कला साहित्य

बुर्क़े : सआदत हसन मंटो की कहानी

ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उस ने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है… और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का. जिस में अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है. (Story of Saadat Hasan Manto Burqey)

वो कॉलिज से ख़ुश-ख़ुश वापस आया कि थर्ड ईयर में ये उस का पहला दिन था. जूंही वो अपने घर में दाख़ल होने लगा, उस ने एक बुरक़ा-पोश लड़की देखी जो तांगे में से उतर रही थी. उस ने तांगे में से उतरती हुई हज़ार-हा लड़कियां देखी थीं… मगर वो लड़की जिस के हाथ में चंद किताबें थीं, सीधी उस के दिल उतर गई.

लड़की ने तांगे वाले को किराया अदा किया और ज़हीर के साथ वाले मकान में चली गई. ज़हीर ने सोचना शुरू कर दिया कि इतनी देर वो उस की मौजूदगी से ग़ाफ़िल कैसे रहा?

असल में ज़हीर आवारा-मन्श नौ-जवान नहीं था, उस को सिर्फ़ अपनी ज़ात से दिलचस्पी थी. सुबह उठे, कॉलिज गए, लैक्चर सुने, घर वापस आए, खाना खाया, थोड़ी देर आराम किया, और आमोख़्ता दुहराने में मसरूफ़ हो गए.

यूं तो कॉलिज में कई लड़कियां थीं, उस की हम-जमाअत, मगर ज़हीर ने कभी उन से बातचीत नहीं की थी. ये नहीं कि वो बड़ा रूखा फीका इंसान था. असल में वो हर वक़्त अपनी पढ़ाई में मशग़ूल रहता था. मगर उस रोज़ जब उस ने उस लड़की को तांगे पर से उतरते देखा तो वो पॉलीटिकल साईंस का ताज़ा सबक़ बिलकुल भूल गया. ख़्वाजा हाफ़िज़ के तमाम नए अशआर के मआनी उस के ज़हन से फिसल गए और वो इन हाथों के मुतअल्लिक़ सोचने लगा जिन में किताबें थीं. पतली-पतली सफ़ैद उंगलियां… एक उंगली में अँगूठी… दूसरा हाथ जिस ने तांगे वाले को किराया अदा क्या वो भी वैसा ही ख़ूबसूरत था.

ज़हीर ने उस की शक्ल देखने की कोशिश की, मगर निक़ाब इतनी मोटी थी कि उसे कुछ दिखाई न दिया. लड़की तेज़ तेज़ क़दम उठाती, इस के साथ वाले मकान में दाख़िल हो गई और ज़हीर खड़ा देर तक सोचता रहा कि इतना कम फ़ासिला होने के बावजूद वो क्यों उस की मौजूदगी से ग़ाफ़िल रहा.

अपने घर में जा कर उस ने पहला सवाल अपनी माँ से ये क्या. हमारे पड़ोस में कौन रहते हैं?

उस की माँ के लिए ये सवाल बहुत तअज्जुबख़ेज़ था. “क्यों?”

“मैं ने ऐसे ही पूछा है.”

उस की माँ ने कहा. “मुहाजिर हैं, हमारी तरह.”

ज़हीर ने पूछा. “कौन हैं, क्या करते हैं?”

माँ ने जवाब दिया. “बाप बेचारों का मर चुका है. माँ थी, वो उम्र के हाथों माज़ूर थी. अब तीन बहनें और एक भाई है. भाई सब से बड़ा है. वही बाप समझो, वही माँ. बहुत अच्छा लड़का है. उस ने अपनी शादी भी इस लिए नहीं कि इतना बोझ उस के काँधों पर है!”

ज़हीर को तीन बहनों के इस बोझ से कोई दिलचस्पी नहीं थी जो उस के इकलौते भाई के काँधों पर था. वो सिर्फ़ उस लड़की के बारे में जानना चाहता था जो हाथ में किताबें लिए साथ वाले घर में दाख़िल हुई थी. ये तो ज़ाहिर था कि वो इन तीन बहनों में से एक थी.

खाने से फ़ारिग़ हो कर वो पंखे के नीचे लेट गया. उस की आदत थी कि वो गरमियों में खाने के बाद एक घंटे तक ज़रूर सोया करता था. मगर उस रोज़ उसे नींद न आई. वो उस लड़की के मुतअल्लिक़ सोचता रहा जो उस के पड़ोस में रहती थी.

कई दिन गुज़र गए, मगर उन की मुठभीड़ न हुई. कॉलिज से आ कर उस ने सैकड़ों मर्तबा कोठे पर घंटों धूप में खड़े रह कर उस की आमद का इंतिज़ार किया. मगर वो न आई. ज़हीर मायूस हो गया. वो बहुत जल्द मायूस हो जाने वाला आदमी था. उस ने सोचा कि ये सब बे-कार है. मगर इश्क़ कहता था कि ये बे-कारी ही सब से बड़ी चीज़ है. इश्क़ में सब से पहले आशिक़ को उस चीज़ से वास्ता पड़ता है, जो घबराया, वो गया.

