जॉन हेरॉल्ड एबट का बनवाया हुआ चर्च – डाक्टर डेथ यानि डाक्टर मॉरिस के खतरनाक प्रयोगों की दास्तान (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
हिमालय की तराई से चलकर जब आप टनकपुर से शिवालिक पहाड़ियों पर चढ़ना शुरू करेंगे तो चंपावत से कुछ दूरी पर एक कस्बा है जिसे लोहाघाट कहते हैं. यहीं से एक सीधी चढ़ाई एबट माउंट की तरफ जाती है. पतली व टूटी हुई मेटल्ड रोड जिसके चारों तरफ बांज के पेड़ हैं. उन नम पेड़ों की डालियों पर रोएंदार हरी मॉस ग्रास उगी दिखेगी. जैसे ही आप एबट माउंट पहुंचेंगे मेटल्ड रोड खत्म हो जाती है और शुरू हो जाती हैं गड्ढे युक्त पगडंडियां. (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
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उन्हीं से गुजरते हुए आप भुतहा चर्च और ईसाई कब्रिस्तान से होते हुए एम सी डेविड की कोठी तक पहुंचेंगे जो मोनाल रिजॉर्ट के नाम से संचालित हैं. इसी कोठी से टूटा हुआ गलियारा देवदारु से घिरे डाक्टर मॉरिस के बंगले की तरफ जाता है. हजारों एकड़ में फैले घास के मैदान, बांज, बुरांस, चिनार और देवदारु के वृक्षों के मध्य यह बंगलो स्थित है. योरोपियन शैली में बने इस बंगले में ही वह कुख्यात अस्पताल चलता था जिसे डाक्टर मॉरिस ने खोला. कहते हैं कि मौत के डाक्टर के नाम से कुख्यात मॉरिस सबसे पहले मुक्ति कोठी में अस्पताल चलाता था. फिर मरीजों की तादाद बढ़ने पर उसने जॉन एबट से वह बंगला 1947 से पहले 36 हजार रुपए में खरीदा और उस बड़े बंगले में शुरू किए अपने प्रयोग जो मौत और ज़िंदगी के बीच की उस पतली लकीर को खोजने के लिए थे कि आदमी की मौत के वक्त उसके दिमाग की स्थिति क्या होती है. स्थानीय लोगों का कहना है कि मुक्ति कोठी में उसने बहुत से मरीजों पर यह प्रयोग किए. वहां के पड़ोस की जमीनों में अभी भी खुदाई करने पर नर कंकाल निकलते हैं. हालांकि एबट के बंग्ले की खूबसूरती और वह बरतानिया अस्पताल अद्भुत सुंदरता लिए हुए है आज भी, जहां बाद में मॉरिस ने अपना अस्पताल बनाया. (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
आख़िर कौन थे मिस्टर एबट
जॉन हेरॉल्ड एबट उन्नीसवीं सदी की शुरुवात में पिथौरागढ़ की इन सुंदर वादियों में आए. मुख्यतः वह यूनाइटेड प्रोविंसेज के झांसी के रहने वाले थे. झांसी में वह एक ख्यातिप्राप्त व्यापारी व पॉलिटिशियन थे. उनका पूरा नाम जॉन हेरॉल्ड अर्नाल्ड एबट था. इनका जन्म 10 जनवरी 1863 को स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग में हुआ. पिथौरागढ़ की इस पहाड़ी से उन्हें अपनी किस यात्रा के दौरान प्रेम हुआ होगा यह बताना तो मुश्किल है पर 1920 के आस पास उन्होंने यह जमीन खरीदकर यहां अपने सपनों की दुनिया बसाना शुरू कर दिया था. यह पहाड़ी चोटी देवदारु व बांज के वृक्षों से घिरी है. सर्दियों में यहां की जमीन बर्फ की मोटी चादर ओढ़ लेती है. इस चोटी से पंचाचूली, त्रिशूल पर्वत स्पष्ट नज़र आते हैं. कहते हैं एबट ने यहां 13 कोठियां बनवाईं और अपनी पत्नी की याद में सन 1942 में एक चर्च का भी निर्माण कराया जो अब बन्द है. वहां कोई भी प्रार्थना करने नहीं आता और इसे अब भुतहा चर्च के नाम से जाना जाता है.
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एबट ने एक विधवा से शादी की जिसके पांच बच्चे थे और उसने उन बच्चों को अपना नाम दिया. उस लेडी का नाम था कैथरीन -कैथरीन डेवलिन रॉकफोर्ट. एबट ने कैथरीन को 29 अप्रैल 1908 में अपनी शरीक ए हयात बनाया और उसी के बाद ये दोनों निकल पड़े चम्पावत- पिथौरागढ़ की इस पहाड़ी पर अपने सपनों की दुनिया बसाने. जिसे दुनिया आज एबट माउंट के नाम से जानती है – एक हॉन्टेड टूरिस्ट डेस्टिनेशन.
