गोरा रंग पीला पड़ा हुआ. धूप में तपा भी, ठंड से सिकुड़ा भी. हवा के थपेड़ों से सिर में भूरे बाल आपस में उलझे. छोटी तिरछी भूरी आँखें हैं.उभरी हुई दिखती भूरी पलकें. चौड़ाई लिया माथा जिन पर कई लकीरें शीत और घाम के बेमेल ने गहरा दीं हैं. चपटी सी नाक जो गोल से चेहरे में समाई हैं. तो वहीं कुछ पतली सी नाक वाले लम्बे-पतले चेहरे वाले भी नमूदार होते हैं जिनकी पलकें फूली सी उभरी हैं और आँखों के नीचे का भाग भी लटका सा दिखता है. लम्बी सी ठोड़ी है. बदन भी दुबला पतला सा. और इनके साथ ही कुछ छोटी नाक, छोटी छोटी आँखों वाले भूरे-भूरे बाल दरमियाने कद साँवले कद वाले हैं. सबका स्तरीकरण भिन्न- भिन्न हो तो मुख़ाकृति विज्ञान और शारीरिक बनावट से ऐसा कोई ठोस प्रमाण उभर कर सामने नहीं आता कि इनकी सही प्रजातिगत उत्पत्ति क्या रही होगी. कहीं मँगोलियन तो कहीं कुछ-कुछ भूमध्यरेखीय प्रजाति की खासियत दिखाई देती है. कई सदियों से अलग-अलग जातियों-समूहों के आपसी समन्वय का परिणाम दिखाई देता है. जो यह तो जता ही देता है कि इस समुदाय के अधीन आने वाले जो अलग-अलग उप समूह हैं उनकी प्रजातीय उत्पत्ति समान नहीं है.
(Anwal Community Uttarakhand)
समाज शास्त्री यह संकल्पना लेते हैं कि अनवाल पिथौरागढ़ की सीमांत धारचूला तहसील के आदिवासी तो नहीं कहे जाते. हां,ऐसे संकेत मिलते हैं कि इनका आरम्भ से ही भोटिया जनजाति से सम्बन्ध व संपर्क रहा है, वह भी बहुत घनिष्ठ. जानकार बताते हैं कि इनके कई परिवार अल्मोड़ा जिले के दूरस्थ इलाके दानपुर से आये. आजीविका हेतु सीमांत के इलाकों में रहने लगे. धारचूला के धनी शौकाओं के भेड़ पालन व्यवसाय व ऊन के काम में उन्हें रोजगार मिला और अनवाल यहीं के हो रह गए. अनवाल ही हाँक ले जाते भेड़ों के रेवड़, कभी ऊँचाई वाले बुग्यालों में गर्मी में, तो शीत व हयूंण के दिनों उतर पड़ते घाटियों में तराई भाबर तक. यही होता मौसमी प्रवास. तिब्बत व्यापार के समय भेड़ों के साथ माल ढुलाई भी की थी तो बाद में गाँव की छोटी दुकानों के लिए माल असबाब राशन रसद भी लादा. बस चलते रहे, चलते रहे.
कुमाऊं और गढ़वाल के दुर्गम पहाड़ी इलाकों से आकर बसे थे अनवाल. कहा जाता है कि इनमें ज्यादातर मवासे दानपुर के रहे. इसी कारण इनमें से कुछोँ में अपने नाम के आगे दानू लगाने का चलन भी रहा.
उत्तराखंड के सीमांत इलाकों में चीन के साथ युद्ध से पूर्व भारत-तिब्बत व्यापार की समृद्ध परंपरा रही. परंपरागत पेशों में ऊन का काम मुख्य था. ऊन का आयात-निर्यात भी होता था तथा देसी-विदेशी बाजार में ऊन की काफी मांग थी. ऊन के व्यवसाय की जरूरतों को पूरा करने के लिए भेड़ पालन व्यापक स्तर पर किया जाता था. शीत काल में भेड़ों को नदी घाटी व तराई-भाबर के मैदानी इलाकों में ले जाना व ग्रीष्म ऋतु में बुग्यालों की ओर ले जाना व उनसे सम्बन्धित सारे प्रबंध करना, उनकी दिनचर्या में शामिल हुआ. धीरे- धीरे इनकी बसासत मल्ला व तल्ला दारमा, व्यास व चौदास की घाटी में बसती रही. धारचूला तहसील की अलग अलग तोकों में भी यह रहने लगे.
