प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : कोई न रोके दिल की उड़ान को

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ऊपर से बलखाती लहराती सड़क और दूर फैली पहाड़ियां बहुत सुन्दर दिख रहीं थीं. तो साथ में दोबाटे से पहले रुके हुए वाहन भी. अब जहाँ हम जा रहे वहां साठवें दशक से पहले जब हूण देश से व्यापार चलता था तब यहां अलग अलग गावों के बनाए खेड़े थे. ये खेड़े धारचूला की पहचान थे. धारचूला जो नाम है उसमें धार का मतलब हुआ पहाड़ियां और इसके तीन तरफ हैं पहाड़ियां. तीन पहाड़ियों से बना चूल्हा जिसमें पहली एक कोठेरा या छाना की पहाड़ी तो दूसरी बंगोबगड़ की सिरकोट पहाड़ी, मोती के ऊपर तक तो तीसरी छापरी की पहाड़ी जो दल्लेख की श्रृंखला तक फैल गई हैं. तीन पहाड़ियां जो बनाते हैं चूल्हे के तीन पत्थर. तीन धार यानी तीन धारों से बना चूल्हा. किस महाबली ने अपना भोजन बनाने के लिए इन तीन पहाड़ियों को व्यवस्थित किया होगा जिनके मध्य में काली नदी के तट पर घटफू से सीमांकित, डूमपानी से सीमाबद्ध धारचूला की बस्ती बनी.अब सेरे जैसी समतल जगह पर बसा बाजार तो शुरुआत में ही थाना. बाजार की पल्ली तरफ फैली हुई घनी बस्ती. काली नदी के किनारे बसा कस्बा. नदी पर लम्बा झूला पुल जिसके पार नेपाल का दारचुला फैला है. तेजी से उभर गए सीमेंट के मकान जिनके बीच अगल बगल पत्थरों वाले घर भी दिखते रहे. पीडब्लूड़ी का रेस्ट हाउस, एसडीऍम कोर्ट, पीएचसी. धारचूला से आगे तवाघाट आता है काली नदी के किनारे-किनारे.
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जब हम धारचूला पहुंचे तब पता चला कि तवाघाट वाला रास्ता कई किसम के निर्माण और मरम्मत के चलते काफी क्षत विक्षत दशा में है और अभी पूरे तवाघाट तक टाटा सूमो ले जाना संभव नहीं. पीडब्लूडी के रेस्ट हाउस में आ कर रात भर के लिए टिक गए थे. वहां के संचालक सुन्दर सिंह नेगी बड़े मिलनसार और हर तरह की मदद करने के लिए तत्पर दिखे उन्होंने धर्मसत्तू जी को बताया कि आगे वाहन तो जा नहीं पायेगा, ले भी जाओ तो मुश्किल से एक डेढ़ किलोमीटर ही. फिर वहां से सामान ले जाने वाले पोर्टर नहीं मिलेंगे और सब तो अपना रुख सैक लाद लेंगे पर दिख रहा की दो-तीन लोग तो ज्यादा चढ़ भी नहीं पाएंगे. सामान कहाँ उठाएंगे. सो दो पोर्टर आपके लिए पक्के कर देता हूं आप लोगों का सामान भी उठाएंगे और रास्ता भी पार करा देंगे.

छ भी नहीं बजे थे पर धारचूला में ऐसा लग रहा था कि अँधेरी रात घिर गई है. बस आस -पास के घरों में छिटकी हुई कुछ टिमटिमाती रोशनी दिख रही थी. ठंड भी तेज होती जा रही थी. रेस्ट हाउस की रसोई में लकड़ियों के चूल्हे पर खाना बन रहा था. सात बजे तो खाना परोस भी दिया गया. आलू की सूखी सब्जी, राजमा की दाल, रोटी और चावल.

अगली सुबह नेगी जी चाय के साथ ही हाजिर थे. उनके साथ हमारे गाइड और पोर्टर का दायित्व निभाने वाले राजू और गोविंद भी थे. नेगी जी ने बताया ये दोनों इंटर कॉलेज में पढ़ भी रहे. आजकल छुट्टियां पड़ रहीं तो आपके साथ चले चलेंगे. इधर का पूरा इलाका नाप रखा है इन्होने. राजू से बात हुई तो उसने बताया कि वो खेला का रहने वाला है और ये गोविंद पलपला का. गोविंद जरा शर्मीला सा लगा. राजू ने बताया कि इसकी जबान लगती है बोलने में.अब साब क्रिकेट खेलने में ये उस्ताद है, ऐसी गुगली मारता है कि बस रन बनाने का मौका ही नहीं देता. गीत सुनना इसके तब जबान सुर्र चलती है”. बाहर बूंदा बांदी थी.

“अब हमें हिट देना चाहिए साब”, राजू बोला

“पर ये बारिश?” सोम चाय पीते बोला. उसकी आँखों में अभी नींद भरी थी.

“अरे साब. इसका कोई भरोसा नहीं. यहां तो इस मौषम में चौमाश ही शमझो, अभी हिट देंगे तो ऐला गाड़ तक चलते पाँव भी आगे की चढ़ाई के लिए फिट हो जायेंगे. देर-अबेर फीर अलशी जाओगे शब”.राजू बोला.

“ठीक कह रहा राजू, चलो भाई सोम, जल्दी जूता मोजा चढ़ाओ”.

“पर अभी कुछ हुआ ही नहीं, दो एक कॉफी पी लूँ”

“अरे, थोड़ा चलेगा. आगे खुल जाएगा, कहीं भी बैठ जाना”.

“अरे नहीं”.

गोविन्द ने मुस्की फेंकी. वह समझ गया.

आधा घंटा लग ही गया घड़ी देखी पौने नौ बज गए थे, लग रहा था बस अभी सुबह हुई ही है.

अब हम काली नदी के किनारे-किनारे रास्ते पर चल रहे थे कहने को यह मोटर सड़क थी पर बड़ी संकरी. ऐलागाड़ की ओर बढ़ते पूरी सड़क कीचड़ मिट्टी से सनी दिखी. दायीँ ओर की काली चट्टान वह भी कहीं बिल्कुल खड़ी और उससे रिसती-चूती टपकती जलधारा. जूते तो अभी से भारी हो गए थे. काली नदी अपने उफान पर थी, वेगवती, गरजती. इतना शोर करती कि आपस में की बात सुनाई न दे. बार बार हैं ss हैंss करनी पड़ रही थी. वैसे भी कोई बात न करने का मन था. उफनती काली की लहरें रास्ते के दाएं छोर पर टकरा बदन भिगो भी दे रहीं थीं. अगला कदम रखते दाएं देखते बड़ा संभल कर चलना पड़ रहा था. अभी मील भर भी न चले थे कि आगे की सड़क पर बूंदा बांदी के बावजूद सर पर बोरी जैसे मोटे कपड़े की माथे से सीधे आगे हुई टोपी गले में बांधे करीब आधा दर्जन मजदूर सड़क के दाएं किनारे पड़े मलवे के ढेर को किनारे करते दिखे. सड़क पर आया वह मलवा ऊपर से आते पानी के परनाले के प्रवाह में बहता रही बची सड़क को कीचड़ कच्यार से भर गया था. सड़क किनारे से काटी भी जा रही थी. सब्बल की चोट की आवाज नदी की आवाज में गुम हो बस खट-खट कर रही थी. सड़क के दाईं तरफ हम लोग धीरे धीरे चल रहे थे, सोम बहुत पीछे था गोविन्द ने उसका हाथ पकड़ रखा था और उसका पीठ वाला बैग भी खुद लाद लिया था.
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अभी तक बूंदाबांदी हो रही थी. ऐलागाड़ की ओर जाते अब कीचड़ से सरोबार इस संकरी सड़क पर काली नदी के सुसाट-भुभाट के साथ चलते ऊनी टोपी से ढके कान बुजी गए लग रहे थे. सुन्दरदा ने चलने से पहले पीले रंग के रेनकोट सबको पहना दिए. उन सब की नाप एक सी थी इसलिए हमारे दल में कुछ के लिए छोटे-बड़े हो गए. बारिश अब जब तेज होने लगी तो उसकी टपटपाट इनके कवर पर पड़ते और शोर मचाने लगी. सुन्दर दा ने बतायाथा कि एक सर्वे टीम आई थी जाते समय सब बरसाती यहीं छोड़ गई. अब देखिये आज आपके काम आ गई. उन्हें पहन पीली आर्मी के जोकर जैसे दिख रहे थे सब. दीप ने कई बार हाथ मिला सुन्दर दा का आभार व्यक्त किया.

