया को दोनों हाथों से दूर धकेलती बोली – ‘अब बस कर, रे कसाई. हे राम, बड़ा निठुर हिया है तेरा तो!’

भीड़ में से कोई फुसफुसा उठा – ‘कानी… काने की मुहब्बत में यह कोढ़ी बेकार में ही अपनी टाँग अड़ा रहा है.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

करमिया को एकाएक ही लगा – उसकी सारी देह थककर, अशक्त हो चुकी है. मिरदुला ने जैसे एक ही धक्के में उसे सारे नैतिक आधारों को ध्वस्त करके रख दिया. उसे खुद का आहत अहं सँभालना कठिन हो गया. एक बार घूरकर सूरदास को सँभालने में लगी मिरदुला को देखा उसने, और हताश होकर सड़क पार लौटते में, हाँफता-हाँफता, बीच में ही बैठ गया. हाथ पाँवों की अँगुलियाँ बुरी तरह दुखने लगी थीं. करमिया को लग रहा था, कानी ने विकट वन को भस्म करने वाली चिनगारी, सूरदास के साथ संवेदना जताकर, उसके कलेजे से चिपका दी है. असह्य पीड़ा और ईर्ष्या में दहता मुँह ढाँपे-ढाँपे, करमिया रोने लगा – ‘हे राम, मुझ कोढ़ी को तो मौत भी नहीं आती…’

तभी सामने से मिरदुला कानी की आवाज आई, ‘अब बीच सड़क में मोटर के नीचे दबने को बैठा है, रे करमिया? इस निर्मोही को तो न दूसरों की दया, न अपनी पीर.’

एक बार मिरदुला कानी को फिर घृणा के साथ घूरते हुए, करमिया अपनी जगह पर लौट आया और अपने को संतुलन देने की कोशिश में पैसों का डिब्बा सँभालने लगा – ‘है कोई धर्मी दाता…’

सूरदास की सूरदास जाने, करमिया को सारे दुखों का एक उपाय है – भीख! डिब्बे में पड़ते हर सिक्के की खनक उसके भीतर तक पहुँचती है. यह अनुगूँज ही उसका प्राप्य है. इसी से जहाँ दो-चार डिब्बे ने आवाज दी, तहीं भीतर का सारा हाहाकार भी शांत होने लगा. बीती, ताहि बिसार दे…

करमिया, सूरदास और मिरदुला कानी – तीनों म्यूनिसपैलिटी के दफ्तर के सामने की सड़क और सीढ़ियों पर बैठकर भीख माँगते, मगर रहते सभी अलग-अलग. मिरदुला कानी जगतराम मिस्त्री की गोठ में रहती थी. जगतराम मिस्त्री की घरवाली नहीं रही और खुद साठ के पार पहुँचा. पहली से तीन बच्चे. खुद फरनीचर की दुकान में मजदूरी करता. उसके बाल-बच्चों के ही साथ नीचे, गोठ के कोने में गाय की तरह, कानी भी रह लेती.

सूरदास पिछले बरस तक लंगड़दीन बाबा के पास रहता आया. लौंडा-लौंडा ही था – छब्बीस-सत्ताईस का. धूप-ठंड सहने का अभ्यस्त हो चुका. कभी कहीं, कभी कहीं रात काटता रहता. करमिया सयाना है. उसे भीख माँगते-माँगते ही चौबीस-पच्चीस बरस हो चुके. विक्टोरिया रानी के रुपए-पैसों का चलन था, तब से गांधी-नेहरू महाराज के नए पैसों तक के सिक्के उसके पास जमा हैं, इसलिए उसे सुरक्षित स्थान की खोज भी रहती आई है. पिछले कई वर्षों से, शहर से लगभग डेढ़ मील दूर, शहरी मोहल्लों के पार बने उजाड़ धर्मशाले की एक कोठरी लगभग डेढ़ मील दूर, शहरी मोहल्लों के पार बने उजाड़ धर्मशाले की एक कोठरी में रह रहा था करमिया. टूटे धर्मशाले की दो उजाड़ कोठरियों के अलावा, वहाँ ऊपर घना विकट वन था और नीचे गहरी घाटियाँ. बीच-बीच में कभी गरीब मुसाफिर या बकरियाँ बेचने वाले वहाँ ठहरने आते, मगर करमिया अपनी कोठरी में रात-भर ऐसी विकट चीत्कार करता कि उसके इर्द-गिर्द कोई नहीं आता.

अपनी कोठरी के ओने-कोनों में करमिया ने कई टूटी कनस्तरियाँ गाड़ रखी हैं. शहर आ जाने के बाद एक अभ्यास सध गया है. घरवाली साथ रखने का भरम कब का टूट गया. …मगर पिछले बरस से मिरदुला कानी सामने की सीढ़ी पर बैठने लगी है, तो करमिया का ध्यान अक्सर उचटता रहता है. उसकी सुरीली, तीखी आवाज धनुष से छूटे तीरों की तरह सड़क-पार तक मार करती है – साधो, करमगती किन टारी… और दुख करमिया को होता है कि जिस विधाता ने एक ही कर्म से, एक ही पंथ में, आमने-सामने बिठाया हुआ है, अगर कहीं एक ही कोठरी में भी कर दे, तो इसमे उसका क्या बिगड़ना है?

जब से लंगड़दीन बाबा के चेले इस साले जवान मुसटंड सूरदास ने मिरदुला कानी के ठीक सामने बैठना शुरू कर दिया, तब से करमिया के लिए एक चित्त होकर भीख माँगना कठिन होता जाता है. भिक्षा में होने वाले घाटे को देखते हुए करमिया का मन कहीं दूसरी ठौर जाकर बैठने को होता है, मगर फिर मिरदुला कानी आँखों में घूमने लगती है. करमिया सोचता है, जब आँखों का अंधा ससुरा सूरदास तक मिरदुला कानी के सामने बैठने का मोह नहीं छोड़ पाता, तो ज्योत भरी आँखों के रहते वह क्यों मिरदुला कानी का रूप-सरूप देखने का सुख छोड़ दे! अब तो मिरदुला कानी के रूप-सरूप से गहरा आकर्षण सूरदास की गतिविधियों पर नजर रखने का है!

अल्मोड़ा – छोटा-सा पहाड़ी शहर. मंगखद्दों का संसार इससे भी छोटा ही समझिए. यहाँ कहाँ दुनिया भर के सपने हैं. भीख में मिले सिक्कों का संतोष और पेट की सिगड़ी का ताप है. एक मिरदुला कानी की तृष्णा कौन-सा भारी गुनाह है? जहाँ कि ऊपर अपार आसमान है और चारों तरफ विशाल पर्वतों का डेरा.

