अगर आपको पूर्व करोना काल की कुछ याद हो तब मज़दूर नाम की कोई चिड़िया नहीं हुआ करती थी. होती होगी कहीं, ऊंचे-ऊंचे टावरों के बेसमेंट या तेरहवें माले के अनफिनिश्ड अपार्टमेंट में, मॉल के आसपास की झुग्गी-झोपड़ियों में. मतलब कि तब वह कम ही दिखाई पड़ता था. गुपचुप तरीक़े से बिल्डिंग बनाता और फिर एक दिन अंतर्ध्यान हो जाता.
(Column by Umesh Tewari Vishwas)
ड्राइंग-डाइनिंग, मास्टर बेडरूम, मॉड्यूलर किचन में बिखरा उसका सामान गठरियों में सिमट जाता. ऑटो में बैठकर तब वो सपरिवार वंडरलैंड चला जाता. उड़ते ऑटो से उसके बच्चे शेष दुनिया को हाथ हिलाते. लाल बत्ती पर तैनात पुलिस अंकल की सीटी पर मुग्ध होकर बेटा सीटी ख़रीदने की ज़िद करता.
दूसरी चीजों की तरह अंग्रेजी में भी मज़दूर का हाथ तंग रहा है. तथापि, ठगी के त्रिस्तरीय व्यूह में जेबें कटवा कर वह मोबाइल, नेटवर्क, टॉकटाइम, रिचार्ज आदि जैसे शब्द सीख गया है. सच तो ये है उसे ‘लॉक-डाउन’ का भी मतलब मालूम नहीं था. तालाबंदी बोलते तो शायद नोटबंदी जैसा कुछ समझ कर चौकन्ना हो जाता.
अभी भारी प्रीमियम देकर उसने लॉकडाउन, क्वारेन्टीन, डिस्टेंसिंग और रजिस्ट्रेशन आदि की प्रमेय समझी है. चेहरे पर मास्क न लगाने का नुक़सान भी वह समझ गया है. बच्चा मज़दूर को पता चला है कि सीटी न होने से पुलिस अंकल गाली देते हैं और डंडे से मारने दौड़ते हैं.
सरकार की देखा-देखी मज़दूर ने भी आपदा को घर जाने के अवसर में बदल लिया है. चार्टर्ड रेल, बस आदि सुविधाओं को ठुकरा कर वह ख़ुद की बनाई सड़क पर वाक करते हुए अपने देस जा रहा है. वहाँ नए स्वागत सेंटर बनाये गए हैं. पिछले टाइम से विकास छलाँग मार कर बॉर्डर पर आ गया है.
(Column by Umesh Tewari Vishwas)
कैम्प की दीवार पर तिरछा मुस्कुराते मुखमंत्री की तस्वीर लगी है. यहाँ मज़दूर के बचे-खुचे स्वास्थ्य का परीक्षण होगा. कोरोना निगेटिव निकला तो फूल वाला मास्क धारण कर आरोग्य सेतु से आगे बढ़ेगा. यदि कोरोना संक्रमित पाया गया तो बचपन में दुर्लभ रहे सरकारी स्कूल की कोने वाली कक्षा 9 के कक्ष में क्वारेन्टीन किया जाएगा. यहीं उसके आयुष्मान होने की पात्रता की भी जाँच होगी. बच गया तो टी वी पर उसका इंटरव्यू होगा. वो जानना चाहेंगे कि क्या वह पुनः परदेश जाएगा या यहीं मरेगा. उसके ख़ून, पसीने से संक्रमित सड़कें और हाउसिंग सोसायटी की दीवारें सेनेटाइज़ करवाई जाएँगी. नए मज़दूर लोकली निर्मित पी पी ई ओढ़ कर यह काम करेंगे. इनके ठेकेदार इतिहास में कोरोना वारियर्स की तरह दर्ज़ होंगे.
इस बीच सरकार, परंपरा के अनुरूप, राहत वग़ैरा का पैकेज लाई है. इसका टीवी पर ख़ूब प्रचार है. स्कूली बच्चों के निठल्ले बैठे मम्मी-पापा टी वी देखते हुए पैकेज में अपना हिस्सा खोज रहे हैं. इस चक्कर में बच्चों ने वो तस्वीरें देख ली हैं जिनमें मज़दूर पापा कंधे और लगेज पर बच्चों को बिठाए-लिटाये हुए हैं. मज़दूर अंकल से इम्प्रेस होकर बिल्डिंग के बच्चे मम्मी-पापा से तरह-तरह के क्वेश्चन कर रहे हैं –
मम्मा हू इस दिस मजबूर अंकल?