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एबट माउंट अपने बेटों के लिए छोटे विमानों को उड़ाने के लिए एक हवाई पट्टी बनाना चाहते थे एबट माउंट पर पर किन्ही कारणों से वह नही बन पाई. अब वह जगह प्ले ग्राउंड के नाम से जानी जाती है. एम. सी. डेविड की कोठी के केयर टेकर कल्याण सिंह की मानें तो इस प्ले ग्राउंड के पास एक मंदिर निकला खुदाई में. उसके बाद वहां रह रहे अंग्रेजों के साथ अनहोनी होना शुरू हुई. किसी का बच्चा नही रहा तो किसी की पत्नी. इस वजह से उस हवाई पट्टी का काम रोक दिया गया.
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एबट की पत्नी कैथरीन की सन 1942 में मृत्यु हुई, तो एबट ने कैथरीन की याद में एक खूबसूरत चर्च बनाया, जो अब हॉन्टेड चर्च के तौर पर कुख्यात है. किन्तु एबट उसके बाद तीन वर्षों तक ही जीवित रहा. एबट की मृत्यु 82 वर्ष की उम्र में 28 जून 1945 को रामगढ़ कुमाऊं में हुई. रामगढ़ से चम्पावत के एबट माउंट के कब्रिस्तान तक एबट के मृत शरीर को लाकर दफ़नाना अवश्य ही एबट की अंतिम इच्छा होगी क्योंकि उस वक्त उन दुरूह पहाड़ी राहों से इतनी दूर तक मृत शरीर को लाना बहुत ही कठिन रहा होगा. किन्तु जॉन एबट का यह एबट माउंट उसका अपना सपना था जिसे उसने गुलज़ार किया था. वह मौत के बाद यही ज़मीदोज़ होना चाहता होगा. अंतिम इच्छा अपनी जमीन में हमेशा के लिए सो जाने की.
एबट माउंट पर मिशनरियों ने आकर अस्पताल व चर्च में दवा और प्रार्थनाओं का कार्य भी शुरू किया, कुमायूँ के गज़ेटियर के मुताबिक 1871 में लोहाघाट में एपिस्कोपल मेथोडिस्ट चर्च द्वारा अस्पताल का निर्माण हुआ. बाद में सन 1875 में एक स्कूल खोला गया. मिशनरीज एबट माउंट के बसने से पहले से यहां काम कर रही थी और एबट फैमिली के उजड़ने के बाद भी मिशनरीज ने यहां काम किया. एम डी स्टोन, एम सी डेविड जैसे लोगों ने इस स्थान को आबाद रखा मिस्टर एबट के बाद. (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
कौन था डाक्टर मॉरिस? जिसे लोग मौत का डाक्टर कहते हैं
सन 1940 के आस पास एक डाक्टर मॉरिस एबट माउंट आया जिसने मिस्टर एबट से उनका सबसे बड़ा बंगला 36 हजार रुपए में खरीदा. इस बंगले के चारो तरफ बड़े घास के मैदान और देवदार, बुरांश तथा बांज के पेड़ हैं. इस बंगले के बरामदे के आगे दो विशाल देवदार के पेड़ हैं जिन्हें मिस्टर एबट व उनकी पत्नी ने लगाए – ऐसा कहना है इस बंगले के मौजूदा चौकीदार बहादुर सिंह का. बहादुर सिंह बताते हैं यह बंगला डाक्टर मॉरिस ने खरीदा और वह यहां 18 साल रहा. इससे पहले वह एबट माउंट पर मुक्ति कोठी में अस्पताल चलाते थे. मरीजों की तादाद बढ़ी तो उन्हें मिस्टर एबट से यह बंगला खरीदा जो बहुत बड़ा है. बहादुर सिंह की जुबानी वह एक कुशल डाक्टर थे. भयानक बीमारियों से ग्रस्त मरीजों का इलाज कर उन्हें ठीक किया. सन 1957 में बहादुर सिंह को मलेरिया हुआ तो उनका भी इलाज डाक्टर मॉरिस ने किया. तबसे आजतक बहादुर सिंह को मलेरिया नही हुआ. मॉरिस के इस अस्पताल में नेपाल तक से मरीज आते थे. पिथौरागढ़, गंगोलीहाट और मैदानी इलाकों में बरेली तक के मरीज अपने इलाज के लिए एबट माउंट आया करते थे. ज़ाहिर है डाक्टर मॉरिस एक विख्यात डाक्टर थे और उनका इस अस्पताल, जहां मरीजों के ठहरने व खाने पीने का इंतजाम भी मुफ्त था, के बारे में यह बात नही मालूम हो सकी कि कौन सी मिशनरी या सरकार उन्हें यह अस्पताल चलाने में आर्थिक सहायता करती थी? किन्तु डाक्टर मॉरिस मरीजों का मुफ़्त इलाज करते थे. यह बात उनके द्वारा इलाज किए गए मरीज जरूर बताते हैं जो जीवित हैं और आसपास के गांवों में रहते हैं.