चुनांचे ज़हीर ने अपने दिल में अह्द कर लिया कि पहाड़ भी टूट पड़ें तो वो घबराएगा नहीं, अपने इश्क़ में साबत क़दम रहेगा.

बहुत दिनों के बाद जब वो साईकल पर कॉलिज से वापस आ रहा था, उस ने अपने आगे एक टांगा देखा, जिस में एक बुर्क़ा-पोश लड़की बैठी थी. इस का क़ियास बिलकुल दुरुस्त निकला, क्योंकि ये वही लड़की थी. टांगा रुका… ज़हीर साईकल पर से उतर पड़ा. लड़की के एक हाथ में किताबें थीं, दूसरे हाथ से उस ने तांगे वाले को किराया अदा किया और चल पड़ी. मगर तांगे वाला पुकारा. “ए बीबी जी… ये क्या दिया तुम ने?”

उस के लहजे में बद-तमीज़ी थी. लड़की रुकी, पलट कर इस ने तांगे वाले को अपने बुर्के की निक़ाब में से देखा. “क्यों, क्या बात है?”

तांगे वाला नीचे उतर आया और हथेली पर अठन्नी दिखा कर कहने लगा. “ये आठ आने नहीं चलेंगे.”

लड़की ने महीन लर्ज़ां आवाज़ में कहा. “मैं हमेशा आठ आने ही दिया करती हूँ.”

तांगे वाला बड़ा वाहियात क़िस्म का आदमी था, बोला. “वो आप से रियायत करते होंगे… मगर… ”

ये सुन कर ज़हीर को तैश आ गया, साईकल छोड़ कर आगे बढ़ा, आओ देखा न ताऊ. एक मुक्का तांगे वाले की थोड़ी के नीचे जमा दिया, वो अभी सँभला भी नहीं था कि एक और उस की दाहिनी कनपटी पर. इस ज़ोर का कि वो बिलबिला उठा.

इस के बाद ज़हीर उस लड़की से जो ज़ाहिर है कि घबरा गई थी, मुख़ातब हुआ. “आप तशरीफ़ ले जाईए, मैं इस हराम-ज़ादे से निबट लूंगा.”

लड़की ने कुछ कहना चाहा, शायद शुक्रिए के अल्फ़ाज़ थे जो उस की ज़बान की नोक पर आ कर वापस चले गए. वो चली गई… दस क़दम ही तो थे, मगर ज़हीर को पूरे बीस मिनट इस तांगे वाले से निबटने में लगे. वो बड़ा ही लीचड़ क़िस्म का तांगे वाला था.

ज़हीर बहुत ख़ुश था कि उस ने अपनी महबूबा के सामने बड़ी बहादुरी का मुज़ाहरा किया. उस ने तांगे वाले को ख़ूब पीटा था और इस ने ये भी देखा था कि वो बुरक़ापोश लड़की अपने घर से, चुक़ लगी खिड़की के पीछे से उस को देख रही है. ये देख कर ज़हीर ने दो घूंसे और उस कोचवान की थोड़ी के नीचे जमा दिए थे.

इस के बाद ज़हीर सर से पैर तक इस बुरक़ा-पोश की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गया. उस ने अपनी वालिदा से मज़ीद इस्तिफ़सार किया तो उसे मालूम हुआ कि उस लड़की का नाम यासमीन है. तीन बहनें हैं, बाप इन का मर चुका है, माँ ज़िंदा है, मामूली सी जायदाद है जिस के किराए पर इन सब का गुज़ारा हो रहा है.

ज़हीर को अब अपनी माशूक़ा का नाम मालूम हो चुका था. चुनांचे उस ने यासमीन के नाम कई ख़त कॉलिज में बैठ कर लिखे, मगर फाड़ डाले. लेकिन एक रोज़ उस ने एक तवील ख़त लिखा और तहय्या कर लिया कि उस तक ज़रूर पहुंचा देगा.

बहुत दिनों के बाद जब कि ज़हीर साईकल पर कॉलिज से वापस आ रहा था उस ने यासमीन को तांगे में देखा. वो उतर कर जा रही थी, लपक कर वो आगे बढ़ा, जेब से ख़त निकाला और हिम्मत और जुर्रत से काम ले कर उस ने काग़ज़ उस की तरफ़ बढ़ा दिए… “ये आप के कुछ काग़ज़ तांगे में रह गए थे.”