आज शहर से धर्मशाले की तरफ लौटते-लौटते सूरदास को न-जाने कितनी गालियाँ दीं करमिया ने. करमिया को अपना कोढ़ इस सूरदास के कारण ज्यादा खलता है. बाजार की सड़क और गाड़ी की सड़क पर तिर्यंक रेखा-सी पड़ी सीढ़ियों पर अक्सर बड़ी आवत-जावत रहती है. औरतों की टोलियाँ उतरती-चढ़ती हैं, तो सूरदास अपने हाथ पाँव पसार-पसारकर, उनकी देह को छूता और सामने बैठा करमिया देख-देखकर कुढ़ता रहता है. सूरदास की देखा-देखी करमिया ने भी सीढ़ियों पर बैठना शुरू कर दिया था, मगर राह चलती औरतें उसके समीप से घिनाती-घिनाती एक ओर को काटकर चली जाती थीं और करमिया वर्जित सूरत-जैसा अपनी ठौर पड़ा रह जाता था.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

सूरदास से कोई नहीं घिनाता. सूरदास की यह स्थिति करमिया को डाह से भर जाती है, और वह अपनी ठूँठ उँगलियों को आपस में घिस-घिसकर गुस्सा चुआने लगता है. सीढ़ियों से लगे म्यूनिसिपेल्टी दफ्तर के अफसरों ने उसे सीढ़ियों पर से हटवा दिया और करबला भेज देने की धमकी दी, तब से करमिया सीढ़ियों के समांतर, सड़क-पार बैठा, सूरदास की हरकतों से कुढ़ता रहता है. कोढ़ से भी ज्यादा इस कुढ़त का दुख, मगर इस दुख के सुख को छोड़ना भी तो कठिन है.

क्या है कि विधि का विधान ही कुछ विचित्र है. कीड़े-मकोड़ों तक की जिंदगी में कुछ-न-कुछ उलटफेर है. इनसान को आखिर इनसान ठहरा! लूले-लंगड़े-अंधे-अपाहिजों के भी अपने संग्राम हैं. हर कोई सृष्टि के खेल का खिलौना है. करमिया जब भी दूसरे कोण से सोचता है, जीवन अद्भुत तथ्यों से भरा जान पड़ने लगता है. इस मिरदुला कानी को कौन बिठा गया सीढ़ियों पर? मंगखद्दों को चंद्रमा हो गई है. जिनको खुद की गिरस्थी का सुख नसीब नहीं, उनसे बड़ा स्त्री का चितेरा कौन है!

आज सूरदास की मिरदुला से छेड़खानी और मिरदुला कानी की सूरदास के साथ सहानुभूति ने करमिया के चित्त को एकदम उद्-भ्रांत कर दिया था और उसके पाँव आगे बढ़ने की जगह, पीछे को मुड़ रहे थे. सूरदास के पकड़ने के बाद भी मिरदुला कानी उसी का पक्ष ले रही थी, इस तथ्य से करमिया के मन में यह धारणा कील-जैसी ठुक गई कि शायद मिरदुला कानी और सूरदास के बीच का संबंध उसकी जानकारी की हद से आगे बढ़ चुका है! …शाम उतरने लगी, तो पहले कानी ‘हे राम, श्रीराम!’ बुदबुदाती खड़ी हुई और फिर सूरदास की लाठी के घुँघरू भी बोल उठे. मगर, भीख के लालच में, करमिया कुछ देर और अपनी ही जगह बैठा रहा. शाम का धुंधलका ‍अँधेरे में बदलने-बदलने को हुआ, तक बेकार में समय गँवा बैठे होने की सी खिसियाहट मे करमिया तेजी से उठा और डेरे की ओर चल पड़ा. झटके से उठते में उसकी दृष्टि अचानक हिमालय की ओर गई. बर्फ से ढके शिखरों पर अभी भी धूप चमक रही थी, लेकिन इससे करमिया को क्या लेना-देना हो सकता था. उसका ध्यान तो जाने कब से एक इसी बात पर था कि कानी और सूरदास, आज फिर एक साथ उठकर गए हैं. उसे पाँवों में पंख लगाने की सी जरूरत महसूस हुई. वह बड़ी तेजी से चल पड़ा.

एकाएक ही, चलते-चलते रुककर, करमिया वापस मुड़ गया. त्रिपुर सुंदरी वाले मोड़ के पास उसे सिर्फ मिरदुला कानी जाती दिखाई दी. वह जगतराम मिस्त्री के घर की तरफ ही जा रही थी. करमिया पीछे-पीछे हो लिया. मिरदुला गुनगुनाती जा रही थी और करमिया कुढ़ रह था कि आखिर काने-कानी की जात एक! अपनी-अपनी जात का दर्द हरेक को होता है. करमिया अंधा होता, तो शायद मिरदुला कानी उसी के साथ रहती, इस कल्पना से, करमिया को सूरदास के प्रति ईर्ष्या हो आई.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

मिरदुला कानी जगत मिस्त्री की गोठ में चली गई, तो भी करमिया कुछ क्षण सामने की दीवार पर बैठा उसे देखता रहा. बाहर अँधेरा गहरा होने लगा था. आँगन के पार जलती बत्ती के उजाले में मिरदुला कानी बहुत धुँधली-धुँधली दिखाई दे रही थी. जगत मिस्त्री के बाल-गोपाल उसके इर्द-गिर्द पतिंगे की तरह चक्कर काट रहे थे. बच्चे ‘माँ-माँ’ कहते मिरदुला से लिपट गए, तो करमिया की टाँग आश्चर्य से काँप गई – अरे यह राँड़ तो घरबारी औरत बनी बैठी है.

इतना तो निश्चय था, बच्चे मिरदुला कानी के नहीं. मिरदुला कानी अभी मुश्किल से तीसेक साल की और बच्चों में सभी सयाने लग रहे थे. इतने में काम पर से वापस लौटता जगत मिस्त्री पहुँच गया. उसने पहले मिरदुला की सारी देह को टटोला और पैसे निकाल लिए. फिर मुँह बिराकर बोला – ‘क्यों री कानी, आज तेरे पीछे-पीछे करमिया कोढ़ी क्यों लगा हुआ था?’

