बावर्ची (1972) विघटित होते पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना को लेकर आई एक नए मिजाज की फिल्म थी. तब के दौर के हिसाब से यह फिल्म, एक बिल्कुल नये विषय को लेकर आई. ऋषि दा की फिल्मों के विषय आम जनजीवन से लिए जाते रहे हैं. समकालीन मध्यवर्गीय मनोदशा और संवेदना के सूक्ष्म तंतुओं की उन्हें जबरदस्त पहचान थी, जिसको लेकर उन्होंने बेहद संजीदा फिल्में बनाई. इसके बावजूद हल्के-फुल्के हास्य-बोध के साथ फिल्म के मनोरंजन-पक्ष को उन्होंने हमेशा मजबूत बनाए रखा. लोक-समाज-केंद्रित सिनेमा को लेकर तो उनका कौशल साक्षात् बोलता हुआ दिखाई पड़ता था. मध्यवर्गीय जीवन की छोटी- छोटी बातों, मतभेदों और आदत-बर्ताव को वे बेहतरीन ढंग से परोसना जानते थे. फिर उनके आचरण और व्यवहार की मीमांसा, सद्भाव-सामंजस्य और अपनेपन की झलक को वे क्रमिक रूप से विकसित करते चले जाते हैं. फिल्म में इसी सूत्र को महीन ढ़ंग से पिरोया गया है. सार्थक मूल्यों से भरी-पूरी इस फिल्म को दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया. कहा तो यह भी जाता है कि, ‘रघु’ के किरदार में ऋषि दा ने अपने पिता का अक्स देखा था. फिल्म में संयुक्त परिवार के सदस्यों के व्यवहार में आये क्रमिक परिवर्तन को बखूबी दर्शाया गया है.
“किसी बड़ी खुशी के इंतजार में हम छोटी-छोटी खुशियों के मौके खो देते हैं. अरे, बड़ी-बड़ी खुशियों के मौके तो सिर्फ दस-बीस होते हैं, लेकिन ये जो लाखों छोटी-छोटी खुशियों के पल हैं, उन्हें हम गँवा देते हैं.” जैसा कालजयी संवाद शाश्वत सत्य बनकर उभरता है.
“इट इज सो सिंपल टू बी हैप्पी, बट इट इज सो डिफिकल्ट टू बी सिंपल.” (खुश रहना एक सीधी-सादी बात है, लेकिन सीधा-साधा रहना बहुत मुश्किल है.)
यह उक्ति रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की है, जिसे रघु, मास्टर जी को सुखी जीवन जीने के लिए जरूरी बताता है. दरअसल सामाजिक मूल्यों में तेजी से हो रहे परिवर्तनों को लेकर ऋषि दा खासे चिंतित रहते थे. तब भी परिवार समाज की मूलभूत इकाई थी. फिल्म के माध्यम से परिवार-सुधार और इसी इकाई से समाज-सुधार का संदेश देना उनका मूल उद्देश्य रहा है. सूक्ष्म तत्वों की पहचान करने व उन्हें रेखांकित करने में ऋषि दा विलक्षण रहे. संक्षेप में, यह एक सुधारवादी श्रेणी के फिल्म है.
फिल्म वाचक (अमिताभ बच्चन) के स्वर में पात्र-परिचय से आरंभ होती है. “यह भवन भारत में कहीं भी हो सकता है. भवन का नाम है, शांति निवास.'” तभी परिवार में कोलाहल का दृश्य उभरता है. उस लिहाज से यह ‘अशांति निवास’ ज्यादा लगता है. इस विद्रूप पर दर्शक चकित हुए बिना नहीं रह पाते. ‘शांति निवास’ नाम रिटायर्ड पोस्ट मास्टर शिवनाथ शर्मा जी (हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय) की स्वर्गीय पत्नी के नाम पर रखा गया है. संयुक्त परिवार में ‘दादू’ अपने तीन पुत्रों और उनके परिवारों के साथ रहते हैं. ज्येष्ठ पुत्र रामनाथ उर्फ मुन्ना (ए के हंगल) रूपम उत्तम कंपनी में हेड क्लर्क हैं. दादू कई दृश्यों में उन्हें मुन्ना कहकर ही पुकारते हैं. एक दृश्य में तो वे अपने पिता पर तोहमत मढ़ते हुए कहते हैं “साठ साल का होकर भी मैं मुन्ना ही रह गया.” उनकी पत्नी बड़ी बहू सीता (दुर्गा खोटे) गठिया से ग्रस्त दिखाई जाती है. इस दंपत्ति की एक पुत्री है मीता, जो गुरुजी (पेंटल) से कत्थक सीखती है.