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प्रोफेसर भगवान सिंह बिष्ट, समाजशास्त्री के प्राथमिक सर्वेक्षण व अनुसन्धान के अनुसार 1990 के उत्तरार्ध में अनवाल बसासत का सबसे बड़ा गाँव खुमती था जहां इनकी जनसंख्या एक हजार के आसपास थी तो पचास से कम आबादी थोड़ा बलुआकोट (29) में थी. पचास से सौ की आबादी वाले गाँव तुगथुग तोक (55), बंगापानी घोरीबगड़ (68), धारचूला सियालेख(67) व हिमखोला (93) थे. सौ से ढाई सौ की आबादी जिन गावों में रहती थी उनमें रांथी वनकोट (106), सुवाखिम (110), गाला गाड़ (121), गलांती गलाड़ (133), जुम्मा (159), बलुआकोट (165), बुँग बुँग सिमखोला (175), जिप्ति (200), कुरला (204), खेत (207),तीकुल (209), गलाँती छाना (251), न्यू सुवा (273), सुवा ग्राम (277), दर (284) रहे. पांच सौ के आसपास की आबादी तेजम (448) में थी तो हजार के आस-पास की आबादी खुमती (997) में रही. आबादी में स्त्री पुरुष संख्या लगभग बराबर ही दिखाई देती रही .
अनवाल पहाड़ के ढलानों में पानी के सोतों के निकट अधिकतर पत्थर, लकड़ी और घास की बनी झोपड़ियों में रहते थे. इनके आवास एक मंजिले और कम ऊँचाई वाले होते थे. लकड़ी की बल्लियों को जैसे अनगढ़ तरीके से अटका पत्थर की दीवार बंदी कर दी जाती. छत में चौड़े पाथर का प्रयोग करते तो कई सिर्फ लकड़ी व घास फूस का ही प्रयोग करते रहे . पहले पहल यह भी देखा गया कि घर के भीतर के एक कमरे में पूरे परिवार के साथ साथ ही पाले गए जानवर भी रहते थे. इसका एक कारण तो आर्थिक रूप से कमजोर होने से कम संसाधनों के प्रयोग की गुंजाईश भर थी तो दूसरी तरफ इस सीमांत दुर्गम व अति शीत स्थानों में आदमी और पशुओं का साथ रहना बहुत ज्यादा ठंड से बचाव का तरीका भी बन पड़ा था. हालांकि ऐसे रहन-सहन से वह अनगिनत रोगों से ग्रस्त भी पाए जाते.
अनवाल समुदाय के जीवन यापन पर शोध कर रहे समाज विज्ञानी प्रोफ़ेसर बिष्ट का मत है कि आरम्भ में इनके पूर्वज अपने मूल निवास स्थानों से इस कारण भी बहुत दूर सीमांत के दुर्गम प्रदेशों की ओर चले आये क्योंकि उनके परिवारों में विवाह के निकटाभिगमन की समस्याएं उत्पन्न होने लगीं थीं. ऐसे में कई परिवार अपने मूल स्थानों से सह पलायन कर गए. इसी से यह मान्यता बनी कि अनवाल समुदाय का अधिकांश भाग इसी सह पलायित समूहों का वंशज हैं.अपनी शारीरिक बनावट व चेहरे मोहरे से इनमें पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है और इनमें सजातीयता का अभाव ही दिखाई देता है. अनवालों के समुदाय में जो भिन्न उप समूह दिखाई देते हैं उनकी प्रजातीय उत्पत्ति एक जैसी नहीं है. ये धारचूला तहसील के उच्च व अलग -थलग पड़ी पर्वत श्रृंखलाओं के आदिवासी तो नहीं कहे जा सकते पर इस इलाके में आर्थिक कार्यकलापों में उनकी संलग्नता उनकी सीमित आबादी के बावजूद काफी महत्वपूर्ण बन पड़ी.