करमिया चौकन्ना होकर दीवार से चिपक गया. मिरदुला कह रही थी, ‘उस निर्मोही कोढ़ी का नाश हो जाए. बेचारे सूरदास को कसाई की तरह कूट दिया आज उसने! इस कोढ़ी को तो, मैया नंदादेवी करे, कीड़े पड़ जाएँ, कीड़े!’

करमिया से और कुछ सुना नहीं गया. बहुत दूर चले आने तक, तो उसे यह भी सुधि नहीं रही कि आखिर वह कहाँ, किस तरह और किसलिए जा रहा है. दिशाशून्य-सा चलता हो जा रहा था वह कि एक अँधेरी गली के मोड़ तक पहुँचकर ठिठक गया. कोने में सिमटा-बैठा सूरदास, सारे संशयों से ऊपर आया हुआ-सा, मस्त भाव से भजन गा रहा था – ‘भगत भर दे रे झोली – तेरा होगा बड़ा ही ऐसान…’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

करमिया को लगा, आज साले सूरदास के कंठ से मिरदुला कानी की मस्ती फूट रही है.

गली में अँधेरा था. पास में सूरदास की तरह, बिना आँख का बिजली का खंभा प्रकाश-शून्य खड़ा था. करमिया के आस-पास जरूर दूसरे खंभे का मद्धिम उजाला फैला हुआ था. एकाएक करमिया को न जाने क्या सूझा, उसके ओठों पर कुटिल मुस्कान उभर आई. आसपास के उजाले में उसने एक वजनदार पत्थर ढूँढ़ लिया. उसकी छाती में अपनी ही आवाज गूँज उठी – ठैर, स्साले काने! आँखें तो तेरी भगवान ने ही फोड़ रखी थीं, मैं तेरा सिर फोड़े देता हूँ.

करमिया जानता था, सूरदास तो कुछ देख नहीं सकता. जब तक चीखेगा, चिल्लाएगा, लोग एकत्र होंगे, तब तक वह आगे बढ़कर कहीं कोने में दुबक जाएगा. कौन जान सकेगा कि कोढ़ी ने काने का सिर फोड़ा है?

लेकिन पत्थर उठाते-उठाते ठूँठ उँगलियों मे दर्द हुआ, तो करमिया थोड़ा-सा ठहर गया. अचानक यह आशंका हुई – और कोई चाहे जाने-न-जाने, मगर मिरदुला कानी जब सुनेगी, तो समझ जाएगी, कि करमिया न ही सूरदास का सिर फोड़ा होगा! …और कोई चाहे नहीं जाने, किंतु मिरदुला कानी जरूर जान जाएगी, इस आशंका ने करमिया के साँप की तरह फन फटकारते इरादे को वहीं दबा दिया. इसके अलावा, उसको सूरदास के गाने की आवाज को सुनकर जागृत हुए-से कुत्तों के भोंकने की आवाज सुनाई दे गई! सूरदास को पत्थर मारकर भागते में कहीं कुत्ते उसी को न दबोच लें, इस भय से करमिया अपने डेरे वाली सड़क पर मुड़ गया.

धरमशाले की कोठरी में पहुँचने पर करमिया पहले सीधे कनस्तरी वाले कोने में ही पहुँचा. झाड़-फूस-पत्थर हटाकर, भीख के पैसे कनस्तर में डाल दिए. फिर वहीं सिर टिकाकर लेट गया. भूख और दुश्चिंता के कारण बड़ी देर तक आँखें दुखती रहीं और नींद नहीं आई. उजाड़ धर्मशाले के सन्नाटे में करमिया खुद को किसी घायल वन्यपशु की तरह सुस्ताना अनुभव करता रहा. बहुत भूख बढ़ने पर गुड़-पानी से काम चला लेने का इरादा करते हुए, उसे फिर मिरदुला कानी की याद आ गई.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

शहर से लगे निकट वन के किनारे से गुजरती सड़क के किनारे कभी किसी धर्मापिपासु के द्वारा मुसाफिरों के रहने को बनाये गए धर्मशाले में एक इनसान रात काट रहा है. उसका नाम करमिया है. कोढ़, लोहे में लगे जंग की तरह, उसके अंग-अंग को खा रहा है. धीरे-धीरे, जैसे कोई अदृश्य जंतु गुड़ की मैली जीभ से चाटता हो. हाथ-पाँवों की उँगलियों में हमेशा गीला गिजगिजापन अनुभव होता है. मौजूदा वक्त में, जब पास का जंगल तक नींद में जोर-जोर की साँस लेता साफ सुनाई दे रहा है, एक शख्स जिंदगी के अत्यंत ही नाजुक मोड़ पर जागरण में पड़ा हुआ है – और उसका नाम है, करमिया!

…लेकिन सुबह होने से काफी पहले ही करमिया गहरी नींद में डूब गया. उसने अनेक सपने देखे. सपने में ही उसे ज्ञानियों का-सा बोध हुआ. सूरदास कल का लौंडा है, तुम पचासवाँ पार करने जा रहे हो! तुम्हें इतना भी चेत नहीं कि जीवन क्रोध नहीं, ज्ञान से चलाने की वस्तु है? थू है तुम्हारे सयानेपन पर!

चाय-बिस्कुट की दुकान, शहर की दिशा में, थोड़े ही फासले पर है और जंगल के झुरमुट व जल की धारा भी नजदीक ही. …लेकिन थोड़ा-सा इस कोठरी के बाहर भी निबटना जरूरी है. बरसों का संचित टीन की कनस्तरियों में समाया हुआ है और आस-पास की सुरक्षा जरूरी है. हालाँकि सोचने पर सूरदास और मिरदुला के प्रति गुस्सा बढ़ता जा रहा था, लेकिन चाय की दुकान की तरफ जाते-जाते करमिया ने अपना मन बिलकुल बदल लिया.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

मन की दिशा बदलते ही मनोदशा भी बदलने लगी. एकाएक ही उसे कुछ जुगुनुओं के प्रकाश की तरह दिवास्वप्न आने लगे. इनमें एक तो उसे अत्यंत ही अद्भुत और अलौकिक-सा लगा. वह दिन-भर का थका-हारा और भूखा लौटा है. …लेकिन आज मुसाफिरों की सड़क के किनारे उस उजाड़ धर्मशाले का पूरा परिदृश्य ही बदला पड़ा है. जहाँ उसके वापस पहुँचने तक में हमेशा अँधेरे में सना सन्नाटा पसरा रहता है, वहाँ कोठरी के बाहर के चूल्हे की रोशनी नीचे घाटी में बहती जलधारा तक प्रतिबिंबित होती दिखाई दे रही है. चूल्हे पर उरद की दाल की खिचड़ी चढ़ी है और मिरदुला कानी चटनी पीस रही है, तो उसके हाथों की चूड़ियों की आवाज – जाहिर है कि इस सपने को छाया चित्त पर से कई न कई दिनों तक उतर ही नहीं पाई.