मँझले पुत्र काशीनाथ स्कूल मास्टर हैं और इतिहास पढ़ाते हैं. मास्टर जी की पत्नी छोटी बहू (उषा किरण) गृहिणी है और उनका छोटा पुत्र पिंटू बाबा (मास्टर राजू) है. सूत्रधार के मुताबिक, छोटी बहू के विवाह में उनके सौंदर्य को देखते हुए पोस्ट मास्टर साहब को दहेज माफ कर देना पड़ा. तीसरे पुत्र विश्वनाथ उर्फ बब्बू (असरानी) असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्टर है. फिल्म में अक्सर उनके कमरे में फ्राइंग पैन में अंडे उबलते हुए दिखाई देते हैं. वे अक्सर इंग्लिश धुनों के रिकॉर्ड सुनते हुए दिखाई पड़ते हैं. तदुपरांत वे एकांत में इन धुनों पर अपने बोल फिट करते हैं और उसे अपना मौलिक सृजन कहकर बताते हैं, यानी बड़े इत्मीनान से धुन चुराने का काम किया करते हैं. यह बात कृष्णा (जया भादुरी) बब्बू चाचा को उलाहना देते हुए कहती है. कृष्णा परिवार में मातृ-पितृहीन कन्या है. बहरहाल परिवार की ज्वलंत समस्या रसोईए के भागने को लेकर पैदा होती है. इस परिवार में अभी तक कोई भी बावर्ची एक हफ्ते से ज्यादा टिकने का रिकॉर्ड नहीं बना पाया.
कृष्णा, भारी अचरज के साथ बब्बू चाचा को बावर्ची के भागने की खबर सुनाती है. इस पर बब्बू चाचा पूछते हैं, “मेडल लेकर नहीं गया. हफ्ते से ऊपर कोई टिका है यहाँ. ये तो महीना भर रहकर गया.” इस घर से बावर्चियों के शीघ्र-पलायन का मुख्य कारण है, गृह कलह. बकौल भूतपूर्व बावर्ची, “मैं बैरा से बावर्ची बना. न बैरा रहा, न बावर्ची. सोचा था, होटल के कई मालिकों के बजाय घर में एक मालिक मिलेगा, पर ये घर तो होटल से भी गया- बीता निकला.” नई नौकरी में कम तनख्वाह बताए जाने पर वह बेफिक्र होकर कहता है, “इस घर में क्या मिलता था, पचास रुपये पगार और जागने भर की जगह.”
गृह-कलह के कोलाहल में बेचारे को सोना नसीब नहीं हो पाता था. फिर भी इस घर को छोड़ते हुए वह बूढ़े बाबा के लिए कलपता हुआ दिखाई देता है. दृश्य में दादू सुबह-सुबह चाय की गुहार लगाते हैं- “मुन्ना! मुन्ना!” मुन्ना से उनका अभिप्राय अपने वयोवृद्ध पुत्र रामनाथ से है. आम भारतीय पुरुष की भाँति पुत्र इस पुकार के बाबत अपनी पत्नी से विचार-विमर्श करते हैं, “अजी सुनती हो! सुबह-सुबह क्यों पुकार रहे हैं.” “आप भी तो सुन रहे हैं” कहकर वह पति को नैसर्गिक जवाब देती हैं. चूँकि बावर्ची भाग गया है, इसलिए घर भर में कोहराम मचा हुआ है. फिल्म में दादू के हिस्से बड़े ही चुटीले संवाद आए हैं, जिन्हें सुनकर दर्शक चकित हुए बिना नहीं रह पाते. दादू, आम मध्यवर्गीय परिवारों में उपेक्षित बुजुर्गों के प्रतिनिधि से दिखाई देते हैं. अतः आसानी से दर्शकों से सीधा कनेक्ट करते हैं. बावर्ची के भागने पर पूरा घर हैरान-परेशान है. इस पर दादू मजे लेते हुए कहते हैं, “सुनते ही सर पर आसमान टूट पड़ा.” ‘बहू भी तो चाय दे सकती है’, के सुझाव पर दादू कहते हैं, “आजकल की बहू, बेटी थोड़े ही होती है, ‘डॉटर-इन- लॉ होती है. अब सुबह-सुबह कौन कानून के झमेले में पड़े.”