ये लोग अनवाल क्योँ कहे गए इस पर कई मत हैं. यह कहा जाता है कि अनवाल शब्द “ऊन वाल “से आया. ऊन वाल का मतलब हुआ जो ऊन का काम काज करता हो. अब ऊन का कच्चा माल भेड़ों से मिला, इसलिए भेड़ों का लालन पालन, उनको चराना, उनसे ऊन निकालना जैसे एक-दूसरे से जुड़े हर काम जो इलाके की आबोहवा और वहाँ रह सकने की हर संभावना को ध्यान में रख सकती हो ने उनके जीवन यापन व कामकाज को प्रभावित किया. सीमांत इलाके में तो स्थानीय जनजाति शौका द्वारा यह व्यवसाय एकाधिकारत्मक रूप से किया जाता था. आम तौर पर यह देखा गया कि वह गैर जनजाति समूह जो प्रवास कर इस सीमांत इलाके में आ आर्थिक रूप से शौका जनजाति के आश्रय में रहने लगा और ऊन से जुड़ा हर काम करने लगा वह अनवाल कहा गया.
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यह भी कहा गया कि ये अनवाल आरम्भ में अपनी दुर्बल आर्थिक स्थिति के कारण स्थानीय जनजाति के बंधुवा श्रमिक रहे होंगे पर वर्तमान में इस धारणा के कोई पुष्ट साक्ष्य नहीं मिलते. दूसरी धारणा यह रही कि अपने आश्रय दाताओं से यह समुदाय भेड़ पालन के व्यवसाय से जुड़ा हर काम करने की दक्षता के कारण अपने श्रम के पुरस्कार के रूप में “भूड़ ” या भत्ता या प्रतिफल प्राप्त करते थे जो जीवन यापन के लिए जरुरी अनाज व चीज-बस्त के रूप में होता था. भूड़ प्राप्त करने वाला “भुड़या” कहलाता था. भूड़या की आर्थिक व सामाजिक दशा विपन्न की श्रेणी में आती थी. जिस कारण ये परिवार मोटे अनाजों के साथ जंगली कंद मूलों का भी उपयोग करते जिसमें मल्यो, बम्यूरी, ग्वाईला, लिंगड़, तरुड़, गेठी मुख्य होते. जंगलों से हिसालू, किल्मोड़ा, काफल, चूंगारू आदि भी टीपे जाते. ये भुड़या सालों साल शौकाओं का काम कर भूड़ प्राप्त कर अपना गुजारा करते थे और इसी से उनकी जीवन निर्वाह आवश्यकताएं पूरी हो पातीं थीं. ऐसे में अपनी आर्थिक हैसियत में जनजाति पर पूरी निर्भरता इन्हें बंधुवा श्रमिक की दशा में रख देती थी. तीसरा पक्ष यह रहा कि भेड़ों से ऊन तो मिलता ही था साथ ही भोटिया जनजाति के परंपरागत व्यवसाय व्यापार में ये भेड़ों के समूह से सामान ढुलाई का भी काम करते थे. भेड़ों का रेवड़ पहाड़ की माल गाड़ी था जिसको हांकने वाले व गर्मियों में एक से दूसरे स्थान तक अपने मालिक के खाद्यान्न व अन्य माल असबाब की ढुलाई करने का जिम्मा इन्हीं का था. इस तरह अन्न की ढुलाई करने के कारण इन्हें अनवाल कहा गया. संक्षेप में ये “सिरतान ” हुए अर्थात कृषि दास जिसका आशय कारिंदों से रहा.