यासमीन ने वो काग़ज़ ले लिए. नक़ाब का कपड़ा सरसराया… “शुक्रिया!“”

ये कह कर वह चली गई. ज़हीर ने इत्मिनान की सांस ली. लेकिन उस का दिल धक-धक कर रहा था. इस लिए कि उसे मालूम नहीं था कि उस के ख़त का क्या हश्र होने वाला है, वो अभी इस हश्र के मुतअल्लिक़ सोच ही रहा था कि एक और टांगा उस की साईकल के पास रुका, इस में से एक बुरक़ापोश लड़की उतरी. उस ने तांगे वाले को किराया अदा किया. ये हाथ जिस से किराया अदा किया गया था, वैसा ही था, जैसा उस लड़की का था, जिस को पहली मर्तबा ज़हीर ने देखा था.

किराया अदा करने के बाद, ये लड़की उस मकान में चली गई जहां यासमीन गई थी. ज़हीर सोचता रह गया. लेकिन उस को मालूम था कि तीन बहनें हैं. हो सकता है कि ये लड़की यासमीन की छोटी बहन हो.

ख़त दे कर ज़हीर ने ये समझा था कि आधा मैदान मार लिया है. पर जब दूसरे रोज़ उसे कॉलिज जाते वक़्त एक छोटे से लड़के ने काग़ज़ का एक पुर्ज़ा दिया तो उसे यक़ीन हो गया कि पूरा मैदान मार लिया गया है. लिखा था—

“आप का मोहब्बत-नामा मिला.  जिन जज़्बात का इज़हार आप ने किया है, उस के मुतअल्लिक़ मैं आप से क्या कहूं. मैं… मैं… मैं इस से आगे कुछ नहीं कह सकती… मुझे अपनी लौंडी समझिए.”

ये रुक्का पढ़ कर ज़हीर की बाछें खिल गईं. कॉलिज में कोई पीरियड अटेन्ड न किया. बस सारा वक़्त बाग़ में घूमता और इस रुक्के को पढ़ता रहा.

दो दिन गुज़र गए, मगर यासमीन की मुडभेड़ न हुई. उस को बहुत कोफ़्त हो रही थी. इस लिए कि उस ने एक लंबा चौड़ा मोहब्बत भरा ख़त लिख दिया था और वो चाहता था कि जल्द-अज़-जल्द उस तक पहुंचा दे.

तीसरे रोज़ आख़िर कार वो ज़हीर को तांगे में नज़र आई. जब वो किराया अदा कर रही थी, साईकल एक तरफ़ गिरा कर वो आगे बढ़ा, और यासमीन का हाथ पकड़ लिया. “हुज़ूर! ये आप के चंद काग़ज़ात तांगे में रह गए थे!”

यासमीन ने एक झटकते… ग़ुस्से से भरे हुए झटके के साथ अपना हाथ छुड़ाया और तेज़ लहजे में कहा.

“बद-तमीज़ कहीं के… शर्म नहीं आती तुम्हें?”

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ये कह कर वो चली गई और ज़हीर के मोहब्बत भरे ख़त के काग़ज़ सड़क पर फड़फड़ाने लगे. वो सख़्त हैरत-ज़दा था कि वो लड़की जिस ने ये कहा था कि मुझे अपनी लौंडी समझिए, इतनी राऊनत से क्यों पेश आती है. लेकिन फिर उस ने सोचा कि शायद ये भी अंदाज़-ए-दिलरुबाना है.

दिन गुज़रते गए, मगर ज़हीर के दिल-ओ-दिमाग़ में यासमीन के ये अल्फ़ाज़ हर वक़्त गूंजते रहते थे. “बद-तमीज़ कहीं के… शर्म नहीं आती तुम्हें…” लेकिन इस के साथ ही उसे उस रुके के अल्फ़ाज़ याद आते जिस में ये लिखा था. “मुझे अपनी लौंडी समझिए.”

ज़हीर ने इस दौरान में कई ख़त लिखे और फाड़ डाले, वो चाहता था कि मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में यासमीन से कहे कि इस ने बद-तमीज़ कह कर उस की और उस की मोहब्बत की तौहीन की है. मगर उसे ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं मिलते थे. वो ख़त लिखता था, मगर जब उसे पढ़ता तो उसे महसूस होता कि वो ग़ैर-मामूली तौर पर दुरुश्त है.

एक दिन जब कि वो बाहर सड़क पर अपनी साईकल के अगले पहीए में हवा भर रहा था. एक लड़का आया, और उस के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा दे कर भाग गया. हवा भरने का पंप एक तरफ़ रख कर उस ने लिफ़ाफ़ा खोला, एक छोटा सा रुक्का था. जिस में ये चंद सतरें मर्क़ूम थीं—

“आप इतनी जल्दी मुझे भूल गए. मोहब्बत के इतने बड़े दावे करने की ज़रूरत ही क्या थी. ख़ैर… आप भूल जाएं तो भूल जाएं. आप की कनीज़ आप को कभी भूल नहीं सकती.”