उधर मास्टर जी को चाय की तलब लगी है, लेकिन अभी तक उन्हें चाय नसीब नहीं हुई. तो वे आशंका जाहिर करते हुए पत्नी से पूछते हैं, “कहीं महाराज भाग तो नहीं गया.” इस पर पत्नी उन्हें टोकती है, “सुबह-सुबह, शुभ-शुभ बोलो.” मँझली बहू इस परिवार से अलग होने का परामर्श देते हुए पति से कहती है, “ढाई जान तो हैं हम. अलग क्यों नहीं रह सकते.” इस सुझाव पर पहले तो मास्टर जी अपनी तीन सौ रुपल्ली की नौकरी का रोना रोते हैं. फिर उन्हें पारिवारिक संपत्ति और दादू के बक्से के माल-ताल से बेदखल होने का भय सताने लगता है.
उधर बड़ी बहू बड़बड़ाती है, “कुनबा भी तो छोटा नहीं है, पूरी लंका बसी है.” यह वक्तव्य दादू के कानों में पड़ जाता है. वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं, “अयोध्या से आई हैं दोनों.” इस गृह-कलह के मध्य बब्बू चाचा का रियाज जोरों पर जारी रहता है. उनके संगीत के शोर को सुनकर दादू कहते हैं, “यह घर है या चिड़ियाघर.” छोटे बेटे के बारे में उनकी राय है कि, “इसे अपने बाजे-तबले से ही फुर्सत नहीं है.” जब भी उसे भाजी-तरकारी न खरीदने को लेकर परिवार के बड़े सदस्य उलाहना देते हैं, तो उसका मत काफी स्पष्ट रहता है. बब्बू कहते हैं, “भाजी-तरकारी और मैं. मैं आर्टिस्ट हूँ. आर्ट की बात करिए मुझसे.” “तो क्या आर्टिस्ट को भूख नहीं लगती” के सवाल पर वे बेबाकी से कहते हैं, “आलू-बैंगन और राग जैजैवंती में कोई फर्क नहीं दिखता तुम्हें.”
रसोइए के न रहने से घर के सारे काम-काज बेचारी कृष्णा के सिर पर आ पड़ते हैं. मीता कत्थक सीखती है. गुरुजी (पेंटल) उसे रिकॉर्ड प्लेयर पर रियाज कराते हैं और होने वाली नृत्य-नाईट- नाटिका में पुरस्कार जीतने को प्रोत्साहित करते हैं. शिष्या जब अपने गुरु के विषय में जानने की जिज्ञासा व्यक्त करती है, तो गुरुजी अत्यंत सहज भाव से संस्वीकृति करते हैं, “कई गुणी कलाकार इस संसार में गुप्त जीवन व्यतीत करके चले गए. मैं और मेरे गुरुजी भी उनमें से एक है. मुझे भी तुम्हारे और तुम्हारी माताजी के सिवा कोई नहीं जानता.” वे अपने गुमनाम जीवन को औचित्यपूर्ण साबित करते हुए कहते हैं, “गुरुजी कहा करते थे कि, नाम का लोभ नहीं करना चाहिए.” रिकॉर्ड पर, काहे कान्हा करत बरजोरी… गीत बजता है और उस पर अभ्यास शुरू होता है. नृत्य के स्टेप्स कत्थक गुरु गोपीकृष्ण के हैं.