यह कुछ दिनों के बाद की घटना है. रोज की तरह धंधे के लिए शहर पहुँचने पर, नियत स्थान में जब वह अपनी जगह बैठा और भीख माँगने के लिए आवाज लगाते हुए, ऊपर झाँका, तो पाया कि मिरदुला कानी आज करुण स्वर में विलाप कर रही है और उसके मुँह पर जगह-जगह घाव है. वह कमर पर हाथ रखे कराहती जाती थी. आज उसके कंठ से गीत के बोल भी नहीं फूट रहे थे.

दिन-भर तो करमिया अपनी जगह जमा रहा, लेकिन भिक्षा की बेला बीतते ही, मिरदुला के पीछे-पीछे चल पड़ा – ‘क्यों री मिरदुला, तू रोती क्यों है. करमिया के पूछने पर उसकी दिन-भर की थमी-थमी रुलाई एकाएक फूट पड़ी. रोते-रोते ही उसने बताया कि जगत मिस्त्री ने कल रात उसे बुरी तरह जूते और कलछी से पीटा है. कल दिन-भर की भिक्षा उसने रामलीला के चंदे में दे दी. पूर्व-जन्म के पापों से ऐसी लाचार योनि मिली, इस जन्म में कुछ पुण्य करने पर अगला जन्म सुधरने की आशा है. पहले भी मिरदुला मंदिरों में दो-चार पैसे चढ़ाती रही, मगर कल उसने सारे पैसे दे डाले.

सुबकते-सुबकते ही मिरदुला ने बताया कि वह जात की ब्राह्मणी है. बुझा हुआ दीपक भी सँभालकर रखा जाता है, मगर कानी मिरदुला को न उसके माँ-बाप सँभाल सके, न किसी और रिश्तेदार ने सहारा दिया. फुसला-बहला कर एक बार मणिहार कलारों का झुंड मेले में उठा ले गया था, ‘अपवित्र’ बनाकर, मेले में ही छोड़ गया और वहीं से इस जगत मिस्त्री ने अपने साथ लगा लिया. अब दिन-भर भीख मँगवाता है और शराब के नशे में धुल पीटता और तरह-तरह से सताता है.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

करमिया सुनता और करुणामय होता जा रहा था. मिरदुला बीच-बीच में कभी उसकी ओर पलटती और चिड़िया की तरह सिर तिरछा करके, उसे गौर से देखती जाती थी. अपनी संक्षिप्त जीवनगाथा समाप्त करके, आखिर फिर वह जोरों से रो पड़ी. ‘हे राम! कैसा पलीत जन्म दिया मुझ अभागिन को? डोमड़े के घर पड़ी हूँ. भीख माँगती जीवन काटती हूँ. इस पर भी अपना कोई वश नहीं.’

करमिया पसीज उठा. बोला – ‘अरे मिरदुला, अंधे-लूले-कोढ़ियों की कोई जात नहीं. सब एक जात के भिखारी हैं और भिखारी का दुख तो कोई भिखारी ही समझ सकता है, लल्ली, तुझ-जैसी दुखियारी कानी से ममता इस पापी संसार के सही-सलामत लोगों को नहीं हो सकती. तेरी विपदा तो कोई अपंग ही समझ सकता है.’

कहना करमिया ‘कोई मुझ-जैसा अपंग’ चाहता था, लेकिन फिलहाल सावधानी बरतना ही उचित लगा. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब-कुछ होय. माली सींचे निशिदिना, ऋतु पाए फल होय. …सपने को भी समय चाहिए. एक घटना घटित हुई है जिंदगी में, सूरदास के निमित्त से, तो इस मायामृग को ओझल नहीं होने देना है. नारी-संसर्ग की वर्षों से बुझी तृष्णा फिर जागती चली गई है पिछले दिनों, मगर मिरदुला कानी को घरवाली के रूप में पा सकने की संभावना बबहुत दूर की बात लगती थी. आज एक राह सूझ रही है. सूरदास की लाड़ली मिरदुला जगत मिस्त्री की मार से मुलायम पड़ी हुई है. लोहा ही क्यों, आदमी भी जब नरम पड़ा हो, तभी असर होता है. मिरदुला को पटाने में सूरदास को माध्यम बनाया जा सकता है, यह कल्पना आल्हाद से भरे दे रही है.

गाड़ी की सड़क का भैरव मंदिर के मोड़ तक का रास्ता पार हो चुका था. नई-नई आई है शहर में बिजली. रौशनी मद्धिम, खंभे दूर-दूर हैं. पाकर के पेड़ों की छाया अलग है. कोढ़ी-कानी का चलना, नहीं चलना एक हुआ जा रहा है.

मिरदुला अभी भी रो रही थी – ‘आज नहीं आऊँगी रे ड़ोमड़े, तेरे घर. इससे अच्छा तो श्मशान-घाट की तरफ चली जाऊँ. वहीं कहीं प्राण त्याग दूँ मेरा कौन बैठा है यहाँ रोने-धोने वाला?’

करमिया ने, परमेश्वर का स्मरण करते हुए, उसके कंधे पर हाथ रख दिया – ‘प्राण त्यागने से पाप नहीं कटते, लली! अगले जनम में और दुर्गांत भोगनी पड़ती है. तू कसाई जगत के घर मत जा, मगर मरेगी क्यों भला? तुझे ऐसी कौन-सी कमी है? दिन-भर में अपने पेट से ज्यादा ही कमा लेती है तू. मुझे तो सिर्फ एक सहारा चाहिए, जो दया-ममता से अपने साथ रखे. मेरा कहना मानती है, तो शोक छोड़ दे. ऐसा मत समझ कि तेरे पीछे कोई नहीं है. जिनका कोई देखनहार नहीं, उन्हें परमात्मा का सहारा है. तू ऐसा कर, उस बेचारे सूरदास को अपने साथ बुला ले. रहने को मेरे पास एक कोठरी अपनी और एक बगल में खाली पड़ी है. उसे तुम दोनों को दे दूँगा, रहने के लिए. आराम से जिंदगी गुजारोगे दोनों. खूब ठाठ से रहोगे. दोनों कमाऊ हो और दोनों खुशनसीब! सूरदास भी बेचारा जवान छोकरा है और जात का भी पंडित ही लगता है. गले में जनेऊ झूलता रहता है उसके. तेरे लिए जान देने को भी तैयार रहता है. करमिया तो फिर इतना ही कहेगा – जिसका कोई नहीं होता, मिरदुला, उसका करतार होता है!’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

