समाज

अल्मोड़े के आनसिंह जिन्होंने संस्कृत में कर्मकाण्ड की शुद्ध पुस्तकें छपवाकर उत्तराखंड के दुर्गम स्थानों तक पहुंचाई

‘आज इना तक सरकूँगा, कल भिन्हार तक, परसों सिलोर महादेव. अगले दिन भवड़ा, फिर रानीखेत. आठवें दिन अल्मोड़ा पहुँच पाऊँगा.’ कच्छप-गति से सरकने वाले उस विचित्र व्यक्ति ने बताया, आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व.
(Aansingh Hirasingh Dharanaula Almora)

सत्तर-पचहत्तर साल का एक वृद्ध. ऊँचाई लगभग पाँच फीट, रंग गेहुँआ, आँखें छोटी, तिकोनी, चेहरा चपटा, शक्ल से सीमान्तवासी. खिचड़ी बालों को ढाँकती पैबन्दों से अटीपटी टोपी. आजानु लम्बा कोट, जिस पर पैबन्दों का ‘कोलाज’ बना था. पहाड़ी पायजामा, वह भी परत-दर-परत पैबंदों से मोटी बनी हुई. पैरों में पुराने सोमनाथी जूते. दाँये कन्धे पर एक भारी झोला, बाँये कन्धे में दूसरा. दोनों ही पुस्तकों से भरे. कोट की जेबों में भी हनुमान चालीसा, शिव चालीसा, रामरक्षास्त्रोत्र आदि छोटी-छोटी ढेर सारी पुस्तकें. जैतखोले (वल्ला नया) से अल्मोड़ा, अल्मोड़े से जैतखोला.

पहाड़ी पगडण्डी पर उतार-चढाव, उतरते-चढ़ते, घर-घर पुस्तकें सुलभ कराता वह अति सामान्य सा दीखने वाला अति असाधारण व्यक्ति था स्व० आनसिंह, जिसने अपनी नगण्य सी शिक्षा-दीक्षा के बावजूद भी संस्कृत में कर्मकाण्ड की शुद्ध पुस्तकें छपवाकर दुर्गम स्थानों पर पहुंचाई. यह सोच कर आश्चर्य होता है कि काशी, मथुरा, गोरखपुर और वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से संबंध साध कर कैसे इस व्यक्ति ने पुस्तक प्रकाशन का कार्य संभाला और निभाया? किसी से कोई आर्थिक सहायता न लेकर भी अपने बलबूते पर धारानौले में पुस्तक भंडार बनाया और फिर पैदल ही पश्चिमी अल्मोड़े के हर भाग में उनको पहुँचाया.

आनसिंह जी का संसार बिल्कुल अकृत्रिम था और पुस्तकें बेचने का तरीका बिल्कुल देहाती. उनके पैतृक निवास जैतखोले में पुस्तकें बोरों में बंद रहती थीं. उनकी अनुपस्थिति में भी यदि कोई पुस्तकार्थी घर पर पहुँच जाता तो उनकी धर्मपत्नी चाख में बोरों को उलट देती थी, आप छाँट ले अपनी मनपसंद पुस्तकें और दे दें उसमें छपे पैसे. मासी के सोमनाथ, केदार की कार्तिकी पूर्णिमा, नौला के दशहरे, भिकियासैंण की शिवरात्रि मेलों में किसी कोने में चादर पर पुस्तकें फैलाए, जमीन में बैठे वे मिल जाते थे. उनके स्टाल पर आपको सबसे सस्ता, साहित्य उचित मूल्य पर मिल जाता. कुमाँउनी और गढ़वाली गीतों की हर पुस्तक उनके पास होती थी. देहाती पुस्तक भंडार और गीताप्रेस की एक पैसे, आधे पैसे की पुस्तकें भी आपको मिल जाती. गौर्दा और शिवदत्त जी की कृतियाँ वहीं सबसे पहिले देखने को मिलती थीं. रामदत्त ज्योतिर्विद का पंचांग वही लाते थे और सुना देते थे नये साल का वर्ष-फल.
(Aansingh Hirasingh Dharanaula Almora)