जमींदारी का रिवाज खतम होने के बाद भूमिधारी की हैसियत मिलने पर भी अनवाल शौकाओं के कृषि दास या सिरतान रहे. सिरतान अनवालों को भले ही उनके द्वारा बोई कमाई जमीन पर मालिकाना हक या भूमिधारी तो मिली पर उनकी सामाजिक आर्थिक दशाओं में कोई बड़े गुणात्मक परिवर्तन नहीं देखे गए. शौकाओं द्वारा इन्हें न केवल आर्थिक सुरक्षा दी गई थी बल्कि इनकी वय या आयु को देखते इनका लिहाज भी किया जाता रहा. खाने पीने के मामले में भी कोई भेद भाव नहीं किया जाता था. परंपरागत रूप से ऊन के काम से जुड़ी हर बारीकी में यह विशिष्टीकरण प्राप्त कर लेते थे. मौसम के हिसाब से भेड़ों को चराई के लिए ले जाना वहाँ रहने टिकने के प्रबंधन करना, अनुकूल मौसम होने पर उनका ऊन निकालना, भेड़ों के बच्चे होने पर उनका समुचित ध्यान रखना जैसे हर काम में वह पारंगत हो जाते.
जानकार बताते हैं कि कुछ सालों की दक्षता के बाद शौका व्यापारी इनके बीच भेड़ों का बटवारा भी करते थे जो “दुमच्छू” प्रणाली के द्वारा होता. यह बड़ी रोचक विधि होती जिसमें पहले मालिक की सारी भेड़ों को गोल घेरे के झुण्ड में एकबट्या दिया जाता. फिर मालिक झुण्ड के बीच खड़ा हो अपनी पूरी आवाज में यानी पूरा जोर लगा कर “छ्योsss” की धाल लगाता. ऐसी आवाज सुन झुण्ड की भेड़ें दो दिशाओं की तरफ भाग जातीं. अब एक तरफ की भेड़ें मालिक की तो दूसरी तरफ की उनके चाकर यानी अनवालों की. कौन सी दिशा किसकी यह पहले तय कर लेते. सब कुछ खेल आवाज के जोर पर होता. यह तो हुआ भेड़ों का बंटवारा तो साथ ही खेती-पाति के लायक की जमीन के एक भाग को मालिक अपने चाकरों को सिरतानी में भी दे देते. इसके दो फायदे होते. एक तरफ तो चाकरी कर रहे अनवाल आजीविका का स्त्रोत पा जाते जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार होता तो दूसरी तरफ खेती पाती से प्राप्त उपज का एक तय हिस्सा मालिक को “सिरती” के रूप में मिल जाता. यही नहीं काफी बरसों की सेवा टहल के बाद मालिक अपनी चल संपत्ति जैसे करबच, बर्तन भांडे इत्यादि का एक हिस्सा उन्हें दे देते.
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अपने समुदाय के विकास के चरण में प्राथमिक काम भेड़ पालन व ऊन के काज से इतर अनवालों ने “इजरानी खेती” की जो झूम खेती के सद्रश है.इसके साथ ही ऊन से जुड़ा हर काम जैसे भेड़ों से ऊन उतारना, ऊन की सफाई, ऊन कातना, स्वेटर, बनियान, कम्बल बनाना तो ये करते ही रहे. साथ में निंगाल रिंगाल की टोकरी तैयार करना, स्थानीय घास व पेड़ पौंधों के रेशों से रस्सी बनाना, स्लेट पत्थर निकालने की मजदूरी करना, एवं भेड़ों के द्वारा अपने मालिकों व स्थानीय व्यापारियों का माल ढोना.धीरे धीरे कुछ अनवालों ने अपना चला आ रहा काम छोड़ चाय पानी व भोजनालय भी खोले. दैनिक प्रयोग की चीज बस्त भी खोमचे नुमा दुकानों छोलदारी में रखीं.पढ़ लिख कर कई सरकारी नौकरी भी करने लगे.