सुबह-सुबह धुंध फैली है. चिड़ियों के चहचाहट के मध्य बाँसुरी की धुन सुनाई पड़ती है. खाकी नेकर- कमीज-कैनवास के जूते पहने, बैग लटकाए रघु(राजेश खन्ना) की फिल्म में एंट्री होती है. कृष्णा आँगन में बर्तन मल रही होती है, तभी रघु अंदर आकर कहता है, “सुना है, इस घर में बावर्ची की जरूरत है.” बहुप्रतीक्षित बावर्ची को स्वयं घर आया देखकर कृष्णा की साँस अटकी-की-अटकी रह जाती है. वह परम प्रसन्नता का भाव लिए दौड़-दौड़कर पूरे घर को बावर्ची के आगमन की खुशखबरी देती है. इस पर दादू हिकारत भरे भाव से कहते हैं, “इनके लिए तो भगवान आया है.” इंटरव्यू में रघु नामचीन लोगों के नाम लेकर सबको अचंभित कर देता है. फिल्म में दिखाया गया है कि, उसमें अच्छा-खासा पांडित्य है. उसे आयुर्वेद-गीत-संगीत और नृत्य की गहरी समझ है. कई अवसरों पर वह अपने ज्ञान से इन्हें चौंकाता रहता है. एक किस्म से वह परिवार में हलचल मचाकर रख देता है.”अपना काम तो सभी करते हैं. दूसरों का काम करके तो देखिए, कितना सुख मिलता है. डबल तनख्वाह भी दोगी माँजी, तो भी मैं इस पुण्य को बेचने वाला नहीं.” यह संवाद दर्शकों को सोचने को बाध्य कर जाता है. फिल्म के प्रभाव में वे इसे अपने जीवन में आजमाने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं, फिल्म खत्म होने तक ही सही.
रघु उस घर में किस्म-किस्म के प्रयोग करता है. सुबह की चाय को लेकर उसकी राय है कि चाय के पास सब को बुलाना चाहिए. इस पर जब कृष्णा सवाल खड़ा करती है, तो वह कहता है, “इस वक्त चाय की पोजीशन हजरत मूसा की तरह है. चाय सब के पास नहीं जा सकती, तो सबको चाय के पास आना पड़ेगा.” उसका मत है कि हरएक कमरे में चाय पहुँचाने के स्थान पर परिवार के सभी सदस्यों को चाय पर एकसाथ बैठना चाहिए. दरअसल साथ बैठने से साहचर्य उपजता है, जो सदस्यों के परस्पर लगाव, आत्मीयता और मजबूत भावनात्मक संबंधों के लिए एक निहायत जरूरी तत्त्व है.
रसोई में उसका कौशल देखकर महिला सदस्य स्तब्ध रह जाती हैं. सबकी आँखें बड़ी-बड़ी होकर रह जाती हैं. छोटी बहू जेठानी से कहती है, “दीदी, मुझे डर लग रहा है.” इस पर जेठानी कहती है, “मुझे तो कापालिक-तांत्रिक लगता है. देखा तुमने, भाजी कैसे काट रहा था.” उसके भाजी काटने के दौरान बैकग्राउंड म्यूजिक दृश्य के प्रभाव को ज्यादा उजागर कर जाता है. जब-जब वह द्रुतगति से अपना हस्तकौशल दिखाता है, पार्श्व में यही संगीत सुनाई पड़ता है.
फिल्म में सहज हास्य के कई मौके आते हैं. रघु के हाथों चाय पीकर बड़े बाबू घर की स्त्रियों को सुनाते हुए कहते हैं, “पहली बार पता चला कि, चाय में खुशबू भी होती है.” इसी तरह ‘गुरुजी-रघु संवाद’ हिंदी-उर्दू मसले पर सहज समाधान दे जाता है. रघु, गुरुजी का अभिवादन करते हुए कहता है – “आदाब अर्ज है गुरुजी.” गुरुजी प्रति-नमस्कार करते हुए कहते हैं –
“नमस्कार.”