करमिया की वाणी सिद्ध हो गई हो जैसे. उसके एक-एक शब्द में विश्वास झिलमिल करता था. मिरदुला की रुलाई थम गई, मगर बोली वह कुछ नहीं! करमिया को लगा, अभी कानी असमंजस में ही है. बोला, – ‘मिरदुला तू तो मुझे निरमोही समझती है न? …तू क्या जाने कि तेरी विपदा से मेरा कलेजा कितना फटा है. उस दिन जो मैंने सूरदास को पीटा, वह भी तेरी ही इज्जत बचाने के लिए. अब सोचता हूँ, पचास की उमर होने को आ गई. संजोग देख कि जो मेरी पहली बीवी थी, वह भी बाएँ आँख की कानी! कहीं उससे समय पर औलाद हो गई होती, तो आज तुम दोनों के बराबर मेरे बाल-बच्चे होते. सोचता हूँ, तो तुम दोनों पर ममता घनी होती जाती है. न जाने किस जन्म के पापों से यह गत हुई. इस जनम में एक तुम्हारी जोड़ी को सुख देने का पुण्य भी मिल जाता, तो मुझ अभागे के लिए इतना ही बहुत था…’

अँधेरा घना नहीं था, मगर तीर फिर भी निशाने पर बैठा. मिरदुला रुककर कुछ क्षणों को सड़क-किनारे की दीवार पर बैठ गई. दोनों के बीच कुछ पक्षियों का सा संवाद हुआ और फिर दोनों पीछे मुड़ गए. – सूरदास को साथ लेने. सूरदास बाजार के रास्ते पर बैठा मिला. मिरदुला ने सूरदास की लाठी पकड़ ली. हाथ पकड़ती बोली – ‘सूरदास रे, हमारे साथ चल. हम लोग अब एक साथ रहेंगे.’

मौसम बदल गया. सर्दियाँ शुरू हो गईं. कुछ दिनों तक तो करमिया अपनी कोठरी में अकेला सोता रहा, मगर फिर सूरदास और मिरदुला-की कोठरी में पहुँच गया – ‘अकेले में तो देह ठंड से थर-थर काँपने लगती है, तुम लोगों के साथ जाड़ा आसानी से कट जाएगा.’

मिरदुला को अपनी बाईं आँख के कोने से दिखाई जरूर देता है, मगर साफ-साफ नहीं. करमिया भी साथ सोए, यह उसे पसंद नहीं, मगर कोठरी ही नहीं, सूरदास की संगति भी करमिया ने ही उसे दे रखी है, इस अहसान के दबाव में विरोध की भावना दब जाती. इसके अलावा मिरदुला अपने कोमल स्वभाव के कारण डरती भी बहुत कि करमिया की कोठरी छोड़कर जाने पर, न जाने फिर कहीं ठौर मिले, न मिले. सूरदास अंधा ही ठहरा, वह भी लगभग अंधी ही. चिड़िया की तरह सिर तिरछा करे, तो ही कुछ साफ और दूर तक दीखता है. बड़े भाग से कुछ ठहरना हुआ है. फिर न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़े, क्या दुर्गति हो.

सूरदास मिरदुला को बहुत प्यार करता था. जब तक कोठरी में रहता, अक्सर बिना सींग बछड़े की तरह मिरदुला की छाती से लगकर सो जाता. वह एक अपूर्व संसार पा गया था. उसके स्पर्श में जीवन के जाने कितने सारतत्व एकाएक आ गए थे. उसे दिखता कुछ नहीं था, लेकिन फिर भी देखता था. जैसे सपने में देखता हो. उसको सारा संसार अंतर्धान हो जाता, मगर मिरदुला भी सूरदास की छेड़खानी से गद्गद् हो उठती थी. सूरदास से बिछुड़ने की कल्पना मात्र से उनकी आँखों में आँसू उमड़ने लगते. सूरदास के साथ रह सकने को करमिया की दी हुई कोठरी से ज्यादा सुरक्षित कोई स्थान नहीं. फिर करमिया की खुली आँखों का भी सहारा था. इसलिए वितृष्णा ओर अनिच्छा के बावजूद, करमिया को सहना जैसे एक नियति बनता गया.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

पहले अपनी कोठरी में पड़ा-पड़ा करमिया सिर्फ कल्पनाएँ करता था कि इस वक्त सूरदास और मिरदुला उसकी दी हुई कोठरी में प्रेमालाप में डूबे होंगे. सर्दियों का मौसम उसको दाहिना हो रहा होगा. अब फासला समाप्त है. अब धीरे-धीरे हरेक इच्छा पूरी होने लगी, तो उसका मन दूसरा रास्ता खोजने लगा है. साले सूरदास को यहाँ से रफा-दफा करवा दे, तो फिर मिरदुला कानी पर पूरा-पूरा अधिकार अकेले उसी को रहेगा.

हालाँकि इतना तो करमिया अनुभव से जानता था कि मिरदुला कानी जो उसे सहती है विवशता में, मगर सूरदास को बहुत चाहती है. कभी करमिया का मन होता, सूरदास को जान से मार डाले, मगर यह आशंका कि सूरदास के कारण ही मिरदुला यहाँ टिकी है, उसे दबाती रहती. करबला वालों का भय भी उसे घेरे रहता, क्योंकि उसने इधर फिर सुना था – पुलिस जल्दी ही कोढ़ियों को पकड़कर करबला पहुँचाने वाली है! पकड़े जाने के भय से वह भीख माँगने को मिरदुला और सूरदास को ही लगा देता, मगर जब अपने कनस्तर की सुधि आती, तो कोठरी से बाहर निकलकर विकट वन वाली सड़क पर ही भीख माँगने को जाता. शहर वाली बरकत यहाँ ऐ किनारे कहाँ, मगर राह चलते मुसाफिरों का कभी गुजरना होता, तो दो-चार आने की कमाई हो ही जाती.

सूरदास और मिरदुला लौटते, तो कुछ-न-कुछ सौदा लेते आते. खाना मिरदुला ही बनाती. अद्भुत अभ्यास था उसे. वैसा ही स्वाद. दोनों के बीच नदी का सा बहना था उसका. एक नया संस्कार रच दिया था उसने.