बारिश अब बूंदाबांदी से तड़तड़ाट में बदल गई. मेरे साथ चल रहे राजू ने बताया कि वो ऊपर तवाघाट की ओर तक काले सफेद बादलों का गुच्छा फैल गया है सो अब तो ये बहुत बरसेगा बहुत देर तक. ऐसे में रुक जाना ही अच्छा है.बस अगले मोड़ पर सड़क के दाईं ओर चट्टान झुकी है उसके भीतर उडयार जैसी भी है वहीं सब रुक लेंगे. यह बात होते मिनट भर भी न हुआ कि तड़ा तड़ बारिश होने लगी. राजू बोला,’देखा साब मेइने बोला था ना भौत बरसेगा. ऐ देखो,दो मिनट में बाल्टी भर जाये इससे. ठाकुर जी की किरपा रही कि उडयार आ ही गई. लो! बस यहीं लुकी जाओ सब. राजू ने सबका सामान उनकी बरसाती हटा भीतर की ओर पसरी खोह में रख दिया.

बारिश का जोर बढ़ते जा रहा था. सबके जूते कीचड़ मिट्टी से लथपथ. पीले रेनकोट की घुटनों तक कवरिंग से नीचे सब मटिया मेट था. रोहिणी को याद आया कि उसके ताया जी के पास जो गमबूट था, उसे वह जरूर लाती अगर मालूम होता कि रास्ते के नाम पर ऐसे चलना पड़ेगा.

“अभी तो शुरू ही हुआ है. जब पहाड़ ऊपर आओ का न्यूत देंगे और हर कदम के साथ धों फोँ शुरू होगी, तब के होल बैणी?” दीप ने चुटकी ली.

“ना जी. फौजी की बेटी हूं मुझे तो कठिन से कठिन जगह से निकलना आता है. ये सोम से पूछो, अपने वीर जी के साथ अपने खेतों पे कित्ता काम करती फिरती हूँ. फिकर तो इस सोम की रहती है. कहाँ इसके मोच आ जाये. कब ये हांफे. कब ये बेबस हो मेरी तरफ टकटकी लगा देखने लगे छोटे बच्चे की तरह”

“बच्चा नहीं भाऊ कौ पै” सोबन बोला.

भाsssऊ!

सोम अपनी कुछ दिन से बढ़ी दाढ़ी खुजाते उसे एकटक देखता रहा. मुझे लगा वह सोच रहा कि ये बातूनी कब क्या पोल पट्टी न खोल दे उसकी.

इस तेज बारिश के साथ हवा भी तेज झोंके के साथ आती और चेहरे पर आने वाली ठंड का एहसास करा देती. अचानक ही मुझे अपने अल्मोड़ा कॉलेज के वह दिन याद आ गए जब वहां कई दिन लगातार घनघोर बारिश हुई. पहले जानकारों ने कहा कि ये तो सतझड़ है पर अब तो दसवां दिन हो गया कि कभी रिमझिम में बदले और लगे कि अब छटेंगे बादल.पर नहीं जी अब तो खबरें ऐसी आईं कि ऊपर बोर्डर एरिया में तीव्र वृष्टि के साथ बादल फटे हैं. जैसे तैसे पहुंचे अखबारों ने भूस्खलन और उसके बाद हुई तबाही के बड़े भयावह मंजर पेश किये.

बिरला महाविद्यालय श्रीनगर से मेरा स्थानांतरण अल्मोड़ा महाविद्यालय हो गया था. बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता था अपनी उन परंपराओं की वजह से जो यहां के प्राचार्य अम्बा दत्त पंत जी डाल गए थे. विद्यार्थी बड़े होशियार और हर्फ़नमौला भी. लड़कियों की तादाद ज्यादा. कॉलेज में रौनक़ रहती. कितने देवदास दिखते. स्टॉफ काफी अधिक और हर विभाग में रिक्त पद नहीं के बराबर. प्राचार्य थे चौधरी जगदीश नारायण सक्सेना, ऍमएससी इकोनॉमिक्स, ऍम कॉम लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के प्रोडक्ट. नैनीताल डी एस बी में रह चुके थे. वैसे उनका परिवार सेंट फ्रांसिस होम नैनीताल में रहता. प्राचार्य महाविद्यालय परिसर में ही बने निवास में रहते. खाने खिलाने के शौकीन. एल आर शाह की दुकान से पार्ले बिस्कुट के टिन मंगाते स्टॉफ क्लब की चाय के लिए. उनकी नजर और कैलकुलेटिंग पावर के साथ काया और डील डॉल विलक्षण. डी एस बी में रहने के कारण मेरे पिता से वह बड़े हिले मिले थे. इसलिए मुझ पर उनकी खास छाया रहती. तुरत फुरत ही मुझे एक्स्ट्रा कैलीकुलर एक्टिविटीज में राष्ट्रीय सेवा योजना के प्रवक्ताओं की टीम में शामिल कर लिया गया था. इसके इंचार्ज थे रसायन विज्ञान विभाग वाले प्रकाश चंद्र पंत. काम के मामले में बड़े कड़क. खल प्रकृति के बालकों को बिल्ली बनाने के हुनर वाले. सामाजिक संपर्क में अद्वितीय और ऐसी टीम चुनने में माहिर जो उनके मंसूबे पूरी तरह साकार कर दे.
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जागरूकता के मामले में अल्मोड़ा की तूती हर जगह बोलती साथ में इस पूछल्ले के साथ संशोधित भी कि जानकारों से भरी ये नगरी जहां पनवाड़ी भी चार अखबार पढ़े और हर घर में एक ग्रेजुएट तो दिखे ही. अब ऐसे परिवेश में अगर कोई नामचीन जज साहिब दो दो टाई लगा सरे आम लाला बाजार में घूमे और तीन विषयों में ऍम ए करने के बाद कोई मैकाले का पुतला के ऍम ओ यू स्टेशन में फूकते इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी को ही विकास का मन्त्र बता ठेठ अल्मोड़िया अंदाज में मुरार जी का मूत रुकने, कामराज के हिंदी बोलने और विरोधी पार्टियों को विश्वनाथ के धार फुकने की भविष्य वाणी करे तो?

बारिश के उन भीगते-भागते दिनों में महाविद्यालय में शाम तीन बजे प्राचार्य ने एन एस एस की एक आपात बैठक रखी जिसमें युवा जुझारू नेता शमशेर सिंह बिष्ट, प्रदीप टम्टा और पी सी तिवारी प्राचार्य की मेज के आगे ठीक सामने की कुर्सियों में बैठे दिखे. कुछ गंभीर मन्त्रणा चल रही थी. धारचूला तवाघाट भूस्खलन लोग-बागों का बेघर होना सरकारी मदद पहुंचा उसका बांटना, डी एम मुकुल सनवाल की मंशा कि युवा वहां पहुंचे और आपदा में फंसे परिवारों की मदद करें. साथ ही वहां की दशा और क्या कुछ जल्दी ही हो सकता है पर तुरंत रिपोर्ट.
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मैं आगे बढ़ा तो पी सी तिवारी सामने की कुर्सी से उठ गया और मुझसे बोला आइये गुरूजी बैठिये.

अरे बैठो कह मैं उससे पीछे की कुर्सी पर बैठने से पहले प्राचार्य की ओर देख रहा था तो पाया उनकी गहरी पर अभी बहुत कुछ पनियल हो गई आँखे मेरी ही तरफ हैं और चश्मा उन्होंने माथे पर चढ़ा रखा है. हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे बुलाया और बोले, “उधर बॉर्डर की घाटी में जो आपदा आई है वहां जा उसका सर्वे करो, खासकर जो लोग खेत घर उजड़ जाने से अब विस्थापित होने की मजबूरी में होंगे उनका सारा डिटेल हो”. प्रकाश पंत की अगुवाई में एनएसएस के सब ऑफिसर कंचन लाल साह, डॉक्टर पी सी जोशी मैथ्स, ऍम के पंत केमिस्ट्री मतलब सब एनएस एस की टीम जाये वहाँ. कितने लोग मर गए हैं. कई बच्चे अनाथ हो गए हैं”.

