सदियों से समाज की विडंबना चली आ रही है कि एक तरफ समाज नारी शक्ति की पूजा करता होता है ठीक उसी समय नारी पर अत्याचार की सारी सीमाएं तोड़ देता है. एक तरफ माँ दुर्गा से शक्ति का वरदान मांगता है तो वहीं दूसरी तरफ अपनी पौरुष शक्ति का दुरुपयोग करते हुए औरत को कमज़ोर समझ कर उसपर ज़ुल्म करता है. हालांकि रानी लक्ष्मी बाई, रज़िया सुल्ताना, अरुणा आसिफ अली, किरण बेदी और प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जैसी हज़ारों नारियों ने यह बता दिया है कि वह सिर्फ घर की चाहरदीवारी में क़ैद महज़ वंश बढ़ाने तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमे भी पुरुषों के बराबर हौसला है. बल्कि वह अगर ममतामयी है तो काली भी नारी का ही स्वरुप है.
समाज में ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जहां हमें नारी की हिम्मत और सहनशक्ति पढ़ने को मिलती रहती है. यह मिसाल उस वक़्त और भी प्रासंगिक हो जाता है जब एक अनपढ़ महिला हालात से संघर्ष करते हुए समाज में खुद का स्थान बनाती है. ऐसी ही संघर्ष की एक मिसाल है बिहार के रोहतास ज़िले के अकबरपुर गाँव की रहने वाली नसीमा. जिसने कम उम्र में ही शादी और फिर विधवा होने का न सिर्फ दंश झेला बल्कि समाज के दकियानूसी विचारों को पीछे छोड़ते हुए अपनी बेटियों को शिक्षित भी किया है. नसीमा का संघर्ष उन सभी औरतों के लिए मिसाल है, जिन्होंने जीवन में हार मान ली है.
सात भाइयों की एकलौती बहन नसीमा का परिवार गरीबी की ज़िंदगी गुज़ार रहा था. अशिक्षित होने के कारण उसके माँ बाप पुराने रीति रिवाजों से जकड़े हुए थे. 12 वर्ष की उम्र में ही उसकी शादी दुगुने उम्र के व्यक्ति से कर दी गई. मासुमियत और बचपना होने की वजह से नन्हीं नसीमा को अपने साथ होने वाली घटना (शादी) का कोई अंदाज़ा नहीं था. नसीमा बताती है कि ‘जब मैं दुल्हन बनी थी तो बहुत खुश थी क्योंकि मुझे शादी का अर्थ पता नहीं था, सिर्फ इतना जानती थी कि मुझे बहुत सारे नए कपड़े और ज़ेवर पहनने को मिल रहे हैं. लेकिन जब ससुराल पहुंची और कमरे में अधेड़ उम्र के एक बेहद सांवले व्यक्ति को देखा तो बहुत डर गई. कच्ची उम्र होने के कारण मुझे पति पत्नी के संबंधों के बारे में कुछ भी पता नहीं था. इसीलिए अपने पति से डरती थी.’
शादी के कुछ महीनों के अंदर नसीमा गर्भवती हो गई. प्रसव के लिए मायेका आई तो वापस ससुराल जाने से मना कर दिया. कुछ महीने बाद उसने एक बेटी को जन्म दिया. हालांकि नसीमा एक बार फिर से ससुराल के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार ही कर रही थी कि एक रेल हादसे में उसके पति की मौत हो गई. जब नसीमा 18 वर्ष की हुई तो परिवारवालों ने उसकी दूसरी शादी झारखंड के पलामू के रहने वाले मो. अब्दुल से करवा दिया. जो सिलाई-कढ़ाई का काम करके परिवार का भरण पोषण करते थे. उम्र के साथ नसीमा भी समझदार हो चुकी थी. अब वह नए ससुराल में अपने पति और बेटी के साथ अच्छा जीवन गुज़ार रही थी. इस बीच उसने एक के बाद दो और बेटियों को जन्म दिया. लेकिन नसीमा की किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था. अचानक उसके पति की तबियत बिगड़ने लगी और वह काम करने में पूरी तरह से असमर्थ हो चुका था. परिवार के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी अब नसीमा के कंधों पर आ गई थी. इस बीच बेटे की चाह में उसे चौथी बेटी भी हो गई. इधर पति की तबियत बिगड़ती गई और कुछ ही सालों में वह एक बार फिर से विधवा हो चुकी थी.