अनवालों की वेशभूषा सीमांत में रह रही अन्य जातियों से थोड़ा भिन्न रही. अब इनके रहने की जगह काफी सर्द व ठंड भरी थी तो स्वाभाविक रहा कि ये ऊनी कपड़ों पर अधिक आश्रित रहे. अपने तन पर ये कपड़े गदोड़ लेते. एक के ऊपर दूसरे की कई परतें होतीं ताकि बरफ के पहाड़ों से आने वाली ठण्डी हवा से बचा जा सके. आदमी लोग बदन के ऊपरी हिस्से में “कोथलीगादी” डाल लेते जो भेड़ की काली-भूरी ऊन से बना होता . यह ऊन काफी मोटी बटी व जर्ज़र होती है पर खूब गरम व हवा रोकने वाली. बदन के नीचे के हिस्से में ‘सुतन’ पहना जाता जो पैजामा सा होता. औरतें बदन के ऊपरी भाग में आंगड़ा पहनती जो ऊनी या सूती दोनों प्रकार का होता. बदन के निचले हिस्से में “कामलागादी” पहना जाता जिसके जोड़ जंतर और टांके महिलाएं खुद ही लगा लेतीं. कमर में पट्टे की तरह का चार -पांच गज लम्बा सूती कपड़ा लपेटा जाता जिसे “पागड़ा” कहा जाता. औरतें अपने सर पर एक कपड़ा “धमेली” डाल लेतीं जिसकी सज्जा अनोखी होती. गहनों में औरतें हाथ में धागुला, सुत्ता व मूंगे व कुछ जानवरों की हड्डियों से बनी मालाएं धारण करतीं. गले में सिक्कों की माला भी पहनी जाती तो कान में मुनड़े व नाक में पीतल की बुलाँकी और फुल्ली डालतीं. ज्यादातर गहने गिलट, एल्युमीनियम और पीतल के बने होते. कहीं कहीं सोने और चांदी की आभूषण भी पहने देखे जाते . भयानक शीत और हयूंन से बचाव के लिए रात में बिछाने के लिए जानवरों में भेड़ बकरी की खालें और पुराने फटे पुराने लुकुड़ों को जोड़-जाड़ कर बना गद्दा जिसे ‘गुदड़िया’ कहा जाता बिछा लेते.
दूरस्थ पहाड़ी इलाकों से सीमांत क्षेत्र धारचूला में प्रवास करने के बाद भी अनवाल समुदाय में कुछ ऐसी गतिविधियां बनी रहीं जो उनकी पहचान में शामिल रहीं जैसे सह पलायन करना व अपहरण विवाह जिसे उढ़ाल कहा जाता का प्रचलन.अब विवाह और रिश्तेदारी के संबंधों को तय करने में सामान्य संस्थागत आदर्शो के पालन का चलन तो बढ़ा पर ये आज भी सामाजिक सांस्कृतिक विकास की आरम्भिक अवस्था में ही रहे. अभी भी एकाधिक वहिविरवाही उपजातीय समूहों में बंटे दिखते हैं.
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अनवाल बहुलतः अपने नाम के आगे सिंह लगाते व स्वयं को राजपूत क्षत्रिय कहते. इनके परिवार कई ठाकुर उपजातियों यथा दानू, रावत, नेगी, कुंवर, धामी, बोरा, फर्सवान, परियार, कोरंगा, सुयाल, डकोटी, बुटोला, स्याँगला इत्यादि हैं. गौरतलब है कि उत्तराखंड में ये ठाकुर उपजातियाँ निवास करती हैं और उपजातीय संस्तरणात्मक संरचना या स्ट्रेटिफिकेशन में अपना विशिष्ट स्थान रखतीं हैं. अंतर यह है कि अनवालों की विभिन्न उपजातियों के मध्य ऐसा कोई संस्तरण नहीं दिखता. हर उपजाति की सामाजिक हैसियत समान मानी गई इसी लिए हर उपजाति अंतरविवाही रही. ऐसे में अनवालों की भिन्न उपजातियों के नाम से संगठित समूहों के साथ उत्तराखंड की अन्य जातियों के साथ सामान्यतः रोटी-बेटी के सम्बन्ध नहीं दिखाई देते. इसी कारण अनवाल अन्तः विवाही समुदाय कहा गया.