रेखांकन : यशोधर मठपाल

आनसिंह जी के ज्ञानयज्ञ का महत्व हमारी बालबुद्धि तब क्या समझती, किन्तु उन्हें आता देख कर मन अवश्य प्रसन्न हो जाता था क्योंकि वे एक बच्चे को भी निराश नहीं करते थे. कहीं पर भी आप उन्हें रुका कर पुस्तकें खरीद सकते थे. पुस्तक खरीदने के साथ ही वे उसका माहात्म्य और विशेषता भी समझा देते थे. नयी छपी पुस्तकों को बेचना भी वे बखूबी जानते थे. पुरानी पुस्तकों के नये संस्करणों में क्या बातें नयी हैं इसका भी खुलासा कर देते थे. पुस्तकों से अधिक उनका नम्र व्यवहार और धीमी वाणी शायद लोगों को प्रिय थी तभी लोग अनचाहे भी पुस्तकें खरीद लेते थे. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने हमारे घर आकर पिता जी को पुस्तक दिखाई और वह न खरीदी गयी हो.

उन्हें कभी भी किसी ने क्रोध में जोर से बोलते नहीं सुना था. जिन दिनों वे अपने गाँव में होते, शाम को एक चक्कर नौला की दूकानों का अवश्य लगा लेते थे, पूस्तकों के साथ उनकी जेबों में कई दर्जन छोटी-मोटी पुस्तकें सुख से रह सकती थी. मेलों में भी वे खुले आकाश के नीचे पुस्तकें बेचते थे. खाली समय का सदुपयोग वे पुस्तकें पढ़ कर या सिलाई में करते थे. उनके पास मोटी सफेद डोरी और एक बड़ी सुई हमेशा रहती थी. न मालूम कब झोलों के फीते टूट जाएँ, कब कहाँ नया पैबन्द लगाने की आवश्यकता आ पड़े?

आनसिंह जी ने अपने बड़े पुत्र को भी पुस्तक प्रकाशन-विक्रय के कार्य में लगाया और आनसिंह हरिसिंह बुकसेलर के नाम से अपनी फर्म भी बनाई. विधाता का क्रूर मजाक. हरिसिंह ठीक युवावस्था में स्वर्ग सिधार गये, अपने छोटे बच्चों, पत्नी और माता-पिता को शोक -समुद्र में बिलखता छोड़ कर. पुत्र की मृत्यु ने आनसिंह को बुरी तरह तोड़ दिया किन्तु उनका ज्ञानयज्ञ फिर भी न रुका, अंतिम क्षण तक. उन्होंने अपने दूसरे सुपुत्र को इस कार्य में लगाया. अल्मोड़े के लाला बाजार के अंतिम छोर के पास एक छोटी-सी पुस्तकों की दुकान है, जिसको आज भी उनका सुपुत्र चला रहा है.
(Aansingh Hirasingh Dharanaula Almora)

उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में एक निर्धन परिवार में जन्मे और आजीवन विपन्नता में ही संतोषपूर्वक रहते उन्होंने पुस्तकों को ही अपने सुख-दुःख का साथी चुना था. कभी असंतोष, परनिन्दा और आपबीती दर्शाने-सुनाने में उन्होंने अपना समय नहीं गँवाया. पाली पछाऊँ के पुराने घरों के किसी कोने में विशेषतः पूजा वाले कमरे के किसी काले आले में जीर्ण-शीर्ण वस्त्र में लपेटी कर्मकाण्ड की पुस्तक को आप खोलेंगे तो आपकी दृष्टि प्रथम पृष्ठ के नीचे जाएगी, जहाँ छपा होगा- प्रकाशक – आनसिंह – हरिसिंह बुकसेलर, धारानौला, अल्मोड़ा.

यशोधर मठपाल

यशोधर मठपाल का यह लेख पहाड़ पत्रिका के 1994-95 संस्करण से साभार लिया गया है.

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