नसीमा अब अपनी बेटियों को लेकर वापस माँ बाप के घर आ चुकी थी. लेकिन किस्मत का क्रूर मज़ाक उसके साथ जारी रहा. एक एक करके उसके सर से माँ बाप का साया उठता गया. लेकिन उसने हार नहीं मानी. चार बेटियों के भरण पोषण के लिए उसने कपड़े सिलने का काम शुरू कर दिया. नसीमा बताती हैं कि दो बार विधवा होने, माँ बाप के गुजरने और चार बेटियों की ज़िम्मेदारियों ने मुझे मानसिक रूप से तोड़ दिया था. फिर मैंने खुद को तैयार किया और अपनी बेटियों का भविष्य बनाने की ठान ली. अनपढ़ होने के बावजूद उसे शिक्षा का महत्त्व मालूम था. इसलिए उसने हर हाल में बेटियों को पढ़ाने का निश्चय किया. इधर आठ भाइयों की शादी के बाद मायका में उसके भाइयों के दिलों और घर में जगह कम पड़ने लगी. वह अपने एक रिश्तेदार के घर के बाहर झोपड़ी बना कर रहने लगी. लोगों के कपड़े सिलकर किसी तरह अपना और बेटियों का गुज़ारा करने लगी.
नसीमा की ज़िंदगी में उस वक़्त खुशियां आईं जब गांव की एक समाजसेविका और स्थानीय शिक्षिका ज़रीना खातून की मदद से उसे सरकारी स्कूल में खाना बनाने का काम मिल गया. इसके अतिरिक्त बच्चों की पढ़ाई और ड्रेस का भी उन्होंने प्रबंध करा दिया. इससे न केवल उसके घर की आमदनी बढ़ गई बल्कि बेटियों की शिक्षा का भी प्रबंध हो गया. आज नसीमा की बेटियां बड़ी हो गईं हैं. उनकी अच्छी शिक्षा और परवरिश से उनके लिए अच्छे रिश्ते आने लगे हैं. बेटियों को अपनी माँ पर गर्व है. जिसने उन्हें कभी पिता की कमी महसूस नहीं होने दी. नसीमा बताती है कि शिक्षा की कमी के कारण मुझे जीवन में अनेकों कठिनाइयों का सामना करनी पड़ी थी. इसलिए मैंने अपनी बेटियों को पहले शिक्षादान फिर कन्यादान करने की ठान ली थी. मेरे इस संकल्प को पूरा करने में ज़रीना मैडम का भरपूर साथ मिला जिन्होंने मुझमें हौसला भर दिया था.
बहरहाल, समाज में एक औरत के लिए अकेले ज़िंदगी गुज़ारना बहुत मुश्किल होता है. उसे कदम कदम शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है. लेकिन नसीमा ने न केवल ऐसी सभी परिस्थतियों का डटकर मुकाबला किया बल्कि अपनी बेटियों को भी आत्मसम्मान के साथ जीने की प्रेरणा दी. किसी भी परिस्थिती से डटकर मुकाबला करने वाली नसीमा आज अपने गांव की महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बन चुकी है. अनपढ़ होने के बावजूद नसीमा ने समाज की कई दकियानूसी विचारों और बेड़ियों को तोड़ कर यह साबित कर दिया है कि मुश्किलों से लड़कर ही ज़िंदगी में आगे बढ़ा जा सकता है.
सासाराम, बिहार में रहने वाली सदफ ज़रीन का का यह लेख हमें चरखा फीचर्स से प्राप्त हुआ है.
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