सुबह नाश्ते के बाद अगले पड़ाव के लिए सभी ने अपने रकसैक कंधों पर डाल लिए. दिन के खाने के लिए उबले हुए चटपटे चनों के साथ दो अंडे मिल गए. गांव की पगडंडियों के पार आगे रास्ता हमें धीरे-धीरे ऊंचाई को ले जा रहा था. घने झुरमुटों के बीच पतली सी पगडंडी में शांत होकर चलना एक अलग आनंद और सुकून दे रहा था. करीब डेढ़ घंटे बाद हम सब ‘तोलपानी’ नामक जगह पर थे. यह जगह काफी खूबसूरत है. खुले मैदान में रास्ते से नीचे बने झोपड़ीनुमा छानों के चारों ओर घास-पत्तियां हवा से लहलहाते हुए जैसे आपस में बतिया रहीं थीं. प्रदीप ने निर्देश दिया कि सभी अपनी बोतलें भर लें, आगे पानी कहीं नहीं मिलेगा.
(Ali Bugyal Himalaya Chamoli)
कुछ छानियों के बाहर गाय-भैंसे बंधी दिखीं, जो दिदीना गांव वालों की ही थी. हिमालयी क्षेत्रों में पशुपालक अपने जानवरों के साथ छः माह ऊपर बुग्याल-छानों में रहते हैं. वहां उनके जानवरों को पौष्टिक चारा मिल जाता है और बदले में वे भी अच्छा दूध देते हैं. निचले इलाक़ों की भागदौड़ भरी जिंदगी पशुपालकों को नहीं रुचती. वे हिमालय की शांत गोद में रमे रहने वाले हुए. तोलपानी से आगे सर्पिल सा रास्ता मीठी चढ़ाई लिए हुए है. ग्रुप में पंकज आगे-पीछे ऐसे दौड़ लगाने में था जैसे अणवाल अपनी भेड़-बकरियों की गिनती कर रहा हो, पूरे हैं कि नहीं!
आगे एक हराभरा मैदान दिखा तो रकसैक फैंक सभी पसर गए. कुछ को अपने पेट में चूहों के कूदने की आवाजें आनी महसूस हुईं तो उन्होंने चटपट खाना निकालकर गले से नीचे धकेला और बाकी काम पेट को सौंप दिया. पंकज मनुहार करते रह गया कि अभी बहुत चलना है, आगे एक बढ़िया सी जगह में रुकेंगे, जहां से नीचे गांव दिखाई देता है. आखिरकार सभी ने उसकी बात मान ली. किलोमीटर भर चलने के बाद वास्तव में बहुत ही खूबसूरत जगह मिली.
सभी के मोबाइल चमकने लगे तो भंडारीजी ने भी अपना ‘थोर’ वाला हथियार निकाल लिया. आधा घंटा कब बीता पता ही नहीं चला. पंकज ने एक बार फिर आगे मखमली घास के मैदान का लालच दिया तो सभी मुस्कुराते हुए उठ खड़े हुए. रास्ते में तिरछे उगे हुए पेड़ जैसे बेंच बनकर लुभा रहे थे. दीपिका से रहा नहीं गया और बच्चों की तरह दौड़ते हुए वह पेड़ में जा बैठी. दीपिका जियोलॉजिस्ट हैं और पूरे रास्ते भर वह चट्टान-पत्थरों से बतियाती रहती थी. पंकज बमुश्किल उन्हें वास्तविक दुनिया में ला पाता था.
(Ali Bugyal Himalaya Chamoli)
रिटायर्ड फौजी उर्फ मास्टर परिहारजी अपनी उम्र को पीछे धकेलते हुए आगे आली बुग्याल की मखमली घास पर मीठी चढ़ाई नापते दिखाई दिए तो मैं भी उस ओर लपक लिया. मखमली घास में चलना बेहद पुरसुकुन लग रहा था. लगभग तीन किलोमीटर लंबा आली बुग्याल घोड़े की पीठ की तरह है. दूर तक फैला अंतहीन बुग्याल खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. हमारा झुंड इस बुग्याल में बिखर सा गया था. अपने साथियों के साथ एसडीआरएफ वाले जोशीजी हिमालयी घुरड़ की तरह दूर एक बिंदु की तरह टिमटिमाते नजर आ रहे थे. पीछे की ओर रंग-बिरंगी छोटी-छोटी मानव आकृतियां हिलते-डुलते हुए नजदीक आती महसूस हो रही थीं. लगभग साढ़े बारह हजार फीट की उंचाई पर यह आली बुग्याल का मखमली रेगिस्तान है.
प्रदीप अपनी टीम के साथ आगे निकल गया और अविनखरक पहुंचकर टैंट लगाने व दूसरी तैयारियों में जुट गया. लगभग 12200 फीट पर अविनखरक में आज का पड़ाव था. दोपहर तीन बजे हम वहां पहुंचे तो देखा जैसे यहां टेंटों का गांव बसा हुआ है. हर चीज व्यवस्थित थी. बकायदा नीचे की ओर दो टेंट टॉयलट लगाए गए थे. पानी का स्रोत आधा किलोमीटर आगे था. प्रदीप के साथी रात के भोजन और अन्य ज़रूरतों के लिए गेलनों में पानी लाते दिखाई दिए. मैं और डॉक्टर मनीष पंत एक टेंट में घुसकर अपना सामान व्यवस्थित करने में जुट गए. बाकी साथी भी अपना-अपना पार्टनर चुनकर टेंटों में सैटल हो गए.
