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समूचे दारमा गांव में महिलाओं को धर्मिक अनुष्ठानों में बराबर का अधिकार मिला हुआ है

पिछली कड़ी : फिर से मैं अपना बचपन गांव-घाटियों में गुजारना चाहता हूं

हैरान-परेशान वह फिर बाहर किसी से फुसफुसाने लगा. एक बार फिर से उसने टेंट के अंदर लाइट मारकर झांका तो मजबूरन मैं उठा. उसकी लाइट मेरे चेहरे में पड़ रही थी तो मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मैंने अपना हेड लेंप निकाल उसके चेहरे पर लाइट मारी तो वह थोड़ा सकपका सा गया. मैंने लाइट नीचे कर दी. हरदा भी उठ गए थे. हम दोनों ने उसे बताया कि इस खाली टेंट में रहने की इजाजत हमें सरिता ने दी है और शाम को पंचायत घर से बिस्तर-कंबल हम ही लाए हैं तो ये आपका कैसे हो गया?
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)

 “मैं जा रही हूं घर को.’ एक कोकिला स्वर बाहर से गूंजा.

 “रुको मैं देखता हूं और टेंट में कि कौन सा हमारा था.”

 “ना मैं जा रही हूं.”

 आवाजें आनी बंद हो गई तो हमने टेंट की चेन बंद कर फिर से अपने कंबल ओढ़ लिए.

“क्या बात रही होगी?” हरदा ने पूछा.

मैने डॉ. आर. एस. सीपाल के लेख ‘रं समाज में विवाह पद्वतियां’ का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने रं समाज में विवाह के, ‘राक्षस विवाह, बाल विवाह, प्रजापत्य विवाह, विधवा विवाह, ब्राह्मण विवाह, गन्धर्व विवाह के साथ ही दैजु (दहेज) व सिलन कुरूमू के बारे में विस्तार से रं समाज के बारे में लिखा है. इसमें से सिलन कुरूमू प्रथा के तहत, रं समाज में शादी की यह प्रथा पहले बहुत ज्यादा प्रचलित थी. उसका प्रमुख कारण यह था कि अगर लड़की के मां-बाप लड़की को देने के लिए राजी नही हो तो लड़का-लड़की भाग कर शादी कर लेते थे. उससे पहले उस गांव के एक आदमी को नियुक्त करते थे जो लड़की से पूछते थे कि लड़का जाने के लिए राजी है अथवा नहीं. उसे रं समाज में तरम कहते हैं, तरम का मुख्य कार्य लड़की को बहला फुसलाकर भागकर शादी करने को तैयार करना है. वह तरम लड़की से पूछ कर तारीख तय करता है. तदनुसार लड़का दोस्तों के साथ लड़की को अपने साथ अपने गांव लेकर आता है. इस दौरान लड़की अपने कपड़े, जेवर अपने साथ लेकर आती है. साथ में तरम भी कुछ दूर तक उसे छोड़ने आता है, यह विवाह राक्षस विवाह से कुछ हट कर है क्योंकि राक्षस विवाह में लड़की को जबरदस्ती उठा कर ले आते हैं.

दूसरा प्रमुख कारण इस विवाह में यह भी होता है कि अगर लड़की तथा लड़के के मां-बाप शादी के खर्च को वहन करने असमर्थ हो तो लड़की तथा लड़के भागकर शादी करने को कहते हैं. मगर रं समाज में ऐसी शादी को पूरी तरह मान्यता तभी मिलती है जब ये लोग पुनः रं समाज के रीति रिवाजों के हिसाब से मरने से पहले कभी भी दोबारा शादी करते हैं. यह शादी भी बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है मगर एक पहलू यह भी है कि शादी में बच्चों को अपने मां-बाप की शादी को देखने का सुनहरा अवसर मिलता है. जब सिलम कुरूमू करते हैं, तब लड़की के मां-बाप, भाई-बहिन तथा रिश्तेदार लोग लड़के के यहां आते हैं और लड़की से पूछते हैं कि तुम्हें जोर जबरदस्ती से उठाकर लाये या तुम अपनी मर्जी से आयी. अगर लड़की बोल दे कि मैं अपनी मर्जी से आई हूं तो दोनों परिवारों में समझौता हो जाता है तब दोनों परिवार तथा गांव वाले आकर ठूमू करके इसको मान्यता दे देते हैं.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)

वही गन्धर्व विवाह प्रथा में लड़का तथा लड़की अपनी इच्छा से पारस्परिक प्रेम विवाह करते हैं. वर्तमान में इसे प्रेम विवाह भी कहते हैं. मगर रं समाज में रीति रिवाज के अनुसार बाद में शादी की रस्म अवश्य पूरी करनी पड़ती है. नहीं तो समाज उनके होने वाले बच्चों को मान्यता नहीं देता है.’ हरदा को मैंने बताया.