“आप चाय नोज फरमाएंगे.”
“अवश्य, चाय पान तो करेंगे.”
“अलसुबह चाय, मन को बहाल और तन को तंदुरुस्त रखती है.” कहकर रघु चाय की खूबी जताता है.
इस पर गुरुजी हामी भरते हुए कहते हैं, “हाँ, प्रतिदिन भोर समय एक प्याली चाय पीने से मन और शरीर दोनों को लाभ होता है. नृत्य के लिए शरीर को स्फूर्ति मिलती है.”
रघु हामी भरते हुए कहता है, “जी हाँ, जिस्म को चुस्ती तो जरूर मिलती है. चाय यकीनन रक्स की मश्क के लिए बहुत उम्दा चीज है.”
इस पर गुरुजी चौंकते हुए पूछते हैं, “ये रक्स-मश्क क्या होता है.”
रघु शंका-निवारण करते हुए बताता है, “रक्स माने नाच, और मश्क माने रियाज.”
“अच्छा भाई, तुम इतनी शुद्ध उर्दू क्यों बोलते हो.”
“आप भी तो बहुत खालिस हिंदी फरमाते हैं.”
“हिंदी तो हमारी अपनी भाषा है.”
“उर्दू भी तो हमारी अपनी ही जुबान है. हिंदी और उर्दू भी तो दोनों बहने हैं जैसे कि हम और आप.”
गुरुजी कंफ्यूज होकर पूछते हैं, “क्या बहनें हैं?”
रघु समाधान देते हुए कहता है, “नहीं-नहीं, हम तो भाई हैं. जिस तरह भाई प्रेम से रह सकते हैं, बहने नहीं रह सकती.”
इससे स्पष्ट हो जाता है कि, इस कथोपकथन के जरिए उन्होंने अत्यंत सहज भाव से एक समावेशी समाज की ओर इशारा किया है. एक दृश्य में कृष्णा किसी सवाल में बुरी तरह उलझी हुई दिखाई देती है. रघु उसे ओवल टीन देते हुए कहता है -“लाओ-लाओ दिखाओ.” कृष्णा उसे कम आँकते हुए कहती है – “रघु भैया, ये अलजेब्रा है. आपको समझ नहीं आएगी.” रघु सवाल पर एक निगाह डालते हुए झट से समाधान निकालकर रख देता है – “बोथ साइड ए माइनस बी से डिवाइड करो, स्क्वायर रूट निकालो, खत्म.” कृष्णा आश्चर्यचकित होकर रह जाती है.
घर के सदस्य इस गुणवान बावर्ची को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए दिखाई देते हैं. शाम को घर लौटते हुए दोनों कामकाजी भाइयों को यह आशंका सताती रहती है कि, कहीं यह भी फरार न हो जाए. बावर्ची सबका ख्याल रखता है, छोटे बच्चे से लेकर दादू तक सबका. वह ऐन मौके पर पर्दे खींचकर बड़े बाबू के मयनोशी के प्रोग्राम को पोशीदा बनाना जानता है, तो पलभर में कोका कोला और स्नैक्स हाजिर करके भी रख देता है. बड़े बाबू जब देसी ठर्रा और कोका कोला के नुस्खे पर अविश्वास जताते हैं, तो रघु के आग्रह पर पहले ही ‘सिप’ में उनका मुख आश्चर्य से खुला-का-खुला रह जाता है.तो वहीं रघु मास्टर जी को इट इज सो सिंपल… का जीवन-दर्शन सुनाता है. यह बात मास्टर जी के हृदय को अंतरतम तक छू जाती है. इस दृश्य में दर्शकों का सँजीदा होना स्वाभाविक सा लगता है.