नैनीताल से गिरीश तिवारी और शेखर पाठक आ रहे हैं. शमशेर बिष्ट ने बताया.

“हूँ. डीएम से मेरी बात हो चुकी है वह भी यही चाहते हैं. ये बारिश तो रुक ही नहीं रही जब रुकेगी तो और तबाही होगी, और क्या कर सकते हैं हम?

सर, एनएसएस के बच्चे सारे शहर से कम्बल कपड़े…

मेरी बात पूरी न हुई थी कि चौधरी सक्सेना का दुखी चेहरा एकदम बदल गया. “हाँ राशन के पैकेट”.

“ये सबसे जरूरी है”. प्रदीप टम्टा बोला.

“बस प्रकाश पंत का अभी पीरियड छूट जाए सवा तीन पर, तो उनके साथ बैठ सब बातें आज ही यहीं फाइनल करो”. प्राचार्य बोले फिर मेरी ओर देख बोले, “ये डोर टु डोर सर्वे होगा.

शेडयूल तैयार कर मुझे दिखाओ. शमशेर भी इकोनॉमिक्स वाला है इसे साथ रखो. हाँ भई अब बैठ जाओ”.

कॉलेज की गतिविधियां कैसे पूरे शहर और आपदा से जुड़ कुछ कर गुजरने का माहौल बना देतीं ये मुझे तब महसूस हुआ जब हम प्रशासन द्वारा मुहेय्या ट्रक पर सवार हो धारचूला के लिए रवाना हुए. एनएसएस के उत्साही छात्र छात्राओं ने पूरे शहर में फिर लगातार होती बारिश के बीच लुकुड़े-कपड़े कम्बल-चादर का ढेर बना इकट्ठा कर दिया था.उदार मन से लोगों ने बहुत दिया.

सुबह छः सवा छे बजे चालक प्रताप सिंह कोरंगा जाखन देवी के पास डी ऍम साब के अनुरोध पर अनाज के बड़े आढ़ती व होलसेलर अग्रवाल लाला के ट्रक को स्टार्ट कर चुका था. चालक के बगल की सीट पर साथ चल रहे उत्साही चेलों का दल इकट्ठा सामान के साथ पीछे लद गए. मन तो मेरी भी उनके साथ रहने की थी पर प्रकाश पंत जी ने मेरे कंधे से कैमरा बैग उठा आगे की सीट पर रखा और बोले सबको नाश्ता खाना चाय -पानी कराना. हम लोग दूसरी जीप में दस बजे तक चलेंगे. धारचूला में तहसीलदार साब तेवाड़ी जी मिलेंगे. कल से तुम्हारा खोजबीन का काम शुरू होगा. शेड्यूल कागज पत्तर रख लिए ना.

“हाँ. तहसीलदार साब से खेला पलपला स्याँकुरी के प्रभावितों की सूची ले लूंगा. इन छात्रों को भी सब समझा दिया है. ठीक है. चलो आप हो कोरंगा जी. सेफ जर्नी”.

पहले से स्टार्ट ट्रक कोरंगा जी के हाथ जोड़ने, कान में हाथ रखने व पास के भैरव मंदिर में बड़ी देर तक आंख मूंद नमस्कार के बाद बढ़ा और धार की तूनी वाले मोड़ तक पहुँच उसने रफ़्तार पकड़ ली.

“सर साब,आप कहाँ के हुए?

ये सवाल मुझसे जब श्रीनगर में कॉलेज के बड़े बाबू ने पूछा तो मैंने कहा नैनीताल. मेरा जन्म वहीं जो हुआ था तो अजीब सा मुँह बना वो बोले अरे पांडे जु ये कैसी घत घुतु बात हुई गों कौन सा हुआ?

गांव तो पल्यूं हुआ अल्मोड़ा.

अरे न बाण न बुतण. बड़े पंडित हुए लाम धोती वाले.

कोरंगा जी को मैंने सीधे कहा यहीं अल्मोड़ा बाड़ेछीना से आगे पल्यूं गांव. यह सुनते ही उन्होंने फिर मुझे हाथ जोड़े.

मन ऐसी पूछताछ में भटकता रहा कि मेरी पहचान क्या है आखिर? बड़ी धोती-छोटी धोती में लिपटी.

“हम तो बागेश्वर के हुए माट्साब. दानपुर नाम सुना होगा आपने. दर्जा आठ में पढता था तभी बाबू को लकवा पड़ गया. कितनी झाड़ फूक की. वो घिसट्ते ही रहे. ददा अपने साथ टेकनपुर ले गया ग्वालियर. वहीं बी एस एफ में क्लर्क था. हाई स्कूल कर दिया माट्साब मैंने फर्स्ट डिवीज़न में. आगे इंटर करने का इरादा था. इसी बीच गांव आया था ईजा बाबू भाई बैणी से मिलने तो हमारे बिरादर जो रानीखेत ड्रग फैक्ट्री ताड़ीखेत में चपरासी थे ने बताया कि भर्ती खुल रही है, तेरा तो बदन फुर्ती दिमाग सब चुस्त है. अब सही बात तो ये ठेरी कि बाबू वक़्त बेवक्त हम भाइयों से कहते कि एक औलाद तो फौज में जरूर हो. बड़ा नाम रहता है अपनी मिट्टी का मोल चुकाने में. फिर पिंसन भी लग जाती है. दवा-दारू का सुभीता रहता है. अब माट्साब ये बाबू के खाप कि सुरस्वती कि मैं भी चल दिया नरसिंह मैदान. सीना सही, दौड़ सही,सवाल -जवाब सब ऐसे कि मैं बोलता गया. थोड़े दिन बाद बुलावा ही आ गया और रंगरूट बन गया मैं माट्साब. फिर तो पहले नार्थ ईस्ट और फिर हिंदुस्तान ही घूम लिया समझो. चीन बॉर्डर भी रही हमारी टुकड़ी. फौज से पिन्सन आया तो घर में खेती बाड़ी संभाली. जब कोई काम का मौसम न हुआ तो लाला जी ने ये ट्रक थमा दिया. इनकी मिलिट्री सप्लाई हुई. एक बार लाला के बड़े लड़के का एक्सीडेंट हुआ, खून की जरुरत थी. मैं तो पहुंचा था अपनी घरवाली को दिखाने. डॉक्टर नीलाम्बर जी पहचान के थे. बड़े व्यस्त थे. घरवाली को देख बोले आज बस ये दवा लिख रहा फिर आ जाना अभी एक ऑपरेशन करना है. जवान लड़का है. खून मिल जाये तो बच जाए. मैंने कहा मेरा खून टेस्ट कर लो, मिले तो जितना चाहिए उतना ले लो. अब देखो मास्साब. भैरब की नजर होगी. मेरे खून से लाला का जवान लड़का बच गया. तब से जब अल्मोड़ा आता लाला अपने घर टिकाता. बड़ा मान देता. सप्लाई का बड़ा काम हुआ उसका. ले मुझसे कहा आप संभालो. पिंसन आ गया था. ये आदमी भी मान देने वाला था. लड़के के ऑपरेशन के बाद कामकाज पर असर पड़ रहा था.मैंने भी स्टेयरिंग थाम लिया. कभी लेंसडाउन कभी जोशीमठ. अपने पहाड़ के बॉर्डर तक जाना हो जाता है.

ये इलाका भी वैसा ही डिफिकल्ट हुआ. कभी मौसम की मार कहीं दूरी. ऊपर चढ़ जाओ तो आदमी की सूरत देखने को तरसना हुआ. धारचूला से आगे टू टू बटालियन हुई. वहाँ का दौरा लगता रहता है. आप माट्साब पहले गए इधर कभी”?