करमिया कोठरी के बाहर बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. सूरदास की लाठी में घुँघरू बँधे हैं. सूरदास की खबर देना उन्हीं का काम है.

सूरज कब का डूब चुका. करमिया ने बहुत ध्यान से देखा था. जबसे शहर नहीं जाता, प्रकृति सहचरी हो गई है. सूरज का डूबना पेड़ों पर प्रतिबिंबित होता है. अब तो अँधेरा गहरा होने लगा. उधर बिजली से प्रकाशित शहरी बस्तियाँ हैं – इधर अँधेरे में डूबी उजाड़ धर्मशाला है. सड़क के निचले किनारे. उधर मोड़ के पार ही छिट-पुट बस्ती शुरू हो जाती है. पहला ही मकान भरे-पूरे कुनबे वाली शारदा पंडिताइन का पड़ता है. पड़ाव होने से अक्सर रौनक रहती है. गाहे-बगाहे दूध-सब्जी वगैरा का सहारा हो जाता है. मिरदुला ने उजाड़ को गिरस्थी कर दिया है, तो संसार से नाता गहरा होता जाता है. उधर से अँधेरे में डूबी धर्मशाला नहीं दिखती, लेकिन इधर से पड़ाव पर की रोशनी साफ दिखती है.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

रात गए तक दोनों नहीं लौटे, तो करमिया बेचैन हो उठा कि कहीं मिरदुला कानी सूरदास को किसी दूसरी जगह तो नहीं उठा ले गई होगी? आधी रात तक भी दोनों नहीं लौटे, तो करमिया का धैर्य टूट गया. कुछ पैसे जेब में रखे और बाहर निकल आया. मनोरथ पंडित के होटल तक पहुँचकर, पहले कुछ खा-पी लेने का इरादा किया और तब शहर की तरफ निकलने का.

छोटा-सा पहाड़ी शहर भीतर की बेचैनियों में और संक्षिप्त जान पड़ता है. रात-भर में दो-तीन बार बाजार की सड़कों और अपनी कोठरी के बीच करमिया भटकता रहा. आखिर सबेरे के उजाले में उसे सूरदास गली के एक कोने में अकेला सोया पड़ा मिला. जगाया, तो वह इतना बता सका कि कल शाम मिरदुला उसे लेने ही नहीं आई. करमिया ने उसे डाँटा – ‘स्साले तूने मिरदुला कानी को भगा दिया. अब बासुकी नाग-जैसा लिपट-लिपट कर किसके साथ सोएगा, स्साले?’

सूरदास बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगा, ‘दोष मेरा नहीं, मेरे माई-बाप! मेरी अंधी आँखों का है. आँखों में जोत होती, तो मिरदुला को थोड़े ही गँवा बैठता!’

‘अरे, तेरी अंधी आँखों में कुत्ते पेशाब करें.’ – कहकर करमिया ने सूरदास को पीटा, मगर फिर भी चित्त को चैन नहीं मिला. सूरदास को वहीं लावारिसों की तरह रोता छोड़ आना चाहता था करमिया, लेकिन मिरदुला ने एक अजब-सा परिवर्तन रच दिया है जीवन में. अकेलापन अब काट खाने को आता है. आखिर मन मारकर, करमिया ने खुद उसकी लाठी सँभाली और कई दिनों के बाद फिर शहर में ही भीख माँगने के इरादे से आगे बढ़ गया. शहर के बीचोंबीच पहुँचते तक में सूरदास थककर चूर हो गया. करमिया को दया उमड़ आई. बोला – ‘चल, उल्लू के पट्ठे! पहले थोड़ा दूध-जलेबी पेट में डाल ले. माँ का दूध तो जाता रहा. बहुत स्साला पिल्ला बना रहता था.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

जाने क्या हुआ कि अनेक दिनों के बाद भी मिरदुला नहीं लौटी, तो भी करमिया सूरदास को अपने साथ लाता और ले जाता रहा. एकांत और उदासी में प्रवचन का सहारा है. उजाड़ धर्मशाले के सन्नाटे में सूरदास के भजन जीवन के बरकरार होने की अनुभूति कराते हैं.

दिन बीतते जाते थे कि अचानक आकाश से उतरी हुई सी मिरदुला कानी फिर सूरदास के पास बैठी दिखाई दे गई. करमिया तुरंत सड़क पार से उठकर सीढ़ियों पर आ गया. पूछने पर पता चला कि नौटंकी वाले उठा ले गए थे. सात-आठ दिनों के बाद छोड़कर चले गए. करमिया उस समय तो कुछ नहीं बोला, मगर कोठरी में पहुँचने पर रात-भर मिरदुला से पूछता रहा – ‘नौटंकी वालों ने तेरे साथ क्या-क्या किया?’ और फिर धिक्कारता रहा – ‘तुझ कानी को भी कुतियों जैसी आदत पड़ गई. जो उठा ले जाए, उसी के साथ पातर जैसी चली आती है. अपने सत्त-धरम का तो तुझे विचार ही नहीं. दो-दो खसमों के रहते यों छिनालपना करते तुझे जरा लाज नहीं लगती. बहुत कहती है कि अगले जन्म में आँखें माँगनी है भगवान से. तुझे नहीं पता की भगवान सिर्फ पतिवरता औरतों को ही आँखें देता है?’

लगातार कई महीनों तक मिरदुला कानी राजस्वला नहीं हुई, तो करमिया ने सूरदास को डाँट दिया कि अब जरा अलग-अलग सोया कर. सूरदास के पूछने पर करमिया ने जो कुछ समझाया, उससे सूरदास एकदम पुलकित हो उठा और पूछ बैठा – ‘बच्चा क्या मुझ-जैसा ही काना पैदा होगा, करमिया भाई?’

मिरदुला कानी कपड़े धोने गई थी.

करमिया ने सूरदास को लताड़ दिया, ‘क्यों, क्या तेरी ही लगी है, सरकारी दफ्तर की जैसी सील-मुहर? अरे, सूरदास, मेरी पहली घरवाली धोखाधड़ी न कर गई होती, तो आज तेरे बराबर तो मेरे बेटे होते, बेटे!’