उदीयमान म्यूजिक डायरेक्टर के कमरे में रोज अंडे उबल रहे होते हैं. रघु इस पर टिप्पणी करता है, “भैया, इतने अंडे देखकर तो मुर्गी भी बोर हो जाए.” वह उन्हें नाश्ते के विकल्प की पेशकश करता है. साथ ही सलाह देता है, “अंडे बड़े भैया को दे आओ.” इस प्रस्ताव को विश्वनाथ सिरे से खारिज कर देता है क्योंकि उसे पूर्ण विश्वास है कि “अंडा देने पर भैया शक करेंगे. आज तक मूंगफली का एक दाना तक नहीं दिया. आज पूरा-का-पूरा अंडा दे दूँ, तो शक नहीं करेंगे.” वे किसी ‘ऑफबीट’ गाने पर फँसे हुए हैं. रघु के पूछने पर वे उसकी संगीत की समझ पर संदेह व्यक्त करते हैं, लेकिन रघु सिचुएशन समझकर, ‘तुम बिन जीवन, कैसा जीवन..’ गाकर उन्हें हैरत में डाल देता है. ‘अपना काम तो सभी करते हैं, दूसरों का काम करके जो खुशी मिलती है, उसका कोई मोल नहीं.’ परोपकार का यह मंत्र क्रमशः परिवार के सदस्यों पर प्रभाव जमाने लगता है. बड़े बाबू समय से पहले दफ्तर पहुँचने लगते हैं. अपना काम तो समय से पहले करते ही हैं, हैरान- परेशान लोगों की मदद भी करने लगते हैं. नतीजतन कुछ दिन पहले तक जो साहब उन्हें रिटायर करने पर तुला हुआ था, अब वही उन्हें तीस रुपये की तरक्की और तीन साल का ‘सर्विस एक्सटेंशन’ खुशी-खुशी देता है.
रघु बड़े बाबू को राजदाराना अंदाज में बताता है, “काशी भैया कह रहे थे, मैं कितना नालायक हूँ. इस उम्र में भी बड़े भैया को काम करना पड़ता है. ऐसा भी नहीं कह सकता कि, बड़े भैया तुम रिटायर हो जाओ. घर की देखभाल मैं करूँगा.” “ऐसा कहा काशी ने.” बड़े बाबू गद्गद होकर रह जाते हैं. रघु उनके मन की बातें गढ़कर मास्टर जी को बताता है, “बड़े भैया तारीफ कर रहे थे आपकी. कह रहे थे, कितना ब्रिलियंट स्टूडेंट था काशी. मुझे तो उसे ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज भेजना चाहिए था.”
रघु कई-कई तौर-तरीकों से उनके मत-मतांतर खत्म करता है. इस तरह से वह परिवार में आपसी मतभेद समाप्त करता चला जाता है. भाव उनमें पहले से मौजूद थे. वह अंतर्निहित भावों के होने और उनके जाग्रत होने के बीच के अंतराल में ‘ट्रिगर प्वाइंट’ का काम करता है. इस तरह से वह परस्पर विश्वास और प्रेम के भाव जाग्रत करने में उनकी मदद करता है. फिल्म में जहाँ एकतरफ चुटीले संवादों की भरमार है, तो भावनाओं में पगे संवाद भी कम नहीं. जिससे दर्शक अभिभूत होकर रह जाता है. उसे यह कथा अपनी कथा सी लगने लगती है, क्योंकि उसके घर-परिवार-जीवन का ‘मिसिंग तत्व’ भी यही तो है, जिसका रघु परत-दर-परत रहस्योद्घाटन करता चला जा रहा है.
मीता, गुरु के निर्देशन में कत्थक की प्रैक्टिस करती है. इधर कृष्णा का भी मन तो बहुत करता है, लेकिन उसके लिए यह सुविधा अलभ्य है. मातृ-पितृहीन कन्या के लिए दर्शकों के मन में सहज ही करुणा उपजने लगती है. वह ओट से मीता दीदी को अभ्यास करते देखकर ही प्रसन्न हो जाती है. एक दिन अभ्यास में विघ्न डालने के अपराध में मीता, कृष्णा पर तोहमत मढ़ती है, उसे जली-कटी सुनाती है. कोमल भावों वाली कृष्णा आहत होकर रह जाती है. पूरे परिवार में मात्र दादू का कृष्णा पर वास्तविक स्नेह रहता है. ‘साधना भंग’ होने की खबर सुनकर दादू कहते हैं, “बड़ी आई उर्वशी की बच्ची. घमंड बहुत बढ़ गया है इसका. तुझमें तो बहुत गुण है रघु. घमंड तोड़ नहीं सकता इसका. मैं तुझको चवन्नी दूँगा.”