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आखिर कब और कैसे एक हुनरमंद डाक्टर विख्यात से कुख्यात हो गया, ये कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. कहते हैं डाक्टर मॉरिस एक विशेष प्रयोग कर रहे थे और यदि वह सफल होता तो मेडिकल साइंस को एक नायाब तोहफा मिल जाता कि इंसान की मौत के वक्त उसके दिमाग में क्या तब्दीली होती है. डाक्टर मॉरिस ये भी बता देते थे कि कौन मरीज़ कितने दिनों में मरने वाला है, और उस मरीज़ की मौत मॉरिस के बताए हुए समय पर ही होती थी, पूरे कुमायूँ में यह बात फैल चुकी थी कि डाक्टर मॉरिस मौत की सही सही भविष्यवाणी करते है. जब भी किसी मरीज को वह बताते की अब वह फलां रोज मर जाएगा, तो उसे वह मुक्ति कोठरी में भेज देते, और बताए गए मुकर्रर वक़्त पर वह रोगी मर जाता. (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
पहाड़ो की दुरूह चढ़ाई पर पहाड़ के गरीब लोग जब किसी रोगी को लाते तो मौत की तारीख़ तय हो जाने पर वह उसे वापस नही ले जा पाते या जिन मरीजों का कोई नही होता वह भी मुक्ति कोठरी में मर जाता जिसे वहीं पास में दफ़ना दिया जाता. गरीबी व पहाड़ी रास्ते बहुत दुश्कर होते थे पहाड़ के लोगो के लिए. फिर मरीज को अच्छा खाना और दवाओं के साथ साथ रहना भी फ्री था डाक्टर मॉरिस के अस्पताल में. इस कारण भी लोग अपने मरीज़ों के प्रति बेपरवाह हो जाते थे.
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लोगों का कहना है की डाक्टर मॉरिस जिन रोगियों की मौत की तारीख तय करता था, उन्हें मौत की कोठरियों में भेजकर उनके दिमाग के अध्ययन के लिए खोपड़ियों को चीर कर दिमाग़ में यह पता लगाता था कि वह कौन सी हरकत है जो मौत और जिंदगी को तक़सीम करती है. वह मरीजों के तमाम अंगों को चीरता फाड़ता और उन पर तमाम तरह के प्रयोग करता था और यही वजह थी मुक्ति कोठी कालांतर में मौत की कोठरियों के नाम से जानी जाने लगी और डाक्टर मॉरिस मौत के डॉक्टर के नाम से कुख्यात हो गए.
क्या डॉक्टर मॉरिस वाक़ई विदेशी जासूस थे?
एक किस्सा और पता चला डॉक्टर डेथ यानि मॉरिस का कि उन्हें आज़ाद भारत की आर्मी ने गिरफ़्तार किया तकरीबन 1959 के आस पास. वजह थी वायरलेस से किसी दूसरे देश में सम्पर्क की. डॉक्टर का वह कम्युनिकेशन भारतीय सेनाओं के वायरलेस सिस्टम ने कैच कर लिया था. यह बात बताई पास के गांव के रहने वाले कल्याण सिंह ने. उनके मुताबिक एबी बंगले वाले हॉस्पिटल में लगे देवदार के वृक्ष में एंटीना लगाकर मॉरिस कहीं बात कर रहे थे तभी आर्मी के वायरलेस सिस्टम ने वह सिग्नल पकड़ लिया. (Abbot Mount Haunted Remains of Raj)
लेकिन कल्याण सिंह को यह नही पता कि आर्मी ने उन्हें पकड़ने के बाद क्या किया – वह छोड़ दिए गए या बच निकले यह रहस्य ही है. आज एबट माउंट और एबी हॉस्पिटल और यहां की मुक्ति कोठी और भुतहा चर्च को जो ख्याति दुनिया में मिली उसका पूरा श्रेय डाक्टर मॉरिस को जाता है. वह एक वैज्ञानिक, डाक्टर, जासूस या फिर मौत के प्रिडेक्टर में से असल क्या था ये शोध का विषय है.
कुल मिलाकर एबट माउंट में हिंदुस्तानी व योरोपियन फूलों वाली झाड़ियों से घिरी अंग्रेजी कोठियों में वक़्त गुजारना मन को रूहानी अहसास कराता है, कुमाऊं की यह चोटी बेहद खूबसूरत, और प्रवास के लिए एक बेहतरीन हिल स्टेशन है आप चाहें तो टनकपुर के रास्ते से यहां पहुंच सकते हैं या फिर काठगोदाम के – दोनों राहों की खूबसूरती जुदा-जुदा है.
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लखीमपुर खीरी के मैनहन गांव के निवासी कृष्ण कुमार मिश्र लेखक, फोटोग्राफर और पर्यावरणविद हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहने वाले कृष्ण कुमार दुधवालाइव पत्रिका के संपादक भी हैं. लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए पुरस्कृत होते रहे हैं.
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1 Comments
विकास नैनवाल
रोचक वृत्तांत। अब तो पढ़कर डॉक्टर मोरिस की इस कोठी में जाने का मन होने लगा है।