सूरदास ने निरीह भाव से, सिर ऊपर उठाते हुए, कहा – ‘हाँ, मिरदुला कहती तो हैं कि तुम बूढ़े हो चुके हो.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

करमिया कुछ ठीक-ठीक समझ नहीं पाया कि सूरदास व्यंग्य कर रहा है या यों ही कह गया. वह पूरे दर्प के साथ बोला – ‘तू तो अभी लौंडा ही है, सूरदास! मैं बाल-बच्चे वालों की तरह सयाना हूँ. मिरदुला को यह यह वाला बच्चा तो मुझसे ही रहा होगा.’

‘मगर पहली घरवाली से तुम्हारा कोई बच्चा पैदा नहीं हुआ?’ – सूरदास ने फिर शंका की, तो करमिया तिलमिला उठा – काने स्साले का दिमाग बड़ा तेज है. बात ऐसा करता है स्साला, जैसे चिमटे से पकड़कर खींचता हो. करमिया बात बदलकर बोला – ‘यार, सूरदास, आँखों की जोत से बढ़कर भी दुनिया में कोई चीज नहीं. अब मिरदुला के बालक जनमेगा, तो आह रे – उसकी आँखें मेरी ही तरह चमचम करती खुली होंगी – और छोटे-छोटे माऊ के हाथ-पाँव भी, यार, देखने ही लायक होते हैं. मैं उसे गोद में खिलाया करूँगा – ‘

‘कैसे होते हैं भला माऊ के हाथ पाँव?’

‘फूलों-जैसे खूबसूरत! मक्खन जैसे मुलायम! मगर, यार सूरदास, तूने फूलों की खूबसूरती भी कहाँ देखी? छोटे बच्चों की मुस्कराहट ऐसी होती है, जैसे गलाई हुई चाँदी का कटोरा छलछला जाए. मगर तू बच्चे की हँसी भी कहाँ देख सकेगा? हाँ, बच्चा जब कभी रोएगा, तो तू उसका रोना जरूर सुन, सकेगा. कान तो स्साले तेरे खरगोशों से भी तेज हैं.

‘मगर, मैं उसे गोद में लेकर, हाथों से टटोल-टटोलकर देख सकूँगा. जबसे मिरदुला के संग रहने लगे हम लोग, बड़े भाई छूता हूँ तो देखता हूँ.’

‘हट स्साले! देखेगा क्या तू. अंधों की तरह टटोलेगा, तो तेरे नाखून चुभेंगे. बच्चे को विष लग जायगा. आँखें ठहरी नहीं, कहने को कहता है स्साला – गोद में लूँगा! अबे, कहीं धम्म से गिराकर जान से मार रखेगा बच्चे को.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

‘मैं नाखून काट लूँगा और बैठे-बैठे ही गोद में पकड़ूँगा. फिर तो नहीं गिरेगा बच्चा? मगर तू उसे अपनी गोद में लेगा, तो क्या तेरा कोढ़ नहीं सरेगा उसे? अगर बच्चे को कोढ़ हो गया, तो फिर उसे करबला वाले नहीं उठा ले जाएँगे?’

करमिया को लगा, सूरदास ने अपने लंबे नाखूनों से उसके कोढ़ से गले अंगों को कुरेद दिया है. गुस्सा नहीं सहा गया, तो करमिया फिर सूरदास को पीटने लगा. इतने में मिरदुला लौट आई, तो रुक गया. सूरदास रोने लगा. मिरदुला ने उसे छाती से लगा लिया – ‘ऐसे ही जो तू निरमोही सूरदास बेचारे को सताएगा, तो हम दोनों तेरी कोठरी छोड़कर चले जाएँगे.’

करमिया खिसिया गया. बोला, ‘यह काना मुझसे कहता है कि बच्चे को तेरा कोढ़ सर जाएगा. करबला में तो कितने ही कोढ़ियों के बच्चे होते हैं, उन्हें क्यों नहीं सरता कोढ़? वैसे काना होने से तो कोढ़ी होना ही भला.’

इस बार मिरदुला हँस पड़ी – ‘अरे, तुम बेशरमों को भी एक बेचैनी-जैसी हो रही है. अभी तो सातवाँ भी नहीं लगा है. अभी से तुम लोगों को कोढ़-खाज की सूझ रही है. हे राम जी, मेरा बालक तो आँखों का भी टकटका होना चाहिए, गात का भी साफ-सुथरा.

इधर कुछ दिनों से शाम की वापसी के बाद घड़ी-भर को मिरदुला थोड़ी ही दूरी पर रहती. शारदा पंडिताइन के घर जरूर चली जाती है सूरदास को भी साथ लेकर पंडिताइन को मिरदुला-सूरदास के भजन बहुत अच्छे लगते हैं. मिरदुला को लगता है कि आने वाले समय में किसी की शरण जरूरी होगी.

ज्यों-ज्यों मिरदुला के दिन चढ़ते गए, उसके गले में मिठास भी बढ़ती गई. सूरदास भी प्रसन्न था. मिरदुला गाती, तो सूरदास जस्ते की देगची पर ताल देता रहता. करमिया भी गाने की चेष्टा करता जरूर, मगर मिरदुला और सूरदास दोनों उसकी बेसुरी आवाज सुनकर खिलखिला उठते, तो खिसियाकर चुप हो जाता. गुस्सा बहुत आता है कि स्साले सूरदास की उँगलियाँ पत्थर से कुटकुटा दें, मगर उसके साथ-साथ मिरदुला के भी चले जाने की आशंका सारे क्रूर इरादों को दबा देती है.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

समय बीतता जाता. जब-जब कोढ़ियों को पकड़कर करबला ले जाने की खबर जोर पकड़ती, करमिया डेरे पर ही रह जाता. सूरदास और मिरदुला शहर से लौटते, तो करमिया भी विकट वन वाली सड़क से नीचे उतर जाता. फिर बड़ी रात तक यही चर्चा चलती रहती कि मिरदुला के बच्चा होगा तो उसका पालन-पोषण कैसे होगा? बच्चा किस पर उतरेगा? कभी-कभी करमिया का मन होता कि अपने ओने-कोनों में गड़ी कनस्तरियाँ दिखाकर मिरदुला को ललचा ले. मिरदुला बच्चा होने से पहले ही साफ-साफ कह दे कि उसे तो आस करमिया से ही रही है. …मगर फिर पहली कानी की याद आ जाती और करमिया करस्तरियों के ऊपर और ज्यादा कूड़े का ढेर लगाकर, उसके आस-पास पेशाब कर आता. मिरदुला लाख कहती कि बगल के कमरे में गंदगी ठीक नहीं, मगर करमिया सुने का अनसुना कर देता.