अनवालों में बचपन में ही शादी कर देने का चलन रहा. शादी में कन्या का मोल देना पड़ता. दोनों परिवार मूल्य तय कर पहले कन्या पक्ष को भुगतान कर देते. शादी शुदा औरतों में चूड़ी पहिनने और मांग में इंगूर लगाने का चलन नहीं रहा. आपस में भाग जाने और कन्या के अपहरण या उड़ाल का भी चलन रहा. शादी शुदा जोड़ों में सम्बन्ध विच्छेद भी हो जाता. इसे “लादवा “कहते. गाँव के बुजुर्ग आपस में बैठ इसका निर्णय करते. लादवा देने का औरत को पूरा हक होता पर पति से रिश्ता तोड़ने पर उसे कन्या मूल्य के मुआवजे का भुगतान करना पड़ता. तलाक के बाद पुनर्विवाह भी करा जाता. छोड़ी हुई औरत से किसी दूसरे आदमी का विवाह होने पर पूर्वपति को उसका मोल चुकाना पड़ता. इसी तरह विधवा विवाह, साली और भाभी से शादी, ममेरे फुफेरे भाई बहिनों में शादी का भी चलन रहा. यौन वर्जनाएं कठोर नहीं रहीं अतः निकट संबंधों या निकट अभिगमन सम्बन्धी घटनाएं सामान्यतः देखी जातीं थीं.
अनवाल समुदाय में औरतों को सामाजिक व धार्मिक आधार पर सापेक्षिक रूप से हीन समझा जाता. माहवारी और बच्चा पैदा होने पर उसे घर से अलग बनी झोपडी में रहना पड़ता. औरतों को भेड़ों के रेवड़ के साथ बुग्यालों में आने की मनाही होती. पर परिवार में मुखिया घर के सदस्य की आयु के आधार पर तय होता. फिर भी परिवार में आदमी की हैसियत ज्यादा मानी जाती. धार्मिक कर्मकांडों व शवदाह आदमी ही करते हैं. आदमियों के घर से बाहर लम्बे समय तक बाहर जाने पर औरतें ही घर के सब काम काज संभालतीं हैं. कामधंधे में श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण का कोई तय पैमाना नहीं होता. खेतों में हल आदमी ही चलाते तो रूपाई, गुड़ाई, फसल कटाई जैसे काम दोनों मिलजुल कर करते. घर गृहस्थी के काम के अलावा जंगल से घास लकड़ी लाना, कंदमूल इकट्ठा करने का काम भी औरतें ही करतीं. पुरुषों के कई अन्य कामों में भी उनकी भागीदारी बनी रहती जैसे चखती बनाना, चाय की दुकान व खोमचों में काम निबटाना इत्यादि. आर्थिक दृष्टि से औरतों का महत्व खास बना रहता है इसी कारण कन्या धन का प्रचलन रहा.