(Ali Bugyal Himalaya Chamoli)
चाय के एक बड़े बर्तन के साथ पापड़-नमकीन एक जगह पर सज चुके तो प्रदीप ने सभी को बाहर बुलाया. कुछ साथी अलसाये हुए ऐसे बाहर निकले जैसे तीखी ठंड में कोई उनसे उनकी टोपी-जैकेट मांग रहा हो, प्राण मांग लेते तो वे कभी मना नहीं करते. चाय-चाय की आवाज पर मजबूर हो वे अपने टेंट के घोंसलों से बाहर निकले. चाय की चुस्कियों के बाद प्रदीप ने सभी को एक जगह पर इक्कट्ठा किया. जमीन में बिछे दो मेट्रसों में पंकज एक स्लीपिंग बैग के सांथ घुटने के बल बैठा था. प्रदीप ने बताया कि अब आज से तीन रातें टेंट में ही गुजारनी हैं इसलिए टेंट, स्लीपिंग बैग सेट करने के साथ-साथ पथारोहण के नियमों का सख्ती से पालन करना होगा. स्लीपिंग बैग को खोलने, उसके अंदर समाने के अलावा उसे फिर से सही ढंग से पैककर वापस बैग में रखने का डैमो पंकज ने एक मदारी की तरह किया. डेमोस्ट्रेशन के बाद प्रदीप ने ऊपर की ओर इशारा कर सभी को इवनिंग वॉक का निमंत्रण दिया तो पंकज तुरंत अणवाल की भूमिका में आ गया.
‘अजीब ट्रेकिंग है यह…’ मन ही मन अपने शरीर को गरियाते हुए सभी पंकज के पीछे चल पड़े. चढ़ाई पर एक झोपड़ी की परिक्रमा कर वापस आना था. वहां पर एक भारी-भरकम पत्थर था. पंकज के मुताबिक इसे अकेले कोई नहीं उठा पाता है. पांचे या आठे लोग एक हाथ से ही इसे उठा पाते हैं. इस पर सभी ने अपनी उम्र को जान-समझ धीरे से चुपचाप अपना सिर हिला पंकज की बात पर सहमति जता दी. लेकिन कुछ ने पंकज की बात को मानने से इंकार कर दिया. सबसे पहले साढ़े छह फीट लंबा करारी मूंछों वाला साउथ इंडियन पिक्चरों जैसा खुर्राट लेकिन नरमदिल करेक्टर ‘मिनेष’ आगे आया और कुछ ही पलों में उसने पत्थर को अपने कंधों तक उठा लिया.
(Ali Bugyal Himalaya Chamoli)
मिनेष को देख डॉ. मनीष से रहा नहीं गया और ये देख-वो देख कहते हुए उन्होंने भी उसे उठा ही लिया. युवा जैक भी उठाने को आतुर दिखा तो हमने उसे उसकी पीठ दर्द की याद दिलाई, मगर वह माना नहीं और उसने पत्थर को धरती के संपर्क से थोड़ा सा मुक्त कर नीचे रख दिया. एक पल के लिए ऐसा लगा कि जैसे पत्थर न नहीं शिव का धनुष है, जिसे स्वयंवर की खातिर सभी तोड़ने चले आए हैं. देवतुल्य पत्थर को इतनी आसानी से उठा लिए जाने पर पंकज अनमना सा हो गया. उसने वापस चलने की हांक लगानी शुरू कर दी.
सूर्यास्त में वक्त था तो वापसी में हम तीन जनों ने बाईं ओर पानी के स्रोत का रुख किया. वहां कुछ छानियां बनी थीं. घास-फूस की झोपड़ी को हिमालयी क्षेत्र में छानी कहते हैं. दो काले हिमालयी कुत्ते रखवाली के लिए दरवाजे के बाहर बंधे हुए थे. हमें देख वो कुछ देर भौंके फिर चुप हो गए. उनके मालिक अपनी भेड़ों को चराने ऊपर बुग्यालों की ओर गए थे. स्रोत के बर्फीले पानी से कुछ छींटे चेहरे पर मारकर हमने उसे ही स्नान तुल्य मान लिया और वापस पड़ाव की ओर निकल गए. वहां गर्मागर्म सूप हमारा इंतजार कर रहा था. रात के भोजन में पहाड़ी करेले की सब्जी के साथ दाल-रोटी मिली. ठंड बड़ने लगी तो सभी जल्दी ही अपने स्लीपिंग बैगों में समा गए.
(Ali Bugyal Himalaya Chamoli)
(जारी)
केशव भट्ट
पिछली कड़ी : रूपकुंड यात्रा के शुरुआती दिन
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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