 “बेचारे.! हमारी वजह से अपनी रस्में पूरी नहीं कर सके.” करवट बदलते हुए हरदा बोले.

रात में तापमान माइनस पांच के आसपास चला गया था और ठंड नसों में अपने होने का अहसास कराने लगी तो ठिठुरता हुआ मैं उठा और रकसेक में थोड़े से जितने कपड़े थे उन्हें भी पहनकर वापस कंबल में घुस गया. जून का महीना सोच मैं गर्म कपड़े नहीं लाया था. अब ऐसा लग रहा था जैसे ग्लेशियर के उप्पर लेटे हैं. बमुश्किल थोड़ी सी नींद आ पाई.
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 “देखों क्या नजारा है. बाहर आओ न.” सुबह हरदा ने आवाज मारी तो अलसाया हुआ मैं टेंट से बाहर निकला. महादेव गुफा की ओर नजर गई तो सुनहरा ताज पहने हिमालय को देख मैं चुपचाप वहीं किनारे बैठकर उसे निहारने लगा. नीचे घाटी में दोनों ओर घने भोजपत्र का जंगल और उस घाटी में बल खाती नदी का आकर्षण खींचता महसूस हुआ.

 सीपू गांव से कई जगहों के ट्रेक निकलते हैं. मलती बावी यहां से दो किलोमीटर, महादेव गुफा चार किलोमीटर, पार्वती सरोवर पांच किलोमीटर की दूरी पर हैं. इसके साथ ही दंगा बुग्याल छह किलोमीटर, खरसा बुग्याल सात किलोमीटर, आंचरीताल बारह किलोमीटर, साहस सरोवर तेरह किलोमीटर, डॉवी पास कालापानी पंद्रह किलोमीटर, छू मांपाग 18 किलोमीटर, लला व्यी 21 किलोमीटर, लच्चर व्यी 26 किलोमीटर और निपचकांग रालम पास आठ किलोमीटर की दूरी पर हैं.

पता चला कि आंचरीताल, जिसे परियों का सरोवर कहा जाता है, के पास ही छुमापांग, डासा मरती (जिसे बीस रंगी सरोवर भी कहा जाता है) से आगे साहस सरोवर है. 1981 में पत्रकार डॉ. गोविंद पंत राजू जब अपने दल के साथ रालम पास अभियान पर थे तो उन्होंने ही डासा मरती के आगे के इस सरोवर को साहस सरोवर का नाम दिया.

तिब्बत की सीमा पर बसे सीपू गांव को राजूला मालूशाही की कहानी से भी जोड़ा जाता है. किवदंतियां हैं कि राजूला का गांव सीपू था. सुनपति सौका के भवन के अवशेषों के मिलने का जिक्र बड़े-बुजुर्ग किया करते थे. खेतों की निराई-गुड़ाई के समय उन्हें लाख की चूड़ियां, पुराने वक्त के मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिले. कुछेक बुजुर्गों का तो यहां तक दावा रहा कि उन्हें सोने की बनी जंजीर भी मिली.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)

बहरहाल… राजूला मालूसाही की कहानियां जोहार-दारमा व व्यास की घाटियों में गूंजती रहती हैं. इस तरह के किस्सों की फेहरिस्त अनगिनत है और ये सभी किस्से यहां की घाटियों में फैली हुई हैं.

“आज निकल चलते हैं नीचे की ओर. धारचूला तक तो पहुंच ही जाएंगे किसी न किसी तरह शाम तक.” हरदा ने कहा तो मेरी भी सहमति बन गई. झटपट अपने रकसेक तैयार कर हम दोनों सरिता के घर के आंगन में आ गए. हमें तैयार देख सरिता चौंक उठी, “दद्दा आज मुख्य पूजा है आप रुकिये न आज. कल चले जाना.”

हरदा ने सरिता को समझाया कि उन्हें दिल्ली जाना बहुत जरूरी है बाद में फिर से सीपू आएंगे और हफ्ताभर रहेंगे. बमुश्किल सरिता मानी और चाय के दो बड़े गिलास हमें थमा दिए. सामने घर से उनके बड़े भाई निकल आंगन में आए. वह महादेव की मुख्य पूजा के लिए तैयार हो गए थे. झक्क सफेद कपड़ों के साथ सिर में पगड़ी में उनका पहनावा बहुत ही आकर्षक लग रहा था. इसके साथ ही तभी सरिता की मॉं भी अपने पारंपरिक भेषभूषा में आ गई तो उनसे हम बतियाने में लग गए.