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सीमांत के दुरूह अलग-थलग पड़े, प्रकृति के बीच तालमेल बिठा जीवन निर्वाह करने वाले अनवाल जंगल, पेड़, पहाड़ के प्रति बहुत मोह रखते हैं. वह पामायंर, गंगला, ग्वार, करदँग, दंग कंग इत्यादि की पूजा आराधना करते हैं जो उनकी सोच में प्रकृति के अनगिनत रूप हैं. यहाँ होली, दीवाली राखी दशहरा मनाने का रिवाज नहीं है. अपने भिन्न तरीके से वह स्थानीय त्यौहार मनाते हैं जैसे ‘फूलत्यार’, ‘बीसू त्यार’, ‘खतड़ुआ’ इत्यादि. अनवाल ‘सिदुआ-बिदुआ’ को अपना ईष्ट मानते जो पशुओं की रक्षा करने वाला देव है. इनका भूमि देवता ‘हुणेनाथ’ या ‘हुँस्कर’ है जिसे ये ‘मट्या’ कहते हैं. मट्या याने मिट्टी. फसल तैयार होने पर भूम्या के मंदिर या माणु में सारी बिरादरी की सामूहिक पूजा जिसे “नौकनकू” कहते हैं संपन्न की जाती. इनके साथ ही ऐड़ी, गोरिल, नरसिंह, गड़देवी, छिपलाकेदार, ग्वाल्ला, आंछरी, भैरब व भूत भी पूजे जाते हैं. अपने निवास क्षेत्र की हर बड़ी चट्टान हो या गुफा, जंगल में विशाल पेड़ हो या उफनते गधेरे अनवाल उनके प्रति अपनी श्रृद्धा प्रकट करते हैं और अनेक अवसरों पर उनकी पूजा करते हैं. वह ये मानते हैं कि जिस धरती पर वह रहते हैं उसमें बड़ी ताकत है जो उन्हें जीने का सहारा देती है. अपने गाँव जुम्मा में ऐलागाड़ के पास का विशाल पत्थर हो या ताकुला गाँव में फरस्योणया उडयार, गाँव का बांज का पेड़, वह उनके आराध्य बन जाते हैं. ऐसी ही जगहों में उनकी काली भी बसती है गोल्ल भी और मटट्या देव भी.
एकांत निर्जन इलाके में उनका वास कठिन है जहां कभी लगातार हिम झरती है तो कभी अति बारिश, तड़ित की भयावह गर्जना के साथ जहां अक्सर बादल फटते हैं. ऐसे में उनका सहारा उनका यही परिवेश है जिसके हर डाने-काने में उनके आराध्य बसते हैं. इनके साथ ही भूत-पिशाच, परी-आंचरी भी है जिसे साधने और देंण बनाए रखने के लिए वह जादू-मंतर, झाड़-फूक, तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं. घटयाली लगाते हैं, धौंस होती है. जानवरों की बलि चढ़ती है जिसे ‘समसांड’ कहते हैं. रोग व्याधि, दुख शोक में झाड़-फूक चलती है.
अच्छे बुरे की सायत को कई शकुन-अपशकुन हैं, रीत जो चल पड़ीं जिन पर इनका अंध विश्वास है. अब जैसे अपनी बिरादरी में किसी सदस्य की मौत हो जाने पर जब उसका क्रिया कर्म किया जाता है तब क्रिया कर रहे आदमी के खाना खाते समय परिवार के सारे सदस्य खूब हो -हल्ला करते रहते हैं. थाली बजाते हैं. ये शोर इतना ज्यादा होना चाहिए कि खाना खा रहे आदमी के कानों में किसी चिड़िया, पशु, कुत्ते -बिल्ली की आवाज न घुस सके. अगर उसके कान में कोई पशु-पक्षी की आवाज चली गई तो माना जाता है कि मृतक को उसी योनि में जाना होगा जैसी आवाज सुनायी दी थी. क्रिया कर रहा आदमी ऐसी कोई आवाज सुनते ही खाना छोड़ उठ जाता है.
लम्बे समय तक अनवाल अल्पज्ञात समुदाय रहा. विकास की लहर इनसे इतना दूर रही कि ये पिछड़े समुदाय का दर्जा भी न पा सके. दुर्गम स्थानों में इनके निवास व काफी कम आबादी से इन पर ऐसा ध्यान नहीं दिया गया जिससे इनके विकास की सुस्पष्ट योजना बन सके. समाज वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर भगवान सिंह बिष्ट ने इनके सन्दर्भ में प्राथमिक सर्वेक्षण कर नीति गत स्तर पर सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक धरातल पर भावी कार्य की स्पष्ट रुपरेखा रखी.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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