मजबूर नहीं बेटा, मज़..दूर, मज़दूर-वर्कर
ओके, बट उनके बच्चे कौन से स्कूल जाते हैं?
दे गो टु नाइट स्कूल, सो यू डोंट गेट टु सी देम
दैन ..वो सोते कब हैं मम्मा?
डे टाइम बब्बा, नाउ ब्रश एंड चेंज, इट्स बेड टाइम
डू दे अल्सो ब्रश बिफोर गोइंग टु बेड, डे टाइम?
ओह कमऑन, गुड़ हैबिट्स आर फ़ॉर आल…
मम्मा मुझे पापा के शोल्डर पर बैठना है…
ओके, वी विल डू इट ऑन संडे…
गिव मी अ राइड ऑन लगेज ट्रॉली प्लीज़ मोम, आई वुड प्रीटेंड स्लीपिंग, यू जस्ट पुल इट अराउंड
इन अवर कॉरिडोर प्लीज़
नाउ शट अप.. गो ब्रश !
मज़दूरों के मरने की ख़बर ब्रेकिंग न्यूज़ वाली पट्टी में चल रही है. बीच स्क्रीन पर दुख व्यक्त किया जा रहा है. सुंदर एंकर स्थितियों को भैंकर बताते हुए किसी प्रकार अपने जज़्बातों पर काबू पा रही है. एक डॉक्टर हॉस्पिटल की ओ पी डी बंक कर सुबह से विशेषज्ञों के पैनल पर विराजमान है. जल्दबाज़ी में जो स्थेटेस्कोप गले में लटका रह गया था, शंकर जी के नाग सरीखा उसकी शर्ट में चिपक चुका है. साली बोर होकर उससे उठ आने को कह रही है. वो भी थक चुका है. बता रहा है कि उसके पास बताने को कुछ नहीं है पर सरकार अच्छा काम कर रही है.
(Column by Umesh Tewari Vishwas)
पैनल में शामिल एक रिटायर्ड वरिष्ठ पुलिस ऑफिसर के अनुसार पुलिस पर बहुत दबाव होता है जिसे घटाने को वह हवा में लाठी आदि चलाते हैं. ऐसे में मज़दूर सहित सभी को बीच में आने से बचना चाहिए. चोटिल होने पर टिटनेस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए क्योंकि लाठियों पर जंक लगा रहता है. सरकारी अस्पतालों में ये टीका फ़्री लगता है.
पार्टी प्रवक्ता हिन्दू-मुस्लिम डिबेट को तरस गए हैं पर प्रोग्राम डायरेक्टर को बॉस ने फ़ोन किया है – कांग्रैट्स, दर्शक टी वी पर लौट रहा है. टी आर पी बढ़ रहा है. शो मोर मज़दूर. उसका बीबी-बच्चा दिखाओ. टूटा घर दिखाओ. पाँव का छाला, ब्लड एटसेट्रा दिखाओ. मंत्री जी से बनाना आई मीन केला रिसीव करने का वीडियो, नहीं तो स्टिल डालो. पैनल पर एक साला एनजीओ वाला बिठाओ.
ब्रेक के बाद एंकर नए जोश के साथ दर्शकों को ललकार रही है – ग़ौर से देखिए इस मज़दूर के पेट को. इसके सिक्स पैक पर मत जाइए, इनके पीछे छुपी है सूखी रोटी जो उसकी पत्नी ने धूप में पकाई थी. हमारे साथ अब जुड़ गए हैं कारपोरेट मामलों के मंत्री…”
(Column by Umesh Tewari Vishwas)
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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पहले पहाड़ की पहचान , "बेडू पाको बारामासा नरेन काफल पाको चैता " जैसे कुमाऊनी लोक गीत से अधिक होती थी , अबैसा लगता है "काफल ट्री" ने यह जिम्मेदारी ले ली है . बदलते सन्दर्भों में यह एक अर्थपरक पहचान भी लगती है क्योंकि काफल के पेड़ से भी कहीं न कहीं एक मजदूर की भी पहचान होती है . काफल तोड़ कर लाने और बेचने का काम तो यही मजदूर ही करता है .