ज़हीर चकरा गया. उस ने ये रुका बार बार पढ़ा. सामने देखा तो यासमीन तांगे में सवार हो रही थी. साईकल वहीं लिटा कर वो उस की तरफ़ भागा. टांगा चलने ही वाला था कि इस ने पास पहुंच कर यासमीन से कहा—

“तुम्हारा रुक्का मिला है… ख़ुदा के लिए तुम अपने को कनीज़ और लौंडी न कहा करो मुझे बहुत दुख होता है.”

यासमीन के बुर्के की नक़ाब उछली. बड़े ग़ुस्से से उस ने ज़हीर से कहा. “बद-तमीज़ कहीं के… तुम्हें शर्म नहीं आती… मैं आज ही तुम्हारी माँ से कहूँगी कि तुम मुझे छेड़ते हो.”

टांगा चल ही रहा था… थोड़ी देर में निगाहों से ओझल हो गया. ज़हीर रुका हाथ में पकड़े सोचता रह गया कि ये मुआमला किया है? मगर फिर उसे ख़्याल आया कि माशूक़ों का रवैय्या कुछ इस क़िस्म का होता है वो सर-ए-बाज़ार इस क़िस्म के मुज़ाहिरों को पसंद नहीं करते. ख़त-ओ-किताबत के ज़रिये ही से, कि ये एक ख़ामोश तरीक़ा है. सारी बातें तय हो जाया करती हैं.

चुनांचे उस ने दूसरे रोज़ एक तवील ख़त लिखा और जब वो कॉलिज से वापस आ रहा था, तांगे में यासमीन को देखा. वो उतर कर किराया अदा कर चुकी थी और घर की जानिब जा रही थी ख़त इस के हाथ में दे दिया. उस ने कोई एहतिजाज न किया. एक नज़र इस ने अपने बुर्के की नक़ाब में से ज़हीर की तरफ़ देखा और चली गई.

ज़हीर ने महसूस किया था कि वो अपनी नक़ाब के अंदर मुस्कुरा रही थी. और ये बड़ी हौसला-अफ़्ज़ा बात थी. चुनांचे दूसरे रोज़ सुबह जब वो साईकल निकाल कर कॉलिज जाने की तैय्यारी कर रहा था, उस ने यासमीन को देखा. शायद वो तांगे वाले का इंतिज़ार कर रही थी. दाहिने हाथ में किताबें पकड़े थी. बायां हाथ झूल रहा था.

मैदान ख़ाली था, यानी उस वक़्त बाज़ार में कोई आमद-ओ-रफ़्त न थी. ज़हीर ने मौक़ा ग़नीमत समझा, जुर्रत से काम ले कर उस के पास पहुंचा और इस का हाथ जो कि झूल रहा था, पकड़ लिया और बड़े रूमानी अंदाज़ में उस से कहा. “तुम भी अजीब लड़की हो… ख़तों में मोहब्बत का इज़हार करती हो और बात करें तो गालियां देती हो.”

ज़हीर ने ब-मुश्किल ये अल्फ़ाज़ ख़त्म किए होंगे कि यासमीन ने अपनी सैंडल उतार कर इस के सर पर धड़ाधड़ मारना शुरू कर दी. ज़हीर बौखला गया. यासमीन ने उस को बे-शुमार गालियां दीं. मगर वो बौखलाहट के बाइस सुन न सका. इस ख़्याल से कि कोई देख न ले, वो फ़ौरन अपने घर की तरफ़ पलटा. साईकल उठाई और क़रीब था कि अपनी किताबें वग़ैरा स्टैंड के साथ जमा कर कॉलिज का रुख़ करे कि टांगा आया. यासमीन उस में बैठी और चली गई. ज़हीर ने इत्मिनान का सांस लिया. इतने में एक और बुर्क़ा-पोश लड़की नुमूदार हुई, उसी घर में से जिस में से यासमीन निकली थी. इस ने ज़हीर की तरफ़ देखा और उस को हाथ से इशारा किया. मगर ज़हीर डरा हुआ था… जब लड़की ने देखा कि ज़हीर ने इस का इशारा नहीं समझा तो वो उस से क़रीब हो के गुज़री और एक रुक्का गिरा कर चली गई.

ज़हीर ने काग़ज़ का वो पुरज़ा उठाया, इस पर लिखा था—

“तुम कब तक मुझे यूंही बेवक़ूफ़ बनाते रहोगे? तुम्हारी माँ मेरी माँ से क्यों नहीं मिलतीं. आज प्लाज़ा सिनेमा पर मिलो.”

“पहला शो … तीन बजे… परवीन!”

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Sudhir Kumar

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