एक दिन करमिया बोला, ‘सूरदास तो आँख से देखता नहीं. बच्चे के नामकरण के चौक पर मैं बैठूँगा. बाप को बच्चे के नाम धरने के दिन चौके पर बैठना ही पड़ता है.’

‘मैं भी बैठ सकता हूँ.-सूरदास बोल उठा, ‘मुझे तो मिरदुला पकड़कर बिठा देगी. फिर मैं बेटे को गोद में लेकर बैठा ही रहूँगा. नामकरण की रस्म पूरी होने पर मिरदुला बच्चे को मेरी गोद से उठा लेगी. रोएगा, तो दूध पिला देगी.’

करमिया फिर लड़ने को उफनने लगा कि मिरदुला ने दोनों का लताड़ दिया – ‘तुम दोनों की तो वही कहावत है कि नाई का पता नहीं, सिर भिगोए मुंडन को तैयार! …अरे कम अक्ल बेशरमो! पहले यह तो बताओ कि काने-कोढ़ी की औलाद का नामकरण करने को पंडित-पुरोहित कहाँ से आएगा?’

सूरदास और करमिया, कई बार, अकेले-अकेले मिरदुला से फिर भी पूछते रहते – ‘तेरे अंदाज से किससे रहा होगा तुझको बच्चा?

मिरदुला डाँट देती – ‘मैं कोई चितरगुप्त का खाता खोलकर नहीं बैठी रहती?’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

आखिर एक दिन मिरदुला की देह दुखने लगी, तो करमिया सूरदास को अपनी कोठरी में उठा ले गया. बोला – ‘अब अपनी महतारी को ब्याते हुए देखना चाहता है क्या? आँखें फूटी हुई हैं, मगर मन की हविश नहीं गई. तू यहीं रह. मैं एक दाई को जानता हूँ. उसे बुला लाऊँगा. …मगर दाई के पैसे तू देगा कि नहीं?’

‘तू क्यों नहीं देगा?’

‘मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं. तू तो जानता ही है बहुत दिनों से भीख माँगने को बाजार ही नहीं जाता हूँ. तेरे पास तो जरूर कुछ गाँठा होगा? दाई नहीं आएगी तो मिरदुला कानी भी मरेगी और तेरा बेटा भी मर जाएगा.’

सूरदास जल्दी-जल्दी बोला, ‘अच्छा, अच्छा. पैसे मैं दूँगा. तू जा, बुला ला दाई को.’

दाई आई, तो दोनों इसी प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे रहे. सूरदास से नहीं रहा गया, तो बोल उठा – ‘आँख का काना हुआ, तो मेरा ही बेटा होगा.’

‘…और हाथ-पाँव में दाग होंगे, तो मेरा!’

‘ऐसा भी तो हो सकता है कि बच्चा आँखों का अंधा और हाथ-पाँवों का कोढ़ी पैदा हो?’ – सूरदास ने अपनी धारणा व्यक्त की. इस बार करमिया उससे सहमत हो गया. पास बैठते बोला, ‘अगर ऐसा बच्चा पैदा हुआ, तो वह हम दोनों का बेटा होगा. …और …फिर झगड़े की गुंजाइश भी नहीं रहेगी. मगर यार सूरदास, इसी बीच हफ्ते-भर तक गायब रही थी यह कानी – जब नौटंकी वाले उठा ले गए थे इसे? कौन जाने, उठा ले गए, या यह खुद ही नौटंकी करने पहुँच गई. गाने-नाचने का भी तो बहुत शौक है हरामिन को!’

दोनों अपनी-अपनी उधेड़बुन में थे. किसी अलौकिक घटना की सी प्रतीक्षा में व्याकुल. जैसे सृष्टि में कुछ अपूर्व घटित होने जा रहा हो. दोपहर होने को आ गई थी. जंगल में वृक्षों का हवा में डोलना मिरदुला कानी का हालचाल पूछता सा मालूम पड़ता था. प्रकृति जैसे कोई नया सृजन करने को उतावली हुई जा रही थी. दोनों ऊहापोहों में डूबे थे कि इतने में दाई आई पूरी शरारत में हँसती बोली, ‘लो रे, तुम अपाहिजों के घर में दीपक जल गया.’
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

बच्चे के रोने की आवाज सुनकर, सूरदास और करमिया अपना धैर्य खो बैठे. करमिया ने जल्दी से पूछा – ‘क्यों दीदी, बच्चे के हाथ पाँव कैसे हैं?’

करमिया सुनना चाहता था कि बच्चे के हाथ-पाँवों में कोढ़ के दाग हैं. मगर दाई ने कहा – ‘बच्चा तो हाथ-पाँवों का एकदम नौनी-जैसा चुपड़ा है.’

करमिया अपने ही ठौर खड़ा रह गया – कहीं सिर्फ आँखों का ही अंधा तो पैदा नहीं हुआ?

सूरदास ने कुछ नहीं पूछा. करमिया को मिले उत्तर से वह कुछ सहम-सा गया था. दाई ही बोली – ‘भगवान की माया कौन जान सका. कोढ़ी-अंधों की औलाद और दीये-जैसी जोत देती आँखें. गोरा-चिट्टा रंग. अच्छा हुआ, कानी पर ही गया बच्चा. अब जरा दस-पाँच दिन इसके खाने-पीने का जतन रखना. पंडिताइन के यहाँ से कुछ दलिया-हलवा बनवा लाना. बड़ी दयावान औरत है. कानी के भजन बहुत सुने हैं उसने, अब भोजन की बारी है.’

हतप्रभ करमिया ने, सूरदास से लेकर पाँच का नोट दाई को पकड़ा दिया. दाई एक नए संसार को रच गए होने की-सी मुद्रा में सड़क की तरफ मुड़ गई. करमिया उसे मोड़ पर से ओझल होने तक चुपचाप खड़ा रहा. आखिर आँखें थक जाने पर, पीछे मुड़ने को हुआ, तो पाया – सूरदास, उसकी पीठ का सहारा लिए चुपचाप खड़ा है. तभी मिरदुला के कराहने की आवाज कानों में पड़ी और दोनों साथ-साथ भीतर कोठरी की तरफ चल पड़े.
(Do Dukhon Ka Ek Sukh)

शैलेश मटियानी

हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.

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इसे भी पढ़ें: एक शब्दहीन नदी: हंसा और शंकर के बहाने न जाने कितने पहाड़ियों का सच कहती शैलेश मटियानी की कहानी

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