दादू, इस काम के एवज में पुरस्कार राशि बढ़ाकर अठन्नी कर देते हैं. नृत्य-नाटिका-मंचन में मीता, ‘काहे कान्हा करे बरजोरी..’ गीत पर प्रस्तुति देती है. उसके माता-पिता और दादू दर्शक दीर्घा में ‘फ्रंट रो’ में बैठे नजर आते हैं. कुछ लोक प्रस्तुतियों के बाद मंच पर हल्के अंधेरे में आर्टिस्ट की एंट्री होती है. गीत के बोल सुनाई पड़ते हैं- ‘मोरे नैना बहाए नीर…’ दर्शकों की पेशानी पर हल्के से बल पड़ते दिखाई देते हैं. तभी कृष्णा की ‘सरप्राइज एंट्री’ दिखाई देती है, जिसे देखकर बड़े बाबू और दादू के चेहरों पर विस्मय के भाव दिखाई देते हैं, उनके मुँह खुले-के-खुले रह जाते हैं. कृष्णा भावमुग्ध होकर नृत्य करती है. साजिंदो की पाँत में रघु, बांसुरी बजाते हुए दिखाई देता है. दादू तो इस कला-प्रदर्शन पर उत्साह के अतिरेक में वाह-वाह कर बैठते हैं, तो बड़े बाबू भी उचक-उचककर भतीजी की प्रस्तुति पर दाद देते हैं. कृष्णा के फर्स्ट और मीता के सेकंड प्राइज जीतने पर ताई मुँह फुला लेती है, तो दादू और बड़े बाबू ‘हिप-हिप-हुर्रे’ कहते हुए घर पहुँचते हैं. मीता को इस नतीजे से गहरा आघात लगता है. वह रोते-बिलखते अपने कमरे में चली जाती है. तभी रघु कृष्णा को बड़े कलाकार का भाव बताते हुए मीता के कमरे में भेजता है. मीता जब रघु के लिए, ‘वह सिखाएंगे मुझे’ सवाल पूछती है, तो रघु तपाक से कहता है, “ये प्राणी सीखने- सिखाने के लिए हमेशा तैयार है. अच्छा इंसान ही अच्छा कलाकार हो सकता है. कला सीखने के लिए नम्रता जरूरी है. गुरुर और अहंकार से कभी ऊँचा नहीं उठा जा सकता.”
रसोई में मीता को देखकर सबको आश्चर्य होता है. इस पर रघु कहता है, “खाना बनाना रसीला काम है. जीभ पर रखते ही मालूम हो जाता है.” सुबह-सुबह रघु आंगन में बर्तन धो रहा है. वह गीत गाता है, ‘भोर आई गया अंधियारा, सारे जग में हुआ उजियारा…’ इस गीत में घर के सभी सदस्य शामिल होते हैं, यहाँ तक कि दादू भी. बड़ी सुखद बेला लगती है. सब सुखकर महसूस करते हैं. यह गीत इस फिल्म का केंद्रीय गीत है, जो जीवन में परिवर्तन का संदेश दे जाता है और दर्शकों पर भी विशेष प्रभाव पैदा करता है. योजना बनाकर रघु, कृष्णा- अरुण का मेल कराने में सफल हो जाता है.
अखाड़े के दृश्य में बहुत कुरेदने पर वह अरुण को अपना वास्तविक परिचय देता है, “..काफी अनुभव लेने के बाद मुझे मालूम हुआ कि, जिंदगी आनंद है. आनंद ज्ञान से प्राप्त होता है. फिर उस ज्ञान को बाँटने से आनंद बढ़ता है… फिर मुझे मालूम हुआ कि, यह कैसा जीवन है. खुशी! सुख! सिर्फ अपने लिए. कई घर ऐसे थे, जिनके पास सब कुछ होते हुए जीवन में शांति नहीं थी. उन घरों में मैं नौकर बना. उन्हें वे छोटी-छोटी बातें याद दिला दीं, जिसे वे वह भूल गए थे. तब से मैने यह व्रत लिया है..”