“हाँ, जब पढ़ता था एमए में, तो आया था. मेरा प्रोजेक्ट यहीं की बसासत पर था”.

“बड़ी टफ लाइफ होती है माट्साब यहां लोगों की. फिर भी देखो अपनी अलग पछान है. मौसम भी खूब इम्तहान लेता है. उसके आगे और कुछ नहीं हुआ. मैंने तो कई बार एवलांच देखे. बरफ के तप्पड़ खिसक जाते हैं. पेड़ों के नीचे की जमीन खिसक जाती है”.

तवाघाट में हुई वह त्रासदी याद आई. उसमें चालीस से ज्यादा लोग जमींदोज थे. हजार के करीब घायल. जिनके घर खेत बर्बाद हुए उन्हें सरकार ने दूसरी जगह जमींन भी दी थी. तराई में. पता चला था कि कई मवासे सितारगंज से वापस लौट आए थे. अपनी जमीन, अपना जंगल, अपना मंदिर, अपनी नदी कोई कैसे भूल सकता है”.
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पर अब चलन बदल गया है. ऐसा क्या हुआ कि पहाड़ के गांव गैर आबाद हो गए. भुतहा हो गए. कुछ बूढ़े सयाने छोड़ उनकी हवा औरों को रास नहीं आती. अपने डीएसबी कॉलेज नैनीताल में कॉमर्स के साथी एस एस खनका ने पहाड़ के प्रवास पर खूब काम किया था. कई चौँका देने वाली बातें वह बताता भी था. उनमें प्रकृति का कोप भी एक कारक था. पर जो इसे सह भी अपनी पहचान जिन्दा रखे हैं उनसे मिलने तो यहीं इस दुर्गम जगह में आना ही पड़ेगा.

थके हारे तवाघाट पहुंचे.

“ये तो अभी से लोथ निकल गया मेरा, पर वो आगे देख”. दीप बोला.

 असलम का हाथ रोहिणी ने पकड़ा था और तेज कदम भर वह बढ़े जा रही थी. बस फुट भर की दूरी पर बहती काली नदी भी रोड़ी पत्थर से भरी सड़क पर बढ़ी जा रही थी.सोम के आगे राजू था और पीछे सोबन. सबसे पीछे मैं और दीप ही थे.सबसे आगे चलता गोविन्द अब रुक गया. उसके पास हम पहुंचे तो बोला

“वो दूसरी नदी देखो, दारमा से आती है इस फाट. इस्सका नाम हुआ धौली. अब्ब देखोगे इसका रंग बिलकुल दूध जैसा हुआ गोर फरांsग”.
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“हाँsss”

“अरे आपूं को त फांक लग गई”.

“मतलब”, दीप ने पूछा.

“सांस लाग गे तुमरि धों फ़ौsss. अब बिड़ी सिगेट मत खाना”.

तीन ओर से पहाड़ की काली चट्टान. आगे पीछे दिख रही पहाड़ की परतों से तेज प्रवाह से बहती धौली नदी अब किनारों के शिलाखंडो से टकरा दूधिया झाग बनाती बढ़ी आ रही थी. इसने मिलना है ठीक नीचे,बहुत ज्यादा विकराल हो गई काली नदी से. इसी धौली को थाम ऊपर छिरकला में बांध बनने की तमाम कोशिश हो रहीं.

“धाक मार रही धौली देखोsss!और वो धार से घुर मंड मचाती काली. बाssड़ आ गई देखो हो यहीं, ऐसा लग रहा. संगम हुआ ये. कैसा भड़भडाट. कुकाट मचा रक्खा. भौत ही गहरा हुआ यहां इसका पाट. कान बुजा देती हैं पखाण से उतर.बड़ा दोंकार हुआ इस काली का. कैसी धिरक रई. अब साथ मिल गया धौली का तो देखा न,नीचे कैसी घुर्चयोली करती बेह रई, भौंर भी बना रई “.राजू की आवाज फिर नदियों के शोर में गुम हो गई.

तवाघाट संगम है काली और धौली नदी का. कुछ दुकानें भी हैं. चहल-पहल भी. कई खच्चर भी बंधे दिख रहे. सामान लादे जिन को ढक-छोप रखा था. यहां तक आते भेड़ बकरियों का रेवड़ दिखा.बारिश की कोई परवाह नहीं. जहां कहीं कुछ हरा दिखे उसकी ओर लपक ठहर जाते.कैसी कैसी जगहों पर चढ़ जातीं पर घुरीते नहीं. पीछे दो जन, पूरी तरह ढके छुपे बदन. तेज चाल. उनके भूरे-काले कुत्ते भी कभी आगे कभी पीछे.

टीन के छप्पर पड़ी उस दुकान में चूल्हा सुलगा था. अंदर सब धुर्योल. बड़ी फुर्ती से अपनी पीठ में लदा अटर -पटर उतार हाथ के भीगे ऊनी दस्ताने एक लकड़ी पर टिका गोविन्द ने हाथ फैला जलती लकड़ियों की लपट में सेकने शुरू किये.फिर गरमाये हाथ चेहरे पर लगाए. भीतर की आंच से भीगे कपड़े लुकुड़े भाप छोड़ने लगे. बड़ी तेजी से रोहिणी हमारे बीच आ खड़ी हुई. दीप बोला,” इसे कहते हैं खोसी जाना. सबसे आगे चल भी रही थी और देखो चेहरा कैसा लाल टमाटर हो रहा”
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सरदारनी हुई मैं…लो सुनो..
… जिना सिंहा सिंहनियां ने धरम हेत सीस दित्ते
बंद बंद कटाए खोपड़ियाँ लहाइयां चर चरखियां ते चढ़े
बोलो जी वाहेगुरु
पंजा तख्ताँsssसो निहाल.

समाँ बंध गया.

“ये इ रौनक रही तो ये चढ़ ही जाएंगे, लाख आएं आंधी तूफान” दीप फुसफुसाया

“ये बैरक सी क्या दिख रहीं यहां ऊपर की तरफ “. सोम ने पूछा

“साब जी. वो साले चीन ने अटेक किया ना, जब वो नेफा लद्दाख से बाराहोती बॉर्डर तलक,लीपु दर्रे तलक आ गया था सूंवर, तबसे हमारी फौज की अलग -अलग किसम की टुकडियां यहां भी फैलीँ. वो क्या कहते हैं उशे…

“एसsपीअफ का बड़ा वाला कैंप हुआ यहाँ. ऊपर से खेला की पहाड़ियां देखोगे त सब ठौर उनके शेड दिखेंगे”. बड़ी कटोरी में गरमा गरम चने भर लो खाओ कह होटल के मालिक ने बात पूरी की.

“आप यहीं के हुए”?

हाँ, ऊपर गांव हुआ मेरा. फौजी हुआ. ऊपर पलपला से जरा आगे गाँव पड़ा. लड़के का बरपंद हुआ अब, तो छुट्टी आया”.

“आप लोग”?

“आगे पांगू -सोसा -नारायण आश्रम”.

“हमारे घर आओ साब. खूब खुशी होगी. बाबू हमारे वन दरोगा हुए.खूब लिखते पढ़ने का शौक हुआ. चश्मा भी ना लगाया कभी.ये शिकारी बहुत आने लगे हैं अभी, तो सुराग मिलते अभी ऊपर दौरे पर गए हैं. आप आना हो. ओ राजु ल्हे इनन कें “.

“जरूर आएंगे धन सिंह जी”.

चने खाये तो उसके लटपट स्वाद से भूख और प्रबल हो गई. बड़े भड्डू में कुछ भुदक रहा था. उसके ऊपर बड़ी बेली रखी थी जिसको धन सिंह जी पानी से लबा लबभर देते. जरा देर में संडसी से वो गरम पानी भड्डू में लौट देते. सब माल तैयार दिख रहा था. आलू के गुटके और रायता भी. बड़ी तौली में ढकी थाली उठा उन्होंने बताया कि चावल भी तैयार है.ऊपर काम चल रहा, सुरंग बन रही. उनके वर्कर के लिए बना रखा खाना. आज सापड़ी भी बनी है. दिनमान भर ऐसे मौसम में भी काम कहाँ रुकता है अब अभी तक तो द्यो ही कहाँ थमा. अब आते ही होंगे. मजूरों की दिहाड़ी का आधा तो खाने पर ही लग जाता है साब. मैं भी खूब बढ़िया सेहत के लिए दम वाला खाना देता हूँ. शिकार भात भी. आप लोगों के लिए रोटी भी सिक जाएंगी”.

सबको भूख लगी थी. सुबह धारचूला से चाय बिस्कुट ही तो खा कर चले थे.अब चार बजने वाले हैं. बारिश और कीचड़-कच्यार में रास्ता पार कर पिण्डलियां कितनी भारी हो जाती हैं इसका एहसास अब होने लगा था.

आधे घंटे के भीतर खाने की थाली लग गईं. खूब तीखा उतनी ही खट्टी खटाई. सोम के तो मुँह से सी -सी तो आँखों से नीर झलक गया. बिचारा रुमाल से आँख पोंछने लगा तो दीप बड़ा गंभीर हो बोला,”अभी तो मुँह ही झंझना रहा होगा असली पता तो सुबह चलेगा सोम बाबू, जब मग्गू पकड़ जाओगे जंगल”.

“यार ये तो गजब का सीन होगा. ये तो वैसे भी बड़ी देर लगाता है. हाँssजी! ठाकुर साब जरा चना मसाला डालो भई. क्या लहसन-अदरख का मिक्सचर डाला है. ओ माई रे तेरि याद आ गई”. रोहिणी भोजन से तृप्त थी.

सोबन ऊपर खेला की तरफ से उतरते रस्ते पर उतरते दिखा. उसके साथ दो और लोग थे. वह रात रुकने का इंतज़ाम करने पहले ही निकल गया था. आते ही हाँफ्ते-काँपते उसने खबर बात बताई कि ऊपर गों में रहने टिकने का इंतज़ाम कर दिया है बोरा जी कि चाख में. पूजा भी रही वहां ईष्ट की, तो खस्सी भी कटा है. सोम को खाते देख रुका और बोला, “ये जो क्या खा रहे तुम सैबोss?

“अरे वीरे को मिर्ची लग गई अब दुद्दू-भत्तू खा रहा”. रोहिणी चहकी.

“ओहोsss”.

फिर पास आ बोला, “आज आपको खिलाएंगे संपोला.

आंss डु जै खिलेया हो सूबान दा. ताकत आली, सब रुकी खुल जाल. फट्ट चडोल धार”.

“ये क्या खिलाने पिलाने की गल हो रही”.

आराम से खाना खा सोम को चम्मच से दुद्दू भत्तू खाते देख और मुँह में गोला वाली टॉफी डाल रोहिणी बोली.

“अरे दिदी वो ज़िगर कलेजी हुई ना ताती-ताती, आंत साफ कर उबाल उबूल, उसमें कड़ू तेल डाल नमक मिला घपका जाते हैं. ऊपर से ज्यादा ही रौनक करनी हुई त एक लोटा चखती खा लो, बस गाल लाल. टन्न पड़ जाओ फिर नीन में”.

“ये लोकल हुई चखती. इत्ती कुड़क ठंड कैसे कटेगी न्हीं तो.

“हाँ यार ठंड तो एक्सट्रीम है. पर देखो इतनी ठंड में भी यहां जितनी भी लेडीज-जितनी बच्चियां दिख रहीं थीं उनकी हेल्थ कितनी बढ़िया दिख रही”. रोहिणी कुछ आश्चर्य में थी.

“मेहनत करो, मोटा-झोटा खाओ, गों पन का अनाज हुआ, घी-दूध हुआ, ऊपर से वक़्त बेवक्त ज्या हुई. रोज का चढ़ना उतरना हुआ. फिर वो शहरों में दिखती कलकल -किचकिच कहाँ हुई. टेंशन-फ़्रस्टेशन सब बग जाने वाला हुआ काली में”

“नशा पानी तो अब तेजी से कसबों में भी बहुत हो गया. देखा देखी दुकानदारी कर रहे इन खोमचो तक. हफ्ते में दो तीन बार शहर के लौंडे-मोंडे आते हैं, सूंघ-सांघ कर. फटफटिये पर, खुली जीप पर, ज्यादा कुछ कहो तो बोलते हैं छात्र-संघ वाले हैं. जितनी काली बत्ती मिल जाए, उत्ती उठा ले जा रहे. दाम पूछते हैं बस,और नोट गिन जाते हैं. बाबू रहते हैं दुकान में तो तुरंत भगा देते हैं. वो नी डरते. डांठ-फटकार अलग हुई. मुझसे बोले भी कि नाम खराब मत करना”.

“अब बच्चे पढ़ाने हुए आगे. यहीं टिकाने तो हैं नहीं. साला है अपना सर्विस में. रई पिथौरागढ़ में दुमंजिला डाल दिया है. बच्चे सोर वैली स्कूल में पढ़ रहे. घरवाली रोज कच -कच में कि वहीं बगल की जमीन रोकी है भाई ने. कब तक किराए में डेरा लेंगे”.

“तो”?

“तो क्या मास्साब. इत्ता तो अकल में घुस गया कि धंधे में ज्यादा सही-गलत के सोच पड़े तो लक्ष्मी नाराज ही समझो. यहां अब दूसरी किसम का बजार फैल गया है मास्साब. नेपाल से आई छाता-जूता, प्रेस-पंखा, कपड़ा-बनेंन, बिजली का सामान और सोना भी. अब थुलमा दन कोई नहीं मांगता, मशीन वाली कारपेट-आसन ले जाते हैं लोग यहां से. चीन ने नेपाल भेजा, नेपाल ने भारत बेचा. पहले खूब सस्ता कर देंगे जब आदत पड़ जाए तो सौ का माल छे सौ में बोलेंगे. वो जितने ट्रक बढ़ रहे उतनी पिथौरागढ़ में जमीन कट रही. गेहूं-धान के खेत में नए डिज़ाइन के मकान बन रहे.अब तो बलुआ कोट, जौलजीबी, कालिका, धारचूला और उधर के थानों में तैनाती के लिए कई हजार खर्चा कर आ रहे दीवानजी”.

खेला की ओर चलते तवाघाट वाले अपने होटल के मालिक ठाकुर साब भी साथ चढ़ रहे थे उनका घर-बार,खेत-जानवर खेला में ही हुआ.

“जब से धौली गंगा परियोजना शुरू हुई है मास्साब यहां ठेकेदारी का काम खूब मिलने लगा है. अब ए वन वाला ठेकेदार तो ऊपर ही ऊपर काम पा लेता है. उस काम के कुछ टुकड़े हमको भी मिल जाते हैं. यहां के लोकल तो कम नेपाल के मजूर हम पकड़ लेते हैं कहने को दिहाड़ी हुए महीनों तक टिक जाते हैं. खेती पाती दूध जानवर के लिए बजांग वाले  मवासे को बिठा लेते हैं.बड़े त्योहारों में ही जाते हैं ये बेतड़ी- महाकाली वाले डोटियाल “.
(Dharchula Tawaghat Article Mrigesh Pande)

“तो काम की निगरानी में आप रहते होंगे”? मैं पूछ बैठा.

” मास्साब! अभी तो खोदो-मलवा फेंको वाला काम हुआ. ऊपर सुरंग का काम चलेगा. देखते-देखते ढुलान के ट्रक कितने बढ़ गए. सब ने तवाघाट से ही जाना हुआ. सो अपना होटल भी खूब चलता है सुबह से शाम यही चार बजे तक. चार बजे बाद तो चिड़िया भी न फटके जिसने भी ऊपर जाना होता है वह तीन चार बजे तक चल देता है. अब चौकी हुई, फौजी टुकड़ी हुई उनकी सख्ती भी रहती है ऊपर की ओर जाने में. कब कहाँ चट्टान लुढ़क जाये कब जमीन धसक जाये”.

बरसों पहले जब भयावह तवाघाट दुर्घटना घटी तब यहां आई आपदा के मंजर देखने का अवसर अचानक ही मिला. बड़े जुनूनी लोग थे अल्मोड़ा में अपने प्राचार्य, एनएसएस के प्रभारी प्रकाश पंत, छात्रसंघ के कुछ कर गुजरने की दम वाले नेता शमशेर, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा और वह छात्र जो हफ्ते भर में शहर भर से भारी बारिश के बावजूद ढकने -ओढ़ने -खानेपीने का कितना कुछ सामान जुटा लाए. धारचूला के तहसीलदार साब चिंतित हो गए कि इसे बाँटे कैसे? अल्मोड़िया सौगात हुई गुरुवर.

खेला पलपला गांव तो तवाघाट से ऊपर खड़ी चढ़ाई पर हैं. कई जगह बिल्कुल तीखा ढाल. सत्तर डिग्री से ऊपर का ही होगा. पहाड़ में तीखे धारों पर कमर में दराती खोंसे सुबह से ही घास के लिए चढ़ गई औरतों को अक्सर देखा था. भूस्खलन से तबाह हो गयीं तवाघाट से ठीक ऊपर सेंना की बैरकों की कतार दिखनी शुरू हो गईं जहाँ की चढ़ाई अब शुरू ही हुई थी. बारिश के बीच ही हमारा दल तहसीलदार साब के भेजे दो कारिंदों के साथ इन बेरकों की टूटी-फूटी दशा को देख चुका था. उनने हमें एक बोल्डर पर चढ़ कुछ ऊंचाई से इनकी हालत देखने की बात करी. बताया भी कि हफ्ते भर पहले उस दिन बरखा के इत्ते तहाड़े पड़े, इत्ती तेज हौ चली, अंधड आया कि लोहे के गर्डर पर टिकी टिन की छतें उड़-उड़ कर आधे पौने कोस छिटक गईं. बल्लियाँ उखड़ गईं. ऊपर के तो बड़े पुराने पेड़ जड़ से गए.

तवाघाट से ऊपर के इन बेरकों में रखा सामान कितना खराबऔर बर्बाद हुआ होगा इतनी जाँच भी नहीं हो पा रही. ये द्यो तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा. अब आप लोग भी खाल्ली आ गए ऐसे मौसम में. जो मरा सो मरा जो माल गया सो गया. अब किसी का सर फूटा किसी की टांग टूटी बुड्ढे बाड्ढे तो वैसे ही लाल कपड़ा चा रहे.

उसने सही कहा था. हमारे पास राशन के पैकेट थे. चाय गुड़ मिश्री थी, कपड़े लत्ते थे पर इनको ऊपर खेला-पलपला तक बोकेगा कौन. इतना कीचड़ कच्यार है कि रास्ता ही नहीं सूझता. इधर फौज के कैम्पों में खच्चर भी पले थे उनमें से कई तो दब दुबा गए बाकी कई चोटिल पड़े हैं. उनके इलाके में पहरा देते जवान ने बताया कि अभी तो ये जाँच ही रहे हैं कि नुकसान क्या हुआ कितने का हुआ. बदबू सड़ाँध अलग.

जिस टिन शेड़ में हमारी सारी टीम रुकी थी रात में अचानक ही हलचल हुई और उठो बाहर भागो की पुकार लगाते उसका एक तिहाई भाग धँसने लगा. गिरदा, शेखर, शमशेर सब थे साथ. बच गए. रात बाहर ही कटी.

ऊपर गांवों की तरफ तो हालत और ख़राब हुई .बारिश तो इस इलाके में आती ही लगातार है. चौमास भर. बादलों से ढकी घाटी दिखती है .तवाघाट से खेला ,पलपला, स्यांकुरी और तपोवन होते भी रास्ता धारचूला जाता है. इस बार तो हद ही हो गई जो बारिश ने गाँव को जाती पगडंडिया भी मटियामेट कर दीं. कच्यार, सिमार, गज्यार सब हुआ.

नीचे तवाघाट से मिलिट्री के बैरक तक कुछ चढ़ाई में खड़ंजे वाली सड़क हुई उससे ऊपर के तो सारे बाटे,सारे रस्ते सब मलवे की लपेट में आ गए. ये बोल्डर देख रहे हैं. छोटे बड़े, लुढ़क लुढ़क गिरते रहे. बादल फटे थे. इतनी बारिश अचानक तो पहले कभी न हुई.ये खेला पलपला से स्याँकुरी का इलाका तो मौत का काल बन कर आया. चालीस लोग मर खप गए. दो सौ से ज्यादा घायल पड़े मिले. अस्पताल ले जाना भी मुश्किल हो गया. बाहर के डॉक्टर भी आए. कई मरीज पिथौरागढ़ भी भेजे गए. इस इलाके में तो जानवर भी बहुत मरे. अभी पूरी गिनती कहाँ हुई है. खेती-पाती तो सभी चौपट हुई. कच्यार से भरे खेत देखोगे ऊपर.

तहसीलदार साब के भेजे कारिंदे मौका ए हाल की खबर दे रहे थे. ये तो साफ महसूस हुआ कि सरकारी अमला जितना बेहतर काम कर सकता था, उसने किया.

तवाघाट दुर्घटना के अवशेष अभी तक थे. इस बीच शासन की ओर से कई गावों को जाने वाले रस्ते खड़ंजो-पड़ँजों में बदल गए थे. गाँवो में बुड्ढे-बच्चे ज्यादा दिखे. खेतों में काम करती, पानी सारती, घास के लूटे बनाती औरतें ही थीं.

खेला से दूसरे दिन वापस लौट पांगू का रास्ता पकड़ते दस बज गए. तैयार तो सब सुबह सात बजे तक हो गए थे पर रास्ता फिर रात भर की बूंदा बांदी से बहुत ही चिफड़ हो गया था. उस पर कड़ाके की शीत. गीली जमीन पर जमी मटियाली बरफ की खांकर.

धौली नदी पर बना पुल पार करते बड़ी देर खड़े रहे. बिल्कुल दूध के से रंग वाली धौली जो खूब गर्जन के साथ बह रही थी तो काली विकराल थी. यहां से ऊपर खेला की पहाड़ी दिखाई देती हैं. हमें अब ऊपर खड़ी चढ़ाई चढ़नी है. जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे सामने खेला के कई गांव दिखाई दे रहे थे. राजू ने तो यात्रा शुरू करते ही सोम और रोहिणी के हाथ डंडे थमा दिए जिनकी सतह चाकू से खुरच उन्हें चिकना बना उसने कड़वा तेल भी लगा दिया. मैं सोच रहा था कि सोम इतना पैदल चलेगा कैसे? पर मेरा यह भ्रम टूट गया. अब उसने राजू से अपना पिट्ठू ले खुद लटका लिया था और वह बिल्कुल आगे चल रहा था. सबकी फोटो खिंच जाएं की मंशा से मैं भी आगे उनके ही आगे-पीछे होता रहा.

चढ़ाई धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी. ऐसे में सांस बहुत फूलती है. हवा इतनी ठंडी कि कई बार तो गले से नीचे तक ठंडा पानी न्यवण जैसा लग रहा था. होने को धूप थी पर मुँह से भाप निकलती दिख रही थी. गोविन्द ने तो बंदर टोपी डाल रखी थी जिसके निचले हिस्से से वह नाक भी ढक लेता. देखा-देखी मैंने भी अपना मफलर नाक से नीचे लपेट लिया. कुछ समय तो गर्मी लगी पर अब नाक से निकली भाप चश्मे में जमने लगी. इतनी बार चश्मा कौन पोछे. दीप मुझसे आगे था उसकी चाल बड़ी सधी थी. उसके भी आगे रोहिणी और सोम. रोहिणी बीच-बीच में उसका हाथ पकड़ अपने बराबर ले आती. दीप चुटकी लेता, ” हिटते रौ होss.. ज्वेक बल्द sssऑ. हिटते रॉ”. आगे बटुक भैरव सा राजू जिसकी पीठ में सबसे ज्यादा बोझ लदा था.
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“कितने छोटे एक के ऊपर खेत हैं. ऐसी जगह में भी बो उगा लेते हैं. में तो मान गई यहां के लोगों को”. रोहिणी के संवाद जारी थे.