उनसे बातों में पता चला कि सीपू गांव के साथ-साथ समूचे दारमा गांव में महिलाओं को धर्मिक अनुष्ठानों में बराबर का अधिकार मिला हुआ है. अपनी रं भाषा के साथ ही इन्होंने अपना पहनावा भी सुरक्षित रखा है. आभूषण व जेवरात को स्थानीय बोली में ‘हत-कान’ कहा जाता है. पैजामा, चूड़ी व छ्यामटांग की तीन लड़ियां जोहार का विशिष्ट आभूषण रही हैं. कानों के आभूषण को स्यूंति बालि, गले के आभूषण को अुःतु व चांदी की चौड़ी पट्टी को चूड़ी कहते हैं. अर्द्धचंद्राकार आभूषण जिसे त्वाड़, माला को चनरहार व त्यलड़ कहते हैं. रं समाज के लोगों का पहनावा जहां बहुत ही आकर्षक होता है वही इनकी अपनी परंपरायें और रहन-सहन बेहद अलग और शानदार है.

सरिता के परिवार से विदा ले हम दोनों ने आगे मार्छा की राह पकड़ ली. मार्छा पहुंचने पर पता चला कि आगे तिदांग गांव में पूजा के चलते आज धौली गंगा में पुल से आवाजाही बंद की गई है. समूचे तिदांग गांव की सीमा को ही एक तरह से सील किया गया है. क्या करें?

सोच ही रहे थे कि गो गांव से आ रहा एक घोड़ा वाला मिला. वह अपने घोड़ों को ऊपर बुग्यालों में छोड़ने जा रहा था. उसने बताया कि अभी तो तिदांग का पुल खुला है, जल्दी निकलोगे तो पार हो जाएगा. ये मीठा आश्वासन था तो तुरंत रकसेक पीठ के हवाले कर हमने मार्छा गांव की गलियां पार करनी शुरू कर दीं. गांव में फिर से कुछ युवा अपने मोबाइलों में सिर झुकाए दिखे.

तिब्बत सीमा से सटे दारमा घाटी के ज्यादातर गांवों में अब वी सेट लगा दिए गए हैं. सीपू गांव में भी पंचायत घर के पास डिश टाइप का वी सेट दिखा, लेकिन काम नहीं कर रहा था. ग्रामीणों से पता चला कि दारमा घाटी में 13 गांव बोगलिंग, सेला, चल, नागलिंग, बालिंग, दुग्तू, दांतू, गो, बोन, फिलम, तिदांग, मार्छा, सीपू में ये लग चुके हैं, लेकिन ज्यादातर ये वी सेट कोमा में ही रहते हैं. यही हाल व्यास घाटी में बुदी, गर्ब्यांग, नप्लचयू, गुंजी, नाबी, रोंगकांग, कुटी गांव में लगे वी सेटों के भी हैं.

तिदांग गांव के पास धौलीगंगा में बने पुल को पार करने के लिए हरदा के कदमों ने उड़ान भरनी शुरू कर दी तो मैंने उन्हें बताया कि एक रास्ता और भी है भागो मत. तिदांग के पास पहुंचने पर देखा कि पुल के इस छोर में एक सफेद कपड़े को कीलों से बंद किया गया था, जो पुल के बंद करने का संकेत था. नदी पार कुछ युवा दिखे जो कि हमें पुल पार न करने का संकेत कर रहे थे. काफी देर तक हमने उनसे मिन्नतें कीं लेकिन गांव की पूजा के नाम पर उन्होंने हमें पुल पार करने देने से साफ मना कर दिया. कपड़ा हटा हर कोई पुल के पार जा सकता था लेकिन गांव की रश्मों-रिवाज का सम्मान कर अब नया रास्ता ढूंढना था.

धौली गंगा के किनारे से एक पतला सा रास्ता नीचे की ओर दिखा जो कि काफी खतरनाक लग रहा था. पुल का रास्ता बंद था तो इसी रास्ते से आगे बढ़ने की बात आपस में तय हो गई. कूदते-फांदते हुए इस रास्ते को पार कर धौलीगंगा की बांई ओर एक मखमली बुग्याल में पहुंचे तो सांसें वापस लौटी. ऊपर बेदांग से गो गांव का रास्ता दिख रहा था. हरदा को मैंने बताया कि वर्ष 2007 में सिनला दर्रा को पार करने के बाद हमारा दल इसी रास्ते से दारमा घाटी में पहुंचा था.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)

जारी…

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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