रघु का यह जीवन-दर्शन दर्शकों को सोचने को विवश कर जाता है. क्या हमारा अबतक का जीवन अकारथ तो नहीं गया. सूत्रधार के स्वर में फिर से कमेंट्री सुनाई देती है, “अशांतिमय घर की तलाश में फिर से शुरू हुई रघुनंदन की यात्रा..” साथ ही वह दर्शकों को यह भी चेता जाते हैं कि, “देख ले यह घर आपका ना हो.” यहाँ पर फिल्म फिर से गहरा संदेश दे जाती है.
बावर्ची वैसे तो सभी सदस्यों को वाजिब ढंग से प्रभावित करता है, लेकिन दादू के तो जैसे दिन ही फिर जाते हैं. उन्हें रघु से एक आस सी बँध जाती है. तभी तो वे रघु से कहते हैं, “रघु, तुम्हें नीम- बैंगन बनाना आता है.” उसके सेवा-भाव से खुश होकर वे कई बार दोहराते हैं, “तुमने फिर से वाइफ की याद दिला दी.” फिल्म के संवाद पांडित्य से भरे-पूरे होने के बावजूद कहीं पर भी बोझिल नहीं लगते. एक दृश्य में मास्टर जी बड़े बाबू से कहते हैं, “याने मेरी कोई इंडिविजुअल एंटिटी नहीं.” बड़े बाबू समझ नहीं पाते, तो मास्टरजी समझाने की चेष्टा करते हुए कहते हैं, “एंटिटी माने बीइंग. याने मैं मैं नहीं.” बड़े बाबू फिर भी नहीं समझ पाते. कहते हैं, “बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते पागल हो गया है.” यह वार्तालाप सहज सा लगता है.
उस दौर में राजेश खन्ना की अनूठी सफलता की चमक इंडस्ट्री को चौंधिया रही थी. वे सफलतम सितारे का पर्याय बन चुके थे. ऐसे में स्काउट की वर्दी में बर्तन-चूल्हा-चौका उनकी स्टारडम छवि को खतरा पैदा कर सकता था, लेकिन रघु के किरदार को उन्होंने बेहतरीन ढंग से निभाया. अरुण के अखाड़े और स्टेज को छोड़ दें, तो पूरी-की-पूरी फिल्म घर के भीतर ही फिल्माई गई है, फिर भी असाधारण रूप से रोचक है.
फिल्म बांग्ला फिल्म ‘गाल्या होले ओसात्या (1966) से प्रेरित बताई जाती है, जो ‘माई मैन गॉडफ्रे’ से प्रभावित थी. इस फिल्म के लिए गुरूजी (पेंटल) को हास्य अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड (1973) मिला. ऋषि दा की फिल्मों का सामाजिक संदर्भ बड़ा रहता था. गुरुदत्त, शांताराम और विमल राय के बाद ऋषि दा ऐसे सिनेकार हुए, जिनकी फिल्मों में समूचा हिंदुस्तान नजारा आता था.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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3 Comments
दिनेश कर्नाटक
आपने खूब इत्मीनान और मन से लिखा है। बावर्ची मेरी भी पसंदीदा फिल्मों में से थी। इन फिल्मों ने एक जमाने में हमारे जैसे लोगों की सायक़ी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
संपादकीय टीम ने चित्रों तथा साज-सज्जा में खूब मेहनत की है। उम्मीद है, आपकी यह श्रृंखला भी लोगों को खूब पसंद आयेगी। हार्दिक शुभकामनाएं !
MADHUSOODAN RAYAL
astonishing brother !
your fondness to films and skill to estimate it as if u have been in that filmy world !!
u have plenty of informations about those box office hits .
thanx to the all pervading to bestow u with such a versatility and multidimensionality , sagaciousness and simplicity.
no doubt, your creation will be liked with admiration.
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