“हाँ दिदी, गाड़-भिड़ सब हुए, गार-माट की चिणी घर कुड़ी हुई. ये देखो वो उधर. तलि -मलि ढुँग डाव, डान-कान, फसल-पाणि, धिनाई-पाणी, लाकड़-पाणी सब्बि हुआ. वो उप्पर कैसे रयाख म्याख के घर दिख रहे.अब वो उधर चाओ वो sss. दुकान दिख रई ना. दरियाल जू की चा पाणी खाना खाणी की दुकान. कुंती दी चलाती हैं उनके हाथ का दाल-भात, रैत खैट्ट अहा. रातै-ब्याव खुला ठेरा. इत्ती जाग हुई कि चार पांच मेंस रुक जाओ रात पड़े. दरियाल जी तो लग गए अब गोरी गंगा बिजली वालों की ठेकेदारी में. उनके खच्चर ट्रक सब लग गए इस धंदे में. मुझसे भी कह रहे थे क्या रखा स्कूल- हिस्कूल जाने में. मेरे साथ लग. चार पैसे जुड़ेंगे. पर मैंने ना कह दी.

“क्यों”?

“मैंने पढ़ना है. आगे पिथौरागढ़ जा डेरा लूंगा. कोई छोटा-मोटा काम पकड़ लूंगा. दिदी वहां सीमांत छात्रावास है. सज्जन छात्रावास है. हमारे भौत लोग हैं वहां. अब तो कॉलेज में लड़कियों का भी छात्रावास है बल”.

“हाँ. बस यही सोच जिन्दा रख. अपना पता दूंगी तुझे. चिट्ठी में सब बताना. सही वक़्त पर कुछ बताउंगी तुझे. बस ये बीड़ी सिगरेट छोड़. देख लिया है मैंने तू पी रहा था”.

“ना हो दिदी. कभी थक जाओ तो अराम मील जाता है”.

“चुप कर. मेरे ताया जी हैं. पचासी पूरे. अभी खेत में ट्रेक्टर चलाते,फसल काटते दिखेंगे. ये सब धुंवा पीना हमारे यहां नहीं होता. खूब जम के खाते पीते चलते फिरते हैं”.

“नशा तो हम लोगों के यहां बहुत है बीजी”. तेजी से चढ़ता असलम बोला. “बहुत गड़बड़ियां दिखती हैं”.

“सांस फूल रही तेरी?”

“हाँ. खांसी भी होती है. हकीम साब को दिखाया था पीलीभीत. उन्होंने साल भर खमीरा बनफ्शा, लऊक सपिस्ताँ और लउककता खाने को कहा.तब अराम हुआ. फिर पैर टूटा, मेरी तो पढ़ाई रुक गई बीजी. अब कॉलेज जाता हूँ यहीं पिथौरागढ़”.
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“तू तो आर्टिस्ट है. तेरे सर लोग बता रहे थे कि हारमोनियम तबला सब बजाता है”.

“अब तो गिटार का जमाना आ गया दिदी. मुझे तो ओ पी नय्यर और खय्याम साब की मूसीकी बड़ी पसंद है. वो शगुन के गीत सुनिए, तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे दो… क्या लिखा है साहिर साब ने और गाया है…”

“जगजीत कौर ने”.

“हाँ”

“और वो गाना पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है… उफ़”. ये सोम था.

“अच्छा? अब कह रहे हो. मुझे तो नहीं बताया तुमने कभी..”

“तुम सुनती कहाँ हो? बस खुद बोले जाती हो”.

“लो!आ गई कुंती दी की दुकान. हाँ, पहले चाय और फिर सबके लिए खाना. यहां खा लेते हैं सर. आगे पांगू और फिर चढ़ाई चढ़ते रात ही हो जाएगी. लेट हो गए हैं हम. आगे जंगल हुआ, जानवर भी हुए. क्यों सर?”.

“हाँ. सही कह रहा मेरे मालिक. पर तू डरा मत”.

“कुछ नहीं करते जानवर वो अपने बाटे चलते हैं”. ये कुंती दी की आवाज थी.

“आओ बैठ जाओ आराम से. ये सब माल-ठाल भिमे धरो उधर एक जगह”.

“अरे सोबन. ये सोम को पौटी की जगह भी दिखा. इनका पेट मचल रहा”.

रोहिणी आराम से चूल्हे के पास जलती लकड़ियों की गर्मी लेने खड़ी हो गई. असलम ने अपनी ड्राइंग की कॉपी निकाल ली. पास की पत्थर की दीवार पर वह बैठ गया. दस्ताने उतार उंगलियां चलाई. फिर हाथ सेकने वह भी आ गया.

“आल खाला पैली. गरम छन गुटुक. आद ले खित राखो”.

“अंsss मैंने सहमति में सर हिलाया. अभी इन दोनों को दे दो मैं जरा इधर से फोटो खींच लूँ. बादल भी दिख रहे. ये घिर गए तो कुछ नहीं दिखेगा”.

“हाँ”, कुंती दी ने सहमति में सर हिलाया. “पट्ट द्यो आने वाला हुआ यहां. आश्रम जा रहे होगे? फिर रोहिणी की ओर देख धीरे से बोलीं, “घर कुड़ी कहाँ हुई इनकी”

पंजाब, दिल्ली. फॉरेन से पढ़ीं. यहां सर्वे करने आईं अपने पति के साथ. वो सबसे आगे जा रहा जो.

“हुणियक च्यलक गुण अलगे हुनेर भै”.

मैंने सहमति में सर हिलाया और कैमरा खोल उसमें वाइड लेंस लगा तेजी से ऊपर पहाड़ी की ओर चला जहां सब फ़ारिग होने जा रहे थे.

फोटो भी खींच ली नीचे. दूर काली नदी के सर्पाकार मोड दिख रहे थे.

“बस वो आगे भेट जाओ. ये आप के लिए पानी भी ले आया हूँ.. कहीं आप कागज वाले तो नहीं हुए.” सोबन बोला. “दो चकले ढूंग रख दिए हो सोबन दा, देख लो तुम्ही,मनीजर सेप हुए”. ये गोविन्द था जो बात कह मुस्का भी रहा था.

“मैंने क्या देखने ठहरे दो चकले ढुँग. अब सोम साब यहां तो हिसाब सही हुआ. कभी जंगल में ऐसे बैठने की नौबत आए तो नीचे देख लेना घासपात. यहां बिच्छू घास होती है पीछे लग गई तो फिर खुझाओ भी कितना?”

“अरे सिशूण की बात कर रे. कंडाली कूनी ऊकें यां”.

फ़ारिग ये सब हुए. देखादेखी मैं भी.

सामने बड़ी मनोरम दृश्यावली थी एक तरफ तो आसमान में काली भुजंग चट्टान आसमान छूती. नीचे बिल्कुल नीचे साँप सी बलखाती काली नदी. माहौल में एक सन्नाटा तो फिर तेज हवाओं के झोँके मुँह पर थप्पड़ से लगाते. मन में यह संशय कि जो ये आते बादल धूप की गर्मी रोकने लगे हैं ये कहीं बरसने की लीला न दिखा दें. कल की बारिश ने तो सब कपड़े पीली बरसाती ओढ़ने के बावजूद गीले कर दिए. जूतों में अलग कचकची लग रही.

दरियाल जी के होटल में वापस लौट देखा रोहिणी और असलम बड़े कटौरों में आलू के गुटके खाने में जूटे थे. भुनी लाल मिर्च हाथ से दिखा रोहिणी ने आलुओं की तारीफ करनी शुरू कर दी.

“ये आलू गोल वाला, लाल आलू है. बड़ा स्वाद हुआ. फिर चूख डाल तो इसका स्वाद देखो”. राजू ने बताया.

“और ये मिर्ची भी भुनी कितनी कड़क, तीखी. ये आलू मिल जाता है यहां. सोम मैं तो ले जाऊंगी कम से कम दस किलो”.

“दे दूंगी बेटी. खा तू अच्छी तरह. बस दस मिनट में भात भी पक जाता है. खाना -पीना कर चलना ठीक रहता है. अबेर भी नहीं हुई अभी.

“चाय तो बड़ी बढ़िया बनाई बेबे”. रुमाल लगा बड़े पीतल के गिलास में चाय घुटकते रोहिणी बोली.

“घर में सब पाला है गाय-भैंस, बकरी. बकरी-गाय तो जंगल जाने वाले हुए रोज. भैंस की घास काट लाते हैं. रावत लोग हुए अपने. यहां उनका पूरा परिवार ही रखा है. सब वही करते हैं दूध-घी का काम. दूध तो मेरा कुछ यहां होटल में खप जाता है बाकी से दही जमा मक्खन-घी बन जाता है. गाय-भैंस जंगल की घास जड़ी बूटी चरते हैं तो दूध भी बहुत ही स्वाद. अभी घी देखो दाने दार”.

“अब घी भी मत ले चलना रोहिणी. वो तुम्हारे पंजाब वाला बहुत पड़ा है. अभी तो है”.

“चेलियां ऐसी ही होती हैं बेटा. मेरी बेटी भी क्या कुछ लाती रहती, ले जाती रहती”.

“अभी कहाँ है आपकी बिटिया”?

“उसकी शादी हो गई. पहले कॉलेज पढ़ी यहीं पिथौरागढ़. फिर अच्छा पुलिस में लगा आ गया हाथ मांगने सो बात बन गई”. फटाफट आटा गूंधती कुंती दी बोलीं.

अपने यहां की शादी के बारे में बताइये न प्लीज.

हमारे यहां के ठुम ठारू के बारे में मतलब रीति रिवाज के बारे में जानना है. हँसते हुए कुंती दी बोलीं. एक बड़े डाडू को चूल्हे पर टिका उसमें उन्होंने दो तीन बड़े चम्मच घी डाला.

“अब यहां तीन घाटियां हुईं. उनके गांव हुए तो रं समाज के रीति रिवाजों में ऊपरी तौर पर थोड़ा फरक दिखाई देता है. कुछ रिवाज तो समय के चलते खतम ही हो गए जैसे जवान हो गए लड़के-लड़कियों के मेल का “रंम्बँचियम” तो बस खतम ही हो गया. ऐसे ही अंतिम संस्कार में ग्वन भी कम हो गया. इसके लिए पहले तिब्बत से याक मंगाते थे और ये नौ दिन तक चलता था. पर अब कहाँ? जब से हमारा व्यापार बंद हुआ तब से स्वर्गवासी की आत्मा की शांति के लिए लाए याक की भी कमी हुई. कुछ समय तक इसके बदल में बकरी आई फिर ये रिवाज ही नौ दिन के बदले दो दिन का रह गया. काग पुराण पढ़ने वाले अमरीचा भी कहाँ मिलते हैं अब जिनको सैयक्चा भी कहते हैं. देक्खो बासठ के बाद सबने चाहा कि उनके बच्चे पढ़ लिख जाएं.नए धंधे करें. नौकरी में जाएं”.

“कहते हैं कि, पहले कभी कन्या को जबरदस्ती उठा कर राक्षसी शादी होती थी. इसमें वर-कन्या की ओर के लोगों के बीच झगड़ा भी होता था. फिर सगाई जिसे “चमें थोचिम” कहते थे करने के बाद कन्या को चुरा कर ले जाने की रीत चली.अब ये सब गुजरे जमाने की बात समझो. अब तो पहले सगाई होती है फिर बारात सज कर ब्याह हो जाता है. इसे “देखन्त ढामी” कहते हैं “.
(Dharchula Tawaghat Article Mrigesh Pande)

पिघल गए घी में गंधरेणी के टुकड़े डालते ही उसकी खुशबू फैली. फिर बड़े से भड्डू में उबलती दाल में छयां हुई. डाडू भड्डू में चला एक छोटी कटोरी में दाल डाल कुंती दी ने रोहिणी की ओर बढ़ाया, ” ले चख तो जरा लूँण सही है तुम्हारे हिसाब से”.

रोहिणी ने फू फू कर दाल चखी और बोली, “वाह माश की ऐसी दाल तो बस मेरे पंजाब में बनती है.बस ये जड़ी बूटी नहीं होती उसमें.

“ये गंधरैणी है. दूंगी तुमको”.

“जी. वो आगे बताइये. वो सगाई में क्या होता है”?

“बताती हूँ”. कुंती दी ने भड्डू के ऊपर पानी से भरे लोटे को रख अब चूल्हे से खूब कोयले निकाल एक तरफ रखे और उनके ऊपर भड्डू. एक छापरी से ताजी मूलियां निकाल उनको धोया और एक थाली ले पास के आसन में बैठ गईं.हम सभी उनकी बात सुनने उनके करीब बैठ गए. राजू ने अपने हाथ धोये और कुंती दी के हाथ से मूली ले बोला,”ला हो दी. मुली में काट द्युँ “

मुस्का के कुंती दी ने उसके हाथ थाली दी.

हाँ तो सगाई को हमारे यहां “चमै थोचिम” कहते हैं. वर अपने बिरादरों के साथ कन्या के घर आता है. वो एक थान सट्टू के साथ स्यर्जे, धजा और एक बोतल च्यकती की सौगात के साथ कन्या से लगन करने की बात करेगा. लड़की के घरवाले नाते रिश्तेदार जब हाँ कर देंगे तब वर वहां जुटे सभी लोगों को ‘यर’ देगा. यर में एक रूपये का सिक्का दिया जाता है. इसे सफेद धजा जिसे “फुर्को” कहते हैं में लपेट कर भी दिया जाता है. वर के द्वारा कन्या के पिता को एक पगड़ी जिसे “व्यंठलों” कहते है व कन्या की मां को एक मोमंदी थान या सफेद धजा उपहार में देता है तो कन्या की सहेलियों के लिए मिठाई लाता है.

अब हुई बारात की बात तो उसमें सभी बाराती पगड़ी या ‘व्यंठलो’ पहने हों. शादी के समय वर को अपनी सास को “नूतुँग” व ” नूथँग “जिसका मतलब छुटपन में उसके द्वारा पिलाये दूध की कीमत अदा करने से है. वर सास-ससुर को कन्या का मूल्य भी चुकता करता है. विवाह के बाद वधू को अपने घर लानेऔर रस्ते में उसकी मदद के लिए दुल्हे की ओर से ‘टीस्या’ यानी वर की बहनें व बुआ भी बारात के साथ आने की रीत रही है .ऐसी रीत या ठुम भी रहा जिसमें दुल्हन को ससुराल छोड़ने उसका भाई या बनम वर के घर तक आए. शादी में जो बाजा बजता है यानी ढोल नगाड़े ,उन्हें बजाने वाले शिल्पकारों को भी वर पक्ष मेहनताना देता है .बस ऐसे ही “ढामी”या शादी होने वाली हुई जिसकी रीत निभाने को यही ‘ठुम-चारू’ यानी नियम  हुए. दूल्हे का जूता छिपाने की शरारत भी होने वाली हुई. घर के बड़े-बूढ़े, सयाने इससे नाराज भी होने वाले हुए .
(Dharchula Tawaghat Article Mrigesh Pande)

अब मुली भी इतनी बढ़िया एक जैसी काट दी रे तुने. दाल, भात सब्जी सब तेयार है. गरम गर्म लगाती हूँ हाँ, तुम लोग हाथ-वाथ धो लो .

खाना तो पूरी तृप्ति दे गया. सबसे खुश सोम दिखा. उसने कुंतीदी से पूछा भी कि ये चावल कौन सा है. रंग भी लाल-लाल है.

ये लाल चावल हुआ. उखल कुटा.

सोम ने रोहिणी की ओर देखा. वह उसके मन की बात समझ गई.

‘रखवा दें एक कट्टा. पीठ में बोक ले चलना’. दीप भी ताड़ गया.

अरे बेटा, इंतजाम कर दूंगी तुम्हारे नारायण आश्रम से लौटने तक. धारचूला तक पहुंचवा दूंगी. दरियाल जी सरवा देंगे अपने पल्लेदारों से कह के. अभी लौटते सब यहीं खा पीके जाओगे. कुंतीदी बोलीं.

“थोड़ा मेरे लिए भी हाँ दिदी”. मैंने भी कह